भूमिका
नहपानकालीन उषावदत्त का कार्ले अभिलेख महाराष्ट्र के पुणे जनपद से प्राप्त होता है। पुणे जिले में कार्ले नामक स्थान में जो चैत्य है उसके मध्यद्वार के दाहिनी ओर ऊपरी भाग पर इस अभिलेख का अंकन हुआ है। यह ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में है।
संक्षिप्त परिचय
नाम :- नहपानकालीन उषावदत्त का कार्ले अभिलेख ( Karle or Karla Inscription of Ushavdatta )
स्थान :- कार्ले, पुणे जनपद, महाराष्ट्र
भाषा :- प्राकृत
लिपि :- ब्राह्मी
समय :- द्वितीय शताब्दी का पूर्वार्ध ( ≈ ११९ से १२४ ई० )
विषय :- उषावदत्त द्वारा ब्रह्मणों, बौद्धों को दान, कन्याओं का विवाह कराना इत्यादि।
मूलपाठ
१. सिधं [ ॥ ] रजो खहरातस खतपस नहपानस जा [ म ] तरा [ दीनीक ] पूतेन उसभदातेन ति-
२. गो सतसहस [ दे ] ण नदिया बणासाया [ सु ] वण [ ति ] थकरेन [ देवतान ] ब्रह्मणन च सोलस गा-
३. म-दे [ न ] पभासे पूत-तिथे ब्रह्मणाण अठ-भाया-प [ देन ] [ अ ] अनुवासं पितु सत सहसं [ भो ] –
४. जपयित वलूरकेसु लेण-वासिनं पवजितानं चातुदिसस सघस
५. यापगथ गामो [ कर ] जिको दतो स [ वा ] न [ वा ] स-वासितानं ( ? ) [ ॥ ]
हिन्दी अनुवाद
सिद्धम्॥ तीस हजार गाय [ दान ] देनेवाले, वर्णाशा नदी पर सुवर्ण तीर्थ स्थापित करनेवाले, [ देवताओं ] और ब्राह्मणों को सोलह ग्राम देनेवाले, पुण्य तीर्थ प्रभास में ब्राह्मणों को आठ भार्या ( पत्नी ) प्रदान करनेवाले, पिता के निमित्त प्रति वर्ष दस हजार [ व्यक्तियों-ब्राह्मणों ] को भोजन कराने वाले, राजा क्षहरात क्षत्रप नहपान के जामाता [ दीनीक ] -पुत्र उषवदात ( ऋषभदत्त ) द्वारा वलूरक लयण ( गुहा ) निवासी चातुर्देशिक प्रव्रजितों ( भिक्षुओं ) के वर्षावास के समय यापन के लिए करजिक ग्राम दिया गया। सर्व वास वासियों के लिए ( ? )
महत्त्व
इस अभिलेख में नहपान के जामाता ऋषभदत्त द्वारा बलरक लयण ( संभवत: कार्ले स्थित गुहा जिस पर यह लेख अंकित है ) चारों दिशाओं के भिक्षुओं के वर्षावास के समय यापन ( भोजन ) आदि की व्यवस्था के लिए करजिक ग्राम के दान दिये जाने का उल्लेख है। कहना न होगा कि वर्षा के दिनों में भिक्षु भिक्षाटन न कर एक स्थान पर निवास करते थे। उसी को ध्यान में रखकर यह व्यवस्था की गयी जान पड़ती है। करजिक का तात्पर्य कदाचित कर्जत ( Karjat ) से है जो उल्हास नदी तट पर रायगढ़ जनपद में है। वहाँ से कार्ले बहुत दूर भी नहीं है।
इस अभिलेख का महत्त्व दान के विवरण की अपेक्षा ऋषभदत्त ( उषवदात ) की प्रशस्ति में है। इससे ज्ञात होता है कि जहाँ वह बौद्ध भिक्षुओं के प्रति आकृष्ट था वहीं वह ब्राह्मण धर्म के भी निकट था। उसने तीस हजार गायें दान की थीं; ब्राह्मणों को सोलह ग्राम दिये थे और आठ ब्राह्मणों के विवाह कराये थे ( निर्धन ब्राह्मण लड़कियों का विवाह कराना पुण्य कार्य समझा जाता था )। प्रतिवर्ष वह पिता के निमित्त ( पितृपक्ष में ) दस हजार ब्राह्मणों को भोजन कराता था। साथ ही उसने वर्णाशा नदी के किनारे सुवर्ण नामक तीर्थ ( मन्दिर ?) स्थापित किया था। ये सारे कार्य ऐसे हैं जो ब्राह्मण-धर्मावलम्बी ही कर सकता है।