समुद्रगुप्त का गया ताम्रपत्र

भूमिका

समुद्रगुप्त का गया ताम्रपत्र ( वर्ष ६ ) आठ इंच लम्बे और सात इंच से कुछ अधिक चौड़े ताम्र-फलक के एक ओर अंकित है। यह अलेक्ज़ेंडर कनिंघम ( A. Cunningham  ) को गया में मिला था। वह कहाँ निकला था इसकी किसी को कोई जानकारी नहीं है। वर्तमान समय में यह ब्रिटिश संग्रहालय में है। इसके साथ एक अण्डाकार मुहर जुड़ी हुई है। इस मुहर पर ऊपरी भाग में गरुड़ का अंकन है और नीचे पाँच पंक्तियों का लेख है। यह मुद्रा लेख अत्यन्त अस्पष्ट है; यत्र-तत्र कतिपय अक्षरों तथा अन्त में समुद्रगुप्त के अतिरिक्त और कुछ पढ़ा नहीं जा सका है। १८८३ ई० में कनिंघम ने इस अभिलेख के प्राप्ति की सूचना प्रकाशित की थी। उसके बाद फ्लीट ने सम्पादित कर प्रकाशित किया।

संक्षिप्त परिचय

नाम :- समुद्रगुप्त का गया ताम्रपत्र ( Gaya Copper-Plate of Samudragupta )

स्थान :- गया, बिहार

भाषा :- संस्कृत

लिपि :- ब्राह्मी ( उत्तरी रूप )

समय :- गुप्तकालीन

विषय :- अग्रहार दान का शासनादेश

समुद्रगुप्त का गया ताम्रपत्र : मूलपाठ

१. ॐ स्वस्ति [II] मह-नौ- हस्त्यश्व-जयस्कंधावाराजायोद्ध्या-वासका-त्सर्व्वराजोच्छेत्तुः पृ-

२. थिव्यामप्रतिरथस्य चतुरुदधि-सलिलस्वादित-यश[सो] धनद-वरुणेन्द्रा-

३. न्तक समस्य कृतान्त-परशोन्ययागतानेक-गो-हिरण्य-कोटि-प्रदस्य चिरोच्छ-

४. न्नश्वमेधाहर्त्तुः महाराज श्री-गुप्त-प्रपौत्रस्य महाराज-श्री-घटोत्कच-पौत्रस्य

५. महाराजाधिराज-श्री-चन्द्रगुप्त-पुत्रस्य लिच्छवि-दौहित्रस्य महादेव्यांकु-

६. मारदेव्यामुत्पन्नः परमभागवतो महाराजाधिराज-श्री-समुद्र-

७. गुप्तः गयावैषयिक-रेवतिकाग्रामे ब्राह्मण-पुरोग-ग्राम-वल-

८. त्कौषभ्यामाह। एवंचार्थं विदितम्बो भवत्वेश ग्रामो मया मातापित्तोरा-

९. त्मनश्च पुण्याभिवृद्धये भारद्वाज-सगोत्राय वह्वृचाय स[ब्र]ह्मचा-

१०. रिणे ब्राह्मण-गोपदेवस्वामिने सोपरिकरोद्धेसेनाग्रहारत्वेनाति-

११. सृष्टः [।] तद्युष्माभिरस्य श्रोतव्यमाज्ञा च कर्तव्या सर्वे [च] समुचिता ग्राम-प्र-

१२. त्यया मेय-हिरण्यादयो देयाः [।] न चैतत्प्रभृत्येतदाग्रहारिकेणान्यद्ग्रा-

१३. मादि-करद-कुटुम्बि-कारुकादयः प्रवेशयितव्याममन्यथा नियतमाग्र-

१४. हाराक्षेपः स्यादिति [॥] सम्वत् ९ वैशाख-दि १० [॥]

१५. अन्यग्रामाक्षपटलाधिकृत-द्यूत गोपस्वाम्यादेश-लिखितः [॥]

हिन्दी अनुवाद

ॐ स्वस्ति ! अयोध्या [नगर] स्थित महा नौ, हस्ति और अश्व से युक्त जयस्कन्धावार से सर्वराजोच्छेता, भूमण्डल में अप्रतिरथ, चारों समुद्रों के जल से आस्वादित यश वाले, धनद, वरुण, इन्द्र, यम के तुल्य, कृतान्त के परशु-स्वरूप, वैध ढंग से प्राप्त कोटि गौ और हिरण्य (धन) के दान-दाता, चिरकाल से उत्सन्न अश्वमेध के पुनस्थापक, महाराज श्रीगुप्त के प्रपौत्र, महाराज घटोत्कच के पौत्र, महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त के महादेवी कुमारदेवी से उत्पन्न पुत्र, लिच्छवि-दौहित्र परमभागवत महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्त गया विषय स्थित रेवतिका गाम के ब्राह्मण, पुरोग एवं वलत्कौषन से कहता है—

