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वीरपुरुषदत्त का नागार्जुनकोंडा अभिलेख

भूमिका वीरपुरुषदत्त का नागार्जुनकोंडा अभिलेख आंध्र प्रदेश के इसी नाम के पहाड़ी पर स्थित भग्न स्तूप से मिले एक आयक स्तम्भ ( संख्या – बी०५ ) पर अंकित मिला है। संक्षिप्त परिचय नाम :- वीरपुरुषदत्त का नागार्जुनकोंडा अभिलेख ( Nagarjunakonda Inscription of Veerpurushdatta ) या नागार्जुनकोण्डा अभिलेख ( Nagarjunakonda Inscription ) स्थान :- नागार्जुनकोंडा पहाड़ी, पलनाडु जनपद, आंध्र प्रदेश भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- गुप्त-पूर्व, इक्ष्वाकु वंशी शासक वीरपुरुषदत्त का अभिलेख ( तृतीय शताब्दी का उत्तरार्ध ) विषय :- बौद्ध धर्म हेतु स्तूप पुनर्निर्माण और स्तम्भ स्थापना का उल्लेख मूलपाठ १. सिधं [ ॥ ] नमो भगवतो देवराज-सकतस संमसंमसंबुधस धातुवर- २. परिगहितस [ । ] महाचेतिये महरजस विरुपखपति-महासेन-परिगहितस ३. अगिहोता गिठीगितोम-वाजेपयासमेध-याजिस हिरणकोटि-गोसत- ४. सहस-हलसतसहस-पदायिस सवथेसु अपतिहत-संकपस ५. विसिठीपुतस इखाकुस सिरि-चातमूलस सोदराय भागिनिय हंम- ६. सिरिंणिकाय बालिका रंञो सिरि-विरपुरिसदतय भया महादेवि बपिसिरिणका ७. अपनो मातरं हंमसिरिणिकं परिनमततुन अतने च निवाण-संपति-सपादके ८. इमं सेल-थंभं पतिठपति [ । ] अचरि [ या ] नं अपरमहाविनसेलियानं सुपरिगहितं ९. इमं महाचेतिय-नवकमं [ । ] पंणगाम-वथवानं दीघ-मझिम-पद-म [  ] तुक-देस [ क-वा ] चकान १०. अ ( च ) रयान अयिर-हधान अंतवासिकेन दीघ-मझिम-निगयधरेन भदंतानं-देन ११. निठपितं इमं ननकमं महाचेतियं खंभा च ठपिता ति [ । ] रञो सरिविरिपुरिसदतस १२. संव ६ वा प ६ दि १० [ ॥ ] हिन्दी अनुवाद १. सिद्धम् ! भगवान्, देवराज द्वारा आदरित, सम्यक्-सम्बुद्ध प्राप्त करने वाले, श्रेष्ठतम् धातु को ग्रहण करनेवाले ( अर्थात् भगवान् बुद्ध ) को नमस्कार ! २. [ इस ] महाचैत्य में महाराज, विरुपाक्षपति महासेन द्वारा परिगृहीत ( स्कन्द-कार्तिकेय के भक्त ), ३. अग्निहोत्र, अग्निष्ठोम, वायपेय, अश्वमेध [ नामक ] यज्ञों को करनेवाले, करोड़ों सिक्के ( हिरण्य ), शत सहस्र गाय, ४. शत सहस्र हल प्रदान करने ( दान देनेवाले ), समस्त कार्यों में अप्रतिहत संकल्प ( अटूट निश्चय ) वाले, ५. वाशिष्ठीपुत्र इक्ष्वाकु-वंशीय श्रीचन्तिमूल की सहोदरा ( बहन ) ६. हर्म्यश्री की बालिका ( पुत्री ), राजा श्रीवीरपुरुषदत्त की भार्या ( पत्नी ) महादेवी वप्पीश्री ने ७. अपनी माता हर्म्यश्री को ध्यान में रखकर ( अर्थात् अपनी माता हर्म्यश्री के ) और अपने निर्वाण की सम्प्राप्ति के निमित्त ८. इस शैल-स्तम्भ को स्थापित किया [ और ] अपर महावन-शैल [ सम्प्रदाय ] के आचार्यों द्वारा सुगृहीत ९. इस महाचैत्य का नवकर्म ( मरम्मत, संस्कार या परिवर्धन ) कराया। पर्णग्राम निवासी, दीघ, मझ्झिम आदि पञ्च मात्रिकों ( मूल सिद्धांतों अर्थात् निकायों ) के देशक और वाचक ( पढ़ने और पढ़ानेवाले ) १०. आचार्यों के साथ आर्यसंघ में निवास करनेवाले अन्तेवासिक दीघ और मझ्झिम निकाय को धारण करनेवाला आनन्द द्वारा ११. महाचैत्य का नवकर्म ( संस्कार या परिवर्धन ) तथा स्तम्भ की स्थापना का कार्य निष्ठापित हुआ ( पूरा किया गया )। राजश्री वीरपुरुषदत्त के १२. सम्वत् ६ में छठे वर्षा पक्ष १०वें दिन [ को ]। ऐतिहासिक महत्त्व इक्ष्वाकुवंशी शासक श्री वीरपुरुषदत्त की भार्या वप्पीश्री ने नागार्जुनकोण्डा के स्तूप की मरम्मत करायी थी और एक शाल-स्तम्भ स्थापित किया था। इस अभिलेख में ‘अपर महावन-शैल’ नामक बौद्ध सम्प्रदाय की चर्चा की गयी है। इसका अन्यत्र कहीं उल्लेख नहीं मिलता है। ह्वेनसांग ने जिस अपर-शैलीय बौद्ध सम्प्रदाय की चर्चा की है शायद यह वही हो पर निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। वीरपुरुषदत्त की भार्या वप्पीश्री उसकी फुफेरी बहन भी थी। अर्थात् फुफेरी बहन से विवाह का प्रचलन था। दक्षिण भारत के राष्ट्रकूट शासकों में ममेरी व फुफेरी बहन से विवाह का प्रचलन था।  उदाहरणार्थ – कृष्ण द्वितीय ने अपने मामा रणिविग्रह की पुत्री लक्ष्मी से विवाह किया था। इन्द्र तृतीय ने अपने मामा कलचुरिवंशी अम्मणदेव की पुत्रों विवाह किया था। ममेरी और फुफेरी बहन से विवाह का प्रचलन आज भी दक्षिण भारत में है। एक ही परिवार के लोग अलग-अलग धर्म के प्रति आस्था रख सकते थे :- वीरपुरुषदत्त के पिता और वप्पीश्री का श्वसुर; चान्तमूल कार्तिकेय के भक्त थे। उन्होंने वैदिक यज्ञों किये थे। वप्पीश्री स्वयं बौद्ध थी।

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यज्ञश्री शातकर्णि का नासिक गुहालेख

भूमिका यज्ञश्री शातकर्णि का नासिक गुहालेख प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में नासिक ( पाण्डुलेण ) स्थित गुहा २० के बरामदे की दीवार पर अंकित है। संक्षिप्त परिचय नाम :- यज्ञश्री शातकर्णि का नासिक गुहालेख ( राज्यवर्ष ७ ) स्थान :- नासिक, महाराष्ट्र भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- यज्ञश्री शातकर्णि का ७वाँ राज्यवर्ष विषय :- गुहा निर्माण का विवरण यज्ञश्री शातकर्णि का नासिक गुहालेख : मूलपाठ १. सिधं [।] रञो गोतमिपुतस सामि सिरि-यत्र-सातकणिस संवछरे सातमे ७ हेमताण पखे ततिये ३ २. दिवसे पथमें कोसिकस महासे [ णा ] पतिस [ भ ] वगोपस भरिजाय महासेणापतिणिय वासुय लेण ३. बोपकि-यति-सुजमाने अपयवसित-समाने बहुकाणि वरिसाणि उकुते पयवसाण नितो चातुदि- ४. सस च भिखु-सधस आवसो दतो ति॥ हिन्दी अनुवाद सिद्धम्। राजा गौतमीपुत्र स्वामी श्री यज्ञ-शातकर्णि के संवत्सर ७ के हेमन्त के तृतीय पक्ष का प्रथम दिवस ( अर्थात् पौष कृष्ण पक्ष का प्रथम दिवस )। कौशिक [ गोत्र ] के महासेनापति भवगोप की भार्य्या [ पत्नी ] महासेनापत्नी वसु ने यति बोपकि द्वारा उत्खनित कराये गये लयण ( गुफा ) को, जो अपूर्ण होने के कारण बहुत वर्षों से अवहेलित था, पूर्ण कराया और वास के निमित्त चारों दिशाओं के भिक्षुसंघ को प्रदान दिया। विश्लेषण इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि स्वयं साधु ( यति ) लोग भी लयण उत्खनन करने का साहस करते थे पर कदाचित् धनाभाव के कारण सफल नहीं हो पाते थे। ऐसे ही एक गुहा के पूर्ण कराने का उल्लेख इस अभिलेख में है। इस अभिलेख की उल्लेखनीय बात यह है कि महासेनापति की भार्या ने अपने को महासेनापत्नी कहा है। सामान्यतः पति के पद, विरुद या उपाधि से राजपत्नी के अतिरिक्त दूसरा नहीं पुकारा जाता। ऐसे में किसी को अपने को महासेनापत्नी कहना दुस्साहस ही कहा जायेगा। किन्तु ऐसा कोई अकारण नहीं करेगा। बहुत सम्भव सातवाहन – शासन-व्यवस्था में राज्य के उच्च पदाधिकारियों की पत्नियों को उनके पति के पद, विरुद या उपाधि से अभिहित किये जाने की परम्परा रही हो। पर ऐसा कोई दूसरा उदाहरण इसके समर्थन के लिए प्राप्त नहीं है। एक दूसरा अभिप्राय यह भी हो सकता है कि वसु स्वयं किसी नारी सेना की प्रधान रही हो और अपने इस अधिकार से महासेनापत्नी कही जाती रही हो। पर अब तक किसी भी सूत्र से प्राचीन भारत में नारी सेना अज्ञात है। इस कारण पहली सम्भावना को ही ग्रहण करना उचित होगा। नासिक गुहा अभिलेख : सातवाहन नरेश कृष्ण नागानिका का नानाघाट अभिलेख नानाघाट गुहा मूर्ति परिचयपट्ट गौतमीपुत्र शातकर्णि का नासिक गुहा अभिलेख ( १८वाँ वर्ष ) गौतमीपुत्र शातकर्णि का नासिक गुहालेख ( २४वाँ वर्ष ) वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि का नासिक गुहालेख

