अभिलेख

चन्द्रगुप्त द्वितीय का उदयगिरि गुहा अभिलेख ( प्रथम )

परिचय उदयगिरि गुहा अभिलेख (प्रथम) मध्य प्रदेश राज्य के विदिशा जनपद में स्थित है। यह अभिलेख गुप्त सम्वत् वर्ष ८२ या ४०१ ई० का है। उदयगिरि विदिशा (मध्य प्रदेश) के उत्तर-पश्चिम कुछ ही दूर स्थित एक पहाड़ी है। उसके निकट ही एक गाँव है, जो इस पहाड़ी के कारण उदयगिरि कहा जाता है। इस उदयगिरि पहाड़ी के पूर्वी भाग में, गाँव के कुछ दक्षिण, धरातल पर ही एक गुहा-मन्दिर है। इस गुहा-मन्दिर में दो मूर्ति फलक हैं। एक में दो पत्नियों सहित भगवान विष्णु का और दूसरे में द्वादश-भुजी देवी का अंकन है। इन मूर्ति-फलकों के ऊपर लगभग २ फुट ४ इंच चौड़ा और १.५ फुट ऊँचा एक गहरा चिकना फलक है जिस पर यह लेख अंकित है। इस लेख को सर्वप्रथम एलेक्जेंडर कनिंघम ने १८५४ ई० में प्रकाशित किया था। १८५८ ई० में एडवर्ड थामस ने एच० एच० विलसन के अनुवाद के साथ अपना एक स्वतन्त्र पाठ प्रस्तुत किया था। तदनन्तर १८८० ई० कनिंघम ने इसे दुबारा संशोधित रूप में प्रकाशित किया। इसके पश्चात् फ्लीट ने इसको सम्पादित कर प्रकाशित किया। संक्षिप्त जानकारी नाम :- चन्द्रगुप्त द्वितीय का उदयगिरि गुहाभिलेख (प्रथम) [ Udaigiri Cave Inscription of Chandragupta II ]। स्थान :- उदयगिरि, विदिशा जनपद; मध्य प्रदेश। भाषा :- संस्कृत। लिपि :- ब्राह्मी। समय :- गुप्त सम्वत् – ८२ या ४०१ ई० ( ८२ + ३१९ ), चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासनकाल। विषय :- चन्द्रगुप्त द्वितीय के सामन्त सनकानिक महाराज द्वारा गुहादान। मूलपाठ १. सिद्धम्॥ संवत्सरे ८० (+) २ आषाढ़-मास-शुक्लेकादश्यां [ द ] परमभट्टारक महाराजाधि [ राज ] – श्री चन्द्र [ गु ] प्त-पादानुद्धयातस्य २. महाराज-छगलग-पौत्रस्य महाराज-विष्णुदास-पुत्रस्य सनकानिकस्य महा [ राज ] [ सोढ़ ] – लस्यायं देय-धर्म्मः। अनुवाद सिद्धि हो। संवत्सर ( वर्ष ) ८२ के आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को परमभट्टारक महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त के चरणों का चिन्तन करने वाले ( पादानुध्यात ) महाराज छगलग के पौत्र, महाराज विष्णुदास के पुत्र, सनकानिक महाराज [ सोढल ] का [ यह ] धर्म-दान [ है ]। ऐतिहासिक महत्त्व उदयगिरि गुहा अभिलेख ( प्रथम ) का कई दृष्टियों से महत्त्व है; जैसे – इसमें गुप्त सम्वत् का उल्लेख मिलता है, सनकानिक महाराज के उल्लेख है जोकि हमें समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति में भी मिलता है। सामान्य रूप में यह गुहा-निर्माण अथवा लेख के नीचे उत्कीर्ण मूर्ति फलकों के धर्म-दान के रूप में निर्माण कराये जाने की घोषणा है। यह धर्म-दान चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के एक सामन्त द्वारा दिया गया था। उसका नाम अभिलेख में स्पष्ट नहीं है; उपलब्ध संकेतों के आधार पर सोढल नाम की सम्भावना दिनेशचन्द्र सरकार ने प्रकट की है। भण्डारकर ने चार अक्षरों का नाम होने की सम्भावना व्यक्त किया है। उसने अपने को सनकानिक कुल (अथवा जाति) का बताया है। सनकानिक का उल्लेख समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति की २२वीं पंक्ति* में सीमावर्ती जन-जाति के रूप में हुआ है। प्रस्तुत अभिलेख के आधार पर अनेक विद्वानों की धारणा है कि सनकानिक लोग विदिशा के प्रदेश में रहते थे। किन्तु इस प्रकार की कल्पना इस कारण स्वयं असिद्ध है कि उन्हीं दिनों उसी प्रदेश में गणपति नाग का शासन था। समतट-डवाक-कामरूप-नेपाल-कर्तृपुरादि-प्रत्यन्त-नृपतिभिर्म्मालवार्जुनायन-यौधेय-माद्रकाभीर-प्रार्जुन-सनकानीक-काक-खरपरिकादिभिश्च-सर्व्व-कर-दानाज्ञाकरण-प्रणामागमन-* ( समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति – २२वीं पंक्ति )। चन्द्रगुप्त (द्वितीय) की पुत्री प्रभावती गुप्ता के संरक्षण काल में वाकाटक राज्य की व्यवस्था के लिये जो सैनिक और प्रशासनिक अधिकारी पाटलिपुत्र से भेजे गये थे, उन्हीं में महाराज [ सोढल ] भी रहे होंगे। चन्द्रगुप्त द्वितीय का मथुरा स्तम्भलेख ( Mathura Pillar Inscription of Chandragupta II )

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चन्द्रगुप्त द्वितीय का मथुरा स्तम्भलेख ( Mathura Pillar Inscription of Chandragupta II )

भूमिका चन्द्रगुप्त द्वितीय का मथुरा स्तम्भलेख एक प्रस्तर-स्तम्भ पर अंकित है। यह मथुरा नगर स्थित रंगेश्वर महादेव के मन्दिर के निकट चन्दुल-मन्दुल की बगीचे के एक कुएँ में लगा हुआ था। यह अभिलेख अब मथुरा संग्रहालय में संरक्षित है। लेख स्तम्भ के पाँच पहलों पर अंकित है; तीसरे पहल वाला अंश क्षतिग्रस्त है। इसे सर्वप्रथम द० ब० दिस्कलकर ने प्रकाशित किया था। उसके बाद द० रा० भण्डारकर ने उसका सम्पादन किया। भण्डारकर के पाठ में दिनेशचन्द्र सरकार ने कुछ संशोधित किया है। संक्षिप्त परिचय नाम :- चन्द्रगुप्त द्वितीय का मथुरा स्तम्भलेख ( Mathura Pillar Inscription of Chandragupta II )। स्थान :- चन्दुल-मण्डुल या चण्डू-भण्डू की वाटिका, मथुरा; उत्तर प्रदेश। भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- ३८० ई० या ६१ गुप्त सम्वत्। चन्द्रगुप्त द्वितीय का पंचम राज्यवर्ष। विषय :- शिवलिंग और शैव आचार्यों से सम्बन्धित मथुरा स्तम्भलेख : मूलपाठ १. सिद्धम् [ । ] भट्टारक-महाराज- [ राजाधि ] राज श्री समुद्रगुप्त-स- २. [ त्पु ] त्रस्य भट्टारक-म [ हाराज ]- [ राजाधि ] राज-श्री चन्द्रगुप्त- ३. स्य विजय-राज्य संवत्स [ रे ] [ पं ] चमे [ ५ ] कालानुवर्त्तमान-सं०- ४. वत्सरे एकषष्ठे ६० (+) १ [ आषाढ़ मासे प्र ] थमे शुक्ल दिवसे पं- ५. चम्यां [ । ] अस्यां पूर्व्वा [ यां ] [ भ ] गव [ त्कु ] शिकाद्दशमेन भगव- ६. त्पराशराच्चतुर्थेन [ भगवत्क ] पि [ ल ] विमल शि- ७. ष्य-शिष्येण भगव [ दुपमित ] विमल शिष्येण ८. आर्य्योदि [ त्ता ]चार्य्ये [ ण ] [ स्व ] – पु [ ण्या ] प्यायन-निमितं ९. गुरुणां च कीर्त्य [ र्थमुपमितेश्व ] र-कपिलेश्वरौ १०. गुर्व्वायतने गुरु [ प्रतिमायुत्तौ ] प्रतिष्ठापितो [ । ] नै- ११. तत्ख्यात्यर्थमभिलि [ ख्यते ] [ । ] [ अथ ] माहेश्वराणां वि- १२. ज्ञप्तिः क्रियते सम्बोधनं च [ । ] यथाका [ ले ] नाचार्य्या- १३. णां परिग्रहमिति मत्वा विशङ्कं [ पू ] जा-पुर- १४. स्कारं परिग्रह-पारिपाल्यं कुर्य्यादिति विज्ञप्तिरिति [ । ] १५. यश्च कीर्त्यभिद्रोहं कुर्य्याद्यश्चाभिलिखितमुपर्य्यधो १६. वा स पंचभिर्महापातकैरुपपातकैश्च संयुक्तस्स्यात् [ । ] १७. जयति च भगवा [ णदण्डः ] रुद्रदण्डो (ऽ) ग्र [ ना ] यको नित्यं [ ॥ ] हिन्दी अनुवाद सिद्धि हो। भट्टारक महाराजाधिराज समुद्रगुप्त के सत्पुत्र भट्टारक महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त के विजय-राज्य के वर्ष पाँच, कालक्रम में वर्तमान संवत् ६१ के प्रथम [ आषाढ़ ] के शुक्ल पक्ष की पंचमी का दिन। इस पूर्व [ कथित दिन को ] भगवत् कुशिक के [क्रम में] दसवें, भगवत् पराशर के [ क्रम में ] चौथे, भगवत् कपिलविमल के शिष्य के शिष्य, भगवत् उपमित के शिष्य आर्य उदिताचार्य ने अपने पुण्य एवं गुरु की कीर्ति के निमित्त गुर्व्वायतन ( गुरु के निवास-स्थान ) में अपने गुरु के नाम से उपमितेश्वर एवं कपिलेश्वर [ दो प्रतिमा अथवा लिंग ] का प्रतिष्ठापन किया। [ इस लेख को मैं ] अपनी ख्याति के लिये नहीं लिखा रहा हूँ [ वरन् ] माहेश्वरों ( शिव के उपासकों ) को सम्बोधित कर [ बताने के लिये ] विज्ञापित कर रहा हूँ। समय समय पर जो भी आचार्य हों, वे शंका रहित होकर इनकी पूजा, पुरस्कार ( भोग-प्रसाद ) और परिग्रह ( सेवा ) करें। वे इस [ आदेश ] का परिपालन करें इस लिये यह विज्ञप्ति है। जो इस कीर्ति के प्रति द्रोह करेगा अथवा इस विज्ञप्ति [ के आदेश ] को ऊपर-नीचे करेगा ( उलट-फेर करेगा ) ( अर्थात् विपरीत आचरण करेगा ) उसे पंच महापातक और उप-पातक लगेंगे। अग्रनायक भगवान् दण्ड रूद्रण्ड ( शिव ) की सदा जय हो। ऐतिहासिक महत्त्व चन्द्रगुप्त के शासनकाल के मथुरा स्तम्भलेख का कई दृष्टियों से ऐतिहासिक महत्त्व है; यथा – पाशुपत सम्प्रदाय की जानकारी मिलती है। पाशुपत सम्प्रदाय के आचार्य परम्परा की जानकारी मिलती है। इस अभिलेख में दोहरे सम्वत् का उल्लेख मिलता है जिससे गुप्त सम्वत् के निर्धारण में सहायता मिली है। चन्द्रगुप्त द्वितीय के लिये ‘महाराज राजाधिराज’ विरुद का प्रयोग मिलता है। पाशुपत सम्प्रदाय का विवरण यह लेख मूलतः आचार्य उदित द्वारा उपमितेश्वर और कपिलेश्वर नाम से शिव-लिंग ( अथवा प्रतिमा ) की स्थापना की उद्घोषणा है। आचार्य उदित ने अपने को भगवत् कुशिक की शिष्य परम्परा में बताया है और कहा है कि वे उनकी परम्परा के क्रम में दसवें हैं। पाशुपत मत के संस्थापक लकुलीन ( लकुलीश ) महेश्वर ( शिव ) के अन्तिम अवतार कहे जाते हैं। वे कायावरोहण या कायावतार ( पूर्ववर्ती बड़ौदा रियासत के डभोई ताल्लुका में स्थित आधुनिक कारवान ) में हुए थे। कहा जाता है उनके चार शिष्य हुए। वायु और लिंग पुराणों के अनुसार इन शिष्यों के नाम हैं — कुशिक, गर्ग, मित्र और कौरुष्य। चालुक्य शासक शारंगदेव-कालीन सोमनाथ ( काठियावाड़ ) से मिले एक अभिलेख में उनका उल्लेख कुशिक, गार्ग्य, कौरुष्य और मैत्रेय के नाम से किया गया है। इन चारों शिष्यों ने पशुपत मत के अन्तर्गत अपने अपने सम्प्रदाय स्थापित किये। सोमनाथ अभिलेख के अनुसार गार्ग्य के अपने सम्प्रदाय का केन्द्र काठियावाड़ में सोमनाथ को बनाया था। सम्भवतः उसी प्रकार कुशिक के शिष्य मथुरा आ बसे थे। उन्हीं कुशिक की शिष्य परम्परा की चर्चा इस अभिलेख में है। पाशुपत सम्प्रदाय में दिवंगत साधुओं को भगवत् और जीवित साधुओं को आचार्य कहते हैं। इस परम्परा के अनुसार उदित ने अपना आचार्य के रूप में तथा अपने पूर्ववर्तियों को भगवत् कह कर परिचय दिया है। उन्होंने अपने को कुशिक की शिष्य परम्परा में दसवां बताते हुए पूरी सूची न देकर अपने से पूर्ववर्ती केवल तीन भगवतों का उल्लेख किया है। इसके अनुसार पराशर के शिष्य कपिलविमल हुए, कपिलविमल के शिष्य उपमितविमल थे और उपमितविमल के शिष्य उदित थे। इन उदिताचार्य ने गुर्व्वायतन में अपने गुरु उपमित और गुरु के गुरु कपिल की स्मृति में उनके नाम से दो शिव लिंगों की स्थापना की। गुर्व्वायतन का सीधा-साधा अर्थ गुरु-गृह होगा किन्तु यहाँ तात्पर्य दिवंगत शासकों की स्मृति में स्थापित कुषाण-कालीन प्रथा—परम्परा में स्थापित देवकुल की तरह ही दिवंगत पाशुपत-आचार्यो ( भगवत् ) की स्मृति के निमित्त शिवलिंगों की स्थापना के निमित्त बने भवन ( आयतन ) से जान पड़ता है। वह कदाचित् भास द्वारा प्रतिमा नाटक में उल्लिखित प्रतिमा-गृह की तरह ही रहा होगा और उसमें गुरुओं की स्मृति में उनके नाम से लिंग प्रतिष्ठापित किये जाते रहे होंगे। और उन लिंगों पर गुरुओं की प्रतिभा अंकित कर उनमें भेद प्रस्तुत किया जाता रहा

