सारनाथ बोधिसत्त्व अभिलेख

भूमिका

सारनाथ बोधिसत्त्व अभिलेख कनिष्क के तृतीय राज्यवर्ष का है। यह अभिलेख संस्कृत प्रभावित प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में अंकित है। यह अभिलेख सारनाथ के एक बोधिसत्त्व ( बोधिसत्व  ) की प्रतिमा और उसके छत्र पर अंकित है और वर्तमान में या सारनाथ संग्रहालय में सुरक्षित है।

सारनाथ बोधिसत्त्व अभिलेख : संक्षिप्त परिचय

नाम :- सारनाथ बोधिसत्त्व अभिलेख ( Sarnath Bodhisattva Inscription ), कनिष्क प्रथम कालीन सारनाथ बौद्ध प्रतिमा अभिलेख ( Sarnath Buddhist Image Inscription of the time of Kanishka – I )

स्थान :- सारनाथ, वाराणसी जनपद, उत्तर प्रदेश

भाषा :- प्राकृत ( संस्कृत प्रभावित )

लिपि :- ब्राह्मी

समय :- ८१ ई०, ( कनिष्क के राज्यारोहण का तृतीय वर्ष अर्थात् सं० ३ + ७८ शक सं० = ८१ ई० )

विषय :- भिक्षु बल द्वारा विभिन्न लोगों के साथ, छत्र और यष्टि की स्थापना, लोगों की सुख-शान्ति व हित के लिये।

सारनाथ बोधिसत्त्व अभिलेख : मूलपाठ

प्रथम

१. महारजस्य कणिष्कस्य सं- ३ हे ३ दि० २० [ + ] २

२. एताये पूर्वये भिक्षुस्य पुष्पबुद्धिस्य सद्ध्येवि-

३. हारिस्य भिक्षुस्य बलस्य त्रेपिटकस्य

४. बोधिसत्त्वो छत्रयष्टि [ च ] प्रतिष्ठापितो

५. बाराणसिये भगवतो चंकमे महा माता [ ा  ] –

६. पितिहि सहा उपद्ध्याचर्येहि सद्ध्येविहारि-

७. हि अंतेवासिकेहि च सहा बुद्धमित्रये त्रेपिटिक-

८. ये सहा क्षत्रपेण वनस्परेन खरपल्ला-

९. नेन च सहा च [ तु ] हि परिषाहि सर्वसत्वं

१०. हितासुखार्थं ( ॥ )

  • कुछ विद्वान इसको २ पढ़ते हैं।

संस्कृत छाया

महाराजस्य कनिष्कस्य संवत्सरे ३ हेमन्त ३ दिवसे २२ एतस्यां पूर्वायां भिक्षौ पुष्यबुद्धे सार्द्धं विहारिण: भिक्षो बलस्य त्रैपिटकस्य बोधिसत्व: छत्रयष्टिः च प्रतिष्ठापितौ वाराणस्यां भगवतः चंक्रमे सह मातृपितृभ्यां सह उपाध्याचार्यै: सार्द्ध विहारिभिः अन्तेवासिकै: च सहबुद्धमित्रया त्रैपिटक्या सह क्षत्रपेण वनस्परेण खरपल्‍लानेन च सह च चतसृभिः परिषभि-सर्वसत्त्वानां हितसुखार्थम्‌॥

हिन्दी अनुवाद

महाराज कनिष्क के [ राज्य ] संवत्सर ३ [ का ] हेमन्त [ ऋतु का मास ] ३ का दिन २२। इस पूर्वकथित दिवस को भिक्षु पुष्यवृद्ध के साथ तीर्थ-यात्रा पर निकले हुए त्रिपिटकविद् भिक्षु बल ने बोधिसत्त्व [ की मूर्ति ] तथा छत्रयष्टि वाराणसी में भगवान् के चक्रम [ गन्धकुटी विहार के प्रांगण ]में माता-पिता के साथ, उपाध्याय आचार्य के साथ, बिहार के अन्तेवासियों के साथ और त्रिपिटकविद् बुद्धमित्र के साथ और क्षत्रप वनस्पर तथा खरपल्लान के साथ और परिषद् चतुर्वर्ग के साथ सर्वसत्वों ( जीवों ) के हित और सुख के लिए स्थापित किया।

  • महावंश के अनुसार चंक्रम विहार की उस समतल भूमि को कहते हैं जिसका उपयोग टहलने अथवा उपासना के लिए किया जाता है।
  • अभिलेख के दूसरे अंश से ज्ञात होता है कि खरपल्लान महाक्षत्रप था।
  • बौद्धों के चार वर्ग हैं :- भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक और उपासिका।

द्वितीय

१. भिक्षुस्य बलस्य त्रेपिटकस्य बोधिसत्वो प्रतिष्ठापितो।

२. महाक्षत्रपेन खरपल्लानेन सहा क्षत्रपेन वनष्परेन॥

संस्कृत छाया

भिक्षा: बलस्य त्रैपिटकस्य बोधिसत्त्व: प्रतिष्ठापितः। महाक्षत्रपेण खरपलल्‍लानेन सह क्षत्रपेण वनस्परेण।