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वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि का नासिक गुहालेख

भूमिका वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि का नासिक गुहालेख गुफा ३ में, जिस पर गौतमीपुत्र शातकर्णि का अभिलेख अंकित है, बरामदे के सामने की दीवार पर बायें हाथ के द्वार और खिड़की के ऊपर ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में अंकित है। संक्षिप्त परिचय नाम :- वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि का नासिक गुहालेख ( Nasik Cave Inscription of Vashisthiputra Pulmavi ) स्थान :- नासिक, महाराष्ट्र भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि का १९वाँ राज्यवर्ष विषय :- गौतमीपुत्र शातकर्णि की राजनीतिक उपलब्धियाँ, भिक्षु संघ को महादेवी गौतमी बलश्री एवं पुलुमावि की माँ द्वारा गुहा का दान वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि विका नासिक गुहालेख : मूलपाठ १. सिद्धं [ । ] रञो वासिठीपुतस सिरि-पुलुमायिस सवरे एकुनवीसे १० (+) ९ गीम्हाणं पखे वितीये २ दिवसे तेरसे १० (+) ३ [ । ] राजररञो गोतमीपुतस हिमव[ त ] – मेरु २. मदर-पवत सम-सारस असिक-असक-मुलक-सुरठ कुकुरापरंत- अनुपविदभ-आकरावंति-राजस विझछवत परिचात सय्ह कण्हगिरि-मच-सिरिटन मलय-महिद- ३. सेटगरि-चकोर-पवत-पतिस सवराज [लोक] मंडल-पतिगहीत-सासनस दिवसकर [क] र-विबोधित-कमलविमल सदिस वदनय तिस-मुद-तोय-पीत-वाहनस पटिपूंर्ण चद-मडल-ससिरीक- ४. पियदसनस वर वारण-विकस-चारु विकमस भुजगपति-भोग-पीन-वाट-विपुल-दीघ-सुद [र] -भुजस अभयोदकदान-किलिन निभय-करस अविपन-मातु सुसूसाकस सुविभत-तिवग देस-कालस ५. पोरजन-निविसेस-सम-सुक-दुखस खतिय-दप-मान-मदनस सक-यवन-पह्लव निसूदनस धमोपजित-कर-विनियोग-करस कितापराधे पि सतुजने अ-पाणहिसा-रुचिस दिजावर कुट्ब-विवध- ६. नस खखरात-वस-निरवसेस-करस सातवाहनकुल-यस-पतिथापन-करम सव मंडलाभिवादित-च[र]णस विनिवतित चालूवण संकरस अनेक समवजित-सतु-सपस अपराजित-विजयपताक-सतुजन दुपधसनीय- ७. पुरवरस कुल-पुरिस-परपरागत-विपुल-राज-सदस आगमान [नि]- लयस सपुरिसानं असयस सिरी [ये] अधिठानस उपचारान पभवस एक-कुसस एक-धनुधरस एक-सूरस एक-बम्हणस राम- ८. केसवाजुन-भीससेन-तुल-परकमस छण-धनुसव-समाज-कारकस नाभाग-नहुस जनमेजय-सकर-य [ या ] ति-रामाबरीस-सम-तेजस अपरिमित-मखयमचितयभुत पवन-गरुल-सिध-यख राखस-विजाधर भूत-गधव-चारण- ९. चंद-दिवाकर-नखत-गह-विचिण-समरसिरसि जित-रिपु-सधस नाग-वर-खधा गगनतलमभिविगाढस कुल-विपु [ लसि ] रि-करस सिरि-सातकणिस मातुय महादेवीय गोतमीय बलसिरीय सचवचन-दान-खमाहिसा-निरताय तप-दम-निय- १०. मोपवास-तपराय राजरिसिवधु-सदमखिलमनुविधीयमानाय कारित देयधम [केलासपवत] सिखर-सदिसे [ति] रण्हु-पवत-सिखरे विम- [ना] वर-निविसेस महिनढीक लेण [ । ] एत च लेण महादेवी महा-राज-माता महाराज-[पि]तामही ददाति निकायस भदावनीयान भिखु-सधस [।] ११. एतस च लेण[स] चितण-निमित महादेवीय अयकाय सेवकामो पियकामो च ण [ता] [सिरि-पुलुमावि] [दखिणा] पथेसरो पितु-पतियो (पितिये) धमसेतुस [ददा] ति गामं तिरण्हु-पवतस अपर-दक्षिण पसे पिसाजिपदक सव जात-भोग-निरठि [॥] हिन्दी अनुवाद सिद्धम्। राजा वाशिष्ठीपुत्र श्री पुलुमावि के संवत्सर १९ (उन्नीस) के ग्रीष्म के दूसरे पक्ष का दिवस १३। राजराजा गौतमीपुत्र शातकर्णि की— [जिनकी] दृढ़ता हिमालय, मेरु, मन्दार पर्वत के समान थी; [जो] ऋषिक, अश्मक, मूलक, सुराष्ट्र, कुकुर, अपरान्त, अनूप, विदर्भ, आकर, अवन्ति के राजा [थे] ; [जो] विन्ध्य, ऋक्ष, परियात्र, सह्य, कृष्णगिरि, मत्त (मच), श्रीस्थान (सिरिटन), मलय, महेन्द्र श्रेष्ठ-गिरि (अथवा श्वेतागिरि), चकोर पर्वत के स्वामी [थे]; [जिनकी] सर्व-राजलोक-मण्डल आज्ञा पालन करता था; [जिनका] मुख किरणों से विबोधित कमल-सदृश विमल था; [जिनकी] सेना त्रिसमुद्र का जलपान करती थी; [जो] चन्द्रमण्डल के समान प्रियदर्शी थे; [जिनका] ललाट हाथी के मस्तक के समान सुन्दर और विशाल था; [जिनकी] भुजाएँ नागराज के समान स्थूल, गोल, विपुल, दीर्घ और सुन्दर थीं; [जिनकी] निर्भीक भुजाएँ सदैव अभय-दान के जल से भींगी रहती थीं; [जिन्हें] अपनी माता की सेवा करने में तनिक भी संकोच न था; [जो] त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) के देश और काल को अच्छी तरह समझते थे; [जो] पौरजन (प्रजा) के सुख-दुःख में समान रूप से भाग लेते थे: [जिन्होंने] क्षत्रियों के दर्प और मान का मर्दन किया था; [जिन्होंने] शक, यवन और पहवों का विनाश किया था; [जो] धर्मशास्त्र समर्थित ही कर लिया करते थे; [जिन्हें] अपराधी शत्रुओं की भी प्राण-हिंसा में रुचि न थी; [जो] द्विज और अद्विज परिवारों की समृद्धि के प्रति समान भाव रखते थे; [जिन्होंने] क्षहरात-वंश को निरवशेष कर दिया; [जिन्होंने] सातवाहन कुल की प्रतिष्ठा स्थापित की; [जिनके] चरणों की वन्दना सारे मण्डल के लोग करते थे; [जिन्होंने] चातुर्वर्ण के संकर होने से रोका; [जिन्होंने] अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की; [जिनकी] विजय-पताका कभी झुकी नहीं और [जिनकी] सुन्दर नगरी (राजधानी) में प्रवेश करना शत्रुओं के लिए महा कठिन था; परम्परागत उत्तराधिकार में [जिन्हें] सुन्दर ‘राज’ शब्द प्राप्त हुआ था; [जो] वेद आदि शास्त्रों (आगमों) के निलय (घर) थे [जो] सद्पुरुषों के आश्रय थे; [जो] अद्वितीय वीर थे; [जो] अद्वितीय ब्राह्मण थे; [जो] पराक्रम में राम, केशव, अर्जुन और भीमसेन के समान थे; [जो] शुभ अवसरों पर उत्सव और समाज कराते थे; [जिनका] तेज नाभाग, नहुष, जनमेजय, सगर, ययाति और अम्बरीष के समान था: [जो] अपरिमित, अक्षय, अचिन्त्य और अद्भुत थे; [जिन्होंने] पवन, गरुड़, सिद्ध, यक्ष, राक्षस, विद्याधर, भूत, गन्धर्व, चारण, चन्द्र-सूर्य, नक्षत्र, ग्रह से ईक्षित शत्रुओं को समर में पराजित किया था; [जिन्होंने] आकाश की गहराई में श्रेष्ठ पर्वत (हिमालय) के स्कन्द से भी ऊँचे प्रवेश किया था [जिन्होंने] कुल की श्री को विपुल बनाया था — माता महादेवी गौतमी बलश्री ने, जो सत्यवचन, दान, क्षमा, अहिंसा में निरत हैं, जो तप, दम, नियम, उपवास में तत्पर हैं और जो राजर्षिवधू शब्द के अनुरूप ही आचरण करती हैं, कैलास पर्वत के शिखर सदृश त्रिरश्मि पर्वत-शिखर पर स्थित विमान के समान पूर्ण एवं समृद्धि-पूर्ण लयण ( गुहा ) को देयधर्म के रूप में बनवाया और उस लयण को महादेवी, महाराज-माता, महाराज-पितामही ने भद्रायणी भिक्षु संघ को प्रदान किया। उनके नप्ता (प्रपौत्र) दक्षिणापथेश्वर [श्री पुलुमावि] पितामही (महादेवी आर्यका) की सेवा तथा प्रसन्नता के निमित्त तथा पिता के धर्म-सेतु के रूप में त्रिरश्मि पर्वत के अपर-दक्षिण पार्श्व में स्थित पिशचीपद्रक [नामक ग्राम] को, सर्व राज्याधिकार से मुक्त कर, इस लयण के चित्रण के निमित्त देते हैं। वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि का नासिक गुहालेख : महत्त्व इस लेख से ऐसा प्रकट होता है कि गौतमी बलश्री ने, जो गौतमीपुत्र शातकर्णि की माता और पुलुमावि की पितामही थीं, त्रिरश्मि पर्वत पर एक लयण उत्खनित कराया और उसे बौद्धों के भद्रायणी सम्प्रदाय को भेंट किया था और उनके पौत्र पुलुमावि ने उस लयण की व्यवस्था के लिए एक ग्राम दान किया। इस प्रकार यह दान का एक सामान्य घोषणा-पत्र है किन्तु अन्य कई दृष्टियों से यह लेख महत्त्वपूर्ण और विचारणीय है। १. इस अभिलेख में जिस लयण के उत्खनित किये जाने का उल्लेख है, वह वही होगा जिसकी भित्ति पर यह टंकित है। सामान्य भाव से यह भी कहा जा सकता है कि इस लेख का अंकन लयण उत्खनन कार्य समाप्त हो जाने के पश्चात् तत्काल ही किया गया होगा। इस प्रकार इस लेख को लवण पर अंकित अद्यतन लेख होना चाहिए। यह लेख, जैसा कि उसकी प्रारम्भिक पंक्ति से ज्ञात होता है, पुलुमावि के १९वें राजवर्ष में टंकित किया गया था। इस लयण की भित्ति पर दो अन्य लेख अंकित हैं जो गौतमीपुत्र सातकर्णि के वर्ष १८वें और २४वें राज्यवर्ष के हैं। इन दोनों ही लेखों में त्रिरश्मि पर्वत पर स्थित लयण