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विदिशा जैनमूर्ति लेख

परिचय १६६९ ई० में विदिशा (मध्य प्रदेश) नगर से दो मील दूर बेस नदी के तटवर्ती दुर्जनपुर ग्राम के एक टीले की बुलडोजर से खुदाई करते समय जैन तीर्थकरों की तीन मूर्तियाँ प्राप्त हुई थीं, जो खुदाई करते समय क्षतिग्रस्त हो गयीं। विदिशा जैनमूर्ति लेख इस समय विदिशा संग्रहालय में संरक्षित हैं। इनमें एक आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ स्वामी की, दूसरी नवें तीर्थंकर पुष्पदन्त स्वामी की और तीसरी छठवें तीर्थंकर पद्मप्रभ स्वामी की मूर्ति है। इनमें से प्रत्येक की चौकी पर यह लेख अंकित है। पद्मप्रभ की प्रतिमा का अधिकांश लेख नष्ट हो गया है। पुष्पदन्त की मूर्ति पर केवल आधा लेख है। केवल चन्द्रप्रभ की प्रतिमा पर ही सम्पूर्ण लेख उपलब्ध है। इन मूर्ति लेखों को जी० एस० गाई ( G. S. Gai ) और रत्नचन्द्र अग्रवाल  ने एक साथ ही किन्तु स्वतन्त्र रूप में प्रकाशित किया था। संक्षिप्त परिचय नाम :- विदिशा जैनमूर्ति लेख, दुर्जनपुर जैनमूर्ति लेख स्थान :- दुर्जनपुर ग्राम, विदिशा जनपद, मध्य प्रदेश भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- गुप्तकाल विषय :- जैन धर्म से सम्बन्धित महत्त्व :- विदिशा जैनमूर्ति लेख रामगुप्त की ऐतिहासिकता का साक्ष्य है। मूलपाठ ( १ ) १. भगवतोऽर्हतः। चन्द्रप्रभस्य प्रतिमेयं कारिता म- २. हाराजाधिराज श्रीरामगुप्तेन उपदेशात् पाणिपा [ – ] ३. त्रिक चन्द्रक्षमाचार्य क्षमण-श्रमण-प्रशिष्याचा- ४. र्य्यसर्प्यसेन-क्षमण शिष्यस्य गोलक्यान्त्यासत्पुत्रस्य चेलू क्षमणस्येति [ । ] ( २ ) १. भगवतोऽर्हतः। पुष्पदन्तस्य प्रतिमेयं कारिता म- २. हाराजाधिराज श्रीरामगुप्तेन उपदेशात् पाणिपात्रिक ३. चन्द्रश्रम[णा]र्य [क्षमणा] श्रमण प्रशि[ष्य ] …. ४. [ …………………………………………………………………. ] ( ३ ) १. भगवतोऽर्हतः [पद्मप्रभ]स्य प्रतिमेयं कारिता महाराजाधिरा[ज] २. श्री [रामगुप्ते]न उ [पदेशात पा]णि[पात्रि][-] ३. [ …………………………………………………………………. ] ४. [ …………………………………………………………………. ] हिन्दी अनुवाद ( १ ) भगवान् अर्हत्। पाणि-पात्रिक चन्द्रमणाचार्य क्षमण-श्रमण के प्रशिष्य आचार्य सर्प्पसेन श्रमण के शिष्य गोलक्यान्त के पुत्र चेल श्रमण के उपदेश से महाराजाधिराज श्री रामगुप्त ने चन्द्रप्रभ की इस प्रतिभा [ की प्रतिष्ठा ] करायी। ( २ ) भगवान् अर्हत्। पाणि-पात्रिक चन्द्रक्षमाचार्य क्षमण-श्रमण के शिष्य .….. के उपदेश से महाराजाधिराज श्री रामगुप्त ने पुष्पदन्त की इस प्रतिमा [ की स्थापना ] करायी। ( ३ ) भगवान् अर्हत्। पाणि-पात्रिक ……. के उपदेश महाराजाधिराज ……. ने [ पद्मप्रभ ] की प्रतिमा [ की स्थापना ] करायी। टिप्पणी ये तीनों अभिलेख जैन तीर्थकरों की प्रतिमाओं की स्थापना के सामान्य उद्घोष हैं। अभिलेखों की लिपि गुप्तकालीन है, जो चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के उदयगिरि और साँची अभिलेखों के समान ही है। इससे इन प्रतिमाओं का समय चौथी शताब्दी ई० सहज आँका जा सकता है। मूर्तियों की कला शैली में कुषाण कालीन तथा पाँचवीं शती ई० की गुप्तकालीन कला के बीच के लक्षण परिलक्षित होते हैं। मथुरा आदि से प्राप्त कुषाण कालीन बौद्ध और जैन मूर्तियों की चरणपीठिका पर जिस ढंग से सिंह का अंकन पाया जाता है, वैसा ही अंकन इन मूर्तियों में भी हुआ है। प्रतिमाओं के अंगविन्यास तथा सिर के पीछे के प्रभामण्डल में कुषाण-गुप्त सन्धिकालिक लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं। इस प्रकार ये मूर्तियाँ निसन्देह आरम्भिक गुप्तकाल की है। इनका ऐतिहासिक महत्त्व इस बात में है कि इन्हें महाराजाधिराज रामगुप्त ने प्रतिष्ठित काराया था। समसामयिक अभिलेखों के अनुसार समुद्रगुप्त के उपरान्त उनके पुत्र चन्द्रगुप्त (द्वितीय) शासक समझे जाते हैं। परन्तु विशाखदत्त कृत देवीचंद्रगुप्तम् नामक संस्कृत नाटक के कुछ अवतरण प्रकाश में आने पर यह ज्ञात हुआ कि चन्द्रगुप्त (द्वितीय) अपने पिता के तत्कालिक उत्तराधिकारी नहीं थे। उनसे पहले कुछ काल के लिये उनके बड़े भाई रामगुप्त ने शासन किया था। परन्तु अनेक विद्वान इसे काल्पनिक कहानी मान कर इस नाटक की इतिहास के प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। रामगुप्त की ऐतिहासिकता के साधन साहित्यिक साधन विशाखदत्त कृत देवीचन्द्रगुप्तम् बाणभट्ट कृत हर्षचरित राजशेखर की काव्यमीमांसा भोज कृत शृंगारप्रकाश शंकरार्य कृत हर्षचरित की टीका अबुल हसन अली कृत मुजमल-उत-तवारीख अभिलेखीय साधन संजन का लेख काम्बे का लेख संगली का लेख मुद्रा साधन भिलसा और एरण से प्राप्त ताम्र मुद्राएँ जब विदिशा-एरण प्रदेश से रामगुप्त के नाम के ताँबे के सिक्के प्रकाश में आये तब लोगों ने रामगुप्त की ऐतिहासिकता तो स्वीकार की परन्तु वे उसे गुप्तवंशीय सम्राट न मानकर मालय प्रदेश का स्थानीय शासक ही बताते रहे हैं। जैन-मूर्ति पर अंकित इन अभिलेखों के प्रकाश में आने पर यह तथ्य सामने आया कि रामगुप्त ने महाराजाविराज की उपाधि धारण की थी। यह उपाधि सर्वप्रथम गुप्त वंशीय सम्राटों ने ही धारणा किया था। इस परिप्रेक्ष्य में रामगुप्त के गुप्त वंशीय सम्राट होने में सन्देह नहीं रह जाता। इससे ध्रुवस्वामिनी के कथानक की ऐतिहासिकता भी सिद्ध होती है। गुप्त सम्राटों के वैष्णव होने के कारण रामगुप्त द्वारा जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों की प्रतिष्ठा कोई असाधारण सी बात नहीं है। क्योकि गुप्त सम्राट धार्म सहिष्णु थे। जैनधर्म की स्थापन से विद्वानों ने दो अर्थ निकाले हैं : एक; रामगुप्त अन्य गुप्त शासकों के विपरीत जैन मत में आस्था रखते थे। दो; रामगुप्त वैष्णव ही थे परन्तु धर्म सहिष्णु नीति के कारण जैन मूर्तियाँ स्थापित करायी होंगी। जो भी हो रामगुप्त द्वारा जैन-मूर्तियों की स्थापना का केवल इतना ही अर्थ लेना उचित होगा कि शासक के रूप में उसकी दृष्टि में सभी धर्म समान थे और उसने जैन-श्रमण के अनुरोध को मान कर इन मूर्तियों की स्थापना की व्यवस्था कर दी होगी। इस अभिलेख में चन्द्रक्षमाचार्य को पाणि-पात्रिक कहा गया है जो उल्लेखनीय है। पाणि-पात्रिक ऐसे साधु-सन्यासियों को कहते हैं जो भोजन किसी पात्र में रख कर नहीं करते; वरन पात्र के रूप में हाथ की अँजलियों का ही प्रयोग करते हैं। समुद्रगुप्त का नालन्दा ताम्रलेख समुद्रगुप्त का गया ताम्रपत्र समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति समुद्रगुप्त का एरण प्रशस्ति

