अभिलेख

ईश्वरसेन का नासिक गुहालेख

भूमिका ईश्वरसेन का नासिक गुहालेख लयण संख्या १० के आँगन के पश्चिमी दीवार पर अंकित है। अनुमान किया जाता है कि यह लेख १५ पंक्तियों का रहा होगा, परन्तु अब इसकी आरम्भिक १२-१३ पंक्तियाँ ही बच रही हैं; वे भी दाहिनी ओर क्षतिग्रस्त हैं। उसके कुछ अक्षर नष्ट हो गये हैं। ब्राह्मी लिपि में लिखे इस अभिलेख के अक्षर सातवाहन अभिलेखों के बाद के जान पड़ते हैं। संक्षिप्त परिचय नाम :- ईश्वरसेन का नासिक गुहालेख ( Nasik Cave Inscription of Ishwarsen ) स्थान :- नासिक के गुहा संख्या १०, महाराष्ट्र भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- आभीर नरेश ईश्वरसेन का ९वाँ राज्यवर्ष, ईश्वरसेन ने २४८-४९ ई० में कलचुरि-चेदि सम्वत् की स्थापना की अतः इस अभिलेख का समय २४७-२४८ ई० का है। विषय :- भिक्षुसंघ के लिए अक्षयनीवि दान का उल्लेख मूलपाठ १. सिधं [ । ] राज्ञः माढ़रीपुत्रस्य शिवदत्ताभीर पुत्रस्य २. आभीरस्येश्वरसेनस्य संवत्सरे नवमे ९ [ ग ]- ३. म्ह पखे चौथे ४ दिवस त्रयोदश १०+३ [ । ] [ एत ]- ४. या पुर्वया शकाग्निवर्म्मण: दुहित्रां गणपक [ स्य ] ५. रेभिलस्य भार्याया गणपकस्य विश्ववर्मस्य [ मा ]- ६. त्रा शकनिकया उपासिकया विष्णुदत्तया सर्वसत्त्व हि- ७. [ त ] सुखार्थ त्रिरश्मि पर्वत विहारवास्तव्यस्य [ चातुर्दिशस्य ] ८. भिक्षु संघस्य गिलान-भेषजार्थमक्षयनीवि प्रयुक्त [ गोवर्धनवास्त ]- ९. व्यास आगता [ नागता ] सु श्रेणिषु यतः कुलरिकश्रेण्या हस्ते कार्षापण १०. सहस्रं १००० ओदयंत्रिक सहस्रणि द्वे २ …. ११. [ ण्यां ] शतानि पंच ५०० तिलपिषक श्रे [ ण्याँ ] …… [ । ] १२. एते च कार्षापण चतालो [ पि ] ….. १३. ……..तस्य [ मास ] वृद्धतो …… हिन्दी अनुवाद १. सिद्धम्। शिवदत्त आभीर के पुत्र राजा माढ़रीपुत्र २. ईश्वरसेन आभीर के नवें संवत्सर के ३. ग्रीष्म के चौथे पक्ष का १३वाँ दिन। आज के दिन ४. शक अग्निवर्मा की दुहिता ( पुत्री ), गणपक ५. रेभिल की भार्या ( पत्नी ), गणपक विश्ववर्मा की माता ६. शकनिका उपासिका विष्णुदत्ता ने सर्व सत्त्वों के ७. हित और सुख [ प्राप्ति ] के निमित्त त्रिरश्मि पर्वत स्थित [ इस ] विहार में रहनेवाले चारों दिशाओं के ८. भिक्षुसंघ के भोजन ( गिलान ) और चिकित्सा की व्यवस्था के निमित्त [ गोवर्धन ] स्थित ९. वर्तमान और भावी श्रेणियों में [ निम्नलिखित ] अक्षयनीवि की स्थापना की- [ । ] कुलरिक श्रेणी में १०. कार्षापण, [ २ ] ओदयंत्रिक श्रेणी में दो हजार [ कार्षापण ]; [ ३ ] ……. श्रेणी में पाँच सौ कार्षापण ११. और [ ४ ] तिलपिशक श्रेणी में……[ कार्षापण ] [ । ] १२. इन चारों [ श्रेणियों ] को [ अक्षयनीवि के रूप में दिये गये ] कार्यापणों के १३. मासिक ब्याज से….. ईश्वरसेन का नासिक गुहालेख : महत्त्व ईश्वरसेन का नासिक गुहालेख इस बात की विज्ञप्ति है कि विष्णुदत्ता नाम्नी उपासिका ने गोवर्धन स्थित चार श्रेणियों के पास अक्षय-नीवि के रूप में कुछ धन राशि जमा कर इस बात का विधान किया था कि उस धन से प्राप्त होनेवाले ब्याज का उपयोग त्रिरश्मि पर्वतस्थित उस विहार में ( जिस विहार की दीवार पर यह लेख अंकित है ) रहने वाले भिक्षुओं के भोजन ( गिलान ) और चिकित्सा के लिए किया जाय। जिन चार श्रेणियों में अक्षय नीवि की स्थापना की गयी है, उनमें से केवल तीन का नाम उपलब्ध है। वे हैं; कुलरिक, ओदयंत्रिक और तिलपिशक। चौथी श्रेणी का नाम नष्ट हो गया है। तिलपिशक से निस्संदिग्ध अभिप्राय तेल पेरनेवाले लोगों की श्रेणी से है। कुलरिक को बहर ने कुलालों ( कुम्हारों ) की श्रेणी होने का अनुमान प्रकट किया है। जिस पहाड़ी में यह विहार है, उसमें स्थित एक अन्य गुहा-विहार ( गुहा संख्या १२ ) में कोलिक ( कौलिक ) निकाय का उल्लेख है। इसकी ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए भण्डारकर ने कुलरिक को कौलिकों ( जुलाहों ) की श्रेणी होने की कल्पना की है। इसी प्रकार ओदयंत्रिक के सम्बन्ध में सेनार्ट की धारणा है कि इसका आशय जल-यंत्र अथवा जल-घड़ी बनानेवाले कारीगरों से है। किन्तु हम इन मतों में से किसी से भी सहमत नहीं हैं। द्रष्टव्य है कि एक से अधिक श्रेणियों में अक्षयनीवि स्थापित करने के पीछे उपासिका विष्णुदत्ता की कोई निश्चित धारणा, भावना अथवा उद्देश्य रहा होगा। अक्षयनीवि सम्बद्ध अभिलेखों को ध्यानपूर्वक देखने से ज्ञात होता है कि जिस कार्य के निमित्त किसी अक्षयनीवि की स्थापना की जाती थी, उसकी पूर्ति में सक्षम श्रेणी को ही धन देकर नीवि की प्रतिष्ठा की जाती थी। यह बात स्कन्दगुप्त कालीन इन्दौर अभिलेख देखने से स्पष्ट समझ में आ सकती है। उसमें सूर्य-मन्दिर में दीप जलाने की व्यवस्था की गयी है और इसके लिए धन राशि तैलिक श्रेणी को दी गयी है। ठीक उसी प्रकार इस अभिलेख में जिन चार श्रेणियों को धन दिया गया है, वे ऐसी ही श्रेणियाँ रही होंगी जिनका भोजन और भेषज ( चिकित्सा ) से सीधा सम्बन्ध है। अतः तिलपिशक श्रेणी को धन इसलिए दिया गया था कि वह तेल की व्यवस्था करे जो खाने तथा चिकित्सा दोनों के लिए आवश्यक था। ओदयांत्रिक श्रेणी का सम्बन्ध धान ( चावल ) कूटने अथवा आटा पीसनेवालों की श्रेणी से है। वे ही भोजन सामग्री प्रस्तुत करने में सक्षम हो सकते थे। जल-यन्त्र अथवा जल-घड़ी बनानेवालों का प्रस्तुत प्रसंग में कोई स्थान नहीं है। इसी प्रकार कुलरिक श्रेणी भी कुम्हारों अथवा जुलाहों से भिन्न किसी वर्ग की श्रेणी रही होगी। अक्षयनीवि दात्री विष्णुदत्ता को शकनिका कहा गया है। अनेक अभिलेखों में ‘नारी’ के अर्थ में ‘निका’ प्रत्यय का प्रयोग देखने में आता है। यथा कुड़ा अभिलेख १, ९, १९ में विजया और विजयनिका का प्रयोग हुआ है। इस दृष्टि से शकनिका का भाव ‘शक जाति की स्त्री’ होगा। कहा जा सकता है कि इस शब्द का प्रयोग कदाचित यह बताने के लिए किया गया है कि वह शक नारी थी। यदि इस शब्द का यह उद्देश्य रहा हो तो यह निष्प्रयोजन पुनरुक्ति है क्योंकि उसके पिता अग्निमित्र को पहले ‘शक’ कहा जा चुका है। अतः डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त के अनुसार शकनिका का तात्पर्य यहाँ ‘शक नारी’ न होकर ‘शकनिक निवासिनी’ है। शकनिक सम्भवत: किसी स्थान का नाम है। विष्णुदत्ता के पति और पुत्र दोनों को अभिलेख में ‘गणपक’ कहा गया है। सामान्य रूप से इससे गण-प्रमुख का भाव ग्रहण किया जा सकता है और कहा जा सकता

