सारनाथ स्तम्भलेख

भूमिका

सारनाथ स्तम्भलेख इस दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि एक तो महात्मा बुद्ध ने आपना पहला उपदेश ( धर्मचक्रप्रवर्तन ) यहीं पर दिया था। दूसरे; इसमें सम्राट अशोक ने संघभेद को रोकने के लिए आदेश दिया है। सारनाथ को प्रचीनकाल में मृगदाव और ऋषिपत्तन भी कहते थे।

सारनाथ स्तम्भलेख : संक्षिप्त परिचय

नाम :- सारनाथ स्तम्भलेख, सारनाथ लघु स्तम्भलेख ( Sarnath Minor Rock Edict )

स्थान :- सारनाथ, वाराणसी, उत्तर प्रदेश

भाषा :- प्राकृत

लिपि :- ब्राह्मी

विषय :- भिक्षु और भिक्षुणियों को आदेश, संघ की रक्षा।

सारनाथ स्तम्भलेख : मूल-पाठ

१ – देवा [ नंपिये ]

२ – ए ळ

३ – पाट [ लि पु त ] [ न स कि ] ये केन पि संघे भेतवे ( । ) ए चुं खो

४ – भिखू वा भिखुनि वा संघं भाखति से ओदातानि दुसानि सनंधापयि या आनावाससि

५ – आवासयिये ( । ) हेवं इयं सासने भिखु-संघसि च भिखुनि-संघसि च विनपयितविये ( । )

६ – हेवं देवानंपिये आहा ( । ) हेदिसा च इका लिपी तुफाकंतिकं हुवा ति संल्लनसि निखिता ( । )

७ – इकं च लिपि हेदिसमेव उपासकानंतिकं निखिपाथ ( । ) ते पि च उपासका अनु-पोसथं यावु

८ – एतमेव सासनं विस्वंसयितवे ( । ) अनु-पोसथं च धुवाये इकिके महामाते पोसथाये

९ – याति एतमेव सासनं विस्वंसयितवे आजानितवे च ( । ) आवते च तुफाकं आहाले

१० – सवत विवासयाथ तुफे एतेन वियंजनेन ( । ) हेमेव सवेसु कोट-विषवेतु एतेन

११ – वियंजनेन विवासापायाथा ( ॥ )

  • यह ज्ञापन पाटलिपुत्र के महामात्र को मुख्य रुप से सम्बोधित है परन्तु इसका उपदेश भिक्षु व भिक्षुणी; उपासक व उपासिकाओं; अधिकारियों व जनता को भी दिया गया है। यदि यह कौशाम्बी के महामात्र को आदेशित होता तो पाटलिपुत्र की संगीति का उल्लेख इसमें अवश्य हुआ होता।

संस्कृत रूपान्तरण

देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा आज्ञापयति ( पाटलिपुत्रे महामात्राः ते मया संघः समग्रः कृतः ) पाटलिपुत्रे तथाऽन्यत्र वा न येन केनापि संघो भक्तव्यः। यः तु खलु भिक्षुः वा भिक्षुणी वा संघं भनक्ति सः अवदाताणि दूष्याणि संनिधाप्याऽनावासमावासयितव्यः। एवं इदं शासनं भिक्षु संघे च भिक्षुणी संघे च विज्ञापयितव्यम्। एवं देवानां प्रिय आह। ईदशी चैका लिपिः युष्मदन्तिके भवत्विति संसरणे निक्षिप्ता एका च लिपि इदशीमेव उपासकान्तिके निक्षिप्तः। तेऽपि च। उपासका अनुपोषधं यान्तु एतदेव शासनं विश्वासयितुम अनुपोष्धं च ध्रुवायामेको महामात्रः पोषधाय याति एतदेव शासनं विश्वासयितुम आज्ञापयितुं च। यावच्च युष्माकं आहारः सर्वत्र विवासयत यूयं एतेन व्यञ्जनेन एवमेव सर्वेषु कोष्ठविषयेष्वेतेन व्यञ्जनेन विवासयत।

हिन्दी अर्थान्तर

१ – देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा आज्ञा देते हैं।

२ – जो पाटलिपुत्र के महामात्र हैं उनके द्वारा संघ को संगठित किया गया है।

३ – पाटलिपुत्र तथा अन्य नगरों में ऐसा करना चाहिए जिससे किसी के द्वारा संघ भेद न हो सके। जो भी कोई

४ – भिक्षु या भिक्षुणी संघ में भेद उत्पन्न करेगा उसे श्वेत वस्त्र धारण कराकर एकान्त स्थान में

५ – रखा जाएगा। यह आज्ञा भिक्षु संघ तथा भिक्षुणी संघ को बता देना चाहिए।

६ – इस प्रकार देवताओं के प्रिय ने कहा। इस प्रकार का एक लेख आप लोगों के समीप इकट्ठा होने के स्थान पर होना चाहिए।

७ – और इसी प्रकार का एक लेख उपासकों ( गृहस्थों ) के पास रखें। वे उपासक भी प्रत्येक उपवास के दिन आवें ।

८ – इस शासन में विश्वास करें। उपवास के दिन निश्चय ही प्रत्येक महामात्र उपवास के लिए

९- आयेगा। इस आज्ञापन में विश्वास करने एवं इसे अच्छी तरह जानने के लिए और जितना आप लोगों का आहार कार्यक्षेत्र है।

१० – सर्वत्र राजपुरुषों को भेजिए इस शासन का अक्षरानुसार पालन करने के लिए। इसी प्रकार सभी कोटों तथा विषयों में इस शासन के

११ – अक्षरानुसार अधिकारियों को भेजिये।

टिप्पणी

सारनाथ स्तम्भलेख पाटलिपुत्र के महामात्र को निर्देशित या आदेशित करता है कि संघभेद न होने दिया जाय। साथ ही जो कोई भिक्षु या भिक्षुणी संघभेद का कारण बने उसे दण्ड दिया जाय। यह दण्ड होगा कि उसे श्वेत वस्त्र पहनाकर एकांतवास दिया जाय।

इस प्रकार अशोक द्वारा बौद्ध संघ में उठ रहे विवादों और विघनात्मक शक्तियों को नियंत्रित करने का प्रयास का साक्ष्य यह अभिलेख है।

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