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समुद्रगुप्त का एरण प्रशस्ति

भूमिका ९ इंच चौड़े और ३ फुट १ इंच आड़े (खड़े) लाल बलुआ पत्थर ( red-sandstone  ) के फलक पर समुद्रगुप्त का ‘एरण प्रशस्ति’ अंकित है। १८७४ और १८७७ ई० के बीच किसी समय यह फलक एलेक्जेंडर कनिंघम को मिला था। कनिंघम महोदय को यह अभिलेख बीना नदी के बायें तट पर स्थित एरण ( एरकिण ) नामक स्थान पर वराह मन्दिर के ध्वंसावशेषों के निकट प्राप्त हुआ था। ऐतिहासिक एरण ( एरकिण ) मध्य प्रदेश के सागर जनपद में स्थित है। सम्प्रति यह आजकल ‘भारतीय संग्रहालय, कोलकाता’ में सुरक्षित रखा गया है। समुद्रगुप्त के एरण प्रशस्ति-लेख में कुल २८ पंक्तियाँ हैं। इस प्रशस्ति की आरम्भ की ६ पंक्तियाँ तथा पंक्ति संख्या २८ का समूचा अंश अनुपलब्ध है। पंक्ति संख्या २५, २६ और २७ के कुछ शब्दांश ही प्राप्त होते हैं। अन्य जो पंक्तियाँ उपलब्ध हैं वे भी क्षतिग्रस्त हैं। अधिकांश पंक्तियों के आरम्भ के कुछ अक्षर तथा पंक्ति २५-२७ का काफी भाग नष्ट हो गया है। उपलब्ध अंशों से यह अनुमान किया गया है कि इस प्रशस्ति की रचना ‘बसन्त-तिलक छन्द’ में की गयी थी और आरम्भ की २४ पंक्तियों तक प्रत्येक पंक्ति में श्लोक का केवल एक पाद और पंक्ति २५ तथा उसके बाद की पंक्तियों में प्रत्येक श्लोक के दोनों पाद अंकित किये गये थे। प्रत्येक श्लोक के अन्त में दी गयी संख्या से यह भी ज्ञात होता है कि आरम्भ के केवल डेढ़ श्लोक अनुपलब्ध हैं। अन्त का कितना भाग अनुपलब्ध है यह अनुमान नहीं किया जा सका है। इन अभिलेख के सम्बन्ध में सर्वप्रथम १८८० ई० में कनिंघम ने जानकारी दी। तत्पश्चात् फ्लीट ने इसे सम्पादित कर अपने गुप्तकालीन अभिलेखों के संग्रह में लेख २ के रूप में प्रकाशित किया। उन्होंने स्वसम्पादित पाठ में पंक्ति १४, १८, २०, २१ तथा २४ के आरम्भ के अनुपलब्ध अंश के सम्बन्ध में अनुमान करने का प्रयास किया। उनका यह सम्पादित पाठ ही मुख्यतः लोगों के ध्यान में रहा है। परन्तु समय-समय पर अनेक विद्वानों ने इस अभिलेख के पाठ पर विचार किया है और अपनी-अपनी धारणा के अनुसार लुप्त अथवा त्रुटिपूर्णअंशों की पूर्ति करने का प्रयास किया है। फ्लीट के पश्चात् इसकी ओर ध्यान सर्वप्रथम डी० आर० भण्डारकर ने दिया। उन्होंने इसका पाठ अपने ढंग से प्रस्तुत किया जिसमें उन्होंने पंक्ति ८ से २४ तक अनुपलब्ध आरम्भिक शब्दों की पूर्ति तो की ही साथ ही पंक्ति ७, २५ और २६ के पूर्वाशों के सम्बन्ध में भी अपनी कल्पना प्रस्तुत की। किन्तु उन्होंने अपना यह पाठ स्वयं प्रकाशित नहीं किया। इस पाठ को श्रीधर वासुदेव सोहोनी ने बहादुरचन्द छाबड़ा से प्राप्त करके अपने सुझावों के साथ प्रकाशित किया है। डी० आर० भण्डारकर के अतिरिक्त काशी प्रसाद जायसवाल, दिनेशचन्द्र सरकार, बी० बी० मीराशी, जगनाथ अग्रवाल, साधुराम आदि अनेक विद्वानों ने भी इस अभिलेख के अभिप्राय के सम्बन्ध में अपनी-अपनी धारणा प्रस्तुत करते हुए पंक्ति ८ से २४ के त्रुटिपूर्ण आदि-भाग की पूर्ति के प्रयास किये हैं। संक्षिप्त परिचय नाम :- समुद्रगुप्त का एरण प्रशस्ति ( Eran Prashasti of Samudragupta ), समुद्रगुप्त का एरण शिलालेख ( Eran Stone Inscription of Samudragupta ) स्थान :- एरण या एरकिण, सागर जनपद, मध्य प्रदेश। भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- समुद्रगुप्त का शासनकाल ( ३५० — ३७५ ई० ) विषय :- समुद्रगुप्त की प्रशंसा एरण प्रशस्ति : मूलपाठ १- ……………………………………………………………………। २- ……………………………………………………………………[ । ] ३- ……………………………………………………………………। ४- ……………………………………………………………………[ ॥ २ ] ५- ……………………………………………………………………। ६- ……………………………………………………………………[ । ] ७- [ येनार्थि कल्पविटपेन ] सुवर्ण दाने ८- [ विस्मा ] रिता नृपतयः पृथु-राघवाद्याः ( ॥ २ ) ९- [ भूपो ] बभूव धनदान्तक-तुष्टि-कोपतुल्यः १०- [ पराक्र ]म१ -नयेन समुद्रगुप्तः ( । ) ११- [ यं प्रा ]प्य२ पार्थिव-गणस्सकलः पृथिव्याम् १२- [ उध्व ]स्त३ -राज्य-विभवद्ध्रुतमास्थितो(ऽ)भूत ( ॥ ३ ) १३- [ ताते ]न४ भक्तिनय-विक्रम-तोषितेन १४- [ सौ ]५ राज-शब्द-विभवैरभिषेचनाद्यैः ( । ) १५- [ सम्मा ]नितः परम-तुष्टि पुरस्कृतेन १६- [ सोऽयं ध्रुवो ]६ नृपतिरप्रतिवार्य-वीर्यः ( ॥ ४ ) १७- [ भूव ]स्य७ पौरुष-पराक्रम-दत्त-शुल्का १८- [ हस्त्य ]श्व-रथ-धन-धान्या समृद्धि युक्त ( । ) १९- [ सुचिर ]ङ्८ गृहेषु मुदिता बहु-पुत्र-पौत्र २०- [ च ] क्रामिणी कुलवधुः व्रतिनी निविष्टा९ ( ॥ ५) २१- [ यस्यो ]र्ज्जितं समर-कर्म पराक्रमेद्धं २२- [ पृथ्व्यां ]१० यशः सुविपुलम्परिवभ्रमीति ( । ) २३- [ वीर्या ]णि११ यस्य रिपवश्य रणोर्ज्जितानि २४- [ स्व ]प्नान्तरेष्वपि विचिन्त्य परित्रसन्ति ( ॥ ६ ) २५- …………………………………………………………………………………………१२ [ स्तम्भ ? ]१३ स्वभोगनगरैरिकिंण-प्रदेशे ( । ) २६- …………………………………………………………………………………………१४ [ सं ]स्थापित्तस्स्वयशसः परिब्रिङ्हनार्त्थम् ( ॥ ७ ) २७- ………………………………………………………………………………………… ………..  वो नृपतिराह यदा ………… ( । ) २८- ………………………………………………………………………………………… ………………………………………………………………………………………… ( ॥ ८ ) डी० आर० भण्डारकर ने इसकी पूर्ति सदागम के रूप में की है।१ डी० आर० भण्डारकर ने इसके आज्ञाप्य होने का अनुमान किया है।२ डी० आर० भण्डारकर ने येनस्त और दिनेशचन्द्र सरकार ने पर्यस्त के रूप में पूर्तिकी है।३ डी० आर० भण्डारकर ने पित्रेव के रूप में पूर्ति की है।४ डी० आर० भण्डारकर यो पढ़ते हैं।५ डी० आर० भण्डारकर ने [भू-वास]वो के रूप में पूर्ति की सम्भावना प्रकट की है।६ डी० आर० भण्डारकर श्रीरस्य और दिनेशचन्द्र सरकार दत्तास्य अनुमान करते हैं।७ डी० आर० भण्डारकर नित्यङ्य के रूप में पूर्ति करते हैं।८ डी० आर० भण्डारकर [ स ? ]ङ क्रामिणी होने का अनुभव किया है।९ डी० आर० भण्डारकर ने [ कर्मा ]णि और दिनेशचन्द्र सरकार कार्याणि अनुमान किया है।१० डी० आर० भण्डारकर ने इसके भक्तिं निदर्शयतुमाच्युत-पाठपीठो के रूप में पूर्ति का सुझाव दिया है।११ डी० आर० भण्डारकर ने शुक्रम् अथवा शुक्लम् का सुझाव दिया है।१२ डी० आर० भण्डारकर ने प्राप्तः का अनुमान किया है।१३ डी० आर० भण्डारकर ने देवालयश्च कृतिवान्न जनार्दनस्य के रूप में पूर्ति का सुझाव दिया है।१४ हिन्दी अनुवाद सुवर्ण-दान में [जो कल्प वृक्ष के समान है। ] पृथु राघव आदि राजाओं को भुला दिया गया है। [ ऐसे ] राजा पराक्रम एवं विनय से युक्त तुष्टि में कुबेर और क्रोध में अन्तक ( यमराज ) के समान हैं। उनके द्वारा, पृथिवी के समस्त शासक उध्वस्त एवं राज-वैभव से वंचित किये जा चुके हैं। अपनी भक्ति, विनम्रता, पराक्रम आदि गुणों के कारण ही उनका अभिषेक हुआ और वह राज-वैभव से सम्मानित एवं पुरस्कृत हुए। उसके समान विश्व में दूसरा कोई पराक्रमी नृपति नहीं है। [ जिस ] पृथिवी रूपी पत्नी को उन्होंने अपने पौरुष और पराक्रम रूपी शुल्क से प्राप्त किया है, वह हस्ति, अश्व,

