भूमिका
एरण स्तम्भलेख मध्यप्रदेश के सागर जनपद के एरण नामक ग्राम से मिला है। एरण गाँव से आध मील दूर प्राचीन मंदिरों का एक समूह से मिला है उसके निकट ही लाल पत्थर का एक ऊँचा स्तम्भ खड़ा है, उसी के निचले चौकोर भाग पर यह लेख अंकित है। इसे १८३८ ई० में कप्तान टी० एस० बर्ट ने ढूँढ निकाला था उसी वर्ष जेम्स प्रिंसेप ने अंगरेजी अनुवाद के साथ इसका पाठ प्रकाशित किया। फिर १८६१ ई० में फिट्ज एडवर्ड हाल ने अनुवाद सहित अपना नया पाठ प्रस्तुत किया। १८८० ई० में कनिंघम महोदय ने इसे प्रकाशित किया। तत्पश्चात् जे० एफ० फ्लीट ने इसे सम्पादित कर प्रकाशित किया।
संक्षिप्त परिचय
नाम :- एरण स्तम्भलेख [ Eran Pillar Inscription ]; बुधगुप्त का एरण स्तम्भलेख [ Eran Rock Pillar Inscription of Budhgupta ]
स्थान :- एरण, सागर जनपद; मध्य प्रदेश
भाषा :- संस्कृत
लिपि :- उत्तर ब्राह्मी
समय :- गुप्त सम्वत् १६५ ( ४८४ ई० ); बुधगुप्त का शासनकाल
विषय :- यह अभिलेख मातृविष्णु और धन्यविष्णु नामक दो भाइयों द्वारा गरुड़-ध्वज स्थापित करने की उद्घोषणा है।
मूलपाठ
१. जयति विभुश्चतुर्भुजश्चतुरर्ण्णव-विपुल-सलिल-पर्य्यङ्कः [।]
जगतः स्थित्युत्पत्ति-न्य[यक]
२. हेतुर्गरुड-केतुः [॥ १]
शते पञ्चषष्ट्यधिके वर्षाणां भूपतौ च बुधगुप्ते
आषाढ़-मास-[शुक्ल]-
३. [द्वा]दश्यां सुरगुरोर्द्दिवसे [॥२]
सं १०० (+) ६० (+) ५ [॥]
कालिन्दी-नर्म्मदयोर्म्मध्यं पालयति लोकपाल-गुणै [।]
जंगति महा[राज]-
४. श्रियमनुभवति सुरश्मिचन्द्रे च [॥३]
अस्यां संवत्सर-मास-दिवस-पूर्व्वयां स्वकर्म्माभिरतस्य क्रतु-याजि[नः]
५ . अधीत-स्वाध्यायस्य विप्रर्षेर्मेत्तायणीय-वृषभस्येन्द्रविष्णोः प्रपौत्रेण पितुर्गुणानुकारिणो
वरुण[विष्णोः]
६. पौत्रेण पितरमनुजातस्य स्व-वंश-वृद्धि-हेतोर्हरिविष्णोः पुत्रेणात्यन्तभगवद्भक्तेन
विधातुरिच्छ्या स्वयंवग्येव [ रा ]ज-
७. लक्ष्म्याधिगतेन चतुःसमुद्र-पर्य्यन्त-प्रथित-यशसा-अक्षीण-मानधनेनानेक-शत्रु-समर-
जिष्णुना महाराज – मातृविष्णुना
८. तस्यैवानुजेन तदनुविधायिन[।] तत्प्रसाद-परिगृ[ही]तेन धन्यविष्णुना च । मातृपित्रोः
पुण्याप्यायनार्थमेष भगवतः
९. पुण्यजनार्द्दनस्य जनार्द्दनस्य ध्वजस्तम्भो(S)भ्युच्छितः[॥]
स्वस्त्यस्तु गो-ब्राह्मण- [पु]रोगाभ्यः सर्व्व प्रजाभ्य इति।
हिन्दी अनुवाद
चतुर्भुज, चतुर्ण्णव, विपुल-सलिल-पर्यक वाले (चारों समुद्र के जल की शैय्यावाले) संसार की स्थिति, उत्पन्न और विनाश आदि के कारण, गरुड़-केतु (ध्वज) [वाले की] जय हो।
वर्ष १६५ में, जिस समय बुधगुप्त भूपति (राजा) हैं, आषाढ़ मास, शुक्ल पक्ष की द्वादशी, गुरुवार [के दिन] जब लोकपाल (दिशाओं के स्वामी) की भाँति श्री सुरश्मिचन्द का, जो जगत में महाराज [कहलाने] के श्रेय का अनुभव करते हैं, शासन है