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रुद्रदामन का जूनागढ़ शिलालेख

भूमिका रुद्रदामन का जूनागढ़ शिलालेख गुजरात के जूनागढ़ से प्राप्त एक महत्त्वपूर्ण अभिलेख है। जिस शिला पर यह उत्कीर्ण है उसी पर अशोक के चौदह प्रज्ञापनों की एक प्रति तथा स्कन्दगुप्त के दो लेख भी खुदे हुए हैं। जूनागढ़ से लगभग एक मील पूर्व की ओर गिरनार पर्वत के पास जाने वाले दर्रे के पास यह स्थित है। जूनागढ़ का नाम इसमें गिरिनगर दिया गया है जो बाद में गिरनार भी कहा जाने लगा। सर्वप्रथम १८३२ ई० मे जेम्स प्रिंसेप ने इस लेख का पता लगाया तथा जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल (JASB ) के ७वें अंक में इसे प्रकाशित किया। तत्पश्चात् लासेन, एन० एच० विल्सन, भगवान लाल इन्द्रजी, बूलर आदि विद्वानों ने इसका उल्लेख विभिन्न शोध पत्रिकाओं में किया। अन्ततः कीलहार्न महोदय ने एपिग्राफिया इण्डिका के ८वें अंक में इसे प्रकाशित किया। यही प्रकाशन आज तक प्रामाणिक माना जाता है। जूनागढ़ लेख में कुल बीस पंक्तियाँ है जिनमें अन्तिम चार पूर्णतया सुरक्षित है। शेष कहीं-कहीं क्षतिग्रस्त हो गयी हैं यह शुद्ध संस्कृत भाषा तथा ब्राह्मी लिपि (कुषाणकालीन) में लिखा गया है। इसमें रुद्रदामन के शासन काल के ७२वें वर्ष का उल्लेख है। यह शक संवत् की तिथि है। तदनुसार यह लेख ७८ + ७२ = १५० ई० का है। जूनागढ़ लेख की रचना का मुख्य उद्देश्य सुदर्शन झील के बाँध के पुनर्निर्माण का विवरण सुरक्षित रखना है। इसमें झील का पूर्व इतिहास भी लिखा गया है। साथ ही यह लेख रुद्रदामन की वंशावली, विजयों, शासन, व्यक्तित्व आदि पर भी सुन्दर प्रकाश डालता है। भाषा तथा साहित्य की दृष्टि से भी इसका काफी महत्त्व है। विशुद्ध संस्कृत भाषा में लिखित यह प्राचीनतम लेखों में से है जिससे संस्कृत साहित्य के सुविकसित होने का अन्दाजा लगाया जा सकता है। जब हम यह देखते हैं कि उस समय सर्वत्र प्राकृत भाषा का ही वर्चस्व था, तब इस लेख का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। भाषा की दृष्टि से प्राकृत के समुद्र में यह लेख एक द्वीप के समान ही है। संक्षिप्त परिचय नाम :- रुद्रदामन का जूनागढ़ शिलालेख ( Junagarh Rock Inscription of Rudradaman ) स्थान :- गिरिनार पहाड़ी, जूनागढ़ जनपद, गुजरात भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- १५० ई० विषय :- सुदर्शन झील के पुनर्निर्माण से सम्बन्धित रुद्रदामन का जूनागढ़ शिलालेख : मूलपाठ १. सिद्धं [ । ] तड़ाकं सुदर्शनं गिरिनगराद [ पि ] …. मृ [ ति ]- कोपलविस्ताररायामोच्छय- निःसन्धि-बद्ध-दृढ़-सर्व्व-पालीकत्वात्पर्व्वत-पा- २. द-प्प्रतिस्पर्द्धि-सुश्लि [ ष्ट ] – [ बन्ध ] …… [ व ] जातेनाकृत्रिमेण सेतुबन्धे-नोपपन्नं सुप्रति-विहित-प्रनाली-परीवाह- ३. मीढ़विधानं च त्रिस्क [ न्ध ] नादिभिरनुग्र [ है ] महत्युपचये वर्त्तते [ । ] तदिदं राज्ञो महाक्षत्रपस्य सुगृही- ४. तनान्नः स्वामि-चष्टनस्य-पौत्र [ स्य ] [ राज्ञः क्षत्रपस्य सुगृहीतनाम्नः स्वामि जयदाम्नः ] पुत्रस्य राज्ञो महाक्षत्रपस्य गुरुभिरभ्यस्त-नाम्नो [ द्र ] – दाम्नो वर्षे द्विसप्तित [ में ] ७० [ + ] २ ५. मार्गशीर्ष-बहुल-प्र [ ति ] [ पदि]…….. : सृष्टवृष्टिना पर्जन्येन एकार्ण-वभूतायामिव पृथिव्यां कृतायां गिरेरुर्जयतः सुवर्णसिकता- ६. पलाशिनी प्रभृतीनां नदीनां अतिमात्रोदृत्तैर्व्वेगैः सेतुम [ यमा ] णानुरूप-प्रतिकारमपि गिरि-शिखर-तरु ताटाट्टालकोपत [ल्प] – द्वार शरणोच्छ्रय-विध्वंसिना युगनिधन-सदृ- ७. श-परम-घोर-वेगेन वायुना प्रमथि [ त ] सलिल-विक्षिप्त-जर्ज्जरीकृताव [ दी-र्ण ] [ क्षि ] ताश्म-वृक्ष-गुल्म-लताप्रतानं आ नदी – [ त ] लादित्यु-द्धाटितमासीत् [ । ] चत्वारि हस्त-शतानि वीशदुत्ताराण्यातेन एतावंत्येव [ वि ] स्ती [ र्णे ] न ८. पंचसप्तति हस्तानवगाढ़ेन भेदेन निस्सृत-सर्व्व-तोयं मरु-धन्व-कल्पमति-भृशं-दु [ र्द ] …… [ । ] [ स्य ] र्थे मौर्यस्य राज्ञ: चन्द्र [ गुप्तस्य ] राष्ट्रियेण [ वैश्येन पुष्यगुप्तेन कारितं अशोकस्य मौर्यस्य [ कृ ] ते यवनराजेन तुष [  ] स्फेनाधिष्ठाय ९. प्रणालीभिरलं कृतं [ । ] [ त ] त्कारित [ या ] च राजानुरूप-कृत-विधानया तस्मि [ भे ] दे दृष्टया प्रनाड्या वि [ स्तृ ] त-से [ तु ] ….. णा आ गर्भात्प्रभृत्य-वि [ ह ] त-समुदि [ व-रा ] जलक्ष्मी-धारणा-गुण-तस्सर्व्व-वर्णैरभिगंम्य रक्षाणार्थं पतित्वे वृतेन [ आ ] प्राणोच्छ्वासात्पुरुवध-निवृत्ति-कृत- १०. सत्यप्रतिज्ञेन अन्य [ त्र ] संग्रामेष्वभिमुखागत-सदृश-शत्रु-प्रहरण-वितरण-त्वाविगुणरि [ पु ] …. त-कारुण्येन स्वयमभिगत जन-पद-प्रणिपति [ ता ] [ यु ]। षशरणदेन दस्यु-व्याल-मृग-रोगादिभिरनुपसृष्ट-पूर्व्व-नगर-निगम- ११. जनपदानां स्ववीर्य्यार्जितानामनुरक्त-सर्व्व-प्रकृतीनां पूर्व्वापराकर- वन्त्यनूपनीवृदानर्त्त-सुराष्ट्र-श्व [ भ्र-मरु-कच्छ-सिन्धु-सौवी ] र कुकुरापरांत-निषादादीनां समग्राणां तत्प्रभावाद्य [ थावत्प्राप्रधर्मार्थ ] – काम-विषयाणां विषयाणां पतिना सर्व्वक्षत्राविष्कृत- १२. वीर शब्द जा – [ तो ] त्सेकाविधेयनां यौधेयानां प्रसह्योत्सादकेन दक्षिणा-पथपतेस्सातकर्णेद्विरपि नीर्व्याजमवजीत्यावजीत्य संबंधा [ वि ] दूरतया अनुत्सादनात्प्राप्तयशासा [ वाद ] ….. [ प्राप्त ] विजयेन भ्रष्टराज प्रतिष्ठापकेनं यथार्थ-हस्तो- १३. च्छयार्जितोर्जित-धर्मानुरागेन शब्दार्थ- गान्धर्व्व-न्यायाद्यानां विद्यानां महतीनां पारण-धारण-विज्ञान प्रयोगावाप्त-विपुल-कीर्तिना-तुरग-गज- रथ-चर्य्यासि-चर्म-नियुद्धाद्या …. ति-परबल-लाघव-सौष्ठव-क्रियेण-अहरहर्द्दान-मानान- १४. वमान-शीलेन स्थूललक्षेण यथावत्प्राप्तैर्बलिशुल्को भागैः कानक-रजत-वज्र-वैडूर्य-रत्नोपचय-विष्यन्दमान कोशेन स्फुट-लघु-मधुर-चित्र-कान्त-शब्दसमयोदारालंकृत-गद्य-पद्य- [ काव्य-विधान-प्रवीणे ] न प्रमाण-मानोमान-स्वर-गति-वर्ण्ण-सार-सत्वादिभिः १५. परम-लक्षण-व्यंचनैरुपेत-कान्त-मूर्तिना स्वयमधिगत-महाक्षत्रप-नाम्ना नरेन्द्र-क [ न्या ] – स्वयंवरानेक-माल्य-प्राप्त-दाम्न [  ] महाक्षत्रपेण रुद्र-दाम्ना वर्ष सहस्राय गो-ब्रा [ ह्मण ] …… [ र्त्थं ] धर्म्मकीर्ति-वृदध्यर्थ च अपीडयि [ त्व ] कर-विष्टि- १६. प्रणयक्रियाभिः पौरजानपदं जनं स्वस्मात्कोशा महता धनौधेन-अनति-महता च कालेन त्रिगुण-दृढ़तर-विस्तारायामं सेतुं विधा [ य ] सर्वत [ टे ] ……सुदर्शनतरं कारितमिति [ । ] [ अस्मि ] न्नर्त्थे- १७. [ च ] महाक्षत्रपस्य मतिसचिव-कर्मसचिवैरमात्य-गुण-समुद्युक्तैरप्यति-महत्वाद्भेदस्यानुत्साह-विमुख-मतिभिः प्रत्याख्यातारंभ १८. पुनः सेतुबन्ध-नैराश्याहाहाभूतासु प्रजासु इहाधिष्ठाने पौरजानपद-जनानुग्रहार्थ पार्थिवेन कृत्स्नानामानर्त्त-सुराष्टानां पालनार्थन्नियुक्तेन १९. पह्लवेन कुलैप-पुत्रेणामात्येन सुविशाखेन यथावदथं धम व्यवहार-दर्शनैरनुरागमभिवर्द्धयता शक्तेन दान्तेनाचपलेनाविस्मितेनार्येणा-हार्य्येण २०. स्वधितिष्ठता धर्म-कीर्ति-यशांसि भर्तुरभिवर्द्धयतानुष्ठितमिति [ । ] हिन्दी अनुवाद १. सिद्धम्। गिरिनगर के समीप, मिट्टी और पाषाण खण्डों [ से निर्मित ] चौड़ाई और लम्बाई ऊँचाई में बिना जोड़ के बंधी मजबूत बन्ध पंक्तियों के कारण दृढ़ता में पर्वत के २. समीपवर्ती छोटी पहाड़ियों के साथ स्पर्धा करनेवाली ठोस प्राकृतिक विशाल बाँध से युक्त, समुचित रूप से बने जल निकालने की नालियों, बढ़े जल को निकालनेवाले नालों और ३. गन्दगी से बचने के उपायों से युक्त तीन भागों में विभक्त और सुरक्षा की समुचित व्यवस्था से सम्पन्न सुदर्शन नाम की यह झील इस समय बड़ी अच्छी अवस्था में रही है। ४. सुविख्यात राजा महाक्षत्रप चष्टन के पौत्र [ सुविख्यात ( सुनाम ) राजा क्षत्रप जयदामन के ] पुत्र, श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा सतत स्मरणीय नामवाले राजा महाक्षत्रप रुद्रदामन के बहत्तरवें राजवर्ष में ५. मार्गशीर्ष महीने के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को घनघोर वर्षा हुई, जिससे समस्त पृथ्वी समुद्र के समान प्रतीत होने लगी। फलस्वरूप ऊर्जयंत नाम के पर्वत से निकलनेवाली सुवर्णसिक्ता, ६. पलाशिनी प्रभृति नदियों के उमड़े हुए वेग और पर्वत की चोटियों, वृक्षों, तटों, अटारियों, मकानों के ऊपरी तल्लों, दरवाजों और बचाव के लिये बनाये गये ऊँचे स्थानों को विनष्ट कर देनेवाले ७. प्रचण्ड पवन से विलोड़ित जल के विक्षेप से, यथोचित उपाय किये जाने पर भी जर्जरित होकर पत्थरों, वृक्षों, झाड़ियों और

