हुविष्क का मथुरा अभिलेख

भूमिका

हुविष्क का मथुरा अभिलेख संस्कृत प्रभावित प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में है। यह लेख मथुरा जनपद में मथुरी गोवर्धन जानेवाले मार्ग पर स्थित चौरासी जैन-मन्दिर के पास एक कुएँ एक स्तम्भ मिला था। अब यह मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित है। इसी स्तम्भ पर यह अभिलेख अंकित है।

संक्षिप्त परिचय

नाम :- हुविष्क का मथुरा अभिलेख ( Mathura Inscription of Huvishka ) या हुविष्क का मथुरा प्रस्तर-अभिलेख ( Mathura Stone Inscription of Huvishka )

स्थान :- मथुरा जनपद, उत्तर प्रदेश

भाषा :- प्राकृत ( संस्कृत प्रभावित )

लिपि :- ब्राह्मी

समय :- हुविष्क का शासनकाल

विषय : धार्मिक पुण्य के अर्जनार्थ अक्षयनीवि का दान।

हुविष्क का मथुरा अभिलेख : मूलपाठ

१. सिद्धम् [ ॥ ] संवत्सरे २० [ + ] ८ गुर्प्पिये दिवसे १ [ । ] अयं पुण्य—

२. शाला प्राचिनीकन सरुकमान-पुत्रेण खरासले—

३. र-पतिन वकन पतिना अक्षय-नीवि दिन्ना [ । ] ततो वृ [ द्धि ]

४. तो मासानुमासं शुद्धस्य चतुदिशि पुण्य-शा [ ला ]—

५. यं ब्राह्मण-शतं परिविदितव्यं [ । ] दिवसे दिव [ से ]

६. च पुण्य-शालाये द्वार-मुले धारिये साद्यं-सक्तनां आ—

७. ढका ३ लवण प्रस्थो १ शक्त प्रस्थो १ हरित-कलापक

८. घटक [ । ] ३ मल्लक [ ा ] ५ [ । ] एतं अनाधानां कृतेन दा [ तव्य ]

९. वभुक्षितन पिबसितनं [ । ] च चत्र पुण्य तं देवपुत्रस्य

१०. षाहिस्य पुविष्कस्य [ । ] येषा च देवपुत्रो प्रियः तेषामणि पुण्य

११. भवतु [ । ] सर्वायि च पृथिवीये पुण्य भवतु [ । ] अक्षय-निवि दिन्ना

१२. ……… [ रा ] क-क्षेणीये पुराण-शत् ५०० [ + ] ५० समितकर श्रेणी—

१३. [ ये च ] पुराण-शत ५०० [ + ] ५० [ ॥ ]

हिन्दी अनुवाद

संवत् २८ के गुर्प्पिय [ मास ] का दिवस १। इस पुण्यशाला को खरासलेरपति, बकनपति सरुकमान के पुत्र प्राचिनीकन ने अक्षयनीवि दिया। उसकी वृद्धि ( सूद ) से प्रत्येक मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को पुण्यशाला में सौ ब्राह्मणों को भोजन कराया जाय। [ और ] प्रतिदिन पुण्यशाला के सामने ( द्वार-मूल ) तीन आढ़क ताजा सत्तू, एक प्रस्थ नमक, एक प्रस्थ शुक्त, ताजा कलापक ( मूली? ), तीन घटक ( घड़े ) और पाँच मल्लक ( थाली ) रखे जायँ। इन्हें अनाथों तथा भूखे-प्यासों को दिया जाय। इससे जो पुण्य हो वह देवपुत्र षाहि पुविष्क का है। इसका पुण्य उसे हो जो देवपुत्र के प्रिय हैं। इसका पुण्य सारी पृथ्वी के लोगों को हो। [ इस ] अक्षय-नीवि [ के रूप में ]— राक श्रेणी को ५५० पुराण और समितकर श्रेणी को ५५० पुराण [ दिया गया ]॥