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समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति

भूमिका प्रयाग प्रशस्ति ३५ फुट ऊँचे पत्थर के एक गोल स्तम्भ पर अंकित है, जो प्रयागराज ( इलाहाबाद ) में गंगा-यमुना तट पर स्थित मुगल कालीन दुर्ग के भीतर अवस्थित है। मूल रूप में सम्भवतः यह कौशाम्बी ( आधुनिक कोसम ) में, जो प्रयागराज के लगभग ४० किलोमीटर की दूरी पर पश्चिम की ओर यमुना तट पर स्थित है, स्थापित था। वहाँ से मुगल बादशाह अकबर के समय इसे लाकर वर्तमान स्थल पर खड़ा किया। यह स्तम्भ मूलतः मौर्य सम्राट अशोक-कालीन है। उस पर उसका कौशाम्बी स्थित महामात्यों को सम्बोधित किया गया शासनादेश अंकित है। इस अभिलेख में पंक्तियों के ऊपर तथा बीच में मध्यकाल में लोगों ने कुछ लिखने का प्रयास किया था, जिसके कारण तथा काल-कारण से चिप्पी उखड़ने से अभिलेख का आरम्भिक अंश क्षतिग्रस्त हो गया है। इस अभिलेख को सर्वप्रथम १८३४ ई० में बंगाल एशियाटिक सोसाइटी के जर्नल में कप्तान ए० ट्रायर ने प्रकाशित किया था। उसके बाद डब्लू० एच० मिल, जेम्स प्रिंसेप, भाउ दाजी ने समय समय पर अपने पाठ प्रस्तुत किये। अन्ततोगत्वा जे०एफ० फ्लीट ( John Faithfull Fleet ) ने व्यवस्थित रूप से इसका सम्पादन किया जो उनके गुप्तकालीन लेख संग्रह ( Corpus Inscriptionum Indicarum Vol. III ) में प्रकाशित है। संक्षिप्त परिचय नाम :- समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति ( Prayag Prashasti of Samudragupta ) या समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तम्भलेख ( Prayag Pillar Inscription of Samudragupta ) या समुद्रगुप्त का इलाहाबाद स्तम्भलेख ( Allahabad Pillar Inscription of Samudragupta ) या हरिषेण का अभिलेख ( Inscription of Harishena ) स्थान :- गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम पर स्थित सम्राट अकबर के दुर्ग में, प्रयागराज। मौलिक रूप से यह कौशाम्बी में था। भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- समुद्रगुप्त का शासनकाल ( ३५० – ३७५ ई० ) विषय :- समुद्रगुप्त का प्रशस्ति गायन, जिसमें उसके दिग्विजय, व्यक्तित्व, राजनीतिक अवस्था आदि की जानकारी मिलती है। लेखक :- संधिविग्रहिक सचिव हरिषेण प्रयाग प्रशस्ति : मूलपाठ १. [यः] कुल्यैः स्वै ….. तस …. २. [यस्य ?] …. (॥) [१] ३. …… पुं (?) व ….. त्र ….. ४. [स्फा]रद्वं (?)….. क्षः स्फुटोद्धंसित …. प्रवितत [॥ २] ५. यस्य प्र[ज्ञानु] यंगोचित-सुख-मनसः शास्त्र-त [त्व]तर्थ-भर्तुः — — स्तब्धो — —  [ह]नि **** — नोच्छृ — — * — — [।] ६. [स]त्काव्य-श्री-विरौधान्बुध-गुणित-गुणाज्ञाहतानेव कृत्वा [वि]द्वल्लोकेवि [नाशि]१ स्फुट-बहु-कविता-कीर्ति राज्यं भुनक्ति [॥ ३] ७. [आर्ये]हीत्युपगुह्य भाव-पिशुनैरुत्कर्ण्णितैरोमभिः सभ्येषूच्छवसितेषु तुल्य-कुलज-म्लानाननोद्वीक्षि[त]: [।] ८. [स्ने]ह-व्ययालुलितेन बाष्प-गुरुणा तत्वेक्षिणा चक्षुषा यः पित्राभिहितो नि[रिक्ष्य] निखि[लां] [पाह्येवमुर्वी] मिति [॥ ४] ९. [दृ]ष्ट्वा कर्म्माम्यनेकान्यमनुज-सदृशान्यद्भुतोद्भिन्न-हर्षा भ[ ] वैरा-स्वादय-[न्तः] **** — — * — — ** [के] चित् [।] १०. वीर्योत्तप्ताश्च केचिच्छरणमुपगता यस्य वृत्ते (ऽ) प्रणामे (ऽ) प्य [ र्ति ? ]-(ग्रस्ते-षु) — — ****** — — * — — * — — [॥ ५] ११. संग्रामेषु स्व-भुज-विजिता नित्यमुच्चापकाराः श्वः श्वो मान प्र **** — — * — — — — [।] १२. तोषोत्तुङ्गैः स्फुट-बहु-रस-स्नेह-फुल्लैर्म्मनोभिः पश्चात्तापं व **** — — * मस्य [द्विषन्तः] [॥ ६] १३. उद्वेलोदित-बाहु-वीर्य्य-रभसादेकेन येन क्षणादुन्मूल्याच्युत-नागसेन-ग[णपत्यादीननान्- संगरे]२ [I] १४ दण्डेर्ग्राहयतैव कोतकुलजं पुष्पास्वये क्रीडता सूर्य्ये [नित्य (?) * — — तटा] * — — — * — — * — [॥  ७] १५. धर्म-प्राचीर-बन्धः शशि-कर-शुचयः कीर्त्तयः स-प्रताना वैदुष्यं तत्व-भेदि प्रशम *** [कु—व* मुत्— * — णार्थम्] (?) [।] १६. [अद्ध्येयः] सूक्त-मार्ग्गः कवि-मति-विभवोत्सारणं चापि काव्यं को नु स्याद्यो (ऽ) स्य न स्याद्गुण-(मति)-विदुषां ध्यान-पात्रं य एकः [॥ ८] १७. तस्य विविध समर-शतावरण-दक्षस्य स्वभुज-बल-पराक्रमैकबन्धोः पराकमाङ्कस्य परशु-शर-शङ्कु-शक्ति-प्रासासि-तोमर- १८. भिन्दिपाल-न[ ]च-वैतस्तिकाद्यनेक-प्रहरण-विरूढाकुल-व्रण-शताङ्क-शोभा-समुदयोप चित-कान्ततर-वर्ष्मणः १९. कौसलक-महेन्द्र-माह[ ]कान्तारक-व्याघ्रराज-कौरालक-मण्टराज-पैष्टपुरक-महेन्द्रगिरि- कौट्टूरक-स्वामिदत्तैरण्डपल्लक-दमन-काञ्चेयक- विष्णुगोपावमुक्तक- २०. नीलराज-वैङ्गेयक हस्तिवर्म्म-पालक्ककोग्रसेन-दैवराष्ट्रक-कुबेर-कौस्थलपुरक-धनञ्जय-प्रभृति-सर्व्वदक्षिणापथ-राज-ग्रहण-मोक्षानुग्रह-जनित-प्रतापोन्मिश्र-माहाभाग्यस्य २१. रुद्रदेव-मतिल-नागदत्त-चन्द्रवर्म्म-गणपतिनाग-नागसेनाच्युत-नन्दि-बल-वर्म्माद्यनेकार्य्या- वर्त्त-राज-प्रसभोद्धरणोवृत्त-प्रभाव-महतः परिचारकीकृत-सर्व्वाटविक-राजस्य २२. समतट-डवाक-कामरूप-नेपाल-कर्तृपुरादि-प्रत्यन्त-नृपतिभिर्म्मालवार्जुनायन-यौधेय-माद्रकाभीर-प्रार्जुन-सनकानीक-काक-खरपरिकादिभिश्च-सर्व्व-कर-दानाज्ञाकरण-प्रणामागमन- २३. परितोषित-प्रचण्ड-शासनस्य अनेक-भ्रष्टराज्योत्सन्न-राजवंश प्रतिष्ठापनोद्भूत-निखिल- भु[व]न-[विचरण-श्रा]न्त-यशसः दैवपुत्रषाहिषाहानुषाहि-शकमुरुण्डैः सैंहलकादिभिश्च २४. सर्व्व-द्वीप-वासिभिरात्मनिवेदन-कन्योपायनदान-गरुत्मदङ्क-स्वविषय-भुक्त्तिशासन-[य] -चनाद्युपाय-सेवा-कृत-बाहु-वीर्य-प्रसर-धरणिबन्धस्य प्रिथिव्यामप्रतिरथस्य २५. सुचरित-शतालङ्कृतानेक-गुण-गणोत्सिक्तिभिश्चरण-तल-प्रमृष्टान्यनरपतिकीर्तेः साद्ध्य- साधूदय-प्रलय-हेतु-पुरुषस्याचिन्त्यस्य भक्त्यावनति-मात्र-ग्राह्य-मृदु-हृदयस्यानुकम्पावतो-(ऽ) नेक-गो-शतसहस्र-प्रदायिनः २६. [कृ]पण-दीनानाथातुर जनोद्धरण-सत्र३ दीक्षाभ्युपगत-मनसः समिद्धस्य विग्रहवतो लोकानुग्रहस्य धनदं वरुणेन्द्रान्तक-समस्य स्वभुज-बल-विजितानेक-नरपति-विभव-प्रत्यर्पणा-नित्यव्यापृतायुक्तमुरुषस्य २७. निशितविदग्धमति-गान्धर्व्वललितैर्व्रीडित-त्रिदशपतिगुरु तुम्बुरुनारदा-देर्व्विद्वज्जनो-पजीव्यानेक-काव्य-क्रियाभिः प्रतिष्ठित कविराज-शब्दस्य सुचिर-स्तोतव्या नेकाद्भुतोदार चरितस्य २८. लोकसमय-क्कियानुविधान-मात्र-मानुषस्य लोक-धाम्नो देवस्य महाराज-श्रीगुप्त-प्रपौत्रस्य महाराज-श्री-घटोत्कच-पौत्रस्य महाराजाधिराज श्री-चन्द्रगुप्त-पुत्रस्य २९. लिच्छवि-दौहित्रस्य महादेव्यां कुमारदेव्यामुत्पन्नस्य महाराजाधिराज-श्री—समुद्रगुप्तस्य सर्व्व-पृथिवी-विजय-जानितोदय-व्याप्त-निखिलावनितलां कीर्तिमितस्त्रिदशपति- ३०. भवन-गमनावाप्त-ललित-सुख-विचरणामाचक्षाण इव भुवो बाहुरयमुच्छ्रितः स्तम्भः [।] यस्य प्रदान-भुजविक्रम-प्रशम-शास्त्रवाक्योदयै- रुपर्युपरिसञ्च-योच्छ्रितमनेकमार्गं यशः [।] ३१.    पुनाति भुवनत्रयं पशुपतेर्ज्जटान्तर्गुहा-          निरोध-परिमोक्ष-शीघ्रमिव पाण्डु गांगं [पयः] [॥ ९] एतच्च काव्यमेषामेव भट्टारकपादानां दासस्य समीप परिसर्प्पणानुग्रहोन्मीलित-मतेः ३२. खाद्यटपाकिकस्य महादण्डनायक-ध्रुवभूति पुत्रस्य सान्धिविग्रहिक कुमारामात्य-म[हादण्डनाय]क- हरिषेणस्य सर्व्व-भूत-हित-सुखायास्तु। ३३. अनुष्ठितं च परमभट्टारक-पादानुध्यातेन महादण्डनायक तिलभट्टकेन। बी० राघवन ने विशाले और भण्डारकर ने विकृष्टम् पाठका अनुमान प्रस्तुत किया है। विनाशि पाठ सरकार का है।१ भण्डारकरने गणपानाजी समेल्यागतान होने का अनुमान किया है।२ मूल में मंत्र है। फ्लीट ने संत्र को मन्त्र के रूप में और दिवेकर ने सत्र के रूप में शुद्ध किया है। उचित पाठ सत्र ही होगा।३ हिन्दी अनुवाद १. जो अपने वंश के लोगों से ….. ; उसका ……. ; २. …. जिसका….. ; ३. जिसने…….. अपने धनुष की टंकारसे …… तितर बितर कर दिया …… नष्ट किया …… फैला दिया ….. ४-६. जिसका मन विद्या की आसक्ति-जनित सुखानुभूति के योग्य है; जो शास्त्रों के वास्तविक रहस्य को जानने का एक मात्र अधिकारी है; जो उत्तम काव्यों के सौन्दर्य (श्री) के विरोधी तत्वों को पण्डितों द्वारा निर्दिष्ट गुणों की आज्ञा (शक्ति) से क्षीण करके विद्वानों की मण्डली में अत्यन्त स्पष्ट कविताओं से [उपलब्ध] यश के साम्राज्य का उपभोग करता है; ७-८ [वह] जो सभासदों के [हर्ष से] उच्छवसित होते और तुल्य-कुलजो (भाई-बन्धुओं) द्वारा म्लान-मुखों द्वारा देखे जाते हुए [और] वात्सल्य से अभिभूत तत्वदर्शी नेत्रों में आँसू भरे, भावातिरेक से रोमांचित पिता द्वारा स्नेहालिंगन कर कहा गया— ‘वस्तुतः तुम आर्य हो! तुम समस्त भूमण्डल का पालन करो; ६-१०. जिसके अलौकिक कार्यों को देखकर आश्चर्य मिश्रित हर्ष के साथ लोग भावपूर्वक आनन्द का आस्वादन करते हैं; और अन्य उसके पराक्रम के तेज से सन्तप्त होकर उसका शरणागत बन उसे प्रणाम करते हैं; ११-१२. [जिसने] निरन्तर अत्यधिक क्षति पहुँचने वाले दुष्ट स्वभाव के लोगों को समर भूमि में अपनी भुजाओं के बल से पराजित किया [और] दिन प्रति दिन ….. [जिसके प्रति] उन्होंने अत्यन्त आनन्द और प्रेम से उत्फुल्ल और सन्तोष से उन्नत हो अन्तकरण से पश्चाताप किया ….. १३-१४. जिसने अपनी भुजाओं के अपार बल के वेग से अकेले ही क्षण मात्र में (संयुक्त रूप से आये) अच्युत, नागसेन, ग[णपति …… आदि] का उन्मूलन कर दिया [और] पुष्पपुर (नगर) में उत्सव मनाते हुए “तट” हुए कोत-कुल में उत्पन्न राजा को अपनी शक्ति से बन्दी बनाया (दण्ड दिया); सूर्य नित्य ही ….. तट …… ; १५-१६. [जो] धर्म-रूपी प्राचीर [के भीतर] सुरक्षित है; जिसकी चन्द्रमा के किरणों के समान निर्मल कीर्ति चारों ओर फैली हुई है; जिसकी विद्वत्ता तत्वभेदिनी है; जिसने देव-विहित