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उषावदत्त का कार्ले अभिलेख

भूमिका नहपानकालीन उषावदत्त का कार्ले अभिलेख महाराष्ट्र के पुणे जनपद से प्राप्त होता है। पुणे जिले में कार्ले नामक स्थान में जो चैत्य है उसके मध्यद्वार के दाहिनी ओर ऊपरी भाग पर इस अभिलेख का अंकन हुआ है। यह ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में है। संक्षिप्त परिचय नाम :- नहपानकालीन उषावदत्त का कार्ले अभिलेख ( Karle or Karla Inscription of Ushavdatta ) स्थान :- कार्ले, पुणे जनपद, महाराष्ट्र भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- द्वितीय शताब्दी का पूर्वार्ध ( ≈ ११९ से १२४ ई० ) विषय :- उषावदत्त द्वारा ब्रह्मणों, बौद्धों को दान, कन्याओं का विवाह कराना इत्यादि।  मूलपाठ १. सिधं [ ॥ ] रजो खहरातस खतपस नहपानस जा [ म ] तरा [ दीनीक ] पूतेन उसभदातेन ति- २. गो सतसहस [ दे ] ण नदिया बणासाया [ सु ] वण [ ति ] थकरेन [ देवतान ] ब्रह्मणन च सोलस गा- ३. म-दे [ न ] पभासे पूत-तिथे ब्रह्मणाण अठ-भाया-प [ देन ]  [ अ ] अनुवासं पितु सत सहसं [ भो ] – ४. जपयित वलूरकेसु लेण-वासिनं पवजितानं चातुदिसस सघस ५. यापगथ गामो [ कर ] जिको दतो स [ वा ] न [ वा ] स-वासितानं ( ? ) [ ॥ ] हिन्दी अनुवाद सिद्धम्॥ तीस हजार गाय [ दान ] देनेवाले, वर्णाशा नदी पर सुवर्ण तीर्थ स्थापित करनेवाले, [ देवताओं ] और ब्राह्मणों को सोलह ग्राम देनेवाले, पुण्य तीर्थ प्रभास में ब्राह्मणों को आठ भार्या ( पत्नी ) प्रदान करनेवाले, पिता के निमित्त प्रति वर्ष दस हजार [ व्यक्तियों-ब्राह्मणों ] को भोजन कराने वाले, राजा क्षहरात क्षत्रप नहपान के जामाता [ दीनीक ] -पुत्र उषवदात ( ऋषभदत्त ) द्वारा वलूरक लयण ( गुहा ) निवासी चातुर्देशिक प्रव्रजितों ( भिक्षुओं ) के वर्षावास के समय यापन के लिए करजिक ग्राम दिया गया। सर्व वास वासियों के लिए ( ? ) महत्त्व इस अभिलेख में नहपान के जामाता ऋषभदत्त द्वारा बलरक लयण ( संभवत: कार्ले स्थित गुहा जिस पर यह लेख अंकित है ) चारों दिशाओं के भिक्षुओं के वर्षावास के समय यापन ( भोजन ) आदि की व्यवस्था के लिए करजिक ग्राम के दान दिये जाने का उल्लेख है। कहना न होगा कि वर्षा के दिनों में भिक्षु भिक्षाटन न कर एक स्थान पर निवास करते थे। उसी को ध्यान में रखकर यह व्यवस्था की गयी जान पड़ती है। करजिक का तात्पर्य कदाचित कर्जत ( Karjat ) से है जो उल्हास नदी तट पर रायगढ़ जनपद में है। वहाँ से कार्ले बहुत दूर भी नहीं है। इस अभिलेख का महत्त्व दान के विवरण की अपेक्षा ऋषभदत्त ( उषवदात ) की प्रशस्ति में है। इससे ज्ञात होता है कि जहाँ वह बौद्ध भिक्षुओं के प्रति आकृष्ट था वहीं वह ब्राह्मण धर्म के भी निकट था। उसने तीस हजार गायें दान की थीं; ब्राह्मणों को सोलह ग्राम दिये थे और आठ ब्राह्मणों के विवाह कराये थे ( निर्धन ब्राह्मण लड़कियों का विवाह कराना पुण्य कार्य समझा जाता था )। प्रतिवर्ष वह पिता के निमित्त ( पितृपक्ष में ) दस हजार ब्राह्मणों को भोजन कराता था। साथ ही उसने वर्णाशा नदी के किनारे सुवर्ण नामक तीर्थ ( मन्दिर ?) स्थापित किया था। ये सारे कार्य ऐसे हैं जो ब्राह्मण-धर्मावलम्बी ही कर सकता है। उषावदत्त का नासिक गुहालेख उषावदत्त का तिथिविहीन नासिक गुहालेख दक्षमित्रा का नासिक गुहालेख

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उषावदत्त का तिथिविहीन नासिक गुहालेख