  • यह यूनानी ( मकदूनी, मेसिडोनियन ) मास का नाम है जो मोटे रूप में भारतीय भाद्रपद-आश्विन में पड़ता था।
  • अक्षयनीवि ऐसी दान व्यवस्था को कहते हैं जिसमें मूल-धन में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता; केवल उसके सूद का ही उपयोग हो सकता है।

हुविष्क का मथुरा अभिलेख : विश्लेषण

अब तक इस अभिलेख के पंक्ति १० में हुविष्क पढ़ा गया था और उसका महत्त्व इस दृष्टि से माना जाता रहा है कि वहाँ हुविष्क का अद्यतन लेख है। किन्तु इस लेख में जो नाम है उसका उल्लेख मात्र देवपुत्र षाहि के रूप में हुआ है।

हुविष्क के लिए महाराज सरीखे उपाधि का प्रयोग कई वर्ष पश्चात् ही उपलब्ध होता है। इस कारण अनेक विद्वानों ने अनुमान किया था कि इस अभिलेख के समय तक हुविष्क सत्तारूढ़ नहीं हुआ था। किन्तु अभी हाल ही में सरोजिनी कुलश्रेष्ठ ने इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि उत्कीर्ण लेख में नाम स्पष्ट अक्षरों में पुविष्क है हुविष्क नहीं।

इस अभिलेखों को प्रकाशित करते समय स्टेन कोनो ने भी पुविष्क ही पढ़ा था और इस बात को स्पष्ट रूप से पाद-टिप्पणी में स्वीकार भी किया है। किन्तु पुविष्क अथवा विष्क नामान्त किसी अन्य नाम की जानकारी के अभाव में ही उन्होंने हुविष्क पाठ ग्रहण किया था। उसी को दिनेशचन्द्र सरकार ने भी ग्रहण किया है किन्तु वे लेख में पुविष्क होने की बात पर मौन बने रहे। इसके कारण ही इसके हुविष्क का लेख होने का भ्रम उत्पन्न गया है।

इसके साथ ही कुलश्रेष्ठ ने अभिलेख में पुविष्क के लिए प्रयुक्त विरुद षाहि की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए इस तथ्य को भी उजागर किया है कि वर्ष ८४ से पूर्व कनिष्क, हुविष्क और वासुदेव के जितने भी अभिलेख हैं, उन सब में समान रूप हो मात्र ‘महाराज राजतिराज देवपुत्र’ विरुद का प्रयोग किया गया है। वर्ष ८४ के बाद के वासुदेव के जो अभिलेख हैं उसमें तथा उन मूर्तियों के आलेखों में, जिन्हें लोहिजाँ और रोजेनफील्ड ने कला-शैली के आधार पर वासुदेवोत्तर काल के होने की बात कही है और कहा है कि उन पर तिथियाँ शतसंख्या के विलोपन के साथ अंकित की गयी हैं। एक और अतिरिक्त विरुद ‘षाहि’ का प्रयोग किया गया है।

अतः इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में यह लेख पर भी तिथि शत-संख्या विलुप्त [ १ ] २८ है। और उसे वासुदेव-पूर्व के काल में कदापि नहीं रखा जा सकता।

यह स्वीकार करने के साथ कि यह लेख वासुदेव के काल के बाद का है, यह भी उल्लेखनीय है कि साँची से वाशिष्क का वर्ष [ १ ] २८ का जो लेख प्राप्त है उससे और सिक्कों से उसका शासक होगा सिद्ध है।

ऐसी अवस्था में यह मानना कि पुविष्क अथवा हुविष्क वर्ष [ १ ] २८ में शासक रहा होगा। दुरुह कल्पना है। वास्तव में अभिलेख में पुविष्क ( हुविष्क ) का उल्लेख इस अभिलेख में इस रूप में नहीं है। उसमें उसे केवल देवपुत्र षाहि कहा गया है। यदि वह शासक होता तो उसका उल्लेख संवत्सर के प्रसंग में उसके सम्पूर्ण उपाधि सहित महाराज राजतिराज देवपुत्र षाहि पु [ हु ] विष्क के रूप में किया जाता।

