गुनैधर ताम्रलेख, गुप्त सम्वत् १८८ (५०७ ई०)

भूमिका

१९२५ ई० में बाँग्लादेश के कोमिल्ला के गुनैधर या गुणैधर नामक स्थल से यह ताम्रपत्र मिला है इसलिये इसको ‘गुणैधर ताम्रलेख’ या ‘गुनैधर ताम्रलेख’ कहा गया है। इस ताम्र-फलक से एक मुद्रा जड़ी हुई हैं जिसपर वामाभिमुख बैठे वृषभ का अंकन है और इसके नीचे ‘महाराज श्री वैन्यगुप्तः’ अंकित है।

संक्षिप्त परिचय

नाम :- गुनैधर ताम्रलेख या गुणैधर ताम्रलेख [ Gunaidhar Copper-Plate Inscription ]

स्थान  :- गुनैधर, कोमिल्ला, बाँग्लादेश

भाषा :- संस्कृत 

लिपि :- उत्तरवर्ती ब्राह्मी

समय :- गुप्त सम्वत् १८८ ( ५०७ ई० ), वैन्यगुप्त का शासनकाल

विषय :- भूमिदान से सम्बन्धित, इस लेख में भूमि सीमा का निर्धारण विस्तार से मिलता है।

मूलपाठ

१. स्वस्ति [।] महानौ-हस्त्यश्व-जयस्कन्धावारात्क्रीपुराद्भगवन्महादेवपादानुद्धयातो महाराज-श्रीवैन्यगुप्तः

२. कुशली — — — — — स्वपादोपजीविनश्च कुशलमशंस्य समाज्ञापयति [I] विदितं भवतामस्तु यथा

३. मया मातापित्रोरात्मनश्च पु[ण्या]भिवृ[द्ध]ये(ऽ) स्मत्पाददास महाराज-रुद्रदत्त-विज्ञाप्यादनेनैव महायानिक-शाक्यभिक्ष्वा-

४. चार्य्य-शान्तिदेवमुद्दिश्य          गोप       (?) …………… [दिग्भागे       ?] कार्य्य-माणकार्य्यावलोकितेश्वराश्रम-विहारे अनेनै-

५. वाचार्येण प्रतिपादित [क ? ]-महायानिक-वैवर्त्तिक-भिक्षु संघनाम्परिग्रहे भगवतो बुद्धस्य सततं त्रिष्कालं

६. गन्ध-पुष्प-दीप-धूपादि-प्र[वर्त्तनाय] तस्य भिक्षु संघस्य च चीवर -पिण्ड-पात-शयनासन-ग्लानप्रत्ययभैषज्यादि-

७. परिभोगाय विहारे [च] खण्ड-फुट्ट प्रतिसंस्कार करणाय उत्तरमाण्डलिक-कान्तेडदकग्रामे सर्वतो भो-

८. गेनाग्रहारत्वेनैकादश-खिल-पाटकाः पञ्चभिः खण्डैस्ताम्र-पट्टेनातिसृष्टाः [।] अपि च खलु श्रुति स्मृती-

९. [ति]हा[स]-विहितां       पुण्य-भूमिदान-श्रुतिमैहिकामुत्तिक-फल-विशेषे     स्मृतो     भावतः समुपगम्य स्वतस्तु पी-

१०. डामप्यूरीकृत्य पात्तेभ्यो भूमिं — — — — —  [।] — — — द्विष(?) द्भिरस्मद्वचन-गौरवात्स्व-यशो-धर्म्मावाप्तये चैते

११. पाटका अस्मिन्वि (?) हारे शश्वत्कालमभ्य[नुपालयितव्याः] [॥] अनुपालनम्प्रति च भगवता पराशरात्मजेन वेदव्या-

१२. सेन व्यासेन गीताः श्लोका भवन्ति [।]

      षष्टिं वर्ष-स [हस्रा]णि स्वर्गे मोदति भूमिदः

      आक्षेप्ता चानुमन्ना च ता-

१३.                            न्येव न[र]के वसेत्[॥]

       स्व- दत्तां परदत्ताम्वा यो हरेत वसु[न्धरां[।]

       [स] विष्ठायां कृमिर्भूत्वा पितृभिः सह पच्यते[॥]

१४. पूर्व- दत्तां द्विजातिभ्यो यत्रादक्ष युधिष्ठिर[।]

       महीं महिमतां श्रेष्ठ दानात्प्रयो(ऽ) नुपालनं [II]

       वर्तमानाष्टाशीत्यु-

१५. त्तर शत-संवत्सरे पौष-मासस्य चतुर्व्विन्शतितम-दिवसे दूतकेन महा-प्रतीहार महापीलूपति-पञ्चाधि-

१६. करणोपरिक-पाट्युपरिक-[पुर]पुरपालोपरिक-महाराज-श्रीमहासामन्त-विजयसेने-नैतदेकादश-पाटक-दा-

१७. नायाज्ञामनुभाविताः कुमारामात्य-रेवज्जस्वामी भामह-वत्स भोगिकाः [॥] लिखितं सन्धिविग्रहारिकरण-काय-