भूमिका नहपानकालीन तिथिविहीन उषावदत्त का नासिक गुहालेख ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में है। इसमें विविध दान का वर्णन और मालवों के विरुद्ध अभियान का विवरण सुरक्षित है। संक्षिप्त परिचय नाम : नहपानकालीन उषावदत्त का तिथिविहीन नासिक गुहालेख ( Undated Nasik cave inscription of Ushavdatta of time of Nahpan ) स्थान : नासिक गुहा सं० १०, महाराष्ट्र भाषा : संस्कृत  ( प्राकृत प्रभावित ) लिपि : ब्राह्मी समय : नहपान के काल का. विषय : उषवदात द्वारा त्रिरश्मि पर्वत पर दिया गया दान मूलपाठ १. सिद्धम्! [ स्वस्तिक चिह्न ] (॥) राज्ञः क्षहरातस्य क्षत्रपस्य नहपानस्य जामात्रा दीनीकपुत्रेण उषवदातेन त्रि गोशत-सहस्रदेन नद्या बार्णासायां सुवर्णदानतीर्थकरेण देवत [ ] भ्यः ब्राह्मणेभ्यश्च षोडशग्रामदेन अनुवर्ष ब्राह्मणशतसाहस्री भोजापयित्रा २. प्रभासे पुण्यतीर्थे ब्राह्मणेभ्य: अष्टभार्यप्रदेनी भरुकछे दशपुरे गोवर्धने शोपरिगे च चतुशालावसध-प्रतिश्रय-प्रदेन आराम तडाग-उदपान-करेण इबापाराद-दमण-तापा-करबेणा-दाहनुका-नावा-पुण्य-तर-करेण एतासां च नदीनां उभतो तीरं सभा- ३. प्रपाकरेण पींडीतकावडे गोवर्धने सुवर्णमुखे शोर्पारगे च रामतीर्थ चरक पर्षभ्यः ग्रामे नानंगोले द्वात्रीशत नाळीगेर-मूल सहस्र-प्रदेन गोवर्धने त्रोरश्मिषु पर्वतेषु धर्मात्मा इदं लेणं कारितं इमा च पोढियो ( ॥ ) भटारका-अञातिया च गतोस्मिं वर्षारतुं मालये [ हि ] हि रुधं उतमभाद्र मोचयितुं ( । ) ४. ते च मालया प्रनादेनेव अपयाता उतमभद्रकानं च क्षत्रियानं सर्वे परिग्रहा कृता ( । ) तोस्मिं गतो पोक्षरानि ( । ) तत्र च मया अभिसेको कृतो त्रीणि च गोसहस्रानि दतानि ग्रामो च ( ॥ )दत च [ ] नेन क्षेत्र [ ] ब्राह्मणस वाराहि-पुत्रस अश्विभूतिस हथे कोणिता मुलेन काहापण-सहस्रेहि चतुहि ४००० यो-स-पितु-सतक नगरसीमायं उतारपरा [ यं ] दीसायं ( । ) एतो मम लेने वस- ५. तान चातुदीसस भिखु-सघस मुखाहारों भविसती ( ॥ ) हिन्दी अनुवाद सिद्धम्‌ ! क्षहरात क्षत्रपराजा नहपान के दामाद और दीनीक के पुत्र उषवदात के द्वारा- जिसने तीन हजार गायें दान दी हैं, वर्णासा नदी पर सुवर्ण तथा सीढ़ियों का दान दिया है, देवताओं एवं ब्राह्मणों को ग्रामदान दिये हैं, जो प्रति वर्ष एक लाख ब्राह्मणों को भोजन कराता है, प्रतिवर्ष वह पुण्यतीर्थ प्रभास में ब्रह्मणों को आठ भार्याएँ देता है, जिसने भृगुकच्छ, दशपुर, गोवर्धन और शूर्पारक को चतुःशाला-गृह और विश्रामगृह प्रदान किया, जिसने वाटिका, तालाब और कुओं को बनवाया, उसने इबा, पारदा, दमन, तापी, करवेण्वा और दाहनुक नदियों के निःशुल्क नाव से पार करने की व्यवस्था किया है और इन नदियों के दोनों किनारों पर विश्रामालय और प्याऊ बनवाया है, जिसने पण्डितकावड़, गोवर्धन, सुवर्णमुख, शूर्पारक व रामतीर्थ में स्थित चरक सम्प्रदाय के अनुयायियों के लिए नानंगोल ग्राम में बत्तीस हजार नारियल का मूल ( पेड़ ) दिया। धर्मात्मा उषावदत्त द्वारा गोवर्धन प्रदेश के त्रिरश्मि पर्वत पर गुहा और जलकुण्ड बनवाये गये। भट्टारक की आज्ञा वर्षा ऋतु में उत्तम भद्रों के अधिपति को मालवों द्वारा बंदी बनाया गया था छुड़ाने के लिए मैं ( उषावदत्त ) गया। वे मालव मेरा हुंकार सुनकर भाग गये और सभी अब उत्तमभद्रों द्वारा बन्दी बना लिये गये। फिर मैं पुष्करतीर्थ ( अजमेर ) गया और वहाँ स्नानकर ३,००० गायें और ग्राम दान दिया। वहाँ मेरे द्वारा वाराहीपुत्र अश्वभूति नामक ब्राह्मण के हाथ से ४,००० कार्षापण से खेत ख़रीदकर दिया गया जिसपर अश्वपति के पिता का स्वत्व है। यह नगर के पश्चिमोत्तर सीमा पर स्थित है। इससे मेरी गुहा में रहने वाले चारों दिशाओं से आये भिक्षुसंघ का भोजन होगा। महत्त्व इस अभिलेख से निम्न जानकारी मिलती है :- क्षहरात वंशी क्षत्रपराज नहपान के दामाद उषावदत्त ( ऋषभदत्त )। उषावदत्त के पिता का नाम दिनीक मिलता है। एक प्रमुख बात यह है कि इसमें एक साथ ब्राह्मणों और बौद्धों को दान देने की चर्चा मिलती है। मालवों के विरुद्ध अभियान की चर्चा की गयी है। साथ ही राज्य की सीमा का मोटे-तौर पर अनुमान मिलता है। इसमें चरक सम्प्रदाय का उल्लेख मिलता है। उषावदत्त का नासिक गुहालेख उषावदत्त का कार्ले अभिलेख

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दक्षमित्रा का नासिक गुहालेख

भूमिका नहपान की पुत्री दक्षमित्रा का नासिक गुहालेख गुफा संख्या १० में बायीं ओर स्थित कोठरी के द्वार के ऊपर अंकित है। इस अभिलेख के नीचे ही उषावदत्त ( ऋषभदत्त ) अभिलेख अंकित है। संक्षिप्त परिचय नाम :- नहपानकालीन दक्षमित्रा का नासिक गुहालेख ( Nasik cave Inscription of Dakshmitra of Time of Nahpan ) स्थान :- नासिक, गुहा संख्या – १०, महाराष्ट्र भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- नहपान का शासनकाल ( ≈ ११९ से १२४ वर्ष ) विषय :- नहपान की पुत्री दक्षमित्रा द्वारा धर्मार्थ गुहावास का दान दक्षमित्रा का नासिक गुहालेख : मूलपाठ  १. सीधं ( ॥ ) रांओ क्षहरातस क्षत्रपतस नहपानस दीहि— २. तु दीनीकपुत्रस उषवदातस कुडुंबिनिय दखमित्राय देयधम औरवको ( ॥ ) संस्कृत छाया सिद्धम्। राज्ञः क्षहरातस्य क्षत्रपस्म नहनापस्य दुहितुः दिनीक पुत्रस्य क्षषभदत्तस्य भार्यायाः दक्षमित्रायाः देयधर्मः उपवारकः। हिन्दी अनुवाद १. सिद्धम्॥ राजा क्षहरात क्षत्रप नहपान की २. दुहिता, दीनीकपुत्र ऋषभदत्त की स्त्री दक्षमित्रा का धर्मदेय — के लिए दिया गया गुहावास। महत्त्व भारतीय उप-महाद्वीप में शकों की कई शाखाओं के शासन का विवरण मिलता है; यथा – तक्षशिला के शक शासक मथुरा के शक शासक : इसी वंश के शासक शोडास का एक एक अभिलेख मिलता है। पश्चिमी भारत के शक शासक : इसकी भी दो शाखाएँ थीं – एक, क्षहरात वंश : इसका सबसे प्रसिद्ध शासक नहपान हुआ। द्वितीय, कामर्दक वंश : इसका सबसे प्रसिद्ध शासक रुद्रदामन था। प्रस्तुत अभिलेख नहपान की दुहिता दक्षमित्रा का है। इस अभिलेख से निम्न बातें स्पष्ट होती हैं :- एक, दक्षमित्रा नहपान की पुत्री थी। द्वितीय, नहपान के लिए क्षत्रप विरुद का प्रयोग किया गया है। तृतीय, दक्षमित्रा का विवाह उषावदत्त ( ऋषभदत्त ) से हुआ था। उषावदत्त ( ऋषभदत्त ) के पिता का नाम दिनीक था। दक्षमित्रा ने गुहादान किया था।