यही नहीं, इस अभिलेख के माध्यम से अक्षयनीवि प्रतिष्ठापित करने वाला एक शासनाधिकारी था। उसने उसका पुण्य लाभ भी पुविष्क ( हुविष्क ) को भेंट किया है; उसका उल्लेख वह मात्र देवपुत्र षाहि से करने का अविनयन कभी न करता। अतः यह अनुमान करना अनुचित न होगा कि यह पुविष्क ( हुविष्क ) मात्र कोई राज-कुलीन, सम्भवतः राजकुमार एवं वाशिष्क का भाई अथवा पुत्र रहा होगा।

स्टेन कोनो की धारणा है कि अक्षयनीवि के साथ पुण्यशाला का भी दान दिया गया था। किन्तु इस प्रकार की कोई बात अभिलेख की शब्दावली में नहीं झलकती। बात केवल अक्षयनीवि की है। अक्षय नीवि के रूप में दाता ने १,१०० पुराण दो श्रेणियों के पास आधा-आधा जमा किया था।

श्रेणी व्यवसायिकों की संस्था थी जो व्यापार के साथ-साथ बैंकों का भी काम करती थी। इन श्रेणियों की काफी बड़ी साख थी। अभिलेखों से प्रकट होता है कि दान में दिये गये धन का उत्तरदायित्व प्रायः श्रेणियों को ही सौंपा जाता था। इस अभिलेख के अनुसार जिन दो श्रेणियों को धन सौंपा गया था, उनमें एक का नाम तो अक्षर-क्षय ( मिटने ) के कारण नहीं जाना जा सकता, दूसरी श्रेणी का नाम समितकर श्रेणी था। सम्भवतः यह श्रेणी आटा पीसने या बेचनेवालों की थी। इसको दायित्व कदाचित् इस कारण ही सौंपा गया था कि वह आटे-सत्तू आदि की व्यवस्था सुगमता से कर सकता था।

इस अक्षयनीवि द्वारा मास में एक बार १०० ब्राह्मणों को भोजन कराने के साथ-साथ नित्य भूखे-प्यासों को भी खिलाने-पिलाने की व्यवस्था की गयी है। इसके लिए नित्य ३ आढ़क ताजा ( सद्यः ) पिसा सत्तू, १ प्रस्थ लवण ( नमक ), १ प्रस्थ शुक्त ( इसका तात्पर्य चटनी, खटाई अथवा अचार से है ) और ताजी मूली तथा ३ घड़े और ५ थाली ( मल्लक ) रखने की व्यवस्था है।

  • आढ़त लगभग २० सेर का होता था।
  • प्रस्थ सम्भवतः चौथाई आढ़त को कहते थे।
  • हरित-कलापक-घटक को संयुक्त मान कर दिनेशचन्द्र सरकार ने संदिग्ध भाव से अर्थ किया है Jars of a preparation of differentgreen vegetables अर्थात् वे घड़ों में सब्जी रखने की कल्पना करते हैं। परन्तु उन्होंने इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं दिया है कि सत्तू के साथ पकी सब्जी का प्रयोग नहीं होता। स्टेन कोनो ने मल्लक को भी इसके साथ समेट लिया है। वे हरी सब्जी की मात्रा ३ घटक और ५ मल्लक बताते हैं। पर हरित-कलपक, घटक और मल्लक तीनों, तीन स्वतन्त्र वस्तुएँ हैं और वे वस्तुतः तीनों ही सत्तू खाने के निमित्त आवश्यक हैं।