हिन्दी अनुवाद

त्रिपिटकविद् भिक्षु बल द्वारा प्रतिष्ठापित बोधिसत्त्व। महाक्षत्रप खरपल्लान और क्षत्रप वनस्पर के साथ॥

तृतीय

१. महाराजस्य क [ णिकस्य ] सं ३ हे ३ दि २० [ + ] [ २ ]

२. एतये पूर्वये भिक्षुस्य बलस्य त्रेपिट [ कस्य ]

३. बोधिसत्वो छत्रय [ ष्टि ] [ च ] प्रतिष्ठापितो [ । ]

संस्कृत छाया

महाराजस्य कनिष्कस्य संवत्सरे ३ हेमन्त ३ दिवसे २२ एतस्यां पूर्वायं भिक्षो: बलस्य त्रैपिटकस्य बोधिसत्त्व: छत्रयष्टि: प्रतिष्ठापितौ॥

हिन्दी अनुवाद

महाराज कनिष्क के [ राज्य ] संवत्सर ३ [ का ] हेमन्त [ ऋतु का मास ] ३ का दिन २२। इस पूर्वकथित दिन को त्रिपिटकविद् भिक्षु बल द्वारा प्रतिष्ठापित बोधिसत्त्व और छत्र यष्टि।

सारनाथ बोधिसत्त्व अभिलेख : महत्त्व

यह अभिलेख तीन खण्डों का है। पहला बड़ा है तथा शेष दो अत्यन्त छोटे हैं। इसमें केवल बौद्ध धर्म स्थल, देवता आदि की चर्चा की गयी है।यह कनिष्क सं० ३ के हेमन्त ऋतु के २२वें दिन उत्कीर्ण कराया गया था। इस अभिलेख में छत्र की भी चर्चा है जो प्राप्त नहीं हो सका हैं। परन्तु प्रतिमा और यष्टि ही मिले हैं और वो अलग-अलग मिले हैं।

यह अभिलेख कनिष्क के शासनकाल का दूसरा अभिलेख माना जाता है। अभी हाल में कौशाम्बी से कनिष्क के शासनकाल के दूसरे वर्ष का अभिलेख मिल जाने से पहला अभिलेख का स्थान कौशाम्बी अभिलेख को माना जाता है।

शक सम्वत् और कनिष्क

  • फ्लीट और केनेडी के अनुसार कनिष्क प्रथम का राज्यारोहण ५७ ई०पू० में हुआ और वही विक्रम सम्वत् का प्रवर्तक है।
  • रमेशचन्द्र मजूमदार उसके राज्याभिषेक की तिथि २४८ ई० मानकर उसको त्रैकुटक-कलचुरि-चेदि सम्वत् का प्रवर्तनकर्ता बताते हैं।
  • मार्शल, स्टेन कोनो और स्मिथ कनिष्क के राज्याभिषेक की तिथि १२५ ई० बताते हैं
  • घिर्शमन १४४ ई० बताते हैं।

परन्तु उपर्युक्त सभी तिथियाँ तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती हैं।

फार्ग्गूसन, ओल्डेनवर्ग, थामस, बनर्जी, रैप्सन और हेमचंद्रराय चौधरी कनिष्क के राज्याभिषेक की तिथि ७८ ई० मानते हैं। इससे ए०एल० बॉशम भी सहमत हैं। इन विद्वानों की मत है कि कालान्तर में शकों द्वारा इसके निरन्तर प्रयोग से यही सम्वत् शक सम्वत् के नाम से प्रसिद्ध हो गया। वर्तमान में यही भारत का राष्ट्रीय सम्वत् है।

राज्य विस्तार की जानकारी

सारनाथ बोधिसत्त्व प्रतिमा अभिलेख के साथ अन्य पुरातात्त्विक साक्ष्यों व अभिलेखों को मिलाकर विचार करने पर कनिष्क प्रथम के पूर्वी राज्य विस्तार का ज्ञान होता है।

  • प्रस्तुत अभिलेख ही कनिष्क प्रथम के राज्यारोहण के तृतीय शासनकाल का है अर्थात् ८१ ई०।
  • बिहार तथा उत्तर बंगाल से उसके शासन काल के बहुसंख्यक सिक्के मिलते हैं।
  • ‘श्रीधर्मपिटकनिदानसूत्र’ के चीनी भाषा में अनुवाद से ज्ञात होता है कि कनिष्क ने पाटलिपुत्र के राजा पर आक्रमण कर उसे बुरी तरह परास्त किया तथा हर्जाने के रूप में एक बहुत बड़ी क्षतिपूर्ति को माँग की। परन्तु इसके बदले में वह अश्वघोष लेखक, बुद्ध का भिक्षा पात्र और एक अद्भुत मुर्गां पाकर ही संतुष्ट हो गया।
  • स्पूनर ने पाटलिपुत्र की खुदाई के दौरान कुछ कुषाण सिक्के प्राप्त किये थे।
  • सिक्कों का एक ढेर बक्सर से मिला है।
  • वैशाली और कुम्रहार से भी कुषाण सिक्के मिलते हैं।
  • बोधगया से हुविष्क के समय का मृण्मूर्तिफलक ( Terracotta Plaque ) मिला है।