आप लोगों को विदित हो कि [अपने माता-पिता, एवं अपने पुण्य की वृद्धि के निमित्त ब्रह्मचारी ब्राह्मण गोपस्वामी के लिए उपरिकर सहित अग्रहार की सृष्टि करता हूँ। अतः आप सबका ध्यान इस बात की ओर जाना चाहिए तथा इस आज्ञा का पालन करना चाहिए। अब से ग्राम की परम्परा के अनुसार जो भी कर मेय अथवा हिरण्य देय हो, उन्हें दें। तथा अब से इस अग्रहार (दानभूमि) में करद (कर लेने वाले), कुटुम्बी, शिल्पी आदि हस्तक्षेप न करें अन्यथा इस अग्रहार सम्बन्धी नियमों का उल्लंघन होगा।

वर्ष ९ वैशाख [मास] दिवस १०। [यह पत्र] इस ग्राम के अक्षपटलाधिकृत दूत गोपस्वामी के आदेश से लिखा गया ।

महत्त्व

नालंदा और गया ताम्रपत्र दोनों ही समुद्रगुप्त द्वारा ब्राह्मणों को भूमि दान (अग्रहार) के शासनादेश हैं। नालन्दा ताम्रलेख समुद्रगुप्त ने अपने शासन के ५वें वर्ष में आनन्दपुर जयस्कन्धावार से और गया ताम्र शासन ९वें वर्ष में अयोध्या से प्रचलित किये थे।

अनेक विद्वानों ने इस दोनों ही ताम्र-शासनों को कूट (जाली) होने की सम्भावना व्यक्त की। फ्लीट ( Fleet ) के सामने केवल गया ताम्र-शासन था। उसे उन्होंने उसके मौल (असली) होने में दो कारणों से सन्देह प्रकट किया है —

१. वंश परिचय वाले अंश में समुद्रगुप्त के लिए प्रयुक्त विशेषण सम्बन्धकारक के हैं और उसका अपना नाम कर्ताकारक में है (श्री चन्द्रगुप्त पुत्रस्य लिच्छवि-दौहित्रस्य महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्तः)। इससे प्रकट होता है कि लेख के प्रारूपक ने इसे चन्द्रगुप्त अथवा किसी अन्य उत्तराधिकारी के शासन के अनुकरण पर प्रस्तुत किया है।

२. लेख के कुछ अक्षरों के रूप में प्राचीनता तो झलकती है पर अन्य अक्षरों के स्वरूप अपेक्षाकृत नवीन हैं। उनका यह भी कहना है कि इसमें प्रयुक्त ‘महानौ-हस्त्यश्व-जयस्कन्धावारात‘ आठवी शती के अभिलेखों में मिलते हैं। अतः यह लेख इसी काल में प्रस्तुत किया गया होगा।

दिनेशचन्द्र सरकार ने भी इस शासन के कूट होने की बात कही है किन्तु वे इसे फ्लीट की तरह आठवीं शती जितना पीछे का कूट नहीं समझते। वे इसे छठीं-सातवीं शती का कूट होने का अनुमान करते हैं।

नालन्दा-शासन को प्रकाशित करते हुए हीरानन्द शास्त्री ने उसे कूट मानने के लिए उन्हीं कारणों को दिखाया, जिनका उल्लेख फ्लीट ने गया-शासन के प्रसंग में किया है।

अमलानन्द घोष भी इसकी मौलिकता को सन्देह से परे नहीं मानते। वे नालन्दा और गया दोनों स्थानों के शासनों को मूल शासनों की प्रतिलिपि होने की सम्भावना स्वीकार करते हैं। उन्हें इन शासनों की प्रामणिकता में सन्देह इनमें दी गयी तिथियों को लेकर है। इनमें अंकित तिथियों को वे गुप्त संवत् समझते हैं। इस कारण वे कहते हैं कि ये तिथि समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त (द्वितीय) और कुमारगुप्त (प्रथम) की तीन पीढ़ियों के लिए असामान्य रूप से लम्बी अवधि प्रस्तुत करते हैं।

दिनेशचन्द्र सरकार ने इन शासनों को स्पष्ट रूप में कूट घोषित किया है। पूर्व-कथित विद्वानों द्वारा प्रस्तुत तर्क के अतिरिक्त उनका नवीन तर्क यह है कि —

(१) इन लेखों में बिना किसी भेद के ‘ब’ और ‘व’ का प्रयोग किया गया है।

(२) समुद्रगुप्त के लिए चिरोत्सत्र-अश्वमेधहर्तुः और परमभागवत विशेषणों का प्रयोग इस बात का द्योतक है कि ये लेख समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारियों के किन्हीं शासन से नकल किये गये हैं।

(३) राज्यवर्ष (अथवा गुप्त संवत) ५ से पूर्व समुद्रगुप्त के लिए अश्वमेघ कर सकना वे सम्भव नहीं समझते और समुद्रगुप्त के परमभागवत कहलाने का कोई प्रमाण उनकी दृष्टि में नहीं है।

कुछ अन्य विद्वान इन शासनों को कूट नहीं मानते। सर्वप्रथम राखालदