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वाशिष्क का साँची अभिलेख

भूमिका वाशिष्क का साँची अभिलेख १८६३ ई० में फ्युहरर को साँची के ध्वंसावशेषों की साफ-सफाई कराते समय बुद्ध की एक ऐसी मूर्ति प्राप्त हुई। मूर्ति के आसन पर यह लेख ब्राह्मी लिपि में संस्कृत से प्रभावित प्राकृत भाषा में अंकित है। संक्षिप्त परिचय नाम :- वाशिष्क का साँची अभिलेख ( Sanchi Inscription of Vashishka ) स्थान :- साँची, रायसेन जनपद, मध्य प्रदेश भाषा :- प्राकृत ( संस्कृत प्रभावित ) लिपि :- ब्राह्मी समय :- वाशिष्क के शासनकाल का, कनिष्क संम्वत् २८ ( = १०६ ई० ) विषय :- बौद्धधर्म से सम्बन्धित वाशिष्क का साँची अभिलेख : मूलपाठ १. [ महाराज ] स्य रा [ जातिराजस्य [ देव ] पुत्रस्य षाहि वासिष्कस्य सं २० [ + ] ८ हे १ [ दि ५ ] [ । ] [ ए ] तस्यां पूर्वा [ यां ] भगव- २. [ तो ] ………. स्य जम्बुछाया-शैलाग्रस्य ( गृहस्य ) धर्मदेव-बिहारे प्रति [ ष्ठा ] पिता खरस्य धितर मधुरिक— ३. ……. —णं देयधर्म-परि [ त्यागेन ] …….. हिन्दी अनुवाद महाराजा रजतिराज देवपुत्र षाहि वाशिष्क के संवत् २८ के प्रथम हेमन्त१ का दिन ५। इस पूर्वकथित दिन को भगवान् [ शाक्यमुनि की प्रतिमा ] को धर्मदेव विहार में जामुन की छाया में स्थित शैलगृह ( जम्बुच्छाया शैलगृह ) में खर की दुहिता मधुरिका ने प्रतिष्ठापित किया।……… देवधर्म के परित्याग…… पूर्णिमांत मार्गशीर्ष१ विश्लेषण इस अभिलेख का महत्त्व केवल इस दृष्टि से समझा जाता रहा है कि इसमें महाराज देवपुत्र षाहि वाशिष्क का उल्लेख है और उसमें जो वर्ष २८ है वह कनिष्क ( कुषाण ) संवत् है। विद्वानों ने कनिष्क सम्वत् को शक सम्वत् ( ७८ ई०  ) माना है। अतः वाशिष्क साँची अभिलेख का समय १०६ ई० ठहरता है। मथुरा के निकट ईसापुर से एक यूपस्तम्भ प्राप्त हुआ है उस पर भी वाशिष्क के २४वें वर्ष का अभिलेख है, जिससे यह प्रकट होता है कि इससे पूर्व वह किसी समय शासक हुआ होगा। मथुरा से ही कनिष्क का २३वें वर्ष और हुविष्क का २८वें वर्ष का अभिलेख प्राप्त है। इस तरह कनिष्क प्रथम का उत्तराधिकारी वाशिष्क हुआ और उसके बाद हुविष्क शासक बना। इन्होंने क्रमशः २३ वर्ष ( ७८ – १०१ ई० ), ४ वर्ष ( १०२ – १०६ ई० ) और ३४ वर्ष ( १०६ – १४० ई० ) शासन किया। इस तरह यह अभिलेख भगवान बुद्ध की मूर्ति की स्थापना का विवरण देता है। इसको धर्मदेव नामक विहार में खर की दुहिता मधुरिका ने प्रतिष्ठापित करवाया था। कामरा अभिलेख

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कामरा अभिलेख

भूमिका वाशिष्क का कामरा अभिलेख कैम्पबेलपुर ( पाकिस्तान-पंजाब ) से ६ मील ( लगभग ९.६ किमी० ) की दूरी पर स्थित कामरा नामक ग्राम-स्थित एक बड़े टीले के तल से दस मीटर नीचे एक शिला-फलक मिला था जिस पर यह अभिलेख उत्तर-पश्चिमी प्राकृत भाषा और खरोष्ठी लिपि में अंकित है। इसकी पहली पंक्ति के आरम्भ का कुछ भाग टूटा है और पंक्ति ४ के आगे अभिलेख खण्डित है। इस अभिलेख का पाठ कई विद्वानों ने प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत पाठ वाल्टन डाबिन्स और व्रतीन्द्रनाथ मुखर्जी के पाठ पर आधारित है। कामरा अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- वाशिष्क का कामरा अभिलेख ( Kamra Inscription of Vashishka ) स्थान :- कामरा ग्राम, कैम्पबेलपुर ( वर्तमान अटक ), पंजाब; पाकिस्तान भाषा :- प्राकृत लिपि :- खरोष्ठी समय :- कुषाणवंशी शासक वाशिष्क का शासनकाल विषय :- कुषाण नरेश वाशिष्क द्वारा कनिष्क के जन्म पर कुआँ खुदवाने का उल्लेख कामरा अभिलेख : मूलपाठ १. स २० विंशतिय१ जेठ मसस तिवसे त्रातशे १० [ +३ ] [ । ] महरजस रजतिरजस म [ हतस ] २. त्रतरस जयदस दोम्रदस२ स्वशखयस३ महरजस करस कबिस [ स च ध्र- ] ३. मथितस देवपुत्र वझेष्कस गुषनस देवमानुषस४ पड़ि…..५ ४. जति कनिष्कस इशे सनमि कुये खनापिदे६ पंक्ति १ के आरम्भ के अंश की पूर्ति वाल्टन डाबिन्स ने ‘[… १+२०+२०+] (२०+२०) पतिय’ के रूप में करने का प्रयास किया है। परन्तु सर हेराल्ड बेली आरम्भ में ‘स’ का टूट अंश देखते हैं। उसके बाद केवल १ या २ चिह्न देखते हैं। उनके अनुसार पाठ स[व १०]+१०+१० कतियस मासस है।१ डबिन्स ने इसे ‘द्रम्म ब्रदस’ पढ़ा है।२ डबिन्स ने इसे ‘स्वश खलस’ पढ़ा है।३ डबिन्स ने उसे दुरमानुष पढ़ा है।४ यह ‘पढि थपन’ शब्द का अंश हो सकता है।५ डाबिन्स ने खदभि [ दनभि …] की कल्पना की है।६ हिन्दी अनुवाद वर्ष २० के ज्येष्ठ मास के १३वें दिन ! महाराज रजतिराज, महान्, त्राता, दोमात ( ? ), महाराज कारा कवि की शाखा [ में उत्पन्न ] सद्धार्मिक, देवपुत्र वझेष्क कुशाण ( खुषण ) देवमानुष ने.. …. कनिष्क के जन्म के इस क्षण कुआँ खुदवाया। कामरा अभिलेख : समीक्षा सामान्य रूप से यह अभिलेख कुषाण कालीन है और यह कूप खुदवाये जाने की विज्ञप्ति है। किन्तु इतिहास की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण है और इसमें कई बातें विचारणीय हैं। विरुद समीक्षा सर्वप्रथम पंक्ति १ और २ में उल्लिखित विरुद-समूह :- महरजस रजतिरजस महतस, त्रतरस, जयतस, दोम्रअतस (?), स्वशखस, महरजस करस कबिस सचभ्रमथितमस है। कुषाण वंशीय कुजूल कडफिसेस ने अपने सिक्कों पर अपने को ध्रमथितस अथवा सचध्रमिथितस कहा है। अनेक सिक्कों पर उसका नाम कुजूल ( कुचुल ) कारा कपस के रूप में भी मिलता है। अतः इस अभिलेख के ‘करस कबिस’ को सहजभाव से ‘कारा कपस’ के रूप में पहचाना जा सकता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि इस अभिलेख में कुजुल कारा कदफिस का उल्लेख है। महरजस रजतिरजस महतस त्रतरस जयतस दोमुअतस (?) विरुद-समूह। महरजस-रजतिरजस का सर्वप्रथम प्रयोग शक-पह्लव शासकों के सिक्कों पर हुआ है। इस विरुद को कुषाण शासकों में कुजूल कडफिसेस और विम कडफिसेस दोनों ने अपनाया था। परन्तु उनके बाद के शासकों ने इसे त्यागकर ईरानी विरुद शाहानुशाहि ( Shao nano shao ) का प्रयोग आरम्भ किया। इसी तरह महतस, त्रतरस, जयतस विरुदों का प्रयोग सर्वप्रथम भारतीय यवन शासकों ने किया था। वे इनमें से प्रायः किसी एक विरुद का ही प्रयोग अपने सिक्कों पर करते रहे; अवस्था-विशेष में हो किसी-किसी शासक ने दो विरुदों को अपनाया था। शक-पह्लव शासकों ने भी इन विरुदों को अपनाया था और वे भी इसी परम्परा का वहन करते रहे। कुषाण-शासकों ने इन विरुदों में से केवल एक त्रतरस को ग्रहण किया था। वह भी केवल विम कदफिस ने। इन सभी विरुदों का एक साथ प्रयोग अभी तक केवल एक ही अभिलेख में हुआ है; उसमें शासक का नाम अनुपलब्ध है। यह अभिलेख उत्तर प्रदेश से प्राप्त हुआ है और ये विरुद कनिष्क और उसके परवर्ती शासकों के लिए अनजाने हैं। इसलिए डॉ० परमेश्वरीलाला गुपत ने उसे विम कडफिसेस-कालीन अभिलेख अनुमानित किया है। इन विरुद-समूहों के साथ एक विरुद और भी है – दोम्रअतस इसे व्रतीन्द्रनाथ मुखर्जी ने दोमुअतस पढ़ा है। उन्होंने इसके मूल में किस संस्कृत शब्द की कल्पना की है, यह उन्होंने स्पष्ट नहीं किया है; केवल उसका अनुवाद The law of living world किया है। अहमद हसन दानी ने इस शब्द का पाठ दे (वे) म्म [क] से ग्रहण किया है और वे उसका तात्पर्य विम कडफिसेस मानते हैं। डाबिन्स ने इसे द्रम्म ब्रदस के रूप में ग्रहण किया है और उसे धर्म व्रतस्य के रूप में ग्रहण किया है। यह विरुद अब तक सर्वथा अस्पष्ट है। उपर्युक्त विश्लेषण के परिप्रेक्ष्य में स्वाभाविक अनुमान यही होगा कि समूचे विरुद-समूह का प्रयोग कारा कपिस (कुजूल कारा कदफिस) के लिए ही किया गया है। किन्तु इस अनुमान को स्वीकार्यता में कठिनाई यह है कि कर कबिस के पूर्व महरजस और पश्चात् ध्रमथितस विरुद का प्रयोग हुआ है। महरजस रजतिरजस विरुद के आरम्भिक प्रयोग के बाद फिर महरजस का प्रयोग असंगत है और पुनरुक्ति दोष है। इसी प्रकार यदि डाबिन्स का पाठ भ्रम्मब्रदस (धर्मव्रतस्य) ठीक है तो वह भी भ्रमथितस (धर्मस्थित) के भाव की ही अभिव्यक्ति है। इस प्रकार यह भी पुनरुक्ति ही है। ऐसा जान पड़ता है कि समूचे विरुद-समूह का प्रयोग यहाँ कारा-कपिस के लिए नहीं हुआ है, वरन् उसका प्रयोग पंक्ति ३ में उल्लिखित देवपुत्र वझेष्क गुषण के लिए हुआ है। और स्वशखयस महरजस करस कबिस स च प्रमथितस समग्र रूप से देवपुत्र वझेष्क गुषण के लिए विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है। स्वशखस का तात्पर्य सभी विद्वानों ने अपनी शाखा में (अपने वंश में) ग्रहण किया है। इस प्रकार अनुमान किया जाता है कि देवपुत्र वझेष्क गुषण ने अपने को कुजूल कदफिस का वंशधर घोषित किया है। गुषण शब्द का उल्लेख पंजतर और मणिक्याला अभिलेखों में हुआ है। उनके प्रसंग में स्पष्ट किया गया है कि इसका तात्पर्य कुषाण है। वझेष्क कुशाणवंशी था। यही बात उसके देवपुत्र विरुद से भी ध्वनित होता है। यह कुषाण-शासकों का विरुद था, यह उनके मथुरा से मिले अनेक अभिलेखों से ज्ञात होता है। गुषण के बाद एक विरुद का प्रयोग हुआ है जिसे डाबिन्स ने द्ररमानुष (धर्ममानुष) पढ़ा है और उससे Preserver of mankind का अर्थ लिया है और कहा