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उषावदत्त का नासिक गुहालेख

भूमिका नहपानकालीन उषावदत्त का नासिक गुहालेख ( वर्ष ४१, ४२, ४५ ) लयण संख्या १० में बायीं ओर स्थित कोठरी के द्वार के ऊपर नहपान की पुत्री और उषवदात ( ऋषभदत्त ) की पत्नी दक्षमित्रा के लेख के नीचे अंकित है। इसमें इस कोठरी ( ओवरक ) के दान की चर्चा है। यह अभिलेख ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में है। संक्षिप्त परिचय नाम :- उषावदत्त का नासिक गुहालेख ( Nasik cave Inscription of Ushavadatta ), उषावदत्त का एक नाम ऋषभदत्त ( Rishabhadatta ) भी मिलता है। स्थान :- नासिक, गुहा संख्या – १०, महाराष्ट्र भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- नहपान का शासनकाल ( ≈ ११९ से १२४ वर्ष ) विषय :- नहपान के जामाता ऋषभदत्त ( उषावदत्त ) द्वारा गुहा निर्माण और दान की चर्चा उषावदत्त का नासिक गुहालेख : मूलपाठ १. सिघं [ ॥ ] वसे ४० (+) २ वेसाख-मासे राञो क्षहरातस क्षत्रपस नहपानस जामातरा दीनीक-पुत्रेन उषवदतेन संघस चातुदिसस इमं लेणं नियातितं [ । ] दत चाने अक्षय निवि काहापण-सहस्रा- २. नि त्रोणि ३००० संघस चातुदिवस ये इयस्मि लेणे वसांतानं भविसंति चिवरिक कुशाणमूले च [ । ] एते च काहापणा प्रयुता गोवधनं वाथवासु श्रेणिसु [ । ] कोलीक निकाये २००० वृधि पडिक शत अपर कोलीक निका- ३. ये १००० वधि पा [ यू ] न- [ प ] डिक शत [ । ] एते च काहापणा [ अ ] पडिदातवा वधि-भोजा [ । ] एतो चिवरिक-सहस्रानि बे २००० ये पडिके सते [ । ] एतो मम लेणे वसवुथान भिखुनं वीसाय एकीकस चिवरिक वारसक [ । ] य सहस्त्र प्रयुतं पायुन पडिके शते एतो कुशन- ४. मूल [ । ] कापूराहारे च गाम चिखलपद्रे दतानि नालिगेरान मुल-सहस्राणि अठ ८००० [ । ] एत च सर्व स्रावित निगम-सभाय निबन्ध च फलकवारे चरित्रतो ति [ । ] भूयोनेन दतं वसे ४० (+) १ कातिक शूधे पनरस पुवाक वसे ४० (+) ५ ५. पनरस नियुतं भगवतां देवानं ब्राह्मणानं च कार्षापण-सहस्राणि सतरि ७००० पंचत्रिंशक सुवण कृता दिन सुवर्ण सहस्रणं मूल्यं [ ॥ ] ६. फलकवारे चरित्रतोति [ ॥ ] हिन्दी अनुवाद १. सिद्धम्॥ वर्ष ४२ के वैशाख मास में क्षहरात राजा क्षत्रप नहपान के जामाता, दीनीकपुत्र ऋषभदत्त ( उषवदात ) द्वारा चारों दिशाओं के संघ ( भिक्षु-संघ ) के लिए यह लयण ( गुहा ) निर्मित कराया गया। तथा उसने २. तीन सहस्र ( ३००० ) [ कार्षापण ] इस लयण में निवास करनेवाले चारों दिशाओं के ( भिक्षु ) संघ के चीवर और कुशणमूल [ के लिए ] अक्षयनीवी के रूप में दिये। ये कार्षापण गोवर्धन स्थित श्रेणियों के पास जमा किये गये हैं। कोलिक निकाय को २००० कार्षापण एक पादिक प्रतिशत ब्याज ( वृद्धि ) पर और दूसरे ( अपर ) कोलिक निकाय को ३. १००० पौन पादिक ( पाद-ऊन-पादिक ) प्रतिशत ब्याज पर। ये सब [ कार्षापण ] अप्रतिदातव्य ( न लौटानेवाले ) और [ केवल ] ब्याज ( वृद्धि ) प्राप्त करनेवाले हैं। इनमें से जो २००० ( कार्षापण ) एक पादिक प्रतिशत [ सूद पर ] हैं, वे चीवर के लिए हैं। उनसे मेरे इस लयण ( गुहा ) में वास करनेवाले २० भिक्षुओं में से प्रत्येक को प्रतिवर्ष एक-एक चीवर [ दिया जायेगा ]। जो एक हजार पौन पादिक प्रतिशत [ सूद पर ] हैं वे कुशणमूल के लिए हैं। ४. कर्पूर-आहार स्थित चिखलपद्र ग्राम में जो नारियल का बाग है, वह भी दिया जिसका मूल्य ८००० [ कार्षापण ] है। यह सब नियमानुसार निगम-सभा में श्रवित किया और फलक पर चित्रित (अंकित) किया गया। वर्ष ४१ के कार्तिक शुक्ल १५ को यह जो दिया गया था [ उसके बदले ] ५. वर्ष ४५ के पन्द्रहवें दिन भगवान ( बुद्ध ), देवताओं और ब्राह्मणों के लिए ७००० कार्षापण और हजार कार्षापण का मूल्य ३५ सुवर्ण के रूप में दिया गया। ६. यह फलक पर चित्रित ( अंकित ) किया गया। उषावदत्त का नासिक गुहालेख : महत्त्व यह अभिलेख पश्चिमी भारत के क्षहरात-वंशी शक क्षत्रप नहपान के जामाता ऋषभदत्त द्वारा उत्कीर्ण कराया गया है। इसमें वर्ष ४२, ४१ और ४५ की तीन तिथियाँ अंकित हैं जिनमें पहली तिथि के साथ केवल मास का, दूसरे के साथ मास और दिन का और तीसरेके साथ केवल दिन का उल्लेख है। वर्ष का अकेले अथवा मास और दिन दोनों के साथ उल्लेख अभिलेखों में सामान्यतः पाया जाता है। परन्तु वर्ष के साथ केवल मास अथवा दिन का उल्लेख असाधारण है। पहली तिथि में मास के साथ दिन का उल्लेख न किया जाना उतनी खटकनेवाली बात नहीं है जितना मास का उल्लेख न कर केवल दिन का उल्लेख। यह लिपि की भूल है अथवा जान-बूझकर ऐसा किया गया है कहना मुश्किल है। इस अभिलेख में तीन तिथियों के उल्लेख से ऐसा भ्रम होता है कि इसमें भिन्न-भिन्न तीन दानों का उल्लेख है। वस्तुतः इसमें केवल दो ही दानों की चर्चा है। अन्तिम दो तिथियों का सम्बन्ध एक ही दान से है। इस अभिलेख के पूर्वांश से ज्ञात होता है कि ऋषभदत्त ने वह गुफा निर्माण कराया था जिसमें अभिलेख अंकित है। इस अभिलेख से यह भी ज्ञात होता है कि यह गुहा किसी संघ या सम्प्रदाय विशेष के लिये न था वरन् देश में प्रचलित सभी संघों के भिक्षु इस गुहा में रह सकते थे। इस लयण निर्माण के साथ-साथ ऋषभदत्त ने ३००० कार्षापण से एक अक्षयनीवि की स्थापना की थी और उसने इस धन को दो श्रेणियों अथवा निकायों को दिया था। यह धन एक प्रकार का ( आधुनिक शब्दावली में ) सावधि जमा ( Fixed Deposit ) था; किन्तु वह अप्रतिदातव्य था अर्थात् निकाय, जिनको यह धन दिया था, वे इस धन को किसी को दे या लौटा नहीं सकते थे। वह उनके पास स्थायी रूप से जमा किया गया था; उसका सूद ही वे दे सकते थे और उस सूद का ही निर्दिष्ट कार्य के लिए उपयोग किया जा सकता था। ऋषभदत्त ने अपना यह धन दो भिन्न निकायों को और सूद के दो भिन्न दरों पर दिया था। दरों की यह भिन्नता आर्थिक दृष्टि से विचारणीय है। एक निकाय को दिये गये धन से गुहा में रहनेवाले २० भिक्षुओं को चीवर देने की व्यवस्था थी। इसके लिए मिलनेवाला सूद २० कार्षापण था। दूसरे निकाय को दिये गये धन से केवल ७ कार्षापण सूद की

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वीरपुरुषदत्त का नागार्जुनकोंडा अभिलेख