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समुद्रगुप्त का गया ताम्रपत्र

भूमिका समुद्रगुप्त का गया ताम्रपत्र ( वर्ष ६ ) आठ इंच लम्बे और सात इंच से कुछ अधिक चौड़े ताम्र-फलक के एक ओर अंकित है। यह अलेक्ज़ेंडर कनिंघम ( A. Cunningham  ) को गया में मिला था। वह कहाँ निकला था इसकी किसी को कोई जानकारी नहीं है। वर्तमान समय में यह ब्रिटिश संग्रहालय में है। इसके साथ एक अण्डाकार मुहर जुड़ी हुई है। इस मुहर पर ऊपरी भाग में गरुड़ का अंकन है और नीचे पाँच पंक्तियों का लेख है। यह मुद्रा लेख अत्यन्त अस्पष्ट है; यत्र-तत्र कतिपय अक्षरों तथा अन्त में समुद्रगुप्त के अतिरिक्त और कुछ पढ़ा नहीं जा सका है। १८८३ ई० में कनिंघम ने इस अभिलेख के प्राप्ति की सूचना प्रकाशित की थी। उसके बाद फ्लीट ने सम्पादित कर प्रकाशित किया। संक्षिप्त परिचय नाम :- समुद्रगुप्त का गया ताम्रपत्र ( Gaya Copper-Plate of Samudragupta ) स्थान :- गया, बिहार भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी ( उत्तरी रूप ) समय :- गुप्तकालीन विषय :- अग्रहार दान का शासनादेश समुद्रगुप्त का गया ताम्रपत्र : मूलपाठ १. ॐ स्वस्ति [II] मह-नौ- हस्त्यश्व-जयस्कंधावाराजायोद्ध्या-वासका-त्सर्व्वराजोच्छेत्तुः पृ- २. थिव्यामप्रतिरथस्य चतुरुदधि-सलिलस्वादित-यश[सो] धनद-वरुणेन्द्रा- ३. न्तक समस्य कृतान्त-परशोन्ययागतानेक-गो-हिरण्य-कोटि-प्रदस्य चिरोच्छ- ४. न्नश्वमेधाहर्त्तुः महाराज श्री-गुप्त-प्रपौत्रस्य महाराज-श्री-घटोत्कच-पौत्रस्य ५. महाराजाधिराज-श्री-चन्द्रगुप्त-पुत्रस्य लिच्छवि-दौहित्रस्य महादेव्यांकु- ६. मारदेव्यामुत्पन्नः परमभागवतो महाराजाधिराज-श्री-समुद्र- ७. गुप्तः गयावैषयिक-रेवतिकाग्रामे ब्राह्मण-पुरोग-ग्राम-वल- ८. त्कौषभ्यामाह। एवंचार्थं विदितम्बो भवत्वेश ग्रामो मया मातापित्तोरा- ९. त्मनश्च पुण्याभिवृद्धये भारद्वाज-सगोत्राय वह्वृचाय स[ब्र]ह्मचा- १०. रिणे ब्राह्मण-गोपदेवस्वामिने सोपरिकरोद्धेसेनाग्रहारत्वेनाति- ११. सृष्टः [।] तद्युष्माभिरस्य श्रोतव्यमाज्ञा च कर्तव्या सर्वे [च] समुचिता ग्राम-प्र- १२. त्यया मेय-हिरण्यादयो देयाः [।] न चैतत्प्रभृत्येतदाग्रहारिकेणान्यद्ग्रा- १३. मादि-करद-कुटुम्बि-कारुकादयः प्रवेशयितव्याममन्यथा नियतमाग्र- १४. हाराक्षेपः स्यादिति [॥] सम्वत् ९ वैशाख-दि १० [॥] १५. अन्यग्रामाक्षपटलाधिकृत-द्यूत गोपस्वाम्यादेश-लिखितः [॥] हिन्दी अनुवाद ॐ स्वस्ति ! अयोध्या [नगर] स्थित महा नौ, हस्ति और अश्व से युक्त जयस्कन्धावार से सर्वराजोच्छेता, भूमण्डल में अप्रतिरथ, चारों समुद्रों के जल से आस्वादित यश वाले, धनद, वरुण, इन्द्र, यम के तुल्य, कृतान्त के परशु-स्वरूप, वैध ढंग से प्राप्त कोटि गौ और हिरण्य (धन) के दान-दाता, चिरकाल से उत्सन्न अश्वमेध के पुनस्थापक, महाराज श्रीगुप्त के प्रपौत्र, महाराज घटोत्कच के पौत्र, महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त के महादेवी कुमारदेवी से उत्पन्न पुत्र, लिच्छवि-दौहित्र परमभागवत महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्त गया विषय स्थित रेवतिका गाम के ब्राह्मण, पुरोग एवं वलत्कौषन से कहता है— आप लोगों को विदित हो कि [अपने माता-पिता, एवं अपने पुण्य की वृद्धि के निमित्त ब्रह्मचारी ब्राह्मण गोपस्वामी के लिए उपरिकर सहित अग्रहार की सृष्टि करता हूँ। अतः आप सबका ध्यान इस बात की ओर जाना चाहिए तथा इस आज्ञा का पालन करना चाहिए। अब से ग्राम की परम्परा के अनुसार जो भी कर मेय अथवा हिरण्य देय हो, उन्हें दें। तथा अब से इस अग्रहार (दानभूमि) में करद (कर लेने वाले), कुटुम्बी, शिल्पी आदि हस्तक्षेप न करें अन्यथा इस अग्रहार सम्बन्धी नियमों का उल्लंघन होगा। वर्ष ९ वैशाख [मास] दिवस १०। [यह पत्र] इस ग्राम के अक्षपटलाधिकृत दूत गोपस्वामी के आदेश से लिखा गया । महत्त्व नालंदा और गया ताम्रपत्र दोनों ही समुद्रगुप्त द्वारा ब्राह्मणों को भूमि दान (अग्रहार) के शासनादेश हैं। नालन्दा ताम्रलेख समुद्रगुप्त ने अपने शासन के ५वें वर्ष में आनन्दपुर जयस्कन्धावार से और गया ताम्र शासन ९वें वर्ष में अयोध्या से प्रचलित किये थे। अनेक विद्वानों ने इस दोनों ही ताम्र-शासनों को कूट (जाली) होने की सम्भावना व्यक्त की। फ्लीट ( Fleet ) के सामने केवल गया ताम्र-शासन था। उसे उन्होंने उसके मौल (असली) होने में दो कारणों से सन्देह प्रकट किया है — १. वंश परिचय वाले अंश में समुद्रगुप्त के लिए प्रयुक्त विशेषण सम्बन्धकारक के हैं और उसका अपना नाम कर्ताकारक में है (श्री चन्द्रगुप्त पुत्रस्य लिच्छवि-दौहित्रस्य महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्तः)। इससे प्रकट होता है कि लेख के प्रारूपक ने इसे चन्द्रगुप्त अथवा किसी अन्य उत्तराधिकारी के शासन के अनुकरण पर प्रस्तुत किया है। २. लेख के कुछ अक्षरों के रूप में प्राचीनता तो झलकती है पर अन्य अक्षरों के स्वरूप अपेक्षाकृत नवीन हैं। उनका यह भी कहना है कि इसमें प्रयुक्त ‘महानौ-हस्त्यश्व-जयस्कन्धावारात‘ आठवी शती के अभिलेखों में मिलते हैं। अतः यह लेख इसी काल में प्रस्तुत किया गया होगा। दिनेशचन्द्र सरकार ने भी इस शासन के कूट होने की बात कही है किन्तु वे इसे फ्लीट की तरह आठवीं शती जितना पीछे का कूट नहीं समझते। वे इसे छठीं-सातवीं शती का कूट होने का अनुमान करते हैं। नालन्दा-शासन को प्रकाशित करते हुए हीरानन्द शास्त्री ने उसे कूट मानने के लिए उन्हीं कारणों को दिखाया, जिनका उल्लेख फ्लीट ने गया-शासन के प्रसंग में किया है। अमलानन्द घोष भी इसकी मौलिकता को सन्देह से परे नहीं मानते। वे नालन्दा और गया दोनों स्थानों के शासनों को मूल शासनों की प्रतिलिपि होने की सम्भावना स्वीकार करते हैं। उन्हें इन शासनों की प्रामणिकता में सन्देह इनमें दी गयी तिथियों को लेकर है। इनमें अंकित तिथियों को वे गुप्त संवत् समझते हैं। इस कारण वे कहते हैं कि ये तिथि समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त (द्वितीय) और कुमारगुप्त (प्रथम) की तीन पीढ़ियों के लिए असामान्य रूप से लम्बी अवधि प्रस्तुत करते हैं। दिनेशचन्द्र सरकार ने इन शासनों को स्पष्ट रूप में कूट घोषित किया है। पूर्व-कथित विद्वानों द्वारा प्रस्तुत तर्क के अतिरिक्त उनका नवीन तर्क यह है कि — (१) इन लेखों में बिना किसी भेद के ‘ब’ और ‘व’ का प्रयोग किया गया है। (२) समुद्रगुप्त के लिए चिरोत्सत्र-अश्वमेधहर्तुः और परमभागवत विशेषणों का प्रयोग इस बात का द्योतक है कि ये लेख समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारियों के किन्हीं शासन से नकल किये गये हैं। (३) राज्यवर्ष (अथवा गुप्त संवत) ५ से पूर्व समुद्रगुप्त के लिए अश्वमेघ कर सकना वे सम्भव नहीं समझते और समुद्रगुप्त के परमभागवत कहलाने का कोई प्रमाण उनकी दृष्टि में नहीं है। कुछ अन्य विद्वान इन शासनों को कूट नहीं मानते। सर्वप्रथम राखालदास बनर्जी ने फ्लीट के मत को चुनौती दी और गया-शासन के मौलिक होने की बात कही। नालन्दा-शासन के प्रकाश में आने पर द० रा० भण्डारकर ने कहा कि केवल व्याकरण विरुद्ध एक वाक्य, जो दोनों ही लेख में समान रूप से मिलता है, इन शासनों को कूट घोषित करने के लिए पर्याप्त नहीं है। शकुन्तला राव ने इस प्रसंग में इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि इस प्रकार की भूलें मौलिक कहे जाने वाले अनेक लेखों में देखी जा सकती हैं। उदाहरणार्थ उन्होंने विन्ध्यशक्ति के बासिम-ताम्रलेख की ओर संकेत किया है। उनका यह भी कहना है कि परमभागवत उल्लेख मात्र से इन शासनों को कूट नहीं कहा जा