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मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख

भूमिका कुषाणवंशी शासक कनिष्क द्वितीय के शासनकाल का मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख प्राप्त हुआ है। यह प्राकृत मिश्रित संस्कृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में है। मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख स्थान :- मथुरा, उत्तर प्रदेश भाषा :- प्राकृत ( संस्कृत प्रभावित ) लिपि :- ब्राह्मी  समय :- कनिष्क द्वितीय ( १४० – १४५ ई० ) विषय :- बौद्ध मूर्ति स्थापना।   मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख : मूलपाठ १. महाराज-देवपुत्रस्य कणिष्कस्य संवत्सरे १० [ + ] ४ पौष दिवसे १० [ । ] अस्मिं दिवसे प्रवरिक ह [ स्थिस्य ] २. भर्य्य संघिला भागवतो पितहमास्य सम्यसंबुद्धस्य स्वमतस्य देवस्य पूजार्त्थ प्रतिमं प्रतिष्ठा- ३. पयित सर्व्व-दुक्ख-प्रहानार्त्थ॥ हिन्दी अनुवाद महाराज देवपुत्र कनिष्क के संवत्सर १४ के पौष मास का १०वाँ दिन। इस दिन प्रावारिक ( बौद्ध भिक्षुओं का चीवर बनानेवाला दर्जी या बेचने वाला बजाज ) हस्तिन की भार्या ( पत्नी ) संघिला भगवत पितामह सम्यक्-बुद्ध ‘स्वमत’ वाले देव की मूर्ति-पूजा के निमित्त स्थापित करती है जिससे सारे दुःखों का निवारण हो। मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख : विश्लेषण मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख सामान्य रूप से प्रतिमा प्रतिष्ठापन की घोषणा मात्र है। इस अभिलेख में अंकित वर्ष १४ और शासक के रूप में कनिष्क का नाम देख कर इसे अब तक कनिष्क प्रथम के काल का अभिलेख समझा जाता रहा है। परन्तु मूर्ति की कला और अभिलेख की लिपि के सूक्ष्म परीक्षण से यह लेख कनिष्क प्रथम के समय का नहीं ठहरता है। कनिष्क नामधारी तीन कुषाणवंशी शासक हुए :- कनिष्क प्रथम – ७८ से १०१ ई० कनिष्क द्वितीय – १४० से १४५ ई० कनिष्क तृतीय – १८० से २१० ई० इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि वर्ष २ और ९८ के बीच ( जिसे कनिष्क या कुषाण संवत् समझा जाता है ) के काल के मथुरा में काफी बड़ी संख्या में मूर्तियों का निर्माण हुआ था। इनमें से अनेक मूर्तियाँ अभिलेखयुक्त हैं। उन पर अंकित तिथि के अनुसार जोहाना लोहिजाँ द लियु ने मथुरा-कला के इतिहास को क्रमबद्ध करने की चेष्टा की है। इस प्रयास में उन्हें अनेक मूर्तियों की शैली तिथि-क्रम से मेल खाती हुई नहीं लगी; वे उनसे सर्वथा भिन्न प्रतीत हुई। उनमें उन्हें ऐसे तत्त्व दिखायी दिये जो उनसे अंकित तिथियों के बहुत बाद की मूर्तियों में पाये जाते हैं। तब उनका ध्यान दो जिन मूर्तियों की ओर विशेष रूप से गया। उन पर अंकित अभिलेखों में एक पर कनिष्क का नाम और वर्ष १५ और दूसरे पर वासुदेव का नाम और वर्ष ८६ का उल्लेख है। इन दोनों ही मूर्तियों में जो अभिलेख हैं उनमें एक ही प्रकार की शब्दावली में कहा गया है कि उन्हें संघमित्रा नाम्नी जैन भिक्षुणी की शिष्या वसुला ने प्रतिष्ठापित कराया था। तिथियों के अनुसार भिक्षुणी का ७१ वर्षों तक अस्तित्व बना रहना असाधारण लगा। इन दोनों मूर्तियों की कला-शैली का अध्ययन करने पर यह बात सामने आयी कि कनिष्क के नाम और वर्ष १५ वाली मूर्ति वासुदेव के नाम और वर्ष ८६ की मूर्ति के बाद के काल की है; उसमें जो कला-तत्त्व हैं वे बाद के हैं, पूर्ववर्ती नहीं। परवर्ती कला के लक्षण अन्य अनेक मूर्तियों के देखने से प्रकट हुए; यही बात प्रस्तुत अभिलेख की मूर्ति में भी देखने में आयी। इस प्रकार शैली की दृष्टि से परवर्तीकालीन लगनेवाली मूर्तियों पर अंकित तिथियों पर विचार कर यह बात स्पष्ट कि इन परवर्तीकालीन शैलीवाली मूर्तियों पर अंकित तिथियों की गणना १०० के बाद शत संख्या की उपेक्षा कर नये सिरे से गणना १ से आरम्भ की गयी थी। इस प्रकार कनिष्क नामांकित अनेक मूर्तियाँ प्रख्यात कनिष्क से भिन्न कनिष्क की और वासुदेव के उपरान्त काल की हैं। मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख के लिपि-स्वरूप की ओर लिपि-विशेषज्ञों का ध्यान बहुत पहले गया था। उनकी दृष्टि में यह बात आयी थी कि इस अभिलेख के अक्षर ल, स और ह पूर्वी गुप्त-शैली के तथा प और स पश्चिमी गुप्त-शैली के हैं। इस कारण उन्होंने इसे परवर्तीकालीन होने का सन्देह प्रकट किया था और अनेक विद्वानों ने इस अभिलेख को कनिष्क तृतीय के होने की बात भी कही थी। परन्तु किसी अन्य साक्ष्य के अभाव में वर्ष संख्या के कारण अनेक लोग इसे स्वीकार करने में संकोच करते और येन-केन प्रकारेण समाधान करने की चेष्टा करते रहे हैं। कला-सम्बन्धी अन्तर के विवेचन से इस बात में अब सन्देह नहीं रहा कि यह अभिलेख वासुदेव के काल के बाद का है और इसकी तिथि में शत की संख्या का लोप है। वास्तव में यह कनिष्क सम्वत् [ १ ] १४ का अभिलेख है। अब तक कनिष्क द्वितीय की कल्पना अनुमान के सहारे कनिष्क और हुविष्क के काल में उपराजा या सहशासक के रूप में की जाती रही है। परन्तु जिस आधार पर इस प्रकार की कल्पना की जाती थी, वह आधार नयी शोधों से निर्मूल प्रमाणित हुई है। अतः मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेखकनिष्क द्वितीय का है। धार्मिक दृष्टि से इस अभिलेख में प्रयुक्त पितामह और स्वमत शब्द उल्लेखनीय हैं :— पितामह : अनेक लेखों में बुद्ध के लिए पितामह शब्द का प्रयोग हुआ है। यहाँ भी यह प्रयोग उसी प्रकार का है। स्वमत : इस शब्द के सम्बन्ध में दिनेशचन्द्र सरकार की धारणा है कि इसे वास्तव में स्वमत-विरुद्ध होना चाहिए। इसका प्रयोग कुमारगुप्त प्रथम के मानकुंवर अभिलेख१ में भी हुआ है। वहाँ बुद्ध की प्रतिमा के लिए भगवतो सम्यक् सम्बुद्धस्य स्वमताविरुद्धस्य प्रयुक्त हुआ है। वहाँ उसे स्वमत-अविरुद्ध के रूप में देखा जाता और उसका अर्थ है – वह जो अपने उपदेश के प्रति आस्थावान् हो ( One who lived according to his own teachings ) लिया जाता है। यही भाव स्वमतस्य में भी ध्वनित होता है वह अपने-आपमें पूर्ण है उसे स्वमताविरुद्ध के रूप में देखने की कल्पना करने की आवश्यकता नहीं है। [ स्वास्ति ] नमो बुद्धानं ( । ) भगवतो सम्यक्सम्बुधस्य स्व-मताविरुद्धस्य इयं प्रतिमा प्रतिष्ठापिता भिक्षु बुद्धमित्रेण।१