भूमिका वीरपुरुषदत्त का नागार्जुनकोंडा अभिलेख आंध्र प्रदेश के इसी नाम के पहाड़ी पर स्थित भग्न स्तूप से मिले एक आयक स्तम्भ ( संख्या – बी०५ ) पर अंकित मिला है। संक्षिप्त परिचय नाम :- वीरपुरुषदत्त का नागार्जुनकोंडा अभिलेख ( Nagarjunakonda Inscription of Veerpurushdatta ) या नागार्जुनकोण्डा अभिलेख ( Nagarjunakonda Inscription ) स्थान :- नागार्जुनकोंडा पहाड़ी, पलनाडु जनपद, आंध्र प्रदेश भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- गुप्त-पूर्व, इक्ष्वाकु वंशी शासक वीरपुरुषदत्त का अभिलेख ( तृतीय शताब्दी का उत्तरार्ध ) विषय :- बौद्ध धर्म हेतु स्तूप पुनर्निर्माण और स्तम्भ स्थापना का उल्लेख मूलपाठ १. सिधं [ ॥ ] नमो भगवतो देवराज-सकतस संमसंमसंबुधस धातुवर- २. परिगहितस [ । ] महाचेतिये महरजस विरुपखपति-महासेन-परिगहितस ३. अगिहोता गिठीगितोम-वाजेपयासमेध-याजिस हिरणकोटि-गोसत- ४. सहस-हलसतसहस-पदायिस सवथेसु अपतिहत-संकपस ५. विसिठीपुतस इखाकुस सिरि-चातमूलस सोदराय भागिनिय हंम- ६. सिरिंणिकाय बालिका रंञो सिरि-विरपुरिसदतय भया महादेवि बपिसिरिणका ७. अपनो मातरं हंमसिरिणिकं परिनमततुन अतने च निवाण-संपति-सपादके ८. इमं सेल-थंभं पतिठपति [ । ] अचरि [ या ] नं अपरमहाविनसेलियानं सुपरिगहितं ९. इमं महाचेतिय-नवकमं [ । ] पंणगाम-वथवानं दीघ-मझिम-पद-म [  ] तुक-देस [ क-वा ] चकान १०. अ ( च ) रयान अयिर-हधान अंतवासिकेन दीघ-मझिम-निगयधरेन भदंतानं-देन ११. निठपितं इमं ननकमं महाचेतियं खंभा च ठपिता ति [ । ] रञो सरिविरिपुरिसदतस १२. संव ६ वा प ६ दि १० [ ॥ ] हिन्दी अनुवाद १. सिद्धम् ! भगवान्, देवराज द्वारा आदरित, सम्यक्-सम्बुद्ध प्राप्त करने वाले, श्रेष्ठतम् धातु को ग्रहण करनेवाले ( अर्थात् भगवान् बुद्ध ) को नमस्कार ! २. [ इस ] महाचैत्य में महाराज, विरुपाक्षपति महासेन द्वारा परिगृहीत ( स्कन्द-कार्तिकेय के भक्त ), ३. अग्निहोत्र, अग्निष्ठोम, वायपेय, अश्वमेध [ नामक ] यज्ञों को करनेवाले, करोड़ों सिक्के ( हिरण्य ), शत सहस्र गाय, ४. शत सहस्र हल प्रदान करने ( दान देनेवाले ), समस्त कार्यों में अप्रतिहत संकल्प ( अटूट निश्चय ) वाले, ५. वाशिष्ठीपुत्र इक्ष्वाकु-वंशीय श्रीचन्तिमूल की सहोदरा ( बहन ) ६. हर्म्यश्री की बालिका ( पुत्री ), राजा श्रीवीरपुरुषदत्त की भार्या ( पत्नी ) महादेवी वप्पीश्री ने ७. अपनी माता हर्म्यश्री को ध्यान में रखकर ( अर्थात् अपनी माता हर्म्यश्री के ) और अपने निर्वाण की सम्प्राप्ति के निमित्त ८. इस शैल-स्तम्भ को स्थापित किया [ और ] अपर महावन-शैल [ सम्प्रदाय ] के आचार्यों द्वारा सुगृहीत ९. इस महाचैत्य का नवकर्म ( मरम्मत, संस्कार या परिवर्धन ) कराया। पर्णग्राम निवासी, दीघ, मझ्झिम आदि पञ्च मात्रिकों ( मूल सिद्धांतों अर्थात् निकायों ) के देशक और वाचक ( पढ़ने और पढ़ानेवाले ) १०. आचार्यों के साथ आर्यसंघ में निवास करनेवाले अन्तेवासिक दीघ और मझ्झिम निकाय को धारण करनेवाला आनन्द द्वारा ११. महाचैत्य का नवकर्म ( संस्कार या परिवर्धन ) तथा स्तम्भ की स्थापना का कार्य निष्ठापित हुआ ( पूरा किया गया )। राजश्री वीरपुरुषदत्त के १२. सम्वत् ६ में छठे वर्षा पक्ष १०वें दिन [ को ]। ऐतिहासिक महत्त्व इक्ष्वाकुवंशी शासक श्री वीरपुरुषदत्त की भार्या वप्पीश्री ने नागार्जुनकोण्डा के स्तूप की मरम्मत करायी थी और एक शाल-स्तम्भ स्थापित किया था। इस अभिलेख में ‘अपर महावन-शैल’ नामक बौद्ध सम्प्रदाय की चर्चा की गयी है। इसका अन्यत्र कहीं उल्लेख नहीं मिलता है। ह्वेनसांग ने जिस अपर-शैलीय बौद्ध सम्प्रदाय की चर्चा की है शायद यह वही हो पर निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। वीरपुरुषदत्त की भार्या वप्पीश्री उसकी फुफेरी बहन भी थी। अर्थात् फुफेरी बहन से विवाह का प्रचलन था। दक्षिण भारत के राष्ट्रकूट शासकों में ममेरी व फुफेरी बहन से विवाह का प्रचलन था।  उदाहरणार्थ – कृष्ण द्वितीय ने अपने मामा रणिविग्रह की पुत्री लक्ष्मी से विवाह किया था। इन्द्र तृतीय ने अपने मामा कलचुरिवंशी अम्मणदेव की पुत्रों विवाह किया था। ममेरी और फुफेरी बहन से विवाह का प्रचलन आज भी दक्षिण भारत में है। एक ही परिवार के लोग अलग-अलग धर्म के प्रति आस्था रख सकते थे :- वीरपुरुषदत्त के पिता और वप्पीश्री का श्वसुर; चान्तमूल कार्तिकेय के भक्त थे। उन्होंने वैदिक यज्ञों किये थे। वप्पीश्री स्वयं बौद्ध थी।

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यज्ञश्री शातकर्णि का नासिक गुहालेख

भूमिका यज्ञश्री शातकर्णि का नासिक गुहालेख प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में नासिक ( पाण्डुलेण ) स्थित गुहा २० के बरामदे की दीवार पर अंकित है। संक्षिप्त परिचय नाम :- यज्ञश्री शातकर्णि का नासिक गुहालेख ( राज्यवर्ष ७ ) स्थान :- नासिक, महाराष्ट्र भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- यज्ञश्री शातकर्णि का ७वाँ राज्यवर्ष विषय :- गुहा निर्माण का विवरण यज्ञश्री शातकर्णि का नासिक गुहालेख : मूलपाठ १. सिधं [।] रञो गोतमिपुतस सामि सिरि-यत्र-सातकणिस संवछरे सातमे ७ हेमताण पखे ततिये ३ २. दिवसे पथमें कोसिकस महासे [ णा ] पतिस [ भ ] वगोपस भरिजाय महासेणापतिणिय वासुय लेण ३. बोपकि-यति-सुजमाने अपयवसित-समाने बहुकाणि वरिसाणि उकुते पयवसाण नितो चातुदि- ४. सस च भिखु-सधस आवसो दतो ति॥ हिन्दी अनुवाद सिद्धम्। राजा गौतमीपुत्र स्वामी श्री यज्ञ-शातकर्णि के संवत्सर ७ के हेमन्त के तृतीय पक्ष का प्रथम दिवस ( अर्थात् पौष कृष्ण पक्ष का प्रथम दिवस )। कौशिक [ गोत्र ] के महासेनापति भवगोप की भार्य्या [ पत्नी ] महासेनापत्नी वसु ने यति बोपकि द्वारा उत्खनित कराये गये लयण ( गुफा ) को, जो अपूर्ण होने के कारण बहुत वर्षों से अवहेलित था, पूर्ण कराया और वास के निमित्त चारों दिशाओं के भिक्षुसंघ को प्रदान दिया। विश्लेषण इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि स्वयं साधु ( यति ) लोग भी लयण उत्खनन करने का साहस करते थे पर कदाचित् धनाभाव के कारण सफल नहीं हो पाते थे। ऐसे ही एक गुहा के पूर्ण कराने का उल्लेख इस अभिलेख में है। इस अभिलेख की उल्लेखनीय बात यह है कि महासेनापति की भार्या ने अपने को महासेनापत्नी कहा है। सामान्यतः पति के पद, विरुद या उपाधि से राजपत्नी के अतिरिक्त दूसरा नहीं पुकारा जाता। ऐसे में किसी को अपने को महासेनापत्नी कहना दुस्साहस ही कहा जायेगा। किन्तु ऐसा कोई अकारण नहीं करेगा। बहुत सम्भव सातवाहन – शासन-व्यवस्था में राज्य के उच्च पदाधिकारियों की पत्नियों को उनके पति के पद, विरुद या उपाधि से अभिहित किये जाने की परम्परा रही हो। पर ऐसा कोई दूसरा उदाहरण इसके समर्थन के लिए प्राप्त नहीं है। एक दूसरा अभिप्राय यह भी हो सकता है कि वसु स्वयं किसी नारी सेना की प्रधान रही हो और अपने इस अधिकार से महासेनापत्नी कही जाती रही हो। पर अब तक किसी भी सूत्र से प्राचीन भारत में नारी सेना अज्ञात है। इस कारण पहली सम्भावना को ही ग्रहण करना उचित होगा। नासिक गुहा अभिलेख : सातवाहन नरेश कृष्ण नागानिका का नानाघाट अभिलेख नानाघाट गुहा मूर्ति परिचयपट्ट गौतमीपुत्र शातकर्णि का नासिक गुहा अभिलेख ( १८वाँ वर्ष ) गौतमीपुत्र शातकर्णि का नासिक गुहालेख ( २४वाँ वर्ष ) वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि का नासिक गुहालेख

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वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि का नासिक गुहालेख