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गौतमीपुत्र शातकर्णि का नासिक गुहालेख ( २४वाँ वर्ष )

भूमिका नासिक गुहालेख ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में है। नासिक से गौतमीपुत्र शातकर्णि के दो अभिलेख मिलते है। एक उसके १८वें राज्यवर्ष का और दूसरा, २४वें राज्यवर्ष का। यह गुहालेख २४वें वर्ष का है अर्थात् १३० ई०। संक्षिप्त परिचय नाम :- गौतमीपुत्र शातकर्णि का नासिक गुहालेख ( राज्यवर्ष २४ ) ( Nasik Cave Inscription of Gautamiputra Satkarni – Reg. Year 24 ) स्थान :- नासिक गुहा, महाराष्ट्र भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी काल :- गौतमीपुत्र सातकर्णि का राज्यावर्ष २४ ( १३० ई० ) विषय :- गौतमीपुत्र सातकर्णी का पत्र आमात्य श्यामक को जो कि नगर दान की चर्चा है। गौतमीपुत्र शातकर्णि का नासिक गुहालेख ( २४वाँ वर्ष ) : मूलपाठ १. सिद्धं ( ॥ ) गोवधने अम [ च ] स सामकस [ दे ] यो [ रा ] जाणितो ( । ) २. रञो गोतमिपुत्र सातकणि [ स ] म [ हा ] देवीय च जीवसुताय१ राज-मातुय वचनेन गोवधने [ अम ] चो सामको अरोग वतव ( । ) ततो एव च ३. वतवो ( । ) एथ अम्हेहि पवर्त तिरण्डुम्हि अम्हधमदाने लेणे पतिवसतानं पवजितान मिखून गा [ मे ] कखडीसु पुव खेतं दत ( । ) तं च खेत ४. [ न ] कसते सो च गामो न वसति ( । ) एवं सति य दानि एथ नगर-सीमे राजकं खेतं अम्ह-सतकं ततो एतेस पवजितानं भिखूनं तेरण्डुकानं दद [ म ] ५. खेतस निवतण-सतं १०० ( १ ) तस च खेतस परिहार वितराम अपावेस अनोमस अलोण- खादक-अरठ-सविनयिक सव-जात पारिहारिक च ( । ) ६. एतेहि न परिहारेहि परिहरेठ ( । ) एत चस खेत-परिहा [ रे ] च एथ निबधापेथ ( । ) अवियेन आणत ( । ) पटिहार-( र ) लोटाय छतो लेखो ( । ) सबछरे २० ( + ) ७. वासान पखे ४ दिवसे पचमे ५ ( । ) सुजिविना कटा ( । ) निबधो निबधो सवछरे २० (+) रखिय ४ गिहान पखे २ दिवसे १० ( ॥ ) जीवासुता से अभिप्राय है कि राजा बीमार था।१ हिन्दी अनुवाद सिद्धम्॥ गोवर्धन के आमात्य श्याम को देने के लिए राजाज्ञा पत्र। राजा गौतमीपुत्र शातकर्णि और महादेवी राजमाता जीवित पुत्र वाली के आज्ञा से गोवर्धन के आमात्य श्याम के आरोग्य की कामना की जाय ( पूछा जाय ) और इसके पश्चात् यह कहा जाय – त्रिरश्मि ( तिरण्डु ) पर्वत पर जो हमारा धर्मदान गुहा ( लेण ) है उसमें प्रव्रजित होकर रहने वाले भिक्षुओं के लिए कखड़ी ग्राम में पूर्वकाल में हमारे द्वारा दिया गया खेत है। किन्तु वह खेत न जोता जाता है और न वहाँ गाँव ही बसा है। इसलिए इस नगर की सीमा पर हमारे स्वत्व से विशिष्ट जो राजकीय खेत हैं उसमें से एक सौ निवर्तन ( भूमि की एक इकाई ) इन प्रव्रजित भिक्षुओं के लिए देते हैं। यह खेत राज्य सैनिकों के लिए अप्रवेश्य, राजकर्मचारियों द्वारा उत्पन्न बाधा से निर्लिप्त, सरकार द्वारा नमक के लिए न खोदा जाने वाला, राज्यशासन से पृथक् और सभी प्रकार की विमुक्तियों से युक्त रहेगा। इस खेत को इन सभी विमुक्तियों से मुक्त करें। इन विमुक्तियों तथा खेत के दान को पंजीकृत कराएँ। यह आज्ञा मौखिक रूप से दी गई थी। पतिहार रक्षिका लोटाद्वार आज्ञा पत्र का प्रारूप तैयार किया गया। इसे संवत्सर २४ में वर्षाकाल के चौथे पक्ष के पाँवचें दिन सुजीव द्वारा कार्यान्वित किया गया। इसे संवत्सर २४ ग्रीष्म ऋतु के दूसरे पक्ष में दसवें दिन पंजिका में निबद्ध किया गया। नासिक गुहालेख : ऐतिहासिक महत्त्व यह अभिलेख गौतमीपुत्र शातकर्णि नामक राजा के द्वारा उसके पूर्व अभिलेख नासिक गुहालेख ( वर्ष १८ ) के तारतम्य में है । इसकी शैली, सम्बोधनशीलता, प्रस्तुति, विवरण तथा विषयवस्तु लगभग वही है। उसी प्रकार का दान बौद्ध भिक्षुओं के लिए इस ब्राह्मण-धर्मानुयायी शासक द्वारा दिया गया है। अतः जो विशेषताएँ पूर्व अभिलेख में देखी गयी है वे सभी विशेषताएँ धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि इसमें भी हैं। अन्तर मात्र इतना है कि वह दान ग्राम की भूमि का था और यह दान नगर की भूमि का है। इसे ग्राम और नगर क्रमशः शासनिक इकाई ज्ञात होते हैं। तिथि का अन्तर इस अभिलेख में है । पूर्ववर्ती अभिलेख उसके शासन वर्ष १८ का जहाँ उल्लेख करता है वहाँ यह वर्ष २४ का उल्लेख करता है। इससे स्पष्ट है कि पूर्व अभिलेख के अनुसार शक संवत् में उल्लिखित यह तिथि ई० १३० की बोधक है क्योंकि पहले सन्दर्भ में देखा गया है कि नहपान की अन्तिम ज्ञात तिथि ४६ शक संवत् के अनुसार — ७८ ई० + ४६ = १२४ ई० है। उससे १८ वर्ष पूर्व जैसा पूर्व अभिलेख में उल्लिखित है, गौतमीपुत्र की प्रथम ज्ञात तिथि है । अतः १२४ – १८ = १०६ ई० में वह सिंहासनारूढ़ हुआ था। इसकी अन्तिम ज्ञात तिथि इस अभिलेख की २४ = १०६ + २४ = १३० ई० है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि इस शासक ने ने २४ वर्ष शासन किया था जो १०६ से १३० ई० के मध्य था। यहाँ सातवाहनों के शासन व्यवस्था का भी कुछ ज्ञान मिलता है। कुछ अधिकारियों का उल्लेख यहाँ किया गया है; यथा -अमच्च, महास्वामी और प्रतिहार। साथ ही भूमिदान देने, दानपत्र के लिखे जाने तथा उस राजाज्ञा के कार्यान्वयन तक की सारी प्रक्रिया का विवरण भी इस अभिलेख से ज्ञात होता है। गौतमीपुत्र शातकर्णि का नासिक गुहा अभिलेख ( १८वाँ वर्ष )