१८. स्थ-नरदत्तेन     [॥]    यत्तैकक्षेत्रखण्डे      नव-द्रोणवापाधिक-सप्त-पाठक-परिमाणे सीमालिङ्गानि [।] पूर्व्वेण गुणका-

१९. ग्रहारग्राम-सीमा विष्णुवर्धकि क्षेत्रश्च [।] दक्षिणेन मिदुविलाल (?)-क्षेत्रं राजविहार-क्षेत्रश्च [।] पश्चिमेन सूरी-नाशी-रम्पूर्णेक- 

२०. क्षेत्रं [।] उत्तरेण दोषी-भोग-पुष्करिणी ……. [ए]वम्पिया-कादित्य बन्धु-क्षेत्राणाञ्च सीमा [II]

२१. द्वितीय खण्डस्याष्टाविन्शति द्रोणवाप-परिमाणस्य सीमा [।] पूर्वेण गुणिकाग्रहारग्राम-सीमा [।] दक्षिणेन पक्क-

२२. विलाल (?)-क्षेत्रं [।]पश्चिमेन राजविहार क्षेत्रं [।] उत्तरेण वैद्य (?) क्षेत्रं [॥] तृतीय खण्डस्य त्रयोविन्शति-द्रोणवाप-

२३. परिमाणस्य सीमा [।] पूर्व्येण ……… क्षेत्रं [।] दक्षिणेन नखद्दार्च्चरिक (?) क्षेत्र सीमा [।] पश्चिमेन

२४. [जो ? ]लारी क्षेत्रं [।] उत्तरेण नागी-जोडाक क्षेत्रं [॥] चतुर्थस्य त्रिंशद्रोणवाप परिमाण क्षेत्र-खण्डस्य सीमा [।] पूर्वेण

२५. बुद्धाक क्षेत्र सीमा [।] दक्षिणेन कालाक क्षेत्रों [।] पश्चिमेन [सू]र्य्य क्षेत्रं सीमा [।] उत्तरेण महीपाल क्षेत्रं [॥] [प]ञ्चमस्य

२६. पादोन-पाटक-द्वय-परिमाण-क्षेत्र-खण्डस्य सीमा [।] पूर्व्येण खण्ड वि[डु]ग्गुरिक-क्षेत्र [।] दक्षिणेन मणिभद्द्र-

२७. क्षेत्रं [।] पश्चिमेन यज्ञरात क्षेत्र-सीमा [।] उत्तरेण नादडदकग्राम सीमेति [॥] विहार-तलभूमेरपि सीमा-लिङ्गानि [॥]

२८. पूर्व्येण चूडामणिनगर श्रीनीयोगयोर्म्मद्ये जोला [I] दक्षिणेन गणेश्वर-विलाल-पुष्करिण्या नौ-खातः [॥]

२९. पश्चिमेन प्रद्युम्नेश्वर देवकुल क्षेत्र प्रान्तः [॥] उत्तरेण प्रडामार-नौयोग-खातः [॥] एतद्विहारावेस्य-शून्यप्रतिकर- 

३०. हज्जिक- खिल-भूमेरपि सीमा-लिङ्गानि [।] पूर्व्वेण प्रद्युम्नेश्वर देवकुल-क्षेत्र सीमा [।] दक्षिणेन शाक्यभिस्वाचार्य्य-जित- 

३१. सेन-वैहारिक क्षेत्रावसा (?) नः [।] पश्चिमेन ह[?]चात-गंग उत्तरेण दण्ड-पुष्किणी चेति ॥ सं० १० (+) ८० (+) ८ पोष्ष दि- २० (+) ४ [॥]

हिन्दी अनुवाद

स्वस्ति ! महानौ, हस्ति और अश्व से युक्त क्रीपुर जयस्कन्धावार (सैनिक पड़ाव) में [उपस्थित] भगवान् महादेव (शिव) के चरण-सेवी (पादानुध्यात) महाराज वैन्यगुप्त कुशलपूर्वक रहें।

[वे] ……… एवं अपने सेवर्कों (स्व-पादोपजीवी) की कुशल-कामना करते हुए यह आज्ञा देते हैं :-

आप सब लोगों को ज्ञात हो कि अपने माता-पिता तथा अपने पुण्य के लिए मेरे पाददास (सेवक) महाराज रुद्रदास ने विज्ञप्ति (निवेदन) किया है कि महायानी बौद्ध भिक्षु आचार्य शान्तिदेव के लिए …….. कार्य माणक आर्य अवलोकितेश्वर-आश्रम-विहार के उक्त आचार्य द्वारा प्रतिपादित महायानिक वैवर्तिक भिक्षु-संघ द्वारा पूजित भगवान् बुद्ध की [मूर्ति की] निरन्तर तीनों पहर गन्ध, पुष्प, दीप, धूप आदि [से पूजा] के निमित्त तथा उक्त भिक्षु संघ के [निवासियों] के चीवर, पिण्ड-पात (भोजन), शयन, आसन, चिकित्सा (ग्लान-प्रत्यय भैषज्य) के लिये तथा टूटने-फूटने पर विहार की मरम्मत के निमित्त उत्तर-माण्डलिक के अन्तर्गत कान्तेडदक ग्राम में पाँच खण्डों में ग्यारह पाटक खिल-क्षेत्र पूर्ण रूप से भोग्य अग्रहार की सृष्टि ताम्र-पट्ट द्वारा की जाय।