भूमिका वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि का नासिक गुहालेख गुफा ३ में, जिस पर गौतमीपुत्र शातकर्णि का अभिलेख अंकित है, बरामदे के सामने की दीवार पर बायें हाथ के द्वार और खिड़की के ऊपर ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में अंकित है। संक्षिप्त परिचय नाम :- वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि का नासिक गुहालेख ( Nasik Cave Inscription of Vashisthiputra Pulmavi ) स्थान :- नासिक, महाराष्ट्र भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि का १९वाँ राज्यवर्ष विषय :- गौतमीपुत्र शातकर्णि की राजनीतिक उपलब्धियाँ, भिक्षु संघ को महादेवी गौतमी बलश्री एवं पुलुमावि की माँ द्वारा गुहा का दान वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि विका नासिक गुहालेख : मूलपाठ १. सिद्धं [ । ] रञो वासिठीपुतस सिरि-पुलुमायिस सवरे एकुनवीसे १० (+) ९ गीम्हाणं पखे वितीये २ दिवसे तेरसे १० (+) ३ [ । ] राजररञो गोतमीपुतस हिमव[ त ] – मेरु २. मदर-पवत सम-सारस असिक-असक-मुलक-सुरठ कुकुरापरंत- अनुपविदभ-आकरावंति-राजस विझछवत परिचात सय्ह कण्हगिरि-मच-सिरिटन मलय-महिद- ३. सेटगरि-चकोर-पवत-पतिस सवराज [लोक] मंडल-पतिगहीत-सासनस दिवसकर [क] र-विबोधित-कमलविमल सदिस वदनय तिस-मुद-तोय-पीत-वाहनस पटिपूंर्ण चद-मडल-ससिरीक- ४. पियदसनस वर वारण-विकस-चारु विकमस भुजगपति-भोग-पीन-वाट-विपुल-दीघ-सुद [र] -भुजस अभयोदकदान-किलिन निभय-करस अविपन-मातु सुसूसाकस सुविभत-तिवग देस-कालस ५. पोरजन-निविसेस-सम-सुक-दुखस खतिय-दप-मान-मदनस सक-यवन-पह्लव निसूदनस धमोपजित-कर-विनियोग-करस कितापराधे पि सतुजने अ-पाणहिसा-रुचिस दिजावर कुट्ब-विवध- ६. नस खखरात-वस-निरवसेस-करस सातवाहनकुल-यस-पतिथापन-करम सव मंडलाभिवादित-च[र]णस विनिवतित चालूवण संकरस अनेक समवजित-सतु-सपस अपराजित-विजयपताक-सतुजन दुपधसनीय- ७. पुरवरस कुल-पुरिस-परपरागत-विपुल-राज-सदस आगमान [नि]- लयस सपुरिसानं असयस सिरी [ये] अधिठानस उपचारान पभवस एक-कुसस एक-धनुधरस एक-सूरस एक-बम्हणस राम- ८. केसवाजुन-भीससेन-तुल-परकमस छण-धनुसव-समाज-कारकस नाभाग-नहुस जनमेजय-सकर-य [ या ] ति-रामाबरीस-सम-तेजस अपरिमित-मखयमचितयभुत पवन-गरुल-सिध-यख राखस-विजाधर भूत-गधव-चारण- ९. चंद-दिवाकर-नखत-गह-विचिण-समरसिरसि जित-रिपु-सधस नाग-वर-खधा गगनतलमभिविगाढस कुल-विपु [ लसि ] रि-करस सिरि-सातकणिस मातुय महादेवीय गोतमीय बलसिरीय सचवचन-दान-खमाहिसा-निरताय तप-दम-निय- १०. मोपवास-तपराय राजरिसिवधु-सदमखिलमनुविधीयमानाय कारित देयधम [केलासपवत] सिखर-सदिसे [ति] रण्हु-पवत-सिखरे विम- [ना] वर-निविसेस महिनढीक लेण [ । ] एत च लेण महादेवी महा-राज-माता महाराज-[पि]तामही ददाति निकायस भदावनीयान भिखु-सधस [।] ११. एतस च लेण[स] चितण-निमित महादेवीय अयकाय सेवकामो पियकामो च ण [ता] [सिरि-पुलुमावि] [दखिणा] पथेसरो पितु-पतियो (पितिये) धमसेतुस [ददा] ति गामं तिरण्हु-पवतस अपर-दक्षिण पसे पिसाजिपदक सव जात-भोग-निरठि [॥] हिन्दी अनुवाद सिद्धम्। राजा वाशिष्ठीपुत्र श्री पुलुमावि के संवत्सर १९ (उन्नीस) के ग्रीष्म के दूसरे पक्ष का दिवस १३। राजराजा गौतमीपुत्र शातकर्णि की— [जिनकी] दृढ़ता हिमालय, मेरु, मन्दार पर्वत के समान थी; [जो] ऋषिक, अश्मक, मूलक, सुराष्ट्र, कुकुर, अपरान्त, अनूप, विदर्भ, आकर, अवन्ति के राजा [थे] ; [जो] विन्ध्य, ऋक्ष, परियात्र, सह्य, कृष्णगिरि, मत्त (मच), श्रीस्थान (सिरिटन), मलय, महेन्द्र श्रेष्ठ-गिरि (अथवा श्वेतागिरि), चकोर पर्वत के स्वामी [थे]; [जिनकी] सर्व-राजलोक-मण्डल आज्ञा पालन करता था; [जिनका] मुख किरणों से विबोधित कमल-सदृश विमल था; [जिनकी] सेना त्रिसमुद्र का जलपान करती थी; [जो] चन्द्रमण्डल के समान प्रियदर्शी थे; [जिनका] ललाट हाथी के मस्तक के समान सुन्दर और विशाल था; [जिनकी] भुजाएँ नागराज के समान स्थूल, गोल, विपुल, दीर्घ और सुन्दर थीं; [जिनकी] निर्भीक भुजाएँ सदैव अभय-दान के जल से भींगी रहती थीं; [जिन्हें] अपनी माता की सेवा करने में तनिक भी संकोच न था; [जो] त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) के देश और काल को अच्छी तरह समझते थे; [जो] पौरजन (प्रजा) के सुख-दुःख में समान रूप से भाग लेते थे: [जिन्होंने] क्षत्रियों के दर्प और मान का मर्दन किया था; [जिन्होंने] शक, यवन और पहवों का विनाश किया था; [जो] धर्मशास्त्र समर्थित ही कर लिया करते थे; [जिन्हें] अपराधी शत्रुओं की भी प्राण-हिंसा में रुचि न थी; [जो] द्विज और अद्विज परिवारों की समृद्धि के प्रति समान भाव रखते थे; [जिन्होंने] क्षहरात-वंश को निरवशेष कर दिया; [जिन्होंने] सातवाहन कुल की प्रतिष्ठा स्थापित की; [जिनके] चरणों की वन्दना सारे मण्डल के लोग करते थे; [जिन्होंने] चातुर्वर्ण के संकर होने से रोका; [जिन्होंने] अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की; [जिनकी] विजय-पताका कभी झुकी नहीं और [जिनकी] सुन्दर नगरी (राजधानी) में प्रवेश करना शत्रुओं के लिए महा कठिन था; परम्परागत उत्तराधिकार में [जिन्हें] सुन्दर ‘राज’ शब्द प्राप्त हुआ था; [जो] वेद आदि शास्त्रों (आगमों) के निलय (घर) थे [जो] सद्पुरुषों के आश्रय थे; [जो] अद्वितीय वीर थे; [जो] अद्वितीय ब्राह्मण थे; [जो] पराक्रम में राम, केशव, अर्जुन और भीमसेन के समान थे; [जो] शुभ अवसरों पर उत्सव और समाज कराते थे; [जिनका] तेज नाभाग, नहुष, जनमेजय, सगर, ययाति और अम्बरीष के समान था: [जो] अपरिमित, अक्षय, अचिन्त्य और अद्भुत थे; [जिन्होंने] पवन, गरुड़, सिद्ध, यक्ष, राक्षस, विद्याधर, भूत, गन्धर्व, चारण, चन्द्र-सूर्य, नक्षत्र, ग्रह से ईक्षित शत्रुओं को समर में पराजित किया था; [जिन्होंने] आकाश की गहराई में श्रेष्ठ पर्वत (हिमालय) के स्कन्द से भी ऊँचे प्रवेश किया था [जिन्होंने] कुल की श्री को विपुल बनाया था — माता महादेवी गौतमी बलश्री ने, जो सत्यवचन, दान, क्षमा, अहिंसा में निरत हैं, जो तप, दम, नियम, उपवास में तत्पर हैं और जो राजर्षिवधू शब्द के अनुरूप ही आचरण करती हैं, कैलास पर्वत के शिखर सदृश त्रिरश्मि पर्वत-शिखर पर स्थित विमान के समान पूर्ण एवं समृद्धि-पूर्ण लयण ( गुहा ) को देयधर्म के रूप में बनवाया और उस लयण को महादेवी, महाराज-माता, महाराज-पितामही ने भद्रायणी भिक्षु संघ को प्रदान किया। उनके नप्ता (प्रपौत्र) दक्षिणापथेश्वर [श्री पुलुमावि] पितामही (महादेवी आर्यका) की सेवा तथा प्रसन्नता के निमित्त तथा पिता के धर्म-सेतु के रूप में त्रिरश्मि पर्वत के अपर-दक्षिण पार्श्व में स्थित पिशचीपद्रक [नामक ग्राम] को, सर्व राज्याधिकार से मुक्त कर, इस लयण के चित्रण के निमित्त देते हैं। वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि का नासिक गुहालेख : महत्त्व इस लेख से ऐसा प्रकट होता है कि गौतमी बलश्री ने, जो गौतमीपुत्र शातकर्णि की माता और पुलुमावि की पितामही थीं, त्रिरश्मि पर्वत पर एक लयण उत्खनित कराया और उसे बौद्धों के भद्रायणी सम्प्रदाय को भेंट किया था और उनके पौत्र पुलुमावि ने उस लयण की व्यवस्था के लिए एक ग्राम दान किया। इस प्रकार यह दान का एक सामान्य घोषणा-पत्र है किन्तु अन्य कई दृष्टियों से यह लेख महत्त्वपूर्ण और विचारणीय है। १. इस अभिलेख में जिस लयण के उत्खनित किये जाने का उल्लेख है, वह वही होगा जिसकी भित्ति पर यह टंकित है। सामान्य भाव से यह भी कहा जा सकता है कि इस लेख का अंकन लयण उत्खनन कार्य समाप्त हो जाने के पश्चात् तत्काल ही किया गया होगा। इस प्रकार इस लेख को लवण पर अंकित अद्यतन लेख होना चाहिए। यह लेख, जैसा कि उसकी प्रारम्भिक पंक्ति से ज्ञात होता है, पुलुमावि के १९वें राजवर्ष में टंकित किया गया था। इस लयण की भित्ति पर दो अन्य लेख अंकित हैं जो गौतमीपुत्र सातकर्णि के वर्ष १८वें और २४वें राज्यवर्ष के हैं। इन दोनों ही लेखों में त्रिरश्मि पर्वत पर स्थित लयण