ये सभी साक्ष्य बिहार पर कनिष्क के अधिकार को पुष्टि करते हैं।

बिहार के आगे बंगाल के कई स्थानों, जैसे- तामलुक ( ताम्रलिप्ति ) और महास्थान से कनिष्क के सिक्के मिलते है। दक्षिण-पूर्व में उड़ीसा प्रान्त के मयूरभंज, शिशुपालगढ़, पुरी गंजाम आदि से कनिष्क के सिक्के मिलते हैं। किन्तु मात्र सिक्कों के प्रसार से ही कनिष्क के साम्राज्य विस्तार का निष्कर्ष निकाल लेना युक्तिसंगत नहीं लगता। सिक्के व्यापारिक लेनदेन में भी एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाये जाते थे।

तथापि पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार पर कनिष्क का अधिकार सुनिश्चित है।

अभी हाल ही में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के डॉ० के०के० सिन्हा तथा बी०पी० सिंह के निर्देशन में बलिया जिले के खैराडीह नामक स्थान पर खुदाई की गयी है जिसके परिणामस्वरूप एक अत्यन्त समृद्धिशाली कुषाणकालीन बस्ती का पता चला है। घाघरा नदी के तट पर स्थित यह नगर एक प्रमुख व्यापारिक स्थल रहा होगा।

इससे भी पूर्वी उत्तर प्रदेश पर कुषाणों का आधिपत्य प्रमाणित होता है और यह कनिष्क के काल में ही संभव हुआ होगा।

कौशाम्बी और श्रावस्ती से प्राप्त बुद्ध प्रतिमाओं की चरण-चोटियों पर उत्कीर्ण अभिलेखों में कनिष्क के शासन काल का उल्लेख मिलता है। कौशाम्बी से कनिष्क की एक मुहर ( Seal ) भी मिली है।

इन प्रमाणों से ऐसा निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कनिष्क प्रथम के समय पूर्वी उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बिहार उसके शासन क्षेत्र में थे।

धार्मिक महत्त्व

यह अभिलेख सारनाथ से प्राप्त बोधिसत्त्व की प्रतिमा तथा अठपहले प्रस्तर स्तम्भ के तीन ओर अंकित है। इसको लिखवाने वाले इसके दाता भिक्षु बल है। इसके द्वारा श्रावस्ती में भी इसी प्रकार के दान का ज्ञान वहाँ से मिले बोधिसत्त्व प्रतिमा और यष्टि पर अंकित अभिलेख से मिलता होता है। ऐसा लगता है कि भिक्षु बल ने विविध बौद्ध तीर्थों की यात्रा किये थे।

इसमें त्रिपिटकविद् बुद्धमित्रा का उल्लेख मिलता है। मथुरा के हुविष्क के शासनकाल के ३३वें वर्ष के बुद्ध मूर्ति अभिलेख में इसको भिक्षु बल की शिष्या बताया गया है।

इस अभिलेख में त्रिपिटकाचार्य शब्द का प्रयुक्त है। यह त्रिपिटकों के महत्त्व को दर्शाता है।

बोधिसत्त्व समाज में आदरणीय थे और लोकहितार्थ उनकी पूजा की जाती थी।

परिषद शब्द का अर्थ डॉ० सरकार के अनुसार – भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक व उपासिकाओं से है।

चक्रम का सम्बन्ध बौद्ध धर्म से है। सरकार के अनुसार इसका अर्थ भगवान बुद्ध द्वारा वाराणसी में चक्रम पथ से है। या सारनाथ का धर्मचक्रप्रवर्तन भी है सकता है।

वाराणसी बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र था। साथ ही कौशाम्बी, श्रावस्ती, मथुरा से इसी तरह के अभिलेखीय साक्ष्यों की प्राप्ति इन स्थलों के पारस्परिक सम्बंध और बौद्धधर्म के तीर्थस्थलों के रूप में जानकारी प्राप्त होती है।

कलात्मक महत्त्व

कला की दृष्टि से ज्ञात होता है कि मथुरा कुषाण कला का एक विकसित केन्द्र था। यहाँ से मृतियाँ निर्मित होकर बाहर भेजी जाती थीं। इस केन्द्र ( मथुरा ) की मूर्तियों के लिए लाल चित्तीदार पत्थरों को फतेहपुरसीकरी की खदान से निकाला जाता था। अभी तक बोधिसत्त्व की मूर्तियों का स्वरूप विकसित नहीं था। इसी से इसका नाम तथा विशेषताएँ उत्कीर्ण करानी पड़ती थीं। अतः बाद के विकसित अवस्था के किसी भी मूर्तिपर ऐसा अभिलेख नहीं ज्ञात होता। इसको स्थापित करने वाले भिक्षु बल थे। वह बौद्ध संघ का एक परिब्राजक ( संन्यासी ) थे। उसने संघ के सहयोग से इसका निर्माण कराया होगा। अतः संघ भी कला के निर्माण सक्रिय भाग लेता था।

रेह अभिलेख ( Reh Inscription )

 

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