भूमिका
इंदौर ताम्र-लेख उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जनपद के अंतर्गत अनुपशहर तहसील के इंदौर ग्राम के एक नाले में पड़ा हुआ ए० सी० एल० कार्लाईल को १८७४ ई० में मिला था। लगभग ८ इंच लंबे और साढ़े पाँच इंच चौड़े ताम्र-फलक पर अंकित है। कनिंघम महोदय ने इसको प्रकाशित किया। तत्पश्चात् जे० एफ० फ्लीट महोदय ने इसको Corpus Inscriptionum Indicarum में प्रकाशित किया।
संक्षिप्त विवरण
नाम :- स्कंदगुप्त का इंदौर ताम्र-लेख [ Indore Copper Plate Inscription of Skandgupta ]
स्थान :- इंदौर ग्राम, अनूपशहर तहसील, बुलंदशहर जनपद; उत्तर प्रदेश।
भाषा :- संस्कृत
लिपि :- ब्राह्मी ( उत्तर भारतीय / उत्तरी रूप )।
समय :- गुप्त सम्वत् १४६ ( ४६५ ई० ), स्कंदगुप्त का शासनकाल।
विषय :- सूर्य पूजा और सूर्य मंदिर में दीपक जलाये जाने के लिये धनदान का विवरण।
मूलपाठ
१. सिद्धम् [॥]
यं विप्रा विधिवत्प्रबुद्ध-मनसो ध्यानैकताना स्तुवः
यस्यान्तं त्रिदशासुरा न विविदुर्न्नोर्ध्वं न तिर्य-
२. ग्गति[म् ] [।]
यं लोको बहु-रोग-वेग-विवशः संश्रित्य चेतोलर्भः
पायाद्वः स जगत्पि[ढ़ा]न-पुट-भिद्रश्म्या-
३. करो भास्करः [II १]
परमभट्टारक-महाराजाधिराज-श्रीस्कन्दगुप्तस्याभिवर्द्धमान-विजय-राज्य-संव्वत्सरं
शते षच्चत्वा-
४. [रि]ङ् शदुत्तरतमे फाल्गुन-मासे तत्पाद-परिगृहीतस्य विषयपति शर्व्वेनागस्यान्तर्व्वद्यां भोगाभिवृद्धये वर्त्त-
५. माने चेन्द्रापुरक पद्मा-चातुर्व्विद्य-सामान्य-ब्राह्मण-देव-विष्णुर्द्देव-पुत्रो हरित्रात पौच्चः डुडक-प्रपौत्रः सतताग्निहो-
६. त्र-छन्दोगो राणायणीयो वर्षगण-सगोत्र इन्द्रापुरक-वणिग्भ्यां क्षत्रिया-चलवर्म-
भृकुण्ठसिङ्हाभ्यामधिष्ठा-
७. नस्य प्राच्यां दिशीन्द्रपुराधिष्ठान-माडास्यात-लग्नमेव प्रतिष्ठापितक-भगवते सवित्रे दीपोपयोज्यमात्म-यशो-
८. भिवृद्धये मूल्यं प्रयच्छतिः [॥] इन्द्रपुर-निवासिन्यास्तैलिक श्रेण्या जीवन्त-प्रवराया इतो(ऽ) धिष्ठानादपक्क्रम-
९. ण-संप्रवेश-यथास्थिरायाः आजस्रिकं ग्रहपतेर्द्विज-मूल्य-दत्तमनया तु श्रेण्या यदभग्नयोगम् १०. प्रत्थमार्हाव्य[व]च्छिन्न संस्थं देयं तैलस्य तुल्येन पलद्वयं तु २ चन्द्रार्क-समकालीयं [॥]
११. यो व्यक्क्रमेद्दायमिमं निबद्धम् गोघ्नो गुरुघ्नो द्विज-घातकः सः [।] तैः पातकैः
१२. पञ्चभिरन्वितो(S)धर्गच्छेन्नरः सोपनिपातकैश्चेति॥
हिन्दी अनुवाद
सिद्धि हो। जिनका ब्राह्मण विधिवत् प्रबुद्ध मन से एकाग्र होकर ध्यान करते हैं, जिनका अन्त न तो देवता और न असुर जान पाते हैं, जिन्हें बहुरोग-वेग-विवश लोक स्मरण कर लाभ प्राप्त करते हैं, वे जगत्पीठ रश्मि-आकर भास्कर (सूर्य) रक्षा करें।
परम-भट्टारक महाराजाधिराज श्री स्कन्दगुप्त के अभिवर्द्धमान विजय-राज्य संवत्सर एक सौ छियालिस के फाल्गुन मास में, जब उनके परिगृहीत विषयपति शर्वनाग अन्तर्वेदी में विषयपति के रूप में भोग की अभिवृद्धि करते हुए वर्तमान थे — सतत अग्निहोत्र में रत छन्दोग्य राणायनीय-वर्ष-गण-गोत्र के चन्द्रपुर स्थित पद्मा निवासी चतुर्वेदी ब्राह्मण देव के पुत्र, हरित्रात के पौत्र, डुडिक के प्रपौत्र देवविष्णु ने, अपने यशोवृद्धि के निमित्त, इन्द्रपुर के वणिक्-क्षत्रिय अचलवर्मा और भूकुण्ठसिंह के अधिष्ठान (दुकान) के पूर्व स्थित इन्द्रपुर अधिष्ठान से सटे माडास्यात में स्थापित भगवान् सवित्र (सूर्य) के दीपायोजन के निमित्त यह मूल्य [धन दान] दिया।