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मथुरा जिन-मूर्ति अभिलेख

भूमिका मथुरा जिन-मूर्ति अभिलेख कंकाली टीला ( मथुरा जनपद ) उत्तर प्रदेश से मिली है। यह लेख संस्कृत प्रभावित प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में अंकित है। वर्तमान में यह अभिलेख लखनऊ संग्रहालय में सुरक्षित है। मथुरा जिन-मूर्ति अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- मथुरा जिन-मूर्ति अभिलेख या मथुरा जैन-मूर्ति अभिलेख ( Mathura Jin-Idol Inscription ) स्थान :- कंकाली टीला, मथुरा जनपद, उत्तर प्रदेश भाषा :- प्राकृत ( संस्कृत प्रभावित ) लिपि :- ब्राह्मी समय :- कुषाणवंशी शासक वासुदेव के शासनकाल काल का। कनिष्क सम्वत् ८० ( शक सम्वत् ) अर्थात् १५८ ई०। विषय :- अधूरा लेख, जैन धर्म सम्बन्धी। मथुरा जिन-मूर्ति अभिलेख : मूलपाठ १. सिधं [ ॥ ] महरजस्य व [ ] सुदेवस्य सं ८० हमव ( हैमंत ) १ दि १० [ + ] २ [ । ] एतस पुर्वा [  ] यां सनक [ ददस ? ] २. घि [ त्र ] संघतिधिस वधुये बलस्य …….. [ ॥ ] हिन्दी अनुवाद सिद्धम्। महाराज वासुदेव के सं ८० [ के ] हेमन्त का प्रथम मास, दिन १२। इस पूर्व [ कथित दिवस को ] सनकदास की दुहिता ( पुत्री ), संघतिथि की वधू ( पत्नी ), बल की [ माता ….. ] मथुरा जैन-मूर्ति अभिलेख : विश्लेषण यह लेख अपूर्ण है। जैन प्रतिमा पर अंकित होने के कारण यह सहज ही अनुमानित किया जा सकता है कि इस अभिलेख में जैन मूर्ति के प्रतिष्ठित करने और दान की बात कही गयी होगी। ऐतिहासिक दृष्टि से इसका महत्त्व है कि इसमें तिथि का और शासक का उल्लेख है। परन्तु साथ ही यहाँ पर कुषाणवंशी शासकों के लिए प्रयुक्त विरुदों ( जैसे – महाराज रजतराज, देवपुत्र ) का प्रयोग नहीं मिलता है। यहाँ पर वासुदेव के लिए मात्र मात्र माहाराज विरुद प्रयुक्त हुआ है। धार्मिक दृष्टि से मथुरा ब्राह्मण व बौद्ध धर्म के साथ-साथ जैन धर्म का भी केंद्र था। यहीं के कंकाली टीले से ही मथुरा आयागपट्ट अभिलेख भी जैन धर्म की उन्नति दशा का द्योतक है।

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मणिक्याला अभिलेख ( Manikiala Inscription )