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समुद्रगुप्त का नालन्दा ताम्रलेख

भूमिका समुद्रगुप्त का नालन्दा ताम्रलेख ( Nalanda Copper-Plate of Samudragupta ) साढ़े दस इंच लम्बे और नौ इंच चौड़े ताम्र फलक पर अंकित है। यह १६२७-२८ ई० में नालन्दा ( बिहार ) के पुरातात्त्विक उत्खनन के समय बिहार संख्या १ के उत्तरी बारामदे में मिला था। हीरानन्द शास्त्री ने इसके सम्बन्ध में पहले एक छोटी सी सूचना प्रकाशित की। तदनन्तर अमलानन्द घोष ने इसे सम्पादित कर प्रकाशित किया। तत्पश्चात् दिनेशचन्द्र सरकार ने इसका विवेचन किया। संक्षिप्त परिचय नाम :- समुद्रगुप्त का नालन्दा ताम्रलेख ( Nalanda Copper-Plate of Samudragupta ) स्थान :- नालन्दा, बिहार भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् ५, अर्थात् ३२४ ई० विषय :- शासनादेश समुद्रगुप्त का नालन्दा ताम्रलेख : मूलपाठ १. ॐ स्वस्ति [ । ] महानौ-हस्त्यश्व जयस्कन्धावारानन्दपुरवासका [ त्स ] -र्व्वरा [ जोच्छे ] त्तु  ( ः ) पृथिव्यामप्रतिरथस्य चतुरुदधि-सलि [ लास्वा ]- २. दित-यशसो धनद-वरुणे [ न्द्रा ] न्त [ क ]- समस्य कृतान्त-परशोर्न्ययगतानेक-गौ-हिरण्य- कोटि-प्रदस्य चिरोत्स [ न्ना ] – ३ श्वमेधाहुर्त्तम्महाराज-श्री-गु [ प्त ]- प्रपौत्रस्य महाराज-श्री-घटोत्कच-पौत्रस्य [ जाधि ] राज [ श्री चन्द्रगुप्त ] पुत्र- ४. स्य लिच्छवि-दौ [ हि ] त्रस्य महादेव्यांकुमारदेव्यामुत्पन्नः परमभा- [ गवतो महाराजाधिराज-श्री समुद्रगु ] प्तः वाविरिक्ष्यर ५. वैषयिकभद्रपुष्करकग्राम-क्रिविलावैषयिकपू [ र्णना ] गग्रा [ म ( योः ) ब्राह्मण-पुरोग ]-ग्रा [ म ]- व लत्कौशभ्यामाह ( । ) ६. एवं चाह विदितम्बो भवत्वेषौ ग्रा [ मौ ] [ मया ] [ मा ] तापित्रोर [ त्मनश्च ] पु [ ण्याभिवृद्ध ] ये जयभट्टिस्वामिने ७. ………[ सोपरि ] करो [ द्देशेना ] ग्रहा [ रित्वे ] नातिसृष्टः ( । ) तद्युष्माभिर [ स्य ] ८. त्रैविद्यस्य श्रोत्तव्यमाज्ञा च कर्त [ व्या ] [ स ] र्व्वे [ च ] [ स ] मुचिता ग्रा [ म ] प्रत्य [ या ] ( मेय )- हिरण्यादयो देयाः [ । ] न चेताः प्र- ९. [ भृ ] त्यनेन त्रै [ वि ] द्येनान्य-ग्रामादि-करद-कुटुम्बि- [ कारुक ] ादयः प्रवेश [ यित ] व्या [ ना ] न्यथा नियतमाग्रहाराक्षेपः १०. [ स्य ]ादिति। सम्वत् ५ माघ-दि० २ निवद्धं [ । ] ११. अनुग्रामाक्षपटलाधि [ कृत ] – महापीलूपति-महाबलाधि [ कृ ] त-गोपस्वाम्यादेश-लिखितः [ । ] १२. [ दूतः कुमा ] र श्री चन्द्रगुप्तः [ । ] हिन्दी अनुवाद ॐ स्वस्ति! आनन्दपुर स्थित महा नौ हस्ति और अश्व से युक्त जयस्कन्धावार से सर्वराजच्छेता ( समस्त राजाओं का उन्मूलन करने वाले ) भूमण्डल में अप्रतिरथ ( शक्ति में अद्वितीय ), चारो समुद्रों के जल के आस्वादित यशवाले, धनद ( कुबेर ), वरुण, इन्द्र, अन्तक ( यम ) के तुल्य, कृतान्त के परशु स्वरूप, वैध ढंग से प्राप्त कोटि गौ और हिरण्य ( धन ) के दानदाता, चिरकाल से उत्सन्न अश्वमेघ के पुनस्थापक, महाराज श्रीगुप्त के प्रपौत्र, महाराज घटोत्कच के पौत्र, महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त के महादेवी कुमारदेवी से उत्पन्न पुत्र, लिच्छवि-दौहित्र, परमभागवत महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्त वाविरिक्ष्यर विषय स्थित भद्रपुष्करक तथा क्रिमिल विषय के पूर्णनाग ग्राम के ब्राह्मण, पुरोग, ग्राम एवं बलकौशन से कहता है — आप लोगों को विदित हो कि [ अपने ] माता पिता तथा अपने पुण्य वृद्धि के लिए जयभट्ट स्वामी के लिए उपरिकर सहित अग्रहार की सृष्टि करता हूँ। अतः आप सबका ध्यान इस बात की ओर जाना चाहिए तथा [ इस ] आज्ञा का पालन करना चाहिये। [ अब से ] ग्राम की परम्परा के अनुसार जो भी कर—मेय अथवा हिरण्य देय हो, उन्हें दिया जाय। अब से भूमिकर लेने वाले, कुटुम्बी, शिल्पी एवं अन्य लोग इस अग्रहार ( दान भूमि ) में हस्तक्षेप न करें अन्यथा अग्रहार सम्बन्धी नियमों का उलंघन होगा । संवत ५, माघ दि० २ को लिखा गया। [ यह पत्र ] इस ग्राम के अक्षपटलाधिकृत, महापीलुपति, महाबलाधिकृत गोपस्वामी के आदेश से लिखा गया। दूत कुमार श्री चन्द्रगुप्त। ऐतिहासिक महत्त्व समुद्रगुप्त का नालन्दा ताम्रलेख कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है : समुद्रगुप्त के द्वारा धारण की गयी उपाधियों का उल्लेख मिलता है। सर्वराजोच्छेता, अप्रतिरथ, परमभागवत, महाराजाधिराज। समुद्रगुप्त की तुलना विविध देवताओं से की गयी है। कुबेर, वरुण, इंद्र व यम। गुप्तवंश की वंशावली का उल्लेख है। महाराज श्रीगुप्त — महाराज घटोत्कच — महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त — परमभागवत महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्त। माता का नाम महादेवी कुमारदेवी। कुमार लिच्छवि कुल की कन्या थी। समुद्रगुप्त स्वयं को लिच्छवि दौहित्र कहने में गौरव का अनुभव करता है। अग्रहार दान उल्लेख है। राज्य की ओर से ब्राह्मणों को भूखण्ड या ग्रामदान। कर सम्बन्धित ज्ञान मिलता है। उपरिकर – अस्थायी कृषकों से लिया जाने वाला भूमिकर मेय – किसानों द्वारा देय अन्य या पैदावार तौलकर दिया जाने वाला भूमिकर हिरण्य – किसानों द्वारा देय नकद भूमिकर पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं। वलत्कौषन – इसका उल्लेख इस अभिलेख के साथ-साथ गया ताम्रलेख में मिलता है, अन्यत्र नहीं मिलता है। सम्भवतः यह राजस्व से जुड़ा कोई पदाधिकारी था। अक्षपटलाधिकृत – राजकीय दस्तावेज के सम्बन्धित अधिकारी। महापीलुपति – हस्तिसेना प्रमुख। महाबलाधिकृत – सेनापति अर्थात् सेना का सर्वोच्च अधिकारी। इसके अलावा समुद्रगुप्त द्वारा अश्वमेध यज्ञ करने का उल्लेख भी इसमें मिलता है।