यह धन इन्द्रपुर-निवासी तैलिक-श्रेणी में, जिसके प्रधान (प्रवर) जीवन्त हैं, आजश्रिक सम्पत्ति [के रूप में] अभग्न-योग (स्थायी रूप से बनी) रहेगी और इस (श्रेणी) के अन्यत्र चले जाने पर भी बनी रहेगी। जब तक सूर्य और चन्द्र हैं तब तक यह श्रेणी तौलकर दो पल तेल निरन्तर दिया करेगी और मूल-धन का किसी प्रकार भी क्षय नहीं होगा जो कोई इस निबन्ध के दाय का व्यतिक्रमण करेगा, वह गो-हत्या, गुरु-हत्या, द्विजघात का भागी होगा और वह अपने अन्य पाप के साथ पंच महापातक का पापी होकर नरक में जायेगा।
विश्लेषण
इंदौर ताम्र-लेख सूर्य मन्दिर में दीप जलाने के निमित्त तेल की व्यवस्था के लिये दिये गये मूल्य (स्थायी दान) की प्रज्ञप्ति है। इस कार्य के लिये कितना धन दिया गया इसका कोई उल्लेख नहीं है। यह धन तैलिक की श्रेणी को स्थायी (आजस्रिक) सम्पत्ति के रूप में दिया गया था जिसके बदले में उनके द्वारा दो पल तेल दिये जाने की बात कही गयी है; परन्तु धन की तरह ही यह नहीं बताया गया है कि तेल की यह मात्रा कितने अन्तराल से दी जायेगी। ऐसा अनुमान होता है कि यह व्यवस्था दैनिक रही होगी।
इंदौर ताम्र-लेख में ‘वणिग्भ्यां क्षत्रिय-अचलवर्म भुकुष्ठसिंहाभ्याम्-अधिष्ठान’ पद में आया क्षत्रिय शब्द विद्वानों का ध्यान विशेष रूप से आकृष्ट करता है। यदि क्षत्रिय शब्द अचलसिंह की तरह ही व्यक्तिवाचक है तो उसका कोई विवेचनिक महत्त्व नहीं है। परन्तु यदि इसका अभिप्राय क्षत्रिय वर्ण से हो, जैसा कि सामान्य रूप से सभी विद्वानों की धारणा है, तो यह तत्कालीन समाज की दृष्टि से विवेच्य हो जाता है। इस अवस्था में यह कहना होगा कि इस काल तक क्षत्रिय वर्ण ने अपना रूढ रूप धारण कर लिया था; समाज में उसकी स्वतन्त्र सत्ता मानी जाने लगी थी। यदि ऐसा न होता तो वणिक् के रूप में अचलवर्मा और भुकुण्ठसिंह के लिये क्षत्रिय जैसे विशेषण की आवश्यकता न होती। अपना वर्ण-कार्य छोड़कर अन्य वर्ण के कार्य का स्मृतिकारों ने निषेध किया है और आपद्काल में ही व्यवसाय बदलने की अनुमति दी है, जिसका तात्पर्य यह है कि वर्णेतर व्यवसाय करना समाज में हेय समझा जाता रहा होगा। परन्तु जब हम यहाँ क्षत्रिय को वर्णेतर व्यवसाय करते पाते हैं तो ऐसा लगता था कि जन-सामान्य में स्मृतिकारों के कथन का विशेष प्रभाव नहीं था।
इंदौर ताम्र-लेख में उल्लिखित इन्द्रपुर इन्दौर है जहाँ से ताम्रलेख उपलब्ध हुआ है; वह अन्तर्वेदी विषय में स्थित था। अन्तर्वेदी का तात्पर्य प्राचीनकाल में गंगा-यमुना के बीच का क्षेत्र, जो प्रयाग से हरिद्वार तक विस्तृत था, समझा जाता रहा है। इसी क्षेत्र में बुलन्दशहर जिला, जिसके अन्तर्गत इन्दौर है, अवस्थित है।
छान्दोग्य और राणायणीय सामवेद की दो शाखाएँ हैं। इससे ज्ञात होता है कि दानदाता सामवेदी ब्राह्मण था। प्रायः ब्राह्मणों द्वारा दान प्राप्त करने की ही चर्चा पायी जाती है। स्मृतिकारों ने ब्राह्मर्णो के कर्तव्यों में दान देने का उल्लेख नहीं किया है इस दृष्टि से भी इस दान-पत्र का महत्त्व है।