इस पूर्वकथित संवत्सर, मास और दिवस को स्वकर्मरत, क्रतु-याजी (यज्ञ करनेवाले), अधीत, [शास्त्रों का] स्वाध्याय [करनेवाले]विप्रर्षि, मैत्रायणीय शाखावाले, वृषभ (श्रेष्ठ) इन्द्रविष्णु के प्रपौत्र; पिता के गुणों का अनुसरण करने वाले (पिता के समान ही गुणवाले) वरुणविष्णु के पौत्र; पितर-मनुष्य-जात (गुणों में पिता के प्रतिरूप), वंश-वृद्धि के हेतु, हरिविष्णु के पुत्र, भगवान् के परम भक्त, जिसे विधाता की इच्छा के अनुसार लक्ष्मी ने स्वयं वरण किया था, चारों समुद्रपर्यन्त फैले यशवाले, ‘अक्षीण मान और धनवाले, युद्ध में अनेक शत्रुओं को जीतनेवाले महाराज मातृविष्णु और उनके आज्ञाकारी एवं अनुग्रहपूर्वक परिगृहीत अनुज (छोटे भाई) धन्यविष्णु ने, अपने माता-पिता के पुण्य-वृद्धि के निमित्त, पुण्यजन (दानव) के त्रासक भगवान् जनार्दन का यह ध्वज स्तम्भ स्थापित किया।
गो, ब्राह्मण, पुरोग एवं सभी प्रजा का कल्याण हो।
टिप्पणी
एरण स्तम्भलेख मातृविष्णु और धन्यविष्णु नामक दो भाइयों द्वारा गरुड़-ध्वज (स्तम्भ जिस पर लेख अंकित है) स्थापित करने की उद्घोषणा है। इसमें यद्यपि सामान्य बात ही कही गयी है, कई कारणों से इस लेख का महत्त्व इतिहास के निमित्त माना जाता है।
(१) एरण स्तम्भलेख में वर्ष और मास के उल्लेख के साथ पक्ष का ही नहीं, दिन का भी उल्लेख हुआ है सामान्य रूप से इस और इसके पूर्व काल के अभिलेखों में पक्ष का संकेत नहीं मिलता। मास के साथ केवल दिन की संख्या ही देखने में आती है। इससे अधिक महत्त्व की बात तो इसमें दिन का उल्लेख है जो इससे पूर्व सर्वथा अनजाना है। समझा जाता है कि भारतीयों ने दिन के रूप में गणना की पद्धति अलक्सान्द्रिया के यवन ज्योतिषियों से प्राप्त की है। वराहमिहिर (छठी शती ई०) के ज्योतिष-ग्रन्थों पर यवन-प्रभाव सर्वविदित है उनका पौलिश-सिद्धान्त अलक्सान्द्रिया के पाल (३७८ ई०) के सिद्धान्तों पर आधारित समझा जाता है। उनके दूसरे ग्रन्थ रोमक-सिद्धान्त का नाम ही बताता है कि वह रोमक (यवन-रोमन) सिद्धान्त पर आधारित है।
(२) लेख में शासक (भूपति) के रूप में बुधगुप्त और प्रशासक के रूप में सुरश्मिचन्द्र का उल्लेख है कदाचित् उनके अधीन कोई और प्रशासकीय पद था जिस पर इस स्तम्भ का प्रतिष्ठापक मातृविष्णु आसीन था इसमें हम सुरश्मिचन्द्र और मातृविष्णु दोनों को ही महाराज पद से भूषित पाते हैं।
(३) मातृविष्णु के पूर्वज, प्रपितामह, पितामह और पिता तीनों ही ब्राह्मण-कर्म-रत थे किन्तु स्वयं वह क्षत्रिय-कर्म में प्रविष्ट दिखायी पड़ता है। अभिलेख में उसका उल्लेख धन-सम्पन्न और वीर सैनिक के रूप में हुआ है। स्मृतियों में अपने वर्ण से निम्न वर्ण के कार्य का निषेध किया गया है और आपद्-धर्म में ही अपनाने की छूट दी गयी है। इस अभिलेख से स्पष्ट प्रतीत होता है कि उन दिनों भी स्मृतियों के आदेशों को सामान्य जन ही नहीं, ब्राह्मण भी विशेष महत्त्व नहीं देते थे। वह कोरा सिद्धान्तवाद था।
(४) मातृविष्णु के छोटे भाई धन्यविष्णु के नामोल्लेख के कारण ही इस अभिलेख का ऐतिहासिक महत्त्व है धन्यविष्णु ने मातृविष्णु के निधन के उपरान्त माता-पिता की पुण्यवृद्धि के लिए, उसी क्षेत्र में, जहाँ वर्तमान स्तम्भ है, एक वराह-मूर्ति की स्थापना की थी। उसी मूर्ति पर उसका लेख उत्कीर्ण है उस लेख में महाराज तोरमाण का उल्लेख है और लेख उसके शासन के प्रथम वर्ष का है। इन दोनों अभिलेखों को एक साथ देखने पर ज्ञात होता है कि बुधगुप्त के शासन काल के बाद ही हूणों ने मध्य भारत पर अधिकार किया होगा अतः प्रस्तुत लेख हूणों के भारत-प्रवेश काल के निर्धारण में सहायक सिद्ध हुआ है।