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गौतमीपुत्र शातकर्णि का नासिक गुहा अभिलेख ( १८वाँ वर्ष )

भूमिका गौतमीपुत्र शातकर्णि का नासिक गुहा अभिलेख महाराष्ट्र के नासिक जनपद के निकट स्थित पाण्डुलेण नामक जो लयण-शृंखला ( गुहा-शृंखला ) है उसे सातवाहन और पश्चिमी क्षत्रपों ने द्वारा उत्कीर्ण कराये थे। उसी श्रृंखला के लयण ३ के बरामदे के पूर्वी दीवार पर छत के निकट ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में यह लेख अंकित है। संक्षिप्त परिचय नाम :- गौतमीपुत्र शातकर्णि का नासिक गुहा अभिलेख ( Nasik Cave Inscription of Gautmiputra Satkarni ) नासिक :- नासिक, महाराष्ट्र के गुहा संख्या – ३ के दीवार पर बरामदे के पूर्वी भाग पर भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- गौतमीपुत्र शातकर्णि का राज्यवर्ष १८ ( या १०६ से १३० ई० ) विषय :- बौद्धों को भूमिदान से सम्बन्धित लेख गौतमीपुत्र शातकर्णि का नासिक गुहा अभिलेख : मूलपाठ १. सि [ धि ] [ ॥ ] सेनाये [ वे ] जयं [ ति ] ये विजय-खधावारा [ गो ] वधनस बेनाकटक-स्वामि गोतमि-पुतो सिरि-सदकर्णि २. आनपयति गोवधने अमच वि [ ण्हु ] पालितं [ । ] गामे अपर-कखडि- [ ये ] [ य ] खेतं अजकालकियं उसभसदातेन भूतं निवतन- ३. सतानि बे २०० एत अम्ह-खेत निवरण-सतानि बे २०० इमेस पवजितान तेकिरसिण वितराम [ । ] एतस चस खेतस परिहार ४. वितराम अपावेसं अनोमस अलोण-खा [ दकं ] अरठसविनयिकं सवजातपारिहारिक च [ । ] ए [ ते ] हि नं परिहारेहि परिह [ र ] हि [ । ] ५. एते चस खेत-परिहा [ रे ] च एथ निबधापेहि [ । ] अवियेन आणतं [ । ] अमचेन सिवगुतेन छतो [ । ] महासामियोहि उपरखितो [ । ] ६. दता पटिका सवछरे १० ( + ) ८ वास पखे २ दिवसे १ [ । ] तापसेन कटा [ ॥ ] हिन्दी अनुवाद सिद्धम्। विजयमान१ सेना के गोवर्धन [ आहार ( जिले ) ] के बेनकट२ ( स्थित ) स्कन्धावार३ [ से ] स्वामी४ गौतमीपुत्र शातकर्णि अमात्य विष्णुपालित को आदेश करते हैं — अपर-कखड़ ( अथवा अपरक खड़ ) ग्राम में पूर्वकाल में ( अजकालकिय-अद्यतन समय ) उषवदात ( ऋषभदत्त ) के अधिकार में जो २०० ( दो सौ ) निवर्तन भूमि थी, उस दो सौ निवर्तन भूमि को मैं त्रिरश्मि [ पर्वत स्थित लयण निवासी ] प्रवज्जितों ( बौद्ध भिक्षुओं ) को प्रदान करता हूँ। इस भूमि के साथ यह परिहार ( क्षेत्र सम्बन्धी राज्याधिकार-विशेष से मुक्ति ) भी प्रदान करता हूँ। [ उस भूमि में कोई राजकर्मचारी ] प्रवेश नहीं करेगा; उसमें किसी प्रकार की बाधा नहीं डालेगा; [ उस क्षेत्र से प्राप्त होनेवाले ] लवण-खनिज [ पर अधिकार नहीं जतायेगा ]; उस पर किसी प्रकार के प्रशासनिक नियन्त्रण का दावा नहीं करेगा; तथा उस [ भूमि पर अन्य ] सब प्रकार के परिहार लागू होंगे। [ मेरे द्वारा दिये गये इन ] परिहारों का आप भी परिहार करें ( अर्थात् इन परिहारों को आप अपने पर लागू समझें )। इस क्षेत्र [ के दान ] तथा इन परिहारों [ के प्रमाण स्वरूप ] यह निबन्धन किया गया [ इसका ] आदेश मौखिक दिया गया था; उसे अमात्य शिवगुप्त ने अंकित किया। महा-स्वामी ( राजा ? ) ने उसे देख ( उपलक्ष ) लिया। यह पट्टिका संवत्सर १८ के वर्षा ऋतु के द्वितीय पक्ष के प्रथम दिवस को दी गयी। तापसेन ने इसे उत्कीर्ण किया। सेनार्ट ने वेजन्तिये को नगर नाम अनुमान कर उसकी पहचान उत्तरी कनारा स्थित बनवासी से की है। किन्तु यहाँ, ‘वैजयन्ती की सेना’ के उल्लेख का कोई तुक नहीं है। जैसा कि दिनेशचन्द्र सरकार का मत है, यह सेना के लिए सामान्य विशेषण मात्र है। यहाँ इससे किसी अभियान में विजय प्राप्त कर लौटी सेना से अभिप्राय है। यह स्थान सम्भवतः वेणच नदी के तट पर रहा होगा जो नासिक क्षेत्र में ही होगा। स्कन्धावार सैनिक छावनी को कहते हैं। यह अनुवाद सामान्य भिन्नता के साथ बुह्लर के निकट है। पर दिनेशचन्द्र सरकार ‘बेनकट-स्वामि’ को एक पद मानते हैं; और उसे सापेक्ष्य समास बनाकर the lord now residing at Benkataka का भाव ग्रहण करते हैं। उनकी धारणा है कि अभिलेखों में ‘स्वामि’ विरुद मातृनाम के बाद और राजा के नाम के पूर्व आता है। अतः यहाँ यह शातकर्णि का विरुद नहीं हो सकता। ऐसा वहीं है जहाँ ‘राजा’ और ‘स्वामी’ दोनों शब्द हैं वहाँ ‘राजा’ शब्द मातृनाम से पूर्व और ‘स्वामी’ मातृनाम के बाद है। किन्तु जहाँ केवल एक ही विरुद ‘राजा’ है, वहाँ वह सदैव अभिलेखों और सिक्कों में मातृनाम के पूर्व प्रयुक्त हुआ है। निकटतम उदाहरण नासिक से ही प्राप्त शातकर्णि का ही वर्ष २४ वाला लेख है। उसमें ‘रजो गोतमी पुतस सातकनिस’ है। ‘स्वामी’ और ‘राजा’ परस्पर पर्याय हैं। अतः प्रस्तुत अभिलेख में ‘रजो’ का स्थान ‘स्वामी’ ने लिया गया है। गौतमीपुत्र शातकर्णि का नासिक गुहालेख : विश्लेषण यह अभिलेख सातवाहन नरेश गौतमीपुत्र शातकर्णि द्वारा त्रिरश्मि पर्वत ( नासिक के निकट स्थित पर्वत ) कदाचित् वही पर्वत, जिसमें उत्खनित गुफा में यह लेख अंकित है, के निवासी बौद्ध भिक्षुओं को दान दी गयी भूमि का घोषणापत्र है। सामान्यतः इस प्रकार के दानों की घोषणा दान-पत्र के रूप में होती है; पर यहाँ यह भूमि-स्थित प्रदेश के राजकर्मचारी के नाम आदेश पत्र के रूप में है। यह इस अभिलेख की विशिष्टता है। नाणेघाट अभिलेख को अब तक सातवाहन अभिलेख माना जाता रहा है। उसके आधार पर सातवाहनों को ब्राह्मण तथा वैदिक धर्मावलम्बी कहा जाता है। यहाँ हम उस वंश के राजा को बौद्धों को दान देते हुए देखते हैं। प्रशासनिक दृष्टि से इस लेख का विशेष महत्त्व है। इससे भूमि पर राज्य के अधिकारों पर प्रकाश पड़ता है। इसके साथ ही आदेशों के कार्यान्वयन की विधि का भी आभास मिलता है। प्रस्तुत अभिलेख महाराष्ट्र के नासिक स्थित गुफा संख्या ३ के बरामदे के पूर्वी दीवार की छत के निकट प्राकृत भाषा तथा ब्राह्मी लिपि में अंकित है। यह नासिक क्षेत्र में स्थित गोवर्धन जिले के वेनाकटक स्थित स्कंधावार से स्वामी गौतमीपुत्र श्रीशातकर्णी के आमात्य विष्णुपालित को सम्बोधित है। इसमें एक भूमिदान का उल्लेख है जो बौद्ध भिक्षुओं को प्रदान किया गया है। यह विशिष्टता है कि सातवाहन नरेश वैदिक धर्मानुयायी थे। पर यहाँ बौद्ध धर्म को उनके द्वारा दान देना उनकी सहिष्णु धार्मिक नीति का परिचायक है। राजनीतिक दृष्टि से भी यह अभिलेख अपनी विशेषता रखता है। इससे कुछ प्रमुख तथ्य ज्ञात होते हैं :-