भूमिका कनिष्क के १८वें राज्यवर्ष अर्थात् ९६ ई० का मणिक्याला अभिलेख रावलपिण्डी ( पाकिस्तान ) जिले के मणिक्याला नामक ग्राम से मिले स्तूप समूहों ( एक बड़े स्तूप तथा अनेक छोटे-छोटे स्तूपों तथा विहारों के अवशेष ) से १९३४ ई० में एक छोटे स्तूप के उत्खनन में दस फीट नीचे एक पत्थर पर अंकित मिला था जिसका प्रयोग वहाँ अस्थि-पेटिका के ढक्कन के रूप में हुआ था। यह अभिलेख खरोष्ठी लिपि और प्राकृत भाषा में है। मणिक्याला अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- मणिक्याला अभिलेख ( Manikiala Inscription ) [ माणिक्याला / माणिक्याल / मणिक्याल / मणिक्यल ] स्थान :- मणिक्याला ग्राम, रावलपिण्डी जिला, पंजाब प्रांत, पाकिस्तान भाषा :- प्राकृत लिपि :- खरोष्ठी समय :- ९६ ई० ( कनिष्क प्रथम के शासनकाल का १८वाँ वर्ष ) विषय :- बौद्धधर्म से सम्बंधित मणिक्याला अभिलेख : मूलपाठ १. सं १० [ + ] ४ [ + ] ४ कर्तियस मस [ स ] दिवसे २० [ । ] [ एत्र ] पुर्वए महरजस कणे- २. ष्क [ स्य ] गुषण-वंश-संवर्धक लल ३. दडणयगो वेश्पशिस क्षत्रपस ४. होरमु [ र्तो ] स तस अपनगे विहरे ५. होरमुर्तो एत्र णण भगव-बुद्ध-झुव ६. [ प्र ] तिस्तवयति सह तए [ न ] वेश्पशिएण खुदेचिए [ न ] ७. बुरितेण च विहरकर [ व्ह ] एण ८. संवेण च परिवरेण सध [ । ] एतेन कु- ९. शलमूलेन बुधेहि च ष [ व ] एहि [ च ] १०. समं सद भवतु ११. भ्रतर स्वरबुधिस अग्रप [ डि ] अशए १२. सध बुधिलेन नवकर्मिगेण [ ॥ ] मणिक्याला अभिलेख की पंक्तियाँ विभिन्न स्थलों पर अंकित हैं। प्रथम ६ पंक्ति मुख्य अंश में है। पंक्ति ७ से ९ बायीं ओर, पंक्ति १० ऊपर के बायें कोने में, पंक्ति ११ मुख्य लेख के ऊपर की ओर, पंक्ति १२ दायीं ओर पंक्ति २ के ऊपर अंकित है। हिन्दी अनुवाद संवत्सर १८ कार्तिक मास का दिवस २०। इस पूर्वकथित दिवस को महाराज कनिष्क के राज्य में। गुषण-वंश-संवर्धक, लल ( ? ) दण्डनायक, वेश्पसी के क्षत्रप, होरमूर्त१ और उनके आत्मज बिहार होरमुर्त। [ उन्होंने ] यहाँ तीन [ अन्य व्यक्तियों ] विश्वसिक खुदचियन्, बुरित और बिहरकर व्यएण तथा [ अपने ] परिवार के साथ भगवान् बुद्ध के अनेक स्तूप स्थापित किये। इनके [ इन स्तूपों के ] निर्माण का जो कुशलमूल ( पुण्य ) हो, ( उसमें ) बुद्धों, श्रावकों और अन्य लोगों के साथ भ्राता स्वरबुद्ध का मुख्य भाग हो। नवकर्मिक बुद्धिल के साथ। इसका एक अन्य अर्थ भी सम्भव है कुषाण वंश-संवर्धक लल, दण्डनायक वेश्पसी, क्षत्रप होरमूर्त। इस तरह इसमें तीन व्यक्तियों के नाम प्रतीत होते हैं। किन्तु आगे की पंक्ति में तीन अन्य व्यक्तियों के नामोल्लेख के परिप्रेक्ष्य में यहाँ तीन व्यक्तियों के नामों की सम्भावना नहीं है। पूरा वाक्य होरमूर्त का विशेषण ही प्रतीत होता है।१ मणिक्याला अभिलेख : विश्लेषण मणिक्याला अभिलेख स्तूप निर्माण सम्बन्धी सामान्य सूचना-पत्र है। इस प्रकार इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि एक विदेशी ने अभिलेख में उल्लिखित स्तूपों का निर्माण करवाया था। इससे बौद्ध धर्म के प्रति विदेशियों का आकर्षण प्रकट होता है। दानदाताओं के उल्लेख की दृष्टि से ही यह अभिलेख विशेष विचारणीय है। पंक्ति – ११ से ऐसा ज्ञात होता है कि जिसने इस अभिलेख को अंकित कराया, उसने अपने भाई होरमुर्त के पुण्य लाभ के लिए स्तूप बनवाये थे। उसने इस काम में तीन अन्य व्यक्तियों को सहयोगी बनाया था ( पंक्ति ६-८ )। उस व्यक्ति की चर्चा, जिसने स्तूप बनवाये और अभिलेख अंकित कराया, पंक्ति २-५ में है। यही विचारणीय अंश है। यह अंश इस प्रकार है — गुषण वंश-संवर्धक लल दडणयगो वेश्पशिस क्षत्रपस होरमुर्तो स तस अपनगे विहरे होरमुर्तो। स्टेन कोनो ने इसका अनुवाद ‘The general Lala, the scion of the Gushana race, the donation- master in his own Vihar’ किया है। इसका भाव है— दण्डनायक लल, गुषण-वंश की शाखावाला, क्षत्रप वेश्पसी का दानपति — वह अपने ही विहार में अपना दानपति है। इससे ऐसा प्रकट होता है कि अभिलेख और स्तूपों का निर्माता दण्डनायक लल था, वह गुषण वंश का था और क्षत्रप वेश्पसी का दानपति था और उसका अपना विहार था जिसका वह स्वयं ही दानपति था। इसमें दानपति ( Donation master ) शब्द का प्रयोग स्टेन कोनो ने होरमुर्त के लिए किया है। यह अनुवाद उन्हें लूडर्स ने सुझाया था। होर शब्द खोतानी-शक भाषा में दान ( gift ) के लिए प्रयुक्त पाया गया है। किन्तु पति के अर्थ में शक भाषा में मुर्त जैसा कोई शब्द नहीं है। स्वामी के अर्थ में मुरुण्ड शब्द मिलता है। उसी से यह शब्द निकला होगा ऐसा लूडर्स का अनुमान है। दानपति शब्द की कल्पना उन्होंने इसलिए की कि उन्हें तक्षशिला ताम्रलेख में महादानपति शब्द देखने को मिला था। यदि यह मान लिया जाय कि होरमुर्त का अभिप्राय दानपति है तो प्रश्न उठता है कि उसका यहाँ अभिप्राय क्या है? दानपति का अर्थ होता है — उदारदानी या महादानी — और ठीक इसी भाव में महादानपति का प्रयोग तक्षशिला ताम्रलेख में पतिक के लिए हुआ है। यहाँ ‘क्षत्रप वेश्पसी का दानपति’ कहा गया है। इस कथन से उदारदानी अथवा महादानी का भाव प्रकट नहीं होता है। इससे तो यह ज्ञात होता है कि यह कोई प्रशासनिक पद होगा। इस पदाधिकारी के जिम्मे राज्य की ओर से दान देने की व्यवस्था रही होगी। पर इस नाम के पदाधिकारी का परिचय किसी भी सूत्र से प्राप्त नहीं होता। यदि मान लें कि क्षत्रप वेश्पसी के यहाँ इस प्रकार का कोई पदाधिकारी था तो अभिलेख में दूसरी जगह ( पंक्ति ५ ) होरमुर्त की इस व्याख्या — वह अपने ही विहार में अपना दानपति था के स्पष्टीकरण की समस्या सामने उपस्थित होती है। विहारों में दान प्राप्त किया जाता था, दान दिया नहीं जाता था। वहाँ दान प्राप्त कर सुरक्षित रखनेवाले अधिकारी की आवश्यकता थी। निःसन्देह विहारों के इस अधिकारी का पदनाम ( designation ) राजकीय दान-व्यवस्थापक के नाम से भिन्न होना चाहिए। यह अकल्पनीय है कि दोनों पद एक ही नाम — होरमुर्त से पुकारा जाता रहा हो। अतः होरमुर्त से यहाँ किसी पद का अभिप्राय नहीं हो सकता है। होरमुज और होरमुरण्ड के रूप में होरमुर्द मथुरा के जमालपुर टीले से प्राप्त कई स्तम्भ लेखों में पाया गया है और वहाँ यह व्यक्तिवाचक नाम है। इन

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सुई-विहार अभिलेख ( Sui-Vihar Inscription )

भूमिका सुई-विहार अभिलेख पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के बहावलपुर से दक्षिण-पश्चिम में लगभग २६ किमी० ( ≈ १६ मील ) की दुरी पर पाया गया है। इसकी भाषा संस्कृत प्रभावित प्राकृत है और लिपि खरोष्ठी है। यह अभिलेख ताम्रपत्र पर अंकित कनिष्क प्रथम के राज्यारोहण के ११वें वर्ष अर्थात् ८९ ई० का है। इस स्थान पर सुई-विहार ( सूची-विहार ) नाम का एक स्तूप था। इसी भग्न स्तूप से १८६६ ई० में ७६.२ सेमी० ( ३० इंच ) का वर्गाकार ताम्रपत्र मिला है। यह लेख ४ पंक्ति का है। सम्भवतः अब यह कोलकाता के एसियाटिक सोसाइटी के संग्रह में है। सुई-विहार अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- सुई-विहार अभिलेख ( Sui-Vihar Inscription ), कनिष्क प्रथम के ११वें शासनकाल का सुई-विहार ताम्रपत्र अभिलेख ( Sui-Vihar Copper Plate Inscription of the 11th reign of Kanishka I ) स्थान :- सुई-विहार स्तूप, बहावलपुर, पंजाब, पाकिस्तान भाषा :- प्राकृत ( संस्कृत प्रभावित ) लिपि :- खरोष्ठी समय :- ८९ ई० ( कनिष्क प्रथम के शासनकाल का ११वाँ वर्ष ) विषय :- बौद्ध धर्म से सम्बंधित सुई-विहार अभिलेख : मूलपाठ १. महरजस्य रजतिरजस्य देवपुत्रस्य क [ निष्कस्य ] संव [ त्स ] रे एकदशे सं १० [ + ] १ दइसिंकस्य मस [ स्य ] दिवसे अठविशे दि २० [ + ] ४ [ + ] ४ २. [ अ ] त्र दिवसे भिक्षुस्य नगदतस्य ध [ र्म ] कथितस्य अचर्यदमत्रत-शिष्यस्य अचर्य-भवे-प्रशिष्यस्य यठिं अरोपयत इह दमने ३. विहरस्वमिणिं उपसिक [ व ] लनंदि- [ कु ] टिंबिनि बलजय-मत च इमं यठि-प्रतिठनं ठप [ इ ] चं अनु परिवरं ददरिं [ । ] सर्वसत्वनं ४. हित-सुखय भवतु [ ॥ ] हिन्दी अर्थांतर महाराज रजतिराज देवपुत्र कनिष्क के संवत् ग्यारह (११) के दैशिक१ नामक मास का २८वाँ दिवस। इस दिन आचार्य भव के प्रशिष्य, आचार्य दमत्रात के शिष्य, धर्म-कथिन ( धर्मोपदेशक ) भिक्षु नागदत्त की यष्टि यहाँ दमन में आरोपित की जाती है। बलनन्दि की कुटुम्बिनी ( भार्या ) बलजय की माता, उपासिका विहारस्वामिनी ने इस यष्टि-प्रतिष्ठान को स्थापित किया [ और ] परिवार सहित दिया। [ इससे ] सर्वसत्यों ( जीवों ) का हित, सुख हो। यह यूनानी ( मकदूनी, मैसिडोनियन ) मास का नाम है जोकि भारतीय पंचांग के ज्येष्ठ-आषाढ़ में पड़ता था।१ सुई-विहार ताम्रपत्र अभिलेख : विश्लेषण इस लेख से ऐसा ज्ञात होता है कि उपासिका विहारस्वामिनी को भिक्षु नागदत्त ने धर्म का उपदेश ( बौद्ध धर्म का ) दिया था। उनके देहावसान के बाद उसने उनकी स्मृति में यष्टि ( लाट, स्तम्भ ) स्थापित किया गया। इससे धार्मिक जनों की स्मारक-स्तम्भ स्थापित करने की बात ज्ञात होती है। सुई-विहार कदाचित् सूची-विहार है। हो सकता है सूची का तात्पर्य इसी स्तम्भ से हो और स्तम्भ तथा विहार के होने के कारण इस स्थान को सूची-विहार अर्थात् सुई-विहार कहा जाने लगा हो। इस प्रकार जहाँ यह अभिलेख मिला है उसके निकट ही यह स्तम्भ रहा होगा। सुई-विहार का ही पुराना नाम कदाचित् दमन रहा होगा। सुईविहार ताम्रपत्र लेख से यह भी अनुमान लगाया जाता है कि धार्मिक शिक्षा के लिए आचार्यों की परम्परा इस समय तक बनने लगी थी। इससे आचार्य भव, उनके गुरु आचार्य दमत्रात और उनके गुरु धर्मकथिन भिक्षु नागदत्त की परम्परा ज्ञात होती है। सुई विहार ताम्रपत्र अभिलेख में परिवार के मुखिया बलनन्दि, उनकी भार्या जिनको कि उपासिका, विहारस्वामिनी और बलजय की माता बताया गया का विवरण मिलता है।