श्रुति-स्मृति-इतिहास में कहा गया है कि भूमि दान के पुण्य को सुनकर, इस लोक और परलोक में विशेष फलप्राप्ति के भाव को समझकर, आर्थिक कष्ट सहन करते हुए भी भूमि ……

[अतः] मेरे वाक्यों को महत्त्व देते हुए [आप] अपने यश और धर्म-प्राप्ति के निमित्त उक्त पाटकों को चिरकाल के लिए उक्त विहार को प्रदान करें।

इसके परिपालन के निमित्त भगवान् पराशर के पुत्र वेदव्यास के गीता में यह श्लोक है —

भूमि का दान देनेवाला ६ हजार वर्ष तक स्वर्ग का उपभोग करता है। उसमें हस्तक्षेप करनेवाला और उस हस्तक्षेप का समर्थन करनेवाला उतने ही काल तक नरक में वास करता है।

जो अपनी अथवा दूसरे की दी हुई भूमि का अपहरण करता है, वह पितरोंसहित विष्ठा का कीड़ा होता है।

हे युधिष्ठिर ! पूर्व काल में ब्राह्मणों को दी गयी भूमि की रक्षा करो। भू-दान श्रेष्ठ तो है ही; पर उससे भी श्रेष्ठ भू-दान का परिपालन करना है।

वर्तमान संवत् १८८ के पौष मास का २४वाँ दिवस। दूतक महाप्रतिहार, महापीलुपति, पंचाधिकरण-उपरिक, पाट्युपरिक, पुरपालोपरिक महाराज श्री महासामन्त विजयसेन ने ११ पाटक भूमि देने की आज्ञा दी। कुमारामात्य रेवज्जस्वामी तथा भामह और वत्स नामक भोगिकों ने इस आज्ञा को कार्यान्वित किया।

सन्धि-विग्रह अधिकरण के कायस्थ (लिपिक) नरदत्त ने [इसे] लिखा।

प्रथम खण्ड क्षेत्र–सप्त पाटक नव द्रोणवाप। [इसकी] सीमा [इस प्रकार है] — पूर्व में गुणेकाग्रहार ग्राम तथा विष्णुवर्धक के खेत की सीमा; दक्षिण में मिंदु-विलाल (?) तथा राजविहार क्षेत्र; पश्चिम में सूरी-नाशी-रम्पूर्णेक का क्षेत्र; उत्तर में दोषी भोग पुष्करणी ……… और पियाकादित्य-बन्धु के खेत की सीमा।

द्वितीय खण्ड —२८ द्रोणवाप परिमाण की सीमा – पूर्व में गुणिकाग्रहार ग्राम सीमा; दक्षिण में पक्कविलाल (?) का खेत; पश्चिम में राज-विहार का क्षेत्र और उत्तर में वैद्य (?) का खेत।

तृतीय खण्ड [की] २३ द्रोणवाप परिमाण की सीमा – पूर्व में का खेत; दक्षिण में नखद्दार्च्चरिक (?) के खेत की सीमा; पश्चिम में जोलारी का खेत। उत्तर में नागी जोडाक का खेत।

चतुर्थ खण्ड [की] तीस द्रोण परिमाण की सीमा – पूर्व में बुद्धाक के खेत की सीमा; दक्षिण में कालाक के खेत; पश्चिम में सूर्य के खेत की सीमा; उत्तर में महीपाल के खेत की सीमा।

पंचम [खण्ड की] पौने दो पाटक की परिमाण की सीमा – पूर्व में खण्ड विडुग्गुरिक का खेत; दक्षिण में मणिभद्र का खेत; पश्चिम में यज्ञरात का खेत; उत्तर में नादडदक ग्राम की सीमा।

विहार की तलभूमि का सीमा-निर्धारण — पूर्व में चूड़ामणिनगर और श्रीनौभोग के बीच जोला (खाई); दक्षिण में गणेश्वर विलाल की पुष्करणी का नव-खात (नाव निकलने का मार्ग); पश्चिम में प्रद्युम्नेश्वर (शिव) देवकुल (मन्दिर) का क्षेत्र-प्रान्त उत्तर में प्रडामार नौयोग खात।

इसी विहार की प्रावेश्य (कर), प्रतिकर मुक्त हज्जिक (दलदल), खिल भूमि का सीमांकन — पूर्व में प्रद्युम्नेश्वर (शिव) का देवकुल (मन्दिर) के खेत की सीमा; दक्षिण में बौद्ध भिक्षु आचार्य जितसेन के विहार क्षेत्र का अन्त; पश्चिम में हचात गंग (?); उत्तर में दण्ड पुष्करणी

संवत् १८८ पौष दिवस २४॥

नालंदा मुद्रा अभिलेख

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