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नानाघाट गुहा मूर्ति परिचयपट्ट

भूमिका नानाघाट गुहा मूर्ति परिचयपट्ट महाराष्ट्र के पुणे जनपद के में नाणेघाट ( = नानाघाट ) नामक दर्रे से प्राप्त हुआ है। इस घाट में स्थित एक लयण की भित्ति पर क्रम से कुछ आकृतियाँ उत्कीर्ण थीं जो अब नष्ट हो गयी हैं। इन आकृतियों के ऊपर प्रत्येक आकृति का नाम प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में अंकित है। संक्षिप्त परिचय नाम :- नानाघाट गुहा मूर्ति परिचयपट्ट या नानाघाट लयण मूर्ति परिचयपट्ट  ( Nanaghat cave idol plaque ) स्थान :- नाणेघाट या नानाघाट, पुणे जनपद, महाराष्ट्र भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- सातवाहनकाल विषय :- मूर्तियों का परिचय नानाघाट गुहा मूर्ति परिचयपट्ट : मूलपाठ प्रथम राया सिमुक सातवाह— नो सिरिमातो [ । ] द्वितीय देवि नायनिकाय रञो च सिरि-सातकनिनो [ । ] तृतीय कुमारो भा— य१ ……….. [ । ] चतुर्थ महारठि त्रनकयिरो [ । ] पंचम कुमरो हुकसिरि [ । ] षष्ठम् कुमारो सातवाहनो [ । ] हिन्दी अनुवाद प्रथम राजा सिमुक सातवाहन श्रीमत् द्वितीय देवी नागनिका तथा राजा श्री सातकर्णि तृतीय कुमार भाय …… १ चतुर्थ महारठी त्रणकयिर पंचम कुमार हकुश्री षष्ठम् कुमार सातवाहन नानाघाट गुहा मूर्ति परिचयपट्ट इन चित्र-पट्टों में अपने-आप ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे इनमें उल्लिखित व्यक्तियों के बीच किसी प्रकार के पारिवारिक और पारस्परिक सम्बन्ध की पुष्टि हो सके। परन्तु समझा जाता है कि ये सभी एक ही परिवार के व्यक्ति हैं। द्वितीय मूर्ति-परिचय में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग हुआ है। इससे अनुमान किया गया है कि वह परिचय उस राज-दम्पत्ति का है, जिसके काल में ये चित्र उत्कीर्ण किये गये थे; अतः यह चित्र राजा सातकर्णि और उसकी रानी नागनिका का समझा जाता है। द्वितीय परिचयपट्ट पहचान के आधार पर अनुमान किया जाता है कि पहला चित्र राजा सातकर्णि के पिता का होगा और इस प्रकार सिमुक सातवाहन को सातकर्णि का पिता समझा जाता है। इसी क्रम में यह भी समझा जाता है कि चौथा चित्र रानी के पिता का होगा अर्थात् महारठी त्रणकयिर रानी नागनिका के पिता थे। शेष अन्य चित्र राजकुमारों अर्थात् सातकर्णि और नयनिका के पुत्रों के अनुमान किये जाते हैं। नासिक गुहा अभिलेख : सातवाहन नरेश कृष्ण नागानिका का नानाघाट अभिलेख