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श्रावस्ती बोधिसत्त्व अभिलेख

भूमिका श्रावस्ती बोधिसत्त्व अभिलेख उत्तर प्रदेश श्रावस्ती जनपद के सहेत-महेत नामक स्थान से मिला है। सहेत- महेत ( प्राचीन श्रावस्ती ) से प्राप्त बोधिसत्त्व की प्रतिमा और उसके छत्र पर यह अंकित है। इन पर सारनाथ बोधिसत्त्व अभिलेख के समान ही ब्राह्मी लिपि में संस्कृत से प्रभावित प्राकृत भाषा में में अभिलेख है और विषय भी लगभग समान है । श्रावस्ती बोधिसत्त्व अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- श्रावस्ती बोधिसत्त्व अभिलेख ( Shravasti Bodhisattva Inscription ), सहेत-महेत बोधिसत्त्व अभिलेख ( Sahet-Mahet Bodhisattva Inscription ), कनिष्क का श्रावस्ती बोधिसत्त्व अभिलेख ( Shravasti Bodhisattva Inscription of Kanishka ) स्थान :- सहेत-महेत ( प्राचीन श्रावस्ती ), श्रावस्ती जनपद, उत्तर प्रदेश। भाषा :- प्राकृत ( संस्कृत प्रभावित ) लिपि :- ब्राह्मी समय :- कनिष्क का शासनकाल ( प्रथम शताब्दी ई० ) विषय :- बौद्धधर्म से सम्बन्धित श्रावस्ती बोधिसत्त्व अभिलेख : मूलपाठ ( छत्र पर अंकित ) १. [ महाराजस्य ] … [ दे ] — २. [ वपुत्रस्य कणिष्कस्य ] [ सं……दि…… ] ३. [ भिक्षुस्य पुष्यबुद्धिस्य ] [ सद्ध्ये ] विहारि — ४. [ स्य भिक्षुस्य … सद्धध्येयविहारि ] ५. स्य [ भिक्षुस्य बलस्य त्रेपिट ] कस्य ६. शावस्तिये [ भगवतो ] [ च ] क [ मे ] कोसंब — ८. [ कुटिये ] [ अचार्य्याणं सर्वास्ति ] वादिनं ९. [ परिग्रहे ] [ ॥ ] ( मूर्ति पर अंकित ) १. [ महाराजस्य देवपुत्रस्य कणिष्कस्य सं.. ..दि ] १० [ + ] ६ [ । ] एतए पूर्वये भिक्षुस्य पुष्य [ बु ] — २. [ द्धिस्य ] सद्ध्येविहारिस्य भिक्षुस्य ब [ ल ] स्य त्रेपटिकस्य दान बोधिसत्वो छत्रंदाण्डश्च शावतस्तिये भगवतो चंकमे ३. कोसंबकुटिये [ अचर्य्या ] णां सर्वस्तिवादिनं परिगहे [ । ] हिन्दी अनुवाद [ महाराज देवपुत्र कनिष्क का राज्य संवत्सर का दिन ] इस पूर्वकथित दिन को भिक्षु पुष्यवृद्ध के साथ तीर्थयात्रा पर निकले त्रिपिटकविद् भिक्षु बल का दान- बोधिसत्त्व [ की मूर्ति ] और दण्ड श्रावस्ती के भगवान् के चंक्रम में के सम्बकुटी में [ स्थापित ] सर्वास्तिवादिन आचार्यों के परिग्रह के लिए। सहेत-महेत अभिलेख : विश्लेषण छत्र-दण्ड पर अंकित अभिलेख अत्यन्त क्षतिग्रस्त है परन्तु जो उपलब्ध है उससे यह ज्ञात होता है कि वह मूर्ति पर अंकित अभिलेख की थोड़े-बहुत अन्तर के साथ उसकी प्रतिलिपि ही लगती है। इस अभिलेख की प्रत्येक पंक्ति में १२ अक्षर होने की कल्पना होती है। इससे अनुमान होता है कि प्रथम पंक्ति में ‘महाराजस्य रजतिराजस्य दे’ रहा होगा। द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ पंक्ति से ऐसा अनुमान होता है कि वहाँ सार्द्धबिहारी ( तीर्थयात्रा के साथी ) के रूप में एक नहीं, दो भिक्षुओं का नाम था। एक तो पुष्यवृद्ध ही रहे होंगे और दूसरे का नाम उपलब्ध नहीं है। इन लेखों का महत्त्व इस बात में है कि इनसे सिद्ध होता है कि सहेत-महेत के ध्वंसावशेष ही प्राचीन श्रावस्ती है। लेख में सर्वास्तिवादिन१ आचार्यों का उल्लेख है। इससे ऐसा जान पड़ता है कि इस सम्प्रदाय की शिक्षा के लिए यहाँ नियमित व्यवस्था थी और उसके लिए आचार्य नियुक्त किये जाते थे। सर्वास्तिवादिन का विवरण हमें मथुरा के सिंह स्तम्भशीर्ष अभिलेख में भी प्राप्त होता है।