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बड़वा-यूप अभिलेख

भूमिका बड़वा-यूप अभिलेख राजस्थान प्रान्त के बरन जिले में बढ़वा नामक स्थान पर मिला है। इसमें चार लघु अभिलेख मिले हैं। ये अभिलेख प्राकृत से प्रभावित संस्कृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में है। यह प्रारम्भिक मौखरियों के इतिहास से सम्बन्धित है। संक्षिप्त परिचय नाम :- बड़वा-यूप अभिलेख स्थान :- बड़वा, बरन जनपद, राजस्थान ( Barwa, Baran district, Rajasthan ) भाषा :- संस्कृति लिपि :- ब्राह्मी समय :- तृतीय शताब्दी ई० ( २३८ ई० ) विषय :- मौखरि वंश द्वारा वैदिक यज्ञों का कराने का विवरण बड़वा-यूप अभिलेख : मूलपाठ एक १. सिद्धं [ । ] कृतेहि २०० [ + ] ६० [ + ] ५ फाल्गुण शुक्लस्य पञ्चे दि० [ । ] श्री महासेनापतेः मौखरे: बल-पुत्रस्य बलवर्द्धनस्य यूपः [ । ] त्रिरात्र-संमितस्य दक्षिण्यं गवा सहस्रं [ । ] दो १. सिद्धं [ । ] क्रितेहि २०० [ + ] ६० [ + ] ५ फाल्गुण शुक्लस्य पञ्चे दि० [ । ] श्री महासेनापतेः मोखरे: बल-पुत्रस्य सोमदेवस्य यूपः [ । ] त्रिरात्र-संमितस्य दक्षिण्यं गवां सहस्रं [ । ] तीन १. क्रितेहि २०० [ + ] ६० [ + ] ५ फाल्गुण शुक्लस्य पञ्चे दि० श्रीमहासेनापते: मोखेर- २. र्बलपुत्रस्य बलसिंहास्य यूपः [ । ] त्रिरात्र संमितस्य दक्षिण्य गवां सहस्रं [ । ] चार १. मोखरेर्हस्तीपुत्रस्य धनुर्वातस्य धीमतः [ । ] अप्तोर्य्यामाछ कृतो: यूप [ । ] सहस्रोगव दक्षिणा [ : ] [ । ] हिन्दी अनुवाद एक १. सिद्धम्। कृत [ संवत् ] २९५ फाल्गुन शुक्ल पंचमी [ का दिन ]। श्री महासेनापति मौखरी बल के पुत्र बलवर्धन का यूप। त्रिरात [ यज्ञ ] के निमित्त १००० गाय दक्षिणा। दो २. सिद्धम्। कृत [ संवत् ] २९५ फाल्गुन शुक्ल पंचमी [ का दिन ]। श्री महासेनापति मौखरी बल के पुत्र सोमदेव का यूप। त्रिरात्र [ यज्ञ ] के निमित्त १००० गाय दक्षिणा। तीन ३. सिद्धम्। कृत [ संवत् ] २९५ फाल्गुन शुक्ल पंचमी [ का दिन ]। श्री महासेनापति मौखरी बल के पुत्र बलसिंह का यूप। त्रिरात्र [ यज्ञ ] के निमित्त १००० गाय दक्षिणा। चार मौखरी हस्ति के पुत्र धीमतः ( विद्वान् ) धनुर्वात द्वारा किये गये अप्तोर्य्याम [ यज्ञ ] का यूप। हजार गाय की दक्षिणा । महत्त्व बड़वा-यूप अभिलेख वैदिक यज्ञों से सम्बन्ध रखते हैं। वैदिक युग में गृहस्थों के लिए नियमित रूप में यज्ञ करने का विधान था। इन यज्ञों का महत्त्व बहुत काल बाद तक बना हुआ था और लोग समय-समय पर वैदिक यज्ञ कराते रहते थे, यह बात इन शिला-यूप-अभिलेखों के अतिरिक्त कुछ अन्य शिला-यूपों पर अंकित अभिलेखों से भी ज्ञात होती है जो ईसापुर ( मथुरा ), कौशाम्बी और नाँदसा से प्राप्त हुए हैं। वैदिक यज्ञों के निमित्त मूलतः लकड़ी के बने यूप खड़ा करने का विधान था। लकड़ी के यूपों के निर्माण-विधि का उल्लेख कात्यायन श्रौत सूत्र में हुआ है। उसके अनुसार केवल वाजपेय यज्ञ के यूप की लम्बाई निश्चित थी अन्य यज्ञों के यूपों की लम्बाई के सम्बन्ध में कोई निर्धारित नियम न था। गृह-सूत्रों और धर्म-सूत्रों में यूपों का स्पर्श निषिद्ध बतलाया गया है। वशिष्ठ, बौधायन, विष्णु और आश्वलायन के अनुसार यूपों का स्पर्श शव अथवा ऋतुमती स्त्री के स्पर्श के समान था। हिरण्यकेशी गृह-सूत्र का कहना था कि यूप के स्पर्श से यज्ञ में हुई त्रुटियों का दोष लगता है। इस प्रकार मूलतः यूप एक निषिद्ध वस्तु थी; किन्तु इन यूपों से ऐसा लगता है कि इस काल तक वैदिक यज्ञों के यूपों के सम्बन्ध में अपृश्यता सम्बन्धी यह धारणा समाप्त हो गयी थी और लोग अपने यज्ञों के स्मृतिस्वरूप काष्ठ के स्थान पर शिला के यूप बनाकर अभिलेख अंकित कराने लगे थे। उपर्युक्त चार यूपों में से प्रथम तीन को, उन पर अंकित अभिलेखों के अनुसार तीन सगे भाइयों बलवर्धन, सोमदेव तथा बलसिंह ने एक ही दिन अलग-अलग खड़ा किया था और वे त्रिरात्र यज्ञ के स्मारक हैं। तैत्तिरीय संहिता में बतलाया गया है कि त्रिरात्र यज्ञ को वसु, रुद्र और आदित्यों के निमित्त करके प्रजापति ने त्रैलोक्य प्राप्त किया था। शांखायन श्रौत सूत्र के अनुसार त्रिरात्र यज्ञ द्वारा लोक और परलोक दोनों में त्रिविध प्राप्त किया जा सकता है। वैदिक काल में सोमयज्ञ अत्यन्त प्रसिद्ध था, जो संख्या में सात थे और सप्तसोम संस्थ कहे जाते थे। उनके नाम हैं- अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशिन्, वाजपेय, अतिरात्र और अप्तोर्याम। वैदिक धर्म के उत्थान काल में ये यज्ञ अत्यन्त लोक-प्रचलित थे और गृहस्थों द्वारा प्रायः उपनयन और अन्त्येष्टि के अवसर पर किये जाते थे। त्रिरात्र यज्ञ इन्हीं यज्ञों में से तीन अग्निष्टोम, उक्थ्य और अतिरात्र यज्ञों का संयुक्त रूप था। उसको गर्भ-त्रिरात्र भी कहते थे। यदि इस यज्ञ में दूसरे दिन अश्व की हवि दी जाती थी तो उसे अश्वित्रिरात्र कहते थे। सप्तसोम यज्ञों में प्रमुख अग्निष्टोम था, उसका यह नामकरण उसके अन्तिम १२ मन्त्रों के, जिन्हें अनिष्टोमसामन कहा गया है, हुआ था। अन्य यज्ञों की इस यज्ञ से केवल कुछ छोटी-मोटी बातों में ही भिन्नता थी। त्रिरात्र यज्ञ में दक्षिणा में एक हजार गायें दी जाती थीं। प्रतिदिन दस-दस के समूह में ३३० गायें दक्षिणा में दी जातीं और तीसरे दिन बची हुई दस गायें, जो अन्य गायों से भिन्न वर्ण की होती थीं, होतृ को दी जाती थीं। इन अभिलेखों में भी दक्षिणा में दी गयी गायों की संख्या १००० बतायी गयी है। इससे जान पड़ता है कि वैदिक विधि का यज्ञ में पूर्ण रूप से पालन किया गया था। चौथे यूप के अभिलेख से ज्ञात होता है कि वह प्रथम तीन यूपों के संस्थापक तीन सगे भाइयों से भिन्न किसी चौथे व्यक्ति धनुर्त्रात ने स्थापित किया था। उसने अप्तोर्याम यज्ञ कराया था। यह यज्ञ सप्त-सोम-संस्था कहे जानेवाले यज्ञों में अन्तिम ( सातवाँ ) यज्ञ था और छठे सोम-संस्थ अतिरात्र यज्ञ के समान ही यह यज्ञ सारे दिन होता था और दूसरी रात्रि तक चलता रहता था। अतिरात्र यज्ञ से इसकी विशिष्टता यह थी कि उसके अन्त में चार अतिरिक्त स्तोत्र और शस्त्र होते थे। बड़वा-यूप अभिलेख कदाचित् दो परिवारों द्वारा किये गये वैदिक यज्ञों के स्मारक। पहले तीन अभिलेखों में समान रूप से तिथि का अंकन हुआ है, चौथे अभिलेख में किसी तिथि का कोई उल्लेख नहीं है। अतः यह कहना कठिन है कि दोनों परिवारों द्वारा किये गये यज्ञ एक ही समय में किये गये थे या अलग-अलग। वस्तुतः ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इस प्रकार का ऊहापोह