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नागानिका का नानाघाट अभिलेख

भूमिका नागानिका का नानाघाट अभिलेख पुणे से लगभग १२१ किलोमीटर उत्तर और मुम्बई से पूर्व दिशा में लगभग १६३ किलोमीटर की दूरी पर पश्चिमी घाट में स्थित नानाघाट या नाणेघाट दर्रे ( Naneghat pass ) की दोनों दीवारों पर अंकित है। यह ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में अंकित है। नागानिका का नानाघाट अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- नागानिका का नानाघाट अभिलेख या नागनिका का नाणेघाट अभिलेख ( Nanaghat or Naneghat Inscription of Naganika ) स्थान :- नानाघाट, पुणे जनपद, महाराष्ट्र भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- प्रथम शताब्दी ई०पू० का उत्तरार्ध विषय :- रानी नागानिका द्वारा विविध यज्ञों का विवरण, तत्कालीन राजनीतिक-धार्मिक-आर्थिक अवस्था का विवरण नागानिका का नानाघाट अभिलेख : मूलपाठ [ बायीं दीवार पर ] १. [ॐ] (सिधं) नमो प्रजापति]१ नो धंमस नमो ईदस नो संकंसन-वासुदेवान चंद-सूरान२ [महि] मा [व] तानं चतुनं चं लोकपालानं यम वरुन-कुबेर-वासवानं नमो कुमारवरस [ ॥ ] [वेदि]३ सिरिस रञो २. …. [वी] रस सूरस अ-प्रतिहत-चकस दखि [ नप ] ठ-पतिनो ….४ ३. [मा] …… [बाला] य५ महारठिनो अंगिय-कुल-वधनस सगर गिरिवर-वल [ या ] य पथविय पथम वीरस वस य व अलह वंतठ ? …… सलसु महतो मह ….. ४. सिरिस …… ६ भारिया [य] [;] देवस पुतदस वरदस कामदस धनदस [वेदि] सिरि मातु [य] सतिनो सिरिमतस च मातु[य] सोम [;]…… ५. वरिय …….  [ना] गवर-दयिनिय मासोपवासिनिय गहतापसाय चरित-ब्रम्हचरियाय दिख-व्रत यंञ-सुंडाय यञा हुता धूपन-सुगंधा य निय ……. ६. रायस ……….७ [य]ञेहि विठं [।] वनो अगाधेय यंत्रो द[ख]ना दिना गावो बारस १० [+] २ असो च १[ । ] अनारभनियो यंञो दखिना धेतु …… ७. दखिनायो दिना गावो १००० [+] १०० हथी १० ….. ८. ……. स ससतरय [वा]सलठि २०० [+] ८० [+] ६ कुभियो रूपामयियो १० [+] ७ भि ….. ९. रिको यंञो दखिनायो दिना गावो १००००० [+] १००० असा १००० पस [पको] १०. ……. १० [+] २ गमवरो १ दखिना काहापना २०००० [+] ४००० [+] ४०० पसपको काहापाना ६०००।८ राज— [सूयो यंत्रो] सकट यह अंश स्पष्ट नहीं है। कुछ लोगों की धारणा है कि बुहर के समय में ये अक्षर दिखाई पड़ते थे।१ बुह्लर ने चन्द-सूतांन पढ़ा है पर इस पाठ की यहाँ कोई संगति नहीं है।२ कृष्णशास्त्री के खुद पढ़ा है किन्तु दिनेशचन्द्र सरकार का कहना है कि वेदि पाठ स्पष्ट है।३ दिनेशचन्द्र सरकार ने ‘रजो सिमुक सातवाहन सुन्हाय’ द्वारा इस अभाव की पूर्ति का सुझाव दिया है।४ कुछ लोग यहाँ कललाय पाठ का अनुमान करते हैं। उनके इस अनुमान का आधार वे सिक्के हैं जिन पर यह नाम मिलता है।५ यहाँ सातकणि-सिरिस अथवा सिरि सातकणिस होने की कल्पना की जाती है।६ दिनेशचन्द्र सरकार ने यहाँ राय सतकणिननासह के होने का अनुमान किया है।७ बुह्लर ने इसे एक की संख्या माना है। किन्तु अन्यत्र लेख में इसका प्रयोग विराम के लिए हुआ है। यहाँ भी यह विराम ही है।८ [ दाहिनी दीवार पर ] ११. धंञगिरि-तंस-पयुतं १ सपटो १ असो १ अस-रथो १ गावीनं १०० [ । ] असमेधो यंञो बितियो [यि] ठो दखिनायो [दि] ना असो रूपालं [का] रो १ सुवंन …. नि १०[+]२ दखिना दिना काहापना १०००० [+] ४००० गामो १ [ हठि ] ….. दखि]ना दि[ना] १२. गावो सकटं धंञगिरि-तस पयुतं १ [ । ] वायो यंञा १०[+]७ [ धेनु ?] …. वाय सतरस १३. …… १०[+]७ अच ….. न …… लय पसपको दि- [नो] …… [दखि] ना दिना सु ….. पीनि १० (+) ३ अ ( ? )सो रूपा [लं]कारो १ दखिना काहाप[ना] १०००० २ १४. गावो २०००० [।] [भगल]-दसरतो यंञो यि[ठो] [दखिना ] [दि]ना [गावो] १००००। गर्गतिरतो यञो यिठो [दखिना] पसपका पटा ३००। गवामयनं यंञो यिठो [दखिना दिना] १०००[+]१००। गावो १०००[+]१०० (?) पसपको काहापना पटा १०० [।] अतुयामो यंञो ….. १५. ……… [ग] वामयनं य[ञो] दखिना दिना गावो १००० [+]१००। अंगिरस [  ] मयनं यंञो यिठो [द]खिना गावो १०००[+]१००। त …… [दखिना दि]ना गावो १०००[+]१००। सतातिरतं यंञो ……… १००[।] [यं] ञो दखिना ग[ावो] १०००[+]१०० [।] अंगिरस[ति]रतो यंञो यिठो [दखि] ना गा[ वो ] …… [।]….. १६. …. [गा] वो १०००[+]२ [।] छन्दोमप[व]मा [नतिरत] दखिना गावो १०००। अं[गि]रसतिर] तो यं[ञो] [यि]ठो द[खिना] [।] रतो यिठो यंञो दखिना दिना [।] तो यंञो यिठो दखिना [।] यञो यिठो दखिना दिना गावो १०००। १७. …… न स सय …… [दखि]ना दिना गावो त ……. [।] [अं]  गि[रसा] मयनं छवस [दखि] ना दिना गाव १०००……….[।] ….. [दखिना] दिना गावो १०००। तेरस अ …….. [।] १८. …… [।] तेरसरतो स ….. छ ……. [आ]ग-दखिना दिना गावो …… [।] दसरतो म [दि]ना गावो १००००। उ …….. १००००| द …… १९. …… [ यं ] ञो दखिना दि[ना] …… २०. ……. [द]खिना दिना …… हिन्दी अनुवाद ॐ अथवा सिद्धम्। [प्रजापति को नमस्कार]; धर्म को [नमस्कार]; इन्द्र को नमस्कार: संकर्षण-वासुदेव, चन्द्र-सूर्य, महिम, चतुर्दिक् लोकपाल, यम, वरुण, कुबेर, आसव आदि को नमस्कार; कार्तिकेय को नमस्कार। राजा वेदिश्री [ के…… ] वीर, शूर, अप्रतिहतचक्र, दक्षिणापति …. [की बेटी], महारठी, अंगिय-कुल-वर्धन, सागर और गिरिवर (हिमालय) से घिरी पृथ्वी (भारतवर्ष)९ के प्रथम वीर श्री …… की भार्या, देव, पुत्रद, वरद, कामद, धनद वेदश्री की माता और श्रीमद् साति की भी माता; जो नागवरदायिन्य (?), मास भर उपवसवास करनेवाली (मासोपवासिनी), घर में तपस्वी की तरह रहनेवाली (गृह-तापस्या), ब्रह्मचारिणी का जीवन व्यतीत करनेवाली (चरितब्रह्मचर्या), दीर्घ व्रत, यज्ञ, शौण्ड करनेवाली है। [उन्होंने] धूप सुगन्ध से [युक्त] अनेक यज्ञ किये (?)। …….. रायस (?) जो यज्ञ किये उनकी सफलता के लिए [जो] वर्ण१० (दान-दक्षिणा) [दिया गया उसका यह विवरण है]- दिनेशचन्द्र सरकार की धारणा है कि यहाँ भूलोक-सम्बन्धी बौद्ध कल्पना प्रतिध्वनित है, जिसके अनुसार पृथ्वी, समुद्र और चक्रवाल पर्वतों से घिरी है। किन्तु यहाँ तात्पर्य भारतवर्ष से हैं, यह गिरिवर शब्द से स्पष्ट है जो हिमालय का पर्याय है।९ वर्ण शब्द को लोगों ने वर्णन अथवा विवरण के अर्थ में लिया है; किन्तु दान-दक्षिणा के लिए प्रयुक्त होनेवाला यह एक सामान्य शब्द है।१० अग्नेय यज्ञ दक्षिणा दिया १२ गाय और एक घोड़ा। अनालम्भणीय यज्ञ दक्षिणा …… [यज्ञ] दक्षिणा दिया ११०० गाय, १० हाथी ….. २८९ बाँस की लाठी (वास-लठी, वंश-यष्टि); चाँदी से भरा हुआ कलश १७; ….. । ……. रिक यज्ञ-दक्षिणा दिया गया १०००१; अश्व १०००; पसपक (प्रसर्पक)११ …….. १२; ग्रामवर १; दक्षिणा २४४०० कार्षापणोच प्रसर्पक ६००० कार्षापण। राजसूय यज्ञ …… अन्नकूट (धान्य- गिरि) से लगा शकट (गाड़ी) १; सपट (सत्पट्ट ?) १; अश्व १; अश्वरथ १; गाय १००। अश्वमेध

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नासिक गुहा अभिलेख : सातवाहन नरेश कृष्ण