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गौतमीपुत्र शातकर्णि का नासिक गुहालेख ( २४वाँ वर्ष )

भूमिका नासिक गुहालेख ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में है। नासिक से गौतमीपुत्र शातकर्णि के दो अभिलेख मिलते है। एक उसके १८वें राज्यवर्ष का और दूसरा, २४वें राज्यवर्ष का। यह गुहालेख २४वें वर्ष का है अर्थात् १३० ई०। संक्षिप्त परिचय नाम :- गौतमीपुत्र शातकर्णि का नासिक गुहालेख ( राज्यवर्ष २४ ) ( Nasik Cave Inscription of Gautamiputra Satkarni – Reg. Year 24 ) स्थान :- नासिक गुहा, महाराष्ट्र भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी काल :- गौतमीपुत्र सातकर्णि का राज्यावर्ष २४ ( १३० ई० ) विषय :- गौतमीपुत्र सातकर्णी का पत्र आमात्य श्यामक को जो कि नगर दान की चर्चा है। गौतमीपुत्र शातकर्णि का नासिक गुहालेख ( २४वाँ वर्ष ) : मूलपाठ १. सिद्धं ( ॥ ) गोवधने अम [ च ] स सामकस [ दे ] यो [ रा ] जाणितो ( । ) २. रञो गोतमिपुत्र सातकणि [ स ] म [ हा ] देवीय च जीवसुताय१ राज-मातुय वचनेन गोवधने [ अम ] चो सामको अरोग वतव ( । ) ततो एव च ३. वतवो ( । ) एथ अम्हेहि पवर्त तिरण्डुम्हि अम्हधमदाने लेणे पतिवसतानं पवजितान मिखून गा [ मे ] कखडीसु पुव खेतं दत ( । ) तं च खेत ४. [ न ] कसते सो च गामो न वसति ( । ) एवं सति य दानि एथ नगर-सीमे राजकं खेतं अम्ह-सतकं ततो एतेस पवजितानं भिखूनं तेरण्डुकानं दद [ म ] ५. खेतस निवतण-सतं १०० ( १ ) तस च खेतस परिहार वितराम अपावेस अनोमस अलोण- खादक-अरठ-सविनयिक सव-जात पारिहारिक च ( । ) ६. एतेहि न परिहारेहि परिहरेठ ( । ) एत चस खेत-परिहा [ रे ] च एथ निबधापेथ ( । ) अवियेन आणत ( । ) पटिहार-( र ) लोटाय छतो लेखो ( । ) सबछरे २० ( + ) ७. वासान पखे ४ दिवसे पचमे ५ ( । ) सुजिविना कटा ( । ) निबधो निबधो सवछरे २० (+) रखिय ४ गिहान पखे २ दिवसे १० ( ॥ ) जीवासुता से अभिप्राय है कि राजा बीमार था।१ हिन्दी अनुवाद सिद्धम्॥ गोवर्धन के आमात्य श्याम को देने के लिए राजाज्ञा पत्र। राजा गौतमीपुत्र शातकर्णि और महादेवी राजमाता जीवित पुत्र वाली के आज्ञा से गोवर्धन के आमात्य श्याम के आरोग्य की कामना की जाय ( पूछा जाय ) और इसके पश्चात् यह कहा जाय – त्रिरश्मि ( तिरण्डु ) पर्वत पर जो हमारा धर्मदान गुहा ( लेण ) है उसमें प्रव्रजित होकर रहने वाले भिक्षुओं के लिए कखड़ी ग्राम में पूर्वकाल में हमारे द्वारा दिया गया खेत है। किन्तु वह खेत न जोता जाता है और न वहाँ गाँव ही बसा है। इसलिए इस नगर की सीमा पर हमारे स्वत्व से विशिष्ट जो राजकीय खेत हैं उसमें से एक सौ निवर्तन ( भूमि की एक इकाई ) इन प्रव्रजित भिक्षुओं के लिए देते हैं। यह खेत राज्य सैनिकों के लिए अप्रवेश्य, राजकर्मचारियों द्वारा उत्पन्न बाधा से निर्लिप्त, सरकार द्वारा नमक के लिए न खोदा जाने वाला, राज्यशासन से पृथक् और सभी प्रकार की विमुक्तियों से युक्त रहेगा। इस खेत को इन सभी विमुक्तियों से मुक्त करें। इन विमुक्तियों तथा खेत के दान को पंजीकृत कराएँ। यह आज्ञा मौखिक रूप से दी गई थी। पतिहार रक्षिका लोटाद्वार आज्ञा पत्र का प्रारूप तैयार किया गया। इसे संवत्सर २४ में वर्षाकाल के चौथे पक्ष के पाँवचें दिन सुजीव द्वारा कार्यान्वित किया गया। इसे संवत्सर २४ ग्रीष्म ऋतु के दूसरे पक्ष में दसवें दिन पंजिका में निबद्ध किया गया। नासिक गुहालेख : ऐतिहासिक महत्त्व यह अभिलेख गौतमीपुत्र शातकर्णि नामक राजा के द्वारा उसके पूर्व अभिलेख नासिक गुहालेख ( वर्ष १८ ) के तारतम्य में है । इसकी शैली, सम्बोधनशीलता, प्रस्तुति, विवरण तथा विषयवस्तु लगभग वही है। उसी प्रकार का दान बौद्ध भिक्षुओं के लिए इस ब्राह्मण-धर्मानुयायी शासक द्वारा दिया गया है। अतः जो विशेषताएँ पूर्व अभिलेख में देखी गयी है वे सभी विशेषताएँ धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि इसमें भी हैं। अन्तर मात्र इतना है कि वह दान ग्राम की भूमि का था और यह दान नगर की भूमि का है। इसे ग्राम और नगर क्रमशः शासनिक इकाई ज्ञात होते हैं। तिथि का अन्तर इस अभिलेख में है । पूर्ववर्ती अभिलेख उसके शासन वर्ष १८ का जहाँ उल्लेख करता है वहाँ यह वर्ष २४ का उल्लेख करता है। इससे स्पष्ट है कि पूर्व अभिलेख के अनुसार शक संवत् में उल्लिखित यह तिथि ई० १३० की बोधक है क्योंकि पहले सन्दर्भ में देखा गया है कि नहपान की अन्तिम ज्ञात तिथि ४६ शक संवत् के अनुसार — ७८ ई० + ४६ = १२४ ई० है। उससे १८ वर्ष पूर्व जैसा पूर्व अभिलेख में उल्लिखित है, गौतमीपुत्र की प्रथम ज्ञात तिथि है । अतः १२४ – १८ = १०६ ई० में वह सिंहासनारूढ़ हुआ था। इसकी अन्तिम ज्ञात तिथि इस अभिलेख की २४ = १०६ + २४ = १३० ई० है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि इस शासक ने ने २४ वर्ष शासन किया था जो १०६ से १३० ई० के मध्य था। यहाँ सातवाहनों के शासन व्यवस्था का भी कुछ ज्ञान मिलता है। कुछ अधिकारियों का उल्लेख यहाँ किया गया है; यथा -अमच्च, महास्वामी और प्रतिहार। साथ ही भूमिदान देने, दानपत्र के लिखे जाने तथा उस राजाज्ञा के कार्यान्वयन तक की सारी प्रक्रिया का विवरण भी इस अभिलेख से ज्ञात होता है। गौतमीपुत्र शातकर्णि का नासिक गुहा अभिलेख ( १८वाँ वर्ष )

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