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अगरोहा यौधेय मुद्रांक

भूमिका अगरोहा यौधेय मुद्रांक हरियाणा प्रान्त के हिसार जिले के अगरोहा नामक स्थान से यह मुद्राङ्क ( मुहर ) प्राप्त हुई ह। यह मिट्टी की अण्डाकार ७ सेंटीमीटर लम्बी और ६.२ सेंटीमीटर चौड़ी है। इस मुद्रांक के ऊपर के एक-तिहाई भाग में ककुस्थयुक्त वामाभिमुख वृषभ का अंकन है। उसके नीचे एक लम्बी रेखा है। रेखा के नीचे कुषाण-गुप्तकालीन लिपि में पाँच पंक्तियों का लेख है। संक्षिप्त परिचय नाम :- अगरोहा यौधेय मुद्रांक ( मुहर ) ( Agroha Yaudheya Stamp ) स्थान :- अगरोहा, हिसार जनपद, हरियाणा भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- गुप्तपूर्व विषय :- यौधेय शासन प्रणाली की जानकारी मूलपाठ १. श्राय्यौथेवगण पुरस्कृतस्य महारा [ – ] २. ज महाक्षत्रप महासेनापतेरिन्द्र [ – ] ३. मित्र गृहीतस्य महाराज महाक्षत्रप [ – ] ४. सेनापतेरप्रतिहतशासनस्य ५. धर्ममित्र नन्द वर्म्मणः [ । ] हिन्दी अनुवाद श्री यौधेयगण द्वारा पुरस्कृत ( निर्वाचित अथवा मनोनीत ) महाराज महाक्षत्रप महासेनापति इन्द्रमित्र ( अथवा राज्यमित्र ) द्वारा गृहीत ( स्वीकृत ) महाराज महाक्षत्रप सेनापति अप्रतिहत शासन [ करनेवाले ], धर्म के मित्र ( धर्मात्मा ) नन्दवर्मण ( नयवर्मण, वसुवर्मण ) की [ मुद्रा ]। अगरोहा यौधेय मुद्रांक : महत्त्व मुद्रांक घिसा होने के कारण तीन स्थलों पर इसका पाठ संदिग्ध है :- महारा [ – ] महासेनापतेरिन्द्र [ – ] नन्द प्रथम पंक्ति में गृहीत ‘महाराज’ पाठ तृतीय पंक्ति में आये ‘महाराज’ पाठ के परिप्रेक्ष्य में समुचित जान पड़ता है। शेष दो स्थलों पर व्यक्तिवाचक नामों का पाठ संदिग्ध है। उनके जो भी पाठ हों, मुद्रांक के ऐतिहासिक महत्त्व पर कोई अन्तर नहीं पड़ता। यह मुद्रांक यौधेयगण से सम्बद्ध है। यौधेय गण का साहित्यिक विवरण इ तरह मिलता है :- यौधेयों का गण के रूप में प्राचीनतम् उल्लेख पाणिनि कृत अष्टाध्यायी में हुआ है। महाभारत में इनका उल्लेख अम्बष्ठ, और त्रिगर्त तथा मालव और शिवि के साथ हुआ है। वराहमिहिर ने राजन्य, त्रिगर्त, आर्जुनायन आदि के साथ इनका उल्लेख किया है। यौधेय गण के सिक्के बड़ी मात्रा में उपलब्ध हुए हैं। उनके अध्ययन से ज्ञात होता है कि वे सिक्के स्पष्टतः तीन प्रकार के हैं और वे तीन भिन्न कालों के हैं तथा तीन भिन्न क्षेत्रों में पाये गये हैं। प्रथम – इन सिक्कों पर ‘यौधेयानां बहुधान्यके’ अंकित है। ये यौधेयों के प्राचीनतम सिक्के हैं। इनका समय लगभग द्वितीय से पहली शताब्दी ई०पू० है। इससे ज्ञात होता है कि वे बहुधान्यक प्रदेश में रहते थे अर्थात् वे उन दिनों हरियाणा क्षेत्र में निवास करते थे। यौधेय लोग ईसा पूर्व की पहली शती में किसी समय विदेशी आक्रामकों, सम्भवतः बाख्त्री के यवनों के दबाव के कारण दक्षिण-पूर्व की ओर खिसक गये और राजस्थान के उत्तरी-पूर्वी भाग में जा बसे। इसका ज्ञान हमें भरतपुर के पास विजयगढ़ से मिले एक खण्डित अभिलेख से होता है। द्वितीय – इनपर ‘भगवत स्वामिनो ब्रह्मण्य यौधेय’ लिखा है। दूसरी शती में १५० ई० के आसपास शक महाक्षत्रप रुद्रदामन ने उन्हें परास्त किया था जिसकी जानकारी रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से मिलती है। इस प्रदेश से भगा दिया तब वे हिमालय के पर्वतीय प्रदेश में पश्चिम में व्यास की उत्तरी धारा से लेकर पूर्व में गढ़वाल तक शिवालिक पर्वत शृंखला के बीच आ गये। इस काल के सिक्कों पर ‘भगवत स्वामिनो ब्रह्मण्य यौधेय’ अंकित है। तृतीय – इन सिक्कों पर ‘यौधेयगणस्य जय’ अंकित मिलता है। तत्पश्चात् किसी समय वे पुन: पंजाब की ओर लौट आये तथा सतलज और व्यास के काँठे में रहने लगे। इस काल के सिक्कों के साँचे बड़ी मात्रा में लुधियाना के निकट सुनेत में मिले हैं। इन सिक्कों पर ‘यौधेयगणस्य जय’ अंकित मिलता है और ये सिक्के कुषाण सिक्कों की अनुकृति जान पड़ते हैं। अगरोहा मुद्रांक इसी काल अर्थात् कुषाण-गुप्त काल का है और ऐसा प्रतीत होता है कि वह किसी शासकीय पत्र में लगा कर अगरोहा भेजा गया होगा। इस मुद्रांक का महत्त्व इस दृष्टि से है कि उससे यौधेयों की शासन प्रणाली पर प्रकाश पड़ता है। इससे ऐसा लगता है कि यौधेय गण अपने प्रधान को मनोनीत अथवा निर्वाचित ( पुरस्कृत ) करता था और वह महाराज महासेनापति कहलाता था। इनमें यह प्रणाली एक-दो शताब्दी पहले से ही चली आ रही थी, यह विजयगढ़ अभिलेख से प्रकट होता है। यौधेय गण के प्रधान के लिए ‘महाराज’ शब्द का प्रयोग कदाचित् इस बात का प्रतीक है कि इस काल में गण राज्य राजतन्त्र की भावना से प्रभावित होने लगे थे। यौधेयों के पड़ोसी कुणिन्द के सिक्कों पर भी यह विरुद पाया जाता है। पाणिनि ने यौधेय-गण को आयुधजीवी कहा है जिससे यह बात ज्ञात होता है कि यह लड़ाकू जाति थी और युद्ध कौशल में उसकी ख्याति थी। यह बात यौधेय नाम से भी ध्वनित होती है। कदाचित् सैनिक होने के कारण ही यौधेय अपने प्रमुख को ‘महासेनापति’ के रूप में जानते और पहचानते थे। इस कारण यह विरुद उनके साथ आरम्भ से ही चला आ रहा होगा। ‘महाक्षत्रप’ विरुद मूलतः ईरानी उपाधि है और इसका प्रयोग शक नरेशों के नाम के साथ मिलता है। पश्चिमी भारत पर पहली शती से चौथी शती ई० तक शासन करनेवाले शक नरेश इस विरुद का निरन्तर प्रयोग करते रहे। पर भारतीय नरेशों के बीच इसने कभी लोकप्रियता प्राप्त नहीं की थी। ऐसी अवस्था में यौधेय-गण के प्रधानों द्वारा इसका प्रयोग कुछ असाधारण है। जब ये लोग राजस्थान में थे तब पश्चिमी शक महाक्षत्रप रुद्रदामन ने इन्हें वहाँ से निकाल बाहर किया। जान पड़ता है कि इन शकों के सम्पर्क में आने के पश्चात् यौधेय शासकों को यह विरुद आकर्षक लगा होगा और तभी उन्होंने इसे अपनाया होगा। इस सम्भावना को विजयगढ़ अभिलेख में इस विरुद के अभाव से समर्थन प्राप्त होता है। इस मुद्रांक में नन्दवर्मन ( नयवर्मन, वसुवर्मन ) ने अपने को इन्द्रमित्र ( राज्य- मित्र ) द्वारा गृहीत बताया है। इस गृहीत शब्द से हमारा ध्यान गुप्त सम्राट् स्कन्दगुप्त के भीतरी अभिलेख में चन्द्रगुप्त द्वितीय के लिए प्रयुक्त समुद्रगुप्त परिगृहीत की ओर जाता है। गृहीत और परिगृहीत दोनों का शाब्दिक भाव ग्रहण किया हुआ ( adopted or selected ) है। चन्द्रगुप्त द्वितीय के सम्बन्ध में हम यह जानते हैं कि वह समुद्रगुप्त का ज्येष्ठ पुत्र नहीं था। वह अपने बड़े भाई रामगुप्त को हटाकर शासनारूढ़ हुआ था। अतः इसके शासनाधिकार को समर्थित बताने के लिए स्कन्दगुप्त ने अपने भीतरी अभिलेख में इसका प्रयोग चन्द्रगुप्त के

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विजयगढ़ का यौधेय शिलालेख

भूमिका विजयगढ़ का यौधेय शिलालेख संस्कृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में है। यह अभिलेख भरतपुर ( राजस्थान ) के बयाना नामक कस्बे से लगभग दो मील ( ≈ ३.२ किमी० ) दक्षिण-पश्चिम स्थित विजयगढ़ नामक पहाड़ी दुर्ग की भित्ति के भीतरी भाग में लगा मिला था। यह मूलतः किसी बड़े लेख का अंश है; इसमें आरम्भ की केवल दो पंक्तियों का अंश उपलब्ध है। उनका उत्तरांश तो अनुपलब्ध है ही, साथ ही यह भी अनिश्चित है कि मूल लेख में कुल कितनी पंक्तियाँ थीं। संक्षिप्त परिचय नाम :- विजयगढ़ का यौधेय शिलालेख ( Yaudheya  Rock Edict of Vijaygarh ) स्थान :- विजयगढ़ दुर्ग, बयाना, भरतपुर, राजस्थान भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- लगभग ३०० ई०, गुप्तपूर्वकाल विषय :- अस्पष्ट मूलपाठ १. सिद्धम् [ ॥ ] यौधेय-गण पुरस्कृतस्य महाराज महासेनापते। पु…… २. ब्राह्मण पुरोग-चाधिष्ठान शरीरादि कुशलं पृष्ट्वा लिखत्या स्तिरस्मा….. हिन्दी अनुवाद सिद्धि [ ॥ ] यौधय-गण द्वारा पुरस्कृत ( मनोनीत, निर्वाचित ) महाराज महासेनापति पु…… ब्राह्मण, पुर के प्रमुख ( अग्रणी ) तथा अधिष्ठान के [ के अधिकारियों ] के शरीर आदि की कुशल पूछते ( चाहते ) हुए लिखते हैं……. महत्त्व विजयगढ़ का यौधेय शिलालेख खण्डित होने के कारण अभिलेख का प्रयोजन नहीं कहा जा सकता। इसका महत्त्व केवल इस बात में माना जाता रहा है कि इससे यौधेय गण के प्रमुख की उपाधि की जानकारी प्राप्त होती थी। प्रशासन के स्वरूप पर उससे कोई प्रकाश नहीं पड़ता था। अगरोहा से प्राप्त मुद्रांक के अनुरूप ही इस लेख की प्रथम पंक्ति है और उसके परिप्रेक्ष्य में इसे सहज भाव से देखा और समझा जा सकता है। स्वतन्त्र रूप में अब इसका कोई महत्त्व नहीं है। यौधेयों का उल्लेख साहित्यों व अभिलेखों में कई स्थानों पर मिलता है; जैसे पाणिनि कृत अष्टाध्यायी में उन्हें ‘आयुधजीवी संघ’ कहा है। रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख में इनका विवरण मिलता है। लुधियाना से प्राप्त एक मिट्टी की मुहर पर ‘यौधेयानाम् जयमन्यधराणाम्’ लेख उत्कीर्ण है। समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति की २२वीं पंक्ति में यौधेय का उल्लेख मिलता है। इस तरह यह ज्ञात होता है कि यौधेय जन उत्तरी राजस्थान और दक्षिणी पंजाब में निवास करते थे। वे एक वीर, साहसी और स्वाभिमानी लोग थे। वे शकों, कुषाणों संघर्षरत रहे। अंततः वे गुप्त साम्राज्य में विलीन हो गये। यौधेयों के सिक्के सहारनपुर, देहरादून, देहली, रोहतक, लुधियाना और काँगड़ा   मिले हैं। उनके प्रारम्भिक सिक्कों में उनको यौधेयन जबकि बाद के सिक्कों में यौधेय गणजनस्य कहा गया है। यौधेय लोग युद्ध के देवता कार्तिकेय के उपासक थे।

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