भूमिका कृष्ण का नासिक गुहा अभिलेख महाराष्ट्र के नासिक जनपद में स्थित एक लयण ( गुफा ) के दाहिनी ओर की खिड़की के ऊपर प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में अंकित है। नासिक में एक पहाड़ी है जिसमें लयणों ( गुफाओं ) की एक शृंखला है जिसको पाण्डुलेण कहा जाता है। संक्षिप्त परिचय नाम :- कृष्ण का नासिक गुफा अभिलेख या कृष्ण का नासिक लयण अभिलेख स्थान :- महाराष्ट्र प्रांत में गोदावरी नदी तट पर स्थित नासिक जनपद में भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- प्रथम शताब्दी ई०पू० का उत्तरार्ध, कन्ह या कृष्ण का शासनकाल विषय :- श्रमणों के लिए लयण बनवाने का विवरण कृष्ण का नासिक गुहा अभिलेख : मूलपाठ १. सादवाहन-कु [ ले ] कन्हे राजनि नासिककेन २. समणेन महामातेण लेणं कारितं [ । ] हिन्दी अनुवाद सातवाहन कुल के कृष्ण राजा [ के शासन काल में ] नासिक नगर स्थित श्रमणों के महामात्र [ का बनवाया हुआ ] लयण। कृष्ण का नासिक लयण अभिलेख : विश्लेषण इस अभिलेख में सातवाहन कुल के राजा कृष्ण ( कन्ह ) का उल्लेख है। नाणेघाट से प्राप्त अभिलेख (अभिलेख ३६) में सिमुक सातवाहन का उल्लेख हुआ है। पुराणों में सिमुक और कृष्ण दोनों नामों का उल्लेख आन्ध्र अथवा आन्ध्र भृत्य कहे जानेवाले शासकों के रूप में हुआ है। इससे प्रकट होता है कि अभिलेखों में जिसे सातवाहन कहा गया है, उसे ही पुराण ने आन्ध्र अथवा आन्ध्र नृत्य के नाम से पुकारा है। पुराणों के अनुसार कृष्ण सिमुक का भाई और उसका उत्तराधिकारी था और उसने १८ वर्ष तक शासन किया था। बुहर के मतानुसार यह अभिलेख ई०पू० दूसरी शती के आरम्भ काल ( अन्तिम मौर्य अथवा प्रारम्भिक शुंगकाल ) का है। पर उनका यह मत अनेक विद्वानों को ग्राह्य नहीं है। रामप्रसाद चन्दा ने नाणेघाट के अभिलेखों के अक्षरों का विवेचन करते हुए बताया है कि वे अभिलेख इस काल के बहुत बाद के हैं। उस अभिलेख में जिस सिमुक सातवाहन का उल्लेख है वह कृष्ण का भाई और पूर्ववर्ती था। अतः यह अभिलेख उससे पूर्व का नहीं हो सकता। दिनेशचन्द्र सरकार ने इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि स्वयं इस अभिलेख के कुछ अक्षर कोणात्मक ( angular ) है, जो इस बात की ओर संकेत करते हैं कि यह अभिलेख ई०पू० प्रथम शती के उत्तरार्ध से पूर्व का नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त यह भी द्रष्टव्य है कि जिस लयण पर यह अभिलेख अंकित है, उसके सम्बन्ध में कला-मर्मज्ञों का मत है कि वह ई०पू० प्रथम शती के उत्तरार्ध का होगा। इस प्रकार इस लेख के आधार पर सातवाहनों को ई०पू० दूसरी शती में नहीं रखा जा सकता। उनका समय ई० पू० प्रथम शती के उत्तरार्ध में ही रखना होगा। इतिहासकारों के अनुसार सातवाहन नरेश शिमुक या सुशर्मा का शासनकाल ६० ई०पू० से ३७ ई०पू० माना गया है। कान्ह ( कृष्ण ) शिमुक का अनुज था। कान्ह शिमुक के बाद शासक बना और उसका शासन १८ वर्ष रहा। इस तरह कृष्ण का शासनकाल ३७/३६ ई०पू० से लेकर १९/१८ ई०पू० तक माना गया है। अतः यह अभिलेख पहली शताब्दी ई०पू० के उत्तरार्ध का है।

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आरा अभिलेख

भूमिका कनिष्क का आरा अभिलेख पाकिस्तान के कटक से कुछ दूरी पर आरा नामक नाला के पास से प्राप्त हुआ है। अटक से दक्षिण-पश्चिम में जहाँ पर सिंधु नदी पश्चिम की ओर मुड़ती है वहाँ बाघ-नीलाब ( Bagh-Nilab ) के पास आरा नामक नाला बहता है। यह प्राकृत भाषा और खरोष्ठी लिपि में अंकित है। वर्तमान में यह लाहौर संग्रहालय में ( सम्भवतः ) है। आरा अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- कनिष्क तृतीय का आरा अभिलेख ( Ara Inscription of Kanishka III ) स्थान :- अटक शहर ( पाकिस्तान ) से दक्षिण-पश्चिम स्थित चाहवाग निगलाव या बाघ नीलाब के समीप स्थित आरा के एक कुएँ से प्राप्त भाषा :- प्राकृत लिपि :- खरोष्ठी समय :- कनिष्क तृतीय का शासनकाल विषय :- कनिष्क ( तृतीय ) के शासनकाल में दषव्हर द्वारा अपने माता-पिता की पूजा हेतु कुँआ बनवाने का उल्लेख आरा अभिलेख : मूलपाठ १. महरजस रजतिरजस देवपु [ त्रस ] [ क ] इ [ स ] रस २. व [ झि ] ष्प-पुत्रस कनिष्कस संवत्सरए एकचप [ रि ]— ३. [ शए ] सं० २० [ + ] २० [ + ] १ जेठस मसस दिव [ से ] १ [ । ] इ [ शे ] दिवस क्षुणम् ख [ दे ] ४. [ कुपे ] दषव्हरेन पोषपुरिअ-पुत्रण मतर पितरण पुय [ ए ] ५. [ हि ] रंणस सभर्य [ स ] [ स ] पुत्रस अनुग्रहर्थए सर्व [ सप ] ण ६. जति [ षु ] छतए१ [ ॥ ] इमो च लिखितो म [ धु ] ..[ ॥ ] स्टेन कोनो इसको हितए पढ़ते हैं। हिन्दी अनुवाद महाराज रजतिराज देवपुत्र कैसर वझेष्क ( वाशिष्क ) पुत्र कनिष्क के संवत्सर ४१ के ज्येष्ठ मास का दिन १। इस दिन ( क्षण ) को पोषपुरिय-पुत्र दशव्हर ने यह कुँआ खुदवाया अपने माता-पिता, हिरण्यनाम्नी भार्या और पुत्रसहित अपने अनुग्रह और सर्व सत्वों ( जीवों ) के जन्म-जन्म में रक्षा ( हित ) के लिए। इसे मधु …… ने लिखा । आरा अभिलेख : विश्लेषण यह कुएँ के खुदवाये जाने की एक सामान्य प्रज्ञप्ति है। कुआँ खुदवाने वाले को पोषपुरिय-पुत्र कहा गया है। इसके दो अर्थ हो सकते हैं :- प्रथम, पोषपुरिय व्यक्तिवाचक नाम हो सकता है अथवा द्वितीय, पोषपुर का तात्पर्य पुरुषपुर ( पेशावर ) से है और पुत्र का अभिप्राय ‘मूल निवासी’ से। इन दोनों अर्थों में से कौन सा अर्थ ग्राह्य है निश्चित नहीं कहा जा सकता; पर इस दूसरे अर्थ से ही प्रयोग किये जाने की सम्भावना अधिक है। लोग इसी अर्थ में ग्रहण करते हैं।२ निवासी की अभिव्यक्ति के लिए मध्यकालीन अनेक लेखों में ‘अन्वय’ शब्द का प्रयोग मिलता है, जो पुत्र का पर्याय-सा ही है। यथा-अग्रोतक निवासी के लिए अग्रोतकान्वय का प्रयोग अनेक लेखों में हुआ है।२ इस लेख का ऐतिहासिक महत्त्व वझेष्क-पुत्र कनिष्क के उल्लेख के कारण है। इसमें उल्लिखित वर्ष से स्पष्ट है कि यह कनिष्क उस कनिष्क से सर्वथा भिन्न है जिसके अभिलेख संवत् १ से २३ तक प्राप्त होते हैं। अतः इतिहासकारों ने इस कनिष्क को कनिष्क द्वितीय की संज्ञा दी थी। परन्तु अधिकतर विद्वान इसे कनिष्क तृतीय के रूप में पहचानते हैं जो उचित भी लगता है। महाराज रजतिराज देवपुत्र कैसर विरुद का प्रयोग इस अभिलेख में कनिष्क के लिए किया गया है। अतः इस प्रसंग में लोगों का ध्यान उस चीनी अनुश्रुति की ओर गया है जिसमें चीन, भारत, रोम और यू-ची के सम्राट् चार देवपुत्र कहे गये हैं। इस अनुश्रुति के सम्बन्ध में कुछ लोगों का अनुमान है कि उसका आरम्भ भारत से हुआ है। इस प्रकार उनका यह भी अनुमान है कि उनके उल्लेखों का क्रम भारत, ईरान, चीन और रोम रहा होगा। उसी क्रम से इस अभिलेख में चारों देशों के सम्राटों की उपाधि का प्रयोग किया गया है। इसमें महाराज भारतीय, रजतिराज ईरानी, देवपुत्र चीनी और कैसर रोमन उपाधि है। इस प्रकार कुछ लोगों ने इन उपाधियों में उक्त अनुश्रुति की व्याख्या देखने का प्रयत्न किया है। महाराज रजतिराज और देवपुत्र विरुदों का प्रयोग अभिलेखों में पूर्ववर्ती कुषाण-नरेशों के लिए होता रहा है। अतः उनका प्रयोग इस लेख में स्वाभाविक ही है। इस लेख में केवल नयी बात यह है कि इसमें इन उपाधियों के साथ कैसर उपाधि का भी प्रयोग है जो रोम सम्राटों की उपाधि रही है। उसका प्रयोग रोम के व्यापारिक सम्पर्कों का ही परिणाम प्रतीत होता है। इस प्रयोग को रोम सम्राटों के वैभव की अनुगूँज से प्रेरित कनिष्क को उनके समक्ष मानने का प्रयास अनुमान किया जा सकता है। किन्तु हमारी दृष्टि में इसका प्रयोग अभिलेखों में प्रयुक्त षाहि विरुद के पर्याय के रूप में ही किया गया है।