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सारनाथ बोधिसत्त्व अभिलेख

भूमिका सारनाथ बोधिसत्त्व अभिलेख कनिष्क के तृतीय राज्यवर्ष का है। यह अभिलेख संस्कृत प्रभावित प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में अंकित है। यह अभिलेख सारनाथ के एक बोधिसत्त्व ( बोधिसत्व  ) की प्रतिमा और उसके छत्र पर अंकित है और वर्तमान में या सारनाथ संग्रहालय में सुरक्षित है। सारनाथ बोधिसत्त्व अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- सारनाथ बोधिसत्त्व अभिलेख ( Sarnath Bodhisattva Inscription ), कनिष्क प्रथम कालीन सारनाथ बौद्ध प्रतिमा अभिलेख ( Sarnath Buddhist Image Inscription of the time of Kanishka – I ) स्थान :- सारनाथ, वाराणसी जनपद, उत्तर प्रदेश भाषा :- प्राकृत ( संस्कृत प्रभावित ) लिपि :- ब्राह्मी समय :- ८१ ई०, ( कनिष्क के राज्यारोहण का तृतीय वर्ष अर्थात् सं० ३ + ७८ शक सं० = ८१ ई० ) विषय :- भिक्षु बल द्वारा विभिन्न लोगों के साथ, छत्र और यष्टि की स्थापना, लोगों की सुख-शान्ति व हित के लिये। सारनाथ बोधिसत्त्व अभिलेख : मूलपाठ प्रथम १. महारजस्य कणिष्कस्य सं- ३१ हे ३ दि० २० [ + ] २ २. एताये पूर्वये भिक्षुस्य पुष्पबुद्धिस्य सद्ध्येवि- ३. हारिस्य भिक्षुस्य बलस्य त्रेपिटकस्य ४. बोधिसत्त्वो छत्रयष्टि [ च ] प्रतिष्ठापितो ५. बाराणसिये भगवतो चंकमे महा माता [ ा  ] – ६. पितिहि सहा उपद्ध्याचर्येहि सद्ध्येविहारि- ७. हि अंतेवासिकेहि च सहा बुद्धमित्रये त्रेपिटिक- ८. ये सहा क्षत्रपेण वनस्परेन खरपल्ला- ९. नेन च सहा च [ तु ] हि परिषाहि सर्वसत्वं १०. हितासुखार्थं ( ॥ ) कुछ विद्वान इसको २ पढ़ते हैं।१ संस्कृत छाया महाराजस्य कनिष्कस्य संवत्सरे ३ हेमन्त ३ दिवसे २२ एतस्यां पूर्वायां भिक्षौ पुष्यबुद्धे सार्द्धं विहारिण: भिक्षो बलस्य त्रैपिटकस्य बोधिसत्व: छत्रयष्टिः च प्रतिष्ठापितौ वाराणस्यां भगवतः चंक्रमे सह मातृपितृभ्यां सह उपाध्याचार्यै: सार्द्ध विहारिभिः अन्तेवासिकै: च सहबुद्धमित्रया त्रैपिटक्या सह क्षत्रपेण वनस्परेण खरपल्‍लानेन च सह च चतसृभिः परिषभि-सर्वसत्त्वानां हितसुखार्थम्‌॥ हिन्दी अनुवाद महाराज कनिष्क के [ राज्य ] संवत्सर ३ [ का ] हेमन्त [ ऋतु का मास ] ३ का दिन २२। इस पूर्वकथित दिवस को भिक्षु पुष्यवृद्ध के साथ तीर्थ-यात्रा पर निकले हुए त्रिपिटकविद् भिक्षु बल ने बोधिसत्त्व [ की मूर्ति ] तथा छत्रयष्टि वाराणसी में भगवान् के चक्रम [ गन्धकुटी विहार के प्रांगण ]२ में माता-पिता के साथ, उपाध्याय आचार्य के साथ, बिहार के अन्तेवासियों के साथ और त्रिपिटकविद् बुद्धमित्र के साथ और क्षत्रप वनस्पर तथा खरपल्लान३ के साथ और परिषद् चतुर्वर्ग४ के साथ सर्वसत्वों ( जीवों ) के हित और सुख के लिए स्थापित किया। महावंश के अनुसार चंक्रम विहार की उस समतल भूमि को कहते हैं जिसका उपयोग टहलने अथवा उपासना के लिए किया जाता है।२ अभिलेख के दूसरे अंश से ज्ञात होता है कि खरपल्लान महाक्षत्रप था।३ बौद्धों के चार वर्ग हैं :- भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक और उपासिका।४ द्वितीय १. भिक्षुस्य बलस्य त्रेपिटकस्य बोधिसत्वो प्रतिष्ठापितो। २. महाक्षत्रपेन खरपल्लानेन सहा क्षत्रपेन वनष्परेन॥ संस्कृत छाया भिक्षा: बलस्य त्रैपिटकस्य बोधिसत्त्व: प्रतिष्ठापितः। महाक्षत्रपेण खरपलल्‍लानेन सह क्षत्रपेण वनस्परेण। हिन्दी अनुवाद त्रिपिटकविद् भिक्षु बल द्वारा प्रतिष्ठापित बोधिसत्त्व। महाक्षत्रप खरपल्लान और क्षत्रप वनस्पर के साथ॥ तृतीय १. महाराजस्य क [ णिकस्य ] सं ३ हे ३ दि २० [ + ] [ २ ] २. एतये पूर्वये भिक्षुस्य बलस्य त्रेपिट [ कस्य ] ३. बोधिसत्वो छत्रय [ ष्टि ] [ च ] प्रतिष्ठापितो [ । ] संस्कृत छाया महाराजस्य कनिष्कस्य संवत्सरे ३ हेमन्त ३ दिवसे २२ एतस्यां पूर्वायं भिक्षो: बलस्य त्रैपिटकस्य बोधिसत्त्व: छत्रयष्टि: प्रतिष्ठापितौ॥ हिन्दी अनुवाद महाराज कनिष्क के [ राज्य ] संवत्सर ३ [ का ] हेमन्त [ ऋतु का मास ] ३ का दिन २२। इस पूर्वकथित दिन को त्रिपिटकविद् भिक्षु बल द्वारा प्रतिष्ठापित बोधिसत्त्व और छत्र यष्टि। सारनाथ बोधिसत्त्व अभिलेख : महत्त्व यह अभिलेख तीन खण्डों का है। पहला बड़ा है तथा शेष दो अत्यन्त छोटे हैं। इसमें केवल बौद्ध धर्म स्थल, देवता आदि की चर्चा की गयी है।यह कनिष्क सं० ३ के हेमन्त ऋतु के २२वें दिन उत्कीर्ण कराया गया था। इस अभिलेख में छत्र की भी चर्चा है जो प्राप्त नहीं हो सका हैं। परन्तु प्रतिमा और यष्टि ही मिले हैं और वो अलग-अलग मिले हैं। यह अभिलेख कनिष्क के शासनकाल का दूसरा अभिलेख माना जाता है। अभी हाल में कौशाम्बी से कनिष्क के शासनकाल के दूसरे वर्ष का अभिलेख मिल जाने से पहला अभिलेख का स्थान कौशाम्बी अभिलेख को माना जाता है। शक सम्वत् और कनिष्क फ्लीट और केनेडी के अनुसार कनिष्क प्रथम का राज्यारोहण ५७ ई०पू० में हुआ और वही विक्रम सम्वत् का प्रवर्तक है। रमेशचन्द्र मजूमदार उसके राज्याभिषेक की तिथि २४८ ई० मानकर उसको त्रैकुटक-कलचुरि-चेदि सम्वत् का प्रवर्तनकर्ता बताते हैं। मार्शल, स्टेन कोनो और स्मिथ कनिष्क के राज्याभिषेक की तिथि १२५ ई० बताते हैं घिर्शमन १४४ ई० बताते हैं। परन्तु उपर्युक्त सभी तिथियाँ तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती हैं। फार्ग्गूसन, ओल्डेनवर्ग, थामस, बनर्जी, रैप्सन और हेमचंद्रराय चौधरी कनिष्क के राज्याभिषेक की तिथि ७८ ई० मानते हैं। इससे ए०एल० बॉशम भी सहमत हैं। इन विद्वानों की मत है कि कालान्तर में शकों द्वारा इसके निरन्तर प्रयोग से यही सम्वत् शक सम्वत् के नाम से प्रसिद्ध हो गया। वर्तमान में यही भारत का राष्ट्रीय सम्वत् है। राज्य विस्तार की जानकारी सारनाथ बोधिसत्त्व प्रतिमा अभिलेख के साथ अन्य पुरातात्त्विक साक्ष्यों व अभिलेखों को मिलाकर विचार करने पर कनिष्क प्रथम के पूर्वी राज्य विस्तार का ज्ञान होता है। प्रस्तुत अभिलेख ही कनिष्क प्रथम के राज्यारोहण के तृतीय शासनकाल का है अर्थात् ८१ ई०। बिहार तथा उत्तर बंगाल से उसके शासन काल के बहुसंख्यक सिक्के मिलते हैं। ‘श्रीधर्मपिटकनिदानसूत्र’ के चीनी भाषा में अनुवाद से ज्ञात होता है कि कनिष्क ने पाटलिपुत्र के राजा पर आक्रमण कर उसे बुरी तरह परास्त किया तथा हर्जाने के रूप में एक बहुत बड़ी क्षतिपूर्ति को माँग की। परन्तु इसके बदले में वह अश्वघोष लेखक, बुद्ध का भिक्षा पात्र और एक अद्भुत मुर्गां पाकर ही संतुष्ट हो गया। स्पूनर ने पाटलिपुत्र की खुदाई के दौरान कुछ कुषाण सिक्के प्राप्त किये थे। सिक्कों का एक ढेर बक्सर से मिला है। वैशाली और कुम्रहार से भी कुषाण सिक्के मिलते हैं। बोधगया से हुविष्क के समय का मृण्मूर्तिफलक ( Terracotta Plaque ) मिला है। ये सभी साक्ष्य बिहार पर कनिष्क के अधिकार को पुष्टि करते हैं। बिहार के आगे बंगाल के कई स्थानों, जैसे- तामलुक ( ताम्रलिप्ति ) और महास्थान से कनिष्क के सिक्के मिलते है। दक्षिण-पूर्व में उड़ीसा प्रान्त के मयूरभंज, शिशुपालगढ़, पुरी गंजाम आदि से कनिष्क के सिक्के मिलते हैं। किन्तु मात्र सिक्कों के प्रसार