इस सम्बन्ध में द्रष्टव्य है कि सत्तू के साथ नमक, अचार और मूली का व्यवहार आज भी होता है और सत्तू बेचने वाले ये सभी वस्तुएँ प्रस्तुत करते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के अनेक स्थानों में वे लोग खाने के लिए पानी और थाली की भी व्यवस्था रखते हैं। उनकी यह व्यवस्था ठीक वैसी ही है, जैसी कि इस लेख में उल्लिखित है।

इस अभिलेख में अक्षयनीवि के रूप में दिये गये धन का उल्लेख पुराण के रूप में किया गया है। सिक्कों के रूप में पुराण का उल्लेख अन्यत्र केवल मनुस्मृति में हुआ है। इसका तात्पर्य कदाचित् चाँदी के कार्षापण नामक सिक्कों से है जो कुषाणकाल में सम-सामयिक चाँदी के सिक्कों के अभाव में जन-सामान्य में प्रचलित रहे होंगे। इस काल में इस प्रकार के सिक्कों का महत्त्व था, यह इस तथ्य से प्रकट होता है कि इस काल में इन प्राचीन सिक्कों की नकल लोग ढालकर बनाने लगे थे और इन सिक्कों के इस काल के बने साँचे अनेक स्थलों से प्राप्त हुए हैं।

अभिलेख की दृष्टि से पंक्ति संख्या २ और ३ विचारणीय है। स्टेन कोनो ने प्रचिनीकन सरुकमान को प्रचीनी कनसरुकमान के रूप में और प्राचिनी को पुण्यशाला के विशेषण के रूप में ग्रहण किया है। उनका कहना हैं कि पूर्वी और पश्चिमी दो शालायें थीं। उनमें विभेद करने के लिए इसका प्रयोग हुआ है। पंक्ति संख्या ४ में चतुदिशि पुण्यशाला पढ़कर उन्होंने पुण्यशाला को चारों ओर से खुला अनुमान किया है। किन्तु इस प्रकार का कोई भाव अभिलेख में नहीं है।

स्टेन कोनो ने कनसरुकमान-पुत्र का तात्पर्य कनसरुकमान वंश ग्रहण किया है। पर वे मानते हैं कि कनसरुकमान व्यक्तिवाचक नाम भी हो सकता है।

काशी प्रसाद जायसवाल ने प्राचिनीकन को प्राची तिकन के रूप में पढ़ा है और तिकन तो तुर्की उपाधि तिगिन अनुमान किया है। किन्तु नीकन पाठ स्पष्ट है। अतः इस लेख में तिकिन जैसी किसी उपाधि के उल्लेख की बात नहीं उठती। वे प्राची तिकिन को रुकमान का पुत्र बताते हैं।

दिनेशचन्द्र सरकार उसे तीन रूपों में ग्रहण करते हैं :- (१) प्राचीनी-केन सरुकमाण पुत्र; (२) प्राचीना ( पूर्वोदिग्वर्तिनी अथवा पुरातनी ) कनसरुकमाण-पुत्र; (३) प्राचीनीकस्य रुकमाण पुत्र। डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त जी के विचार से प्रथम रूप का कोई तुक नहीं जान पड़ता। प्राचीनीक को स्थानवाची माना जा सकता है पर दूसरे और तीसरे रूप के ग्रहण करने में कठिनाई यह है कि इन रूपों में पुत्र का नाम उपलब्ध नहीं होता, जो आवश्यक और अनिवार्य है।

प्राचीनीकन को अभिलेख में खरासलेर-पति और बकन पति कहा गया है। खरासलेर का तात्पर्य किसी स्थान से ग्रहण कर उसे उस स्थान का शासक कहा जा सकता है। वकनपति शब्द का उल्लेख मथुरा से प्राप्त एक अन्य कुषाण कालीन अभिलेख में भी मिलता है। इस शब्द के ईरानी होने की कल्पना की जाती है और उसका तात्पर्य ‘मन्दिर’ का प्रबन्ध अधिकारी समझा जाता है।

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