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हुविष्क का मथुरा अभिलेख

भूमिका हुविष्क का मथुरा अभिलेख संस्कृत प्रभावित प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में है। यह लेख मथुरा जनपद में मथुरी गोवर्धन जानेवाले मार्ग पर स्थित चौरासी जैन-मन्दिर के पास एक कुएँ एक स्तम्भ मिला था। अब यह मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित है। इसी स्तम्भ पर यह अभिलेख अंकित है। संक्षिप्त परिचय नाम :- हुविष्क का मथुरा अभिलेख ( Mathura Inscription of Huvishka ) या हुविष्क का मथुरा प्रस्तर-अभिलेख ( Mathura Stone Inscription of Huvishka ) स्थान :- मथुरा जनपद, उत्तर प्रदेश भाषा :- प्राकृत ( संस्कृत प्रभावित ) लिपि :- ब्राह्मी समय :- हुविष्क का शासनकाल विषय : धार्मिक पुण्य के अर्जनार्थ अक्षयनीवि का दान। हुविष्क का मथुरा अभिलेख : मूलपाठ १. सिद्धम् [ ॥ ] संवत्सरे २० [ + ] ८ गुर्प्पिये दिवसे १ [ । ] अयं पुण्य— २. शाला प्राचिनीकन सरुकमान-पुत्रेण खरासले— ३. र-पतिन वकन पतिना अक्षय-नीवि दिन्ना [ । ] ततो वृ [ द्धि ] ४. तो मासानुमासं शुद्धस्य चतुदिशि पुण्य-शा [ ला ]— ५. यं ब्राह्मण-शतं परिविदितव्यं [ । ] दिवसे दिव [ से ] ६. च पुण्य-शालाये द्वार-मुले धारिये साद्यं-सक्तनां आ— ७. ढका ३ लवण प्रस्थो १ शक्त प्रस्थो १ हरित-कलापक ८. घटक [ । ] ३ मल्लक [ ा ] ५ [ । ] एतं अनाधानां कृतेन दा [ तव्य ] ९. वभुक्षितन पिबसितनं [ । ] च चत्र पुण्य तं देवपुत्रस्य १०. षाहिस्य पुविष्कस्य [ । ] येषा च देवपुत्रो प्रियः तेषामणि पुण्य ११. भवतु [ । ] सर्वायि च पृथिवीये पुण्य भवतु [ । ] अक्षय-निवि दिन्ना १२. ……… [ रा ] क-क्षेणीये पुराण-शत् ५०० [ + ] ५० समितकर श्रेणी— १३. [ ये च ] पुराण-शत ५०० [ + ] ५० [ ॥ ] हिन्दी अनुवाद संवत् २८ के गुर्प्पिय१ [ मास ] का दिवस १। इस पुण्यशाला को खरासलेरपति, बकनपति सरुकमान के पुत्र प्राचिनीकन ने अक्षयनीवि२ दिया। उसकी वृद्धि ( सूद ) से प्रत्येक मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को पुण्यशाला में सौ ब्राह्मणों को भोजन कराया जाय। [ और ] प्रतिदिन पुण्यशाला के सामने ( द्वार-मूल ) तीन आढ़क ताजा सत्तू, एक प्रस्थ नमक, एक प्रस्थ शुक्त, ताजा कलापक ( मूली? ), तीन घटक ( घड़े ) और पाँच मल्लक ( थाली ) रखे जायँ। इन्हें अनाथों तथा भूखे-प्यासों को दिया जाय। इससे जो पुण्य हो वह देवपुत्र षाहि पुविष्क का है। इसका पुण्य उसे हो जो देवपुत्र के प्रिय हैं। इसका पुण्य सारी पृथ्वी के लोगों को हो। [ इस ] अक्षय-नीवि [ के रूप में ]— राक श्रेणी को ५५० पुराण और समितकर श्रेणी को ५५० पुराण [ दिया गया ]॥ यह यूनानी ( मकदूनी, मेसिडोनियन ) मास का नाम है जो मोटे रूप में भारतीय भाद्रपद-आश्विन में पड़ता था।१ अक्षयनीवि ऐसी दान व्यवस्था को कहते हैं जिसमें मूल-धन में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता; केवल उसके सूद का ही उपयोग हो सकता है।२ हुविष्क का मथुरा अभिलेख : विश्लेषण अब तक इस अभिलेख के पंक्ति १० में हुविष्क पढ़ा गया था और उसका महत्त्व इस दृष्टि से माना जाता रहा है कि वहाँ हुविष्क का अद्यतन लेख है। किन्तु इस लेख में जो नाम है उसका उल्लेख मात्र देवपुत्र षाहि के रूप में हुआ है। हुविष्क के लिए महाराज सरीखे उपाधि का प्रयोग कई वर्ष पश्चात् ही उपलब्ध होता है। इस कारण अनेक विद्वानों ने अनुमान किया था कि इस अभिलेख के समय तक हुविष्क सत्तारूढ़ नहीं हुआ था। किन्तु अभी हाल ही में सरोजिनी कुलश्रेष्ठ ने इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि उत्कीर्ण लेख में नाम स्पष्ट अक्षरों में पुविष्क है हुविष्क नहीं। इस अभिलेखों को प्रकाशित करते समय स्टेन कोनो ने भी पुविष्क ही पढ़ा था और इस बात को स्पष्ट रूप से पाद-टिप्पणी में स्वीकार भी किया है। किन्तु पुविष्क अथवा विष्क नामान्त किसी अन्य नाम की जानकारी के अभाव में ही उन्होंने हुविष्क पाठ ग्रहण किया था। उसी को दिनेशचन्द्र सरकार ने भी ग्रहण किया है किन्तु वे लेख में पुविष्क होने की बात पर मौन बने रहे। इसके कारण ही इसके हुविष्क का लेख होने का भ्रम उत्पन्न गया है। इसके साथ ही कुलश्रेष्ठ ने अभिलेख में पुविष्क के लिए प्रयुक्त विरुद षाहि की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए इस तथ्य को भी उजागर किया है कि वर्ष ८४ से पूर्व कनिष्क, हुविष्क और वासुदेव के जितने भी अभिलेख हैं, उन सब में समान रूप हो मात्र ‘महाराज राजतिराज देवपुत्र’ विरुद का प्रयोग किया गया है। वर्ष ८४ के बाद के वासुदेव के जो अभिलेख हैं उसमें तथा उन मूर्तियों के आलेखों में, जिन्हें लोहिजाँ और रोजेनफील्ड ने कला-शैली के आधार पर वासुदेवोत्तर काल के होने की बात कही है और कहा है कि उन पर तिथियाँ शतसंख्या के विलोपन के साथ अंकित की गयी हैं। एक और अतिरिक्त विरुद ‘षाहि’ का प्रयोग किया गया है। अतः इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में यह लेख पर भी तिथि शत-संख्या विलुप्त [ १ ] २८ है। और उसे वासुदेव-पूर्व के काल में कदापि नहीं रखा जा सकता। यह स्वीकार करने के साथ कि यह लेख वासुदेव के काल के बाद का है, यह भी उल्लेखनीय है कि साँची से वाशिष्क का वर्ष [ १ ] २८ का जो लेख प्राप्त है उससे और सिक्कों से उसका शासक होगा सिद्ध है। ऐसी अवस्था में यह मानना कि पुविष्क अथवा हुविष्क वर्ष [ १ ] २८ में शासक रहा होगा। दुरुह कल्पना है। वास्तव में अभिलेख में पुविष्क ( हुविष्क ) का उल्लेख इस अभिलेख में इस रूप में नहीं है। उसमें उसे केवल देवपुत्र षाहि कहा गया है। यदि वह शासक होता तो उसका उल्लेख संवत्सर के प्रसंग में उसके सम्पूर्ण उपाधि सहित महाराज राजतिराज देवपुत्र षाहि पु [ हु ] विष्क के रूप में किया जाता। यही नहीं, इस अभिलेख के माध्यम से अक्षयनीवि प्रतिष्ठापित करने वाला एक शासनाधिकारी था। उसने उसका पुण्य लाभ भी पुविष्क ( हुविष्क ) को भेंट किया है; उसका उल्लेख वह मात्र देवपुत्र षाहि से करने का अविनयन कभी न करता। अतः यह अनुमान करना अनुचित न होगा कि यह पुविष्क ( हुविष्क ) मात्र कोई राज-कुलीन, सम्भवतः राजकुमार एवं वाशिष्क का भाई अथवा पुत्र रहा होगा। स्टेन कोनो की धारणा है कि अक्षयनीवि के साथ पुण्यशाला का भी दान दिया

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