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रेह अभिलेख ( Reh Inscription )

भूमिका रेह अभिलेख उत्तर प्रदेश के फतहपुर जिले में रेह नामक स्थान से प्राप्त हुआ है। यह अभिलेख एक शिवलिंग पर अंकित है। इसकी भाषा प्राकृत और लिपि ब्राह्मी है। इस शिवलिंग का निचला भाग अनुपलब्ध होने के कारण अभिलेख की केवल आरम्भिक तीन पंक्तियाँ और चौथी पंक्ति के कतिपय लिपि-चिह्न ही बचे हैं। रेह अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- रेह अभिलेख ( Rah Inscription ) स्थान :- रेह, फतेहपुर जनपद, उत्तर प्रदेश भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- कुषाणकाल, विम कडफिसेस विषय :- शैव धर्म से सम्बंधित रेह अभिलेख : मूलपाठ १.  महरजस रजति रजस २.  महंतस त्रतरस धम्मि- ३.  कस जयंतस च अप्र- ४.  ……………………… हिन्दी अनुवाद महाराज रजतिराज महान्, त्राता, धार्मिक, जयन्त और अप्र [ … ] रेह अभिलेख : विश्लेषण रेह अभिलेख पर तीन पंक्ति ही पूर्ण रूप से मिली है। चौथी पंक्ति अपठित है। इस पर किसी राजा का नाम नहीं प्राप्त होने से विरुद के आधार पर विद्वानों ने इसके राजा की पहचान करने का प्रयास किया है। विवाद मुख्य रूप से मिनाण्डर और विम कडफिसेस के मध्य है कि रेह अभिलेख किसका है? क्या यह मिनांडर का अभिलेख है? इस अभिलेख को प्रयाग विश्वविद्यालय के प्राध्यापक गोवर्धनराय शर्मा ने प्रकाशित किया है और चतुर्थ पंक्ति के लिये अपना अनुमानित पाठ [ जितस ] मिनन्द- ( दे? ) रस प्रस्तुत किया है। इस प्रकार उन्होंने इसे यवन-नरेश मिनेन्द्र ( Menander ) का लेख बताया है। इस अभिलेख को गंगा घाटी में यवनों के प्रवेश का प्रमाण माना है। जी०आर० शर्मा की यवन आक्रमण की अवधारणा को बी०एन० मुखर्जी और रिचर्ड सैलोमन ( Richard Salomon ) सरीखे विद्वानों ने भ्रामक व गलत बताया गया है। शर्मा के अनुसार अभिलेख में आये हुए विरुद यवन विरुदों BASILIOS BASILION MEGALAU SOTOROS DIKAIOU KAI ANEKETAU के अविरल प्राकृत अनुवाद है और वे विरुद मिनेन्द्र ( Menander ) के हैं । इस प्रसंग में ज्ञातव्य यह है कि BASILIOS BASILION और उसके समानान्तर विरुद रजतिराज का प्रयोग युक्रितिद ( Eucratideo ) के कुछ सिक्कों के अतिरिक्त किसी अन्य यवन-नरेश द्वारा हुआ ही नहीं किया गया है। महरज रजतिरज का संयुक्त प्रयोग तो शक पह्लव शासकों से पूर्व सर्वथा अज्ञात ही था। अन्य विरुदों में भी त्रातर और ध्रमिक दो ही विरुद ऐसे हैं जिनका प्रयोग मिनेन्द्र ( Menander ) के सिक्कों पर किया गया है, उन पर भी ये दोनों विरुद कभी एक साथ नहीं देखे गये हैं। शेष विरुदों का प्रयोग अन्य यवन-शासकों ने ही किया है। परन्तु उन्होंने भी सदैव अलग-अलग ही किया है, कभी एक साथ नहीं। समूची विरुदावली किसी भी यवन-शासक के लिये कभी प्रयोग में आयी ही नहीं है। इस प्रकार यह अभिलेख मिनेन्द्र ( Menander ) तो क्या किसी भी यवन-शासक का अनुमान किया ही नहीं जा सकता है। अतः जी०आर० शर्मा की कल्पना सर्वथा निराधार है। क्या यह विम कडफिसेस का अभिलेख है? उत्तर-पश्चिमी अफगानिस्तान स्थित कामरा नामक स्थान से मिले एक अभिलेख में प्रस्तुत अभिलेख की समूची विरुदावली का उल्लेख लगभग अविकल रूप से एक कुषाण-शासक के प्रसंग में हुआ है। उस परिप्रेक्ष्य में यह अनुमान सहजभाव से किया जा सकता है कि यह अभिलेख भी किसी कुषाण-नरेश का हो। अभिलेख का अगला अंश अनुपलब्ध होने के बावजूद अन्य साक्ष्यों के सहारे निश्चितरूप से कहा जा सकता है कि अभिलेख विम कदफिसेस का होगा। अभिलेख में आये विरुद ‘महन्तस त्रतरस’, Soter megas की याद दिलाते हैं। Soter megas नामधारी सिक्के विम कदफिस के अनुमान किये जाते हैं। वे सिक्के विम कदफिस के हों या न हों यह तो तथ्य है ही कि Soter ( त्राता, त्रतर ) विरुद का प्रयोग विम ने अपने नामवाले सिक्कों पर किया है; और यह विरुद परवर्ती सभी शासक के लिए अनजाना है। दूसरी ओर विम कदफिस का कोई भी पूर्ववर्ती कुषाण गंगा-यमुना के काँठे में कभी आया ही नहीं था। अतः इसे विम कदफिस के अतिरिक्त किसी दूसरे शासक के होने की सम्भावना प्रकट करने की कहीं भी कोई गुंजाइश नहीं है। विम कदफिसेस के अभिलेख के रूप में लेख का महत्त्व इस बात में है कि वह इस बात का द्योतक है विम कदफिस के काल में ही कुषाणों का प्रवेश गंगा-यमुना काँठे में हो गया था। इस लेख के प्रकाश में आने से हमारे इस अनुमान को बल प्राप्त होता है कि हाथीगुम्फा अभिलेख * में विम कदफिस ( विमक, विमिक ) का उल्लेख है। इस अभिलेख में उसका मगध तक बढ़ जाना पूर्णतः सम्भव है। घाता पयिता राजगहं उपपीडपयति [ । ] एतिनं च कंमपदान संनादेन [ संवित ] सेन-वाहने विपमुचितु मधुरं अपयातो यवनरा [ ज ] [ विमिक ]…….. यछति………. पलव [ भार ] * ( हिन्दी अनुवाद :- पर घात ( आक्रमण ) कर राजगृह [ के राजा ] को उत्पीड़ित ( त्रस्त ) करते हैं। इन दुष्कर कर्मों को सम्पादित करते देखकर, उसकी सेना और वाहनों से भयभीत होकर यवनराज विमक मथुरा भाग जाता है। …… [ तब ] वह ( खारवेल ) पल्लव [ भार ] से युक्त )

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तक्षशिला रजतपत्र अभिलेख

भूमिका तक्षशिला रजतपत्र अभिलेख जॉन मार्शल को १९१४ में धर्मराजिका स्तूप के पश्चिम चिर नामक टीले से प्राप्त हुई है। इस चिर टीले से एक सेलखड़ी ( Steatite ) की मंजूषा के अन्दर दूसरी रजत-मंजूषा प्राप्त हुई है। इस चाँदी की मंजूषा के भीतर एक रजतपत्र ( चाँदी-पत्र ) और स्वर्ण-डिबिया थी। स्वर्ण-डिबिया में धातु-अवशेष ( अस्थि-अवशेष ) रखे थे। रजतपत्र पर प्राकृत भाषा और खरोष्ठी लिपि में यह लेख अंकित है। तक्षशिला रजतपत्र अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- तक्षशिला रजतपत्र अभिलेख ( Taxila Silver Scroll Inscription ) स्थान :- तक्षशिला के धर्मराजिका स्तूप के चिर टीले से, रावलपिण्डी जनपद, पाकिस्तान भाषा :- प्राकृत लिपि :- खरोष्ठी समय :- कुषाणकाल ( अनिर्दिष्ट सम्वत् १३६ ) विषय :- इन्तप्रिय के पुत्र द्वारा लोककल्याण और धर्म-अर्जन हेतु तक्षशिला धर्मराजिका स्तूप में बुद्ध के धातु अवशेष की स्थापना तक्षशिला रजतपत्र अभिलेख : मूलपाठ १. स १ [ + ] १०० [ + ] २० [ + ] १० [ + ] ४ [ + ] १ [ + ] १ अयस अषडस मसस दिवसे १० [ + ] ४ [ + ] इश दिवसे प्रदिस्तवित भगवतो धतु- [ ओ ] उर [ स ]- २. केण इतव्हिअ-पुत्रण१ बहलिएण णोअचए णगरे वस्तवेण [ । ] तेण इमे प्रदिस्तवित भगवतो धतुओ धमर- ३. इए तक्षशिलए तणुवए बोसिसत्व-गहमि महरजस रजतिरजस देवपुत्र खुषणस अरोग-दक्षिणे ४. सर्वे-बुधण पुयए प्रचग-बुधण पुयए अरहतण पुयए सर्व-सत्वण पुयाए मत-पितु पुयए मित्रमच-ञति-स- ५. लोहितण पुयए अत्वणो अरोग-दक्षिणए णि [ व ] णए [ । ] होतु अ [ व ] दे सम-परिचगो [ । ] लोतव्हिय भी पढ़ा गया है।१ संस्कृत छाया संवत्सरे १३६ अयस्य आषाढ़स्य मास्य दिवसे १५ अस्मिन्‌ दिवसे प्रतिष्ठापिता भागवत धातवः। उरशा देशीयेन इन्तप्रिय पुत्रेण बाहलिकेन नवाजये नगरे वास्तव्येन। तेन इमे प्रतिस्ठापिताः धर्मराजिके तक्षशिलायां तनुवके बोधिसत्त्वगृहे महराजस्य राजातिराजस्य देवपुत्रस्य कुषाणस्य आरोग्य दक्षिणायै सर्वबुद्धानां पूजायै प्रत्येकबुद्धानां पूजायै, अर्हतानां, पूजायै, सर्वसत्त्वानां पूजायै, मातापित्रोः पूजायै मित्रामात्य ज्ञाति-सलोहितानां पूजायै, आत्मन: आरोग्यदक्षिणायै निर्वाणाय। भवतु आयातः सम्यक्‌ परित्याग:। हिन्दी अनुवाद अय के सं [ वत्सर ] १३६ आषाढ़ मास का १५। इस दिन नवाजये ( णोअचए? ) निवासी उरशकी२ इन्तप्रिय के पुत्र बाहलिक३ द्वारा भगवान् [ बुद्ध ] के धातु ( अस्थि-अवशेष ) की स्थापना ( प्रतिष्ठा ) की गयी। उसके द्वारा भगवान् ( बुद्ध ) की धातु की प्रतिष्ठा तक्षशिला स्थित धर्मराजिका४ में स्व-निर्मित बोधिसत्त्व-गृह में महाराज रजतिराज देवपुत्र खुषण के आरोग्य-दक्षिणा ( स्वास्थ्य-कामना ) के लिए की गयी। सर्वबुद्धों की पूजा के निमित्त प्रत्येक बुद्धों की पूजा के निमित्त; अर्हतों की पूजा के निमित्त; माता-पिता की पूजा के निमित्त; मित्र-अमात्य ( बन्धु-बान्धवों ), जाति-बिरादरी के लोगों और रक्त सम्बन्धियों की पूजा के निमित्त, अपनी आरोग्य-दक्षिणा ( स्वास्थ्य-कामना ) के निमित्त यह सद्दान ( दक्षिणा ) निर्वाण प्रदान करे। कुछ विद्वान उरशकी का तात्पर्य उरश देश-निवासी से लेते हैं। हो सकता है इन्तप्रिय उरश देश का मूल निवासी हो। उसका पुत्र बाहलिक नवाजये में आकर रहने लगा हो।२ कुछ विद्वान बाहलिक का तात्पर्य बाह्लीक देश लेते हैं। यदि वस्तुतः ऐसा हो तो इन्तप्रिय के पुत्र का नाम क्या होगा और वह लेख में कहाँ है, यह विचारणीय हो जाता है।३ धर्मराजिका से यहाँ तात्पर्य स्तूप से है, ऐसा विद्वानों का अनुमान है। दिव्यावदान में कहा गया है कि धर्मराज अशोक ने ८४,००० धर्म-राजिकाएँ स्थापित करायी थीं। इससे प्रकट होता है कि धर्मराजिका कदाचित् ऐसे स्तूपों को कहते थे जो बुद्ध ( धर्मराज ) के अस्थि-अवशेषों पर निर्मित की गयी थीं।४ तक्षशिला रजतपत्र अभिलेख : महत्त्व धार्मिक महत्त्व बुद्ध के अवशेष की प्रतिष्ठा के उल्लेख के कारण इस अभिलेख का धार्मिक दृष्टि से जो महत्त्व है। साथ ही इसमें बौद्धधर्म से सम्बंधित कुछ पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग तक्षशिला रजतपत्र अभिलेख का महत्त्व और बढ़ा देता है। ये शब्द हैं :- बोधिसत्व, सर्व बुद्ध, प्रत्येक बुद्ध और अर्हत। इससे ज्ञात होता है कि बौद्ध धर्म में इनकी कल्पना इस अभिलेख के काल तक की जा चुकी थी। बोधिसत्व :- बुद्ध प्राप्ति की राह में लगे हुए बोधिसत्व कहलाते हैं। इनका स्थान गृहस्थ से ऊपर और बुद्ध से नीचे होता है। सर्व बुद्ध :- इसका अर्थ है मानुषी बुद्ध। इनकी संख्या आठ बतायी गयी है — शिखिन, कश्यप, कनकमुनि, क्रकुच्छंद, प्रभूतरत्न, रत्नसम्भव, विश्वभू और विपश्चिय। भरहुत स्तूप पर सप्त मानुषी बुद्धों का प्रतीकात्मक अंकन सात वृक्षों के रूप में मिलता है। प्रत्येक बुद्ध :- वे जो बिना बुद्ध के सहयोग के बुद्धत्व को उपलब्ध होने में सक्षम होते हैं। साथ ही वे किसी अन्य को बुद्ध बनने में सहायक भी नहीं बनते प्रत्येक बुद्ध कहलाते हैं। अर्हत :- ये रागद्वेष रहित व सर्वत्र पूजनीय होते हैं। इसके अतिरिक्त इसमें बोधिसत्त्व-गृह ( बोधिसत्व गहमि ) का उल्लेख विचारणीय है। बौद्धधर्म के अनुसार अस्थि-अवशेष मंजूषा में रख कर स्तूपों में प्रतिष्ठापित किये जाते थे। किन्तु यहाँ उनके बोधिसत्त्व-गृह में प्रतिष्ठापित किये जाने का उल्लेख है। मंजूषा, जिस पर यह लेख अंकित है वह किसी स्तूप में नहीं, वरन् एक कमरे में पीछे की दीवार के निकट जमीन में एक फुट नीचे मिला था। इससे ज्ञात होता है कि अस्थि-अवशेष स्तूप से भिन्न कमरे जैसे किसी वास्तु में भी प्रतिष्ठापित किये जाते थे। परन्तु ऐसी बात किसी अन्य सूत्र से ज्ञात नहीं होती। यहाँ इस वस्तु को बोधिसत्त्व-गृह कहा गया है। बोधिसत्त्व बुद्धत्व प्राप्ति से पूर्व की स्थिति है। बोधिसत्त्वों की मूर्तियाँ कुषाण काल में प्राप्त होती हैं। सम्भव है, बोधिसत्त्व की इन मूर्तियों को जिस स्थान पर प्रतिष्ठित करते रहे हों उन्हें बोधिसत्व-गृह कहते हों और ऐसे ही किसी गृह में यह अस्थि-मंजूषा प्रतिष्ठापित की गयी हो। बौद्धस्तूप के निर्माण का यहाँ उल्लेख है।इसके लिए ‘धमरइए’ शब्द का प्रयोग मिलता है।इसका अर्थ है धर्मराजिका स्तूप। परन्तु वोजेल ने इसका अर्थ किया है धर्मराजा अशोक द्वारा बनवाये गये स्तूपों में से एक। दूसरी ओर कोनो ने धर्मराजबुद्ध के अवशेष रखे जाने के लिए बने स्तूप के संदर्भ में इसका अर्थ लिया है। राजनीतिक महत्त्व इन धर्म-सम्बन्धी तथ्यों की अपेक्षा तक्षशिला रजतपत्र अभिलेख की चर्चा लेख में अंकित संवत्सर के साथ प्रयुक्त ‘अयस’ शब्द को लेकर की जाती रही है। जॉन मार्शल का कहना था कि ‘अयस’ अय का षष्ठी विभक्ति का रूप है और इसका प्रयोग यह व्यक्त करने के लिए किया गया है कि इस संवत्सर की स्थापना अय ( Azes ) ने की थी। इसे रैप्सन और रामप्रसाद चन्दा भी स्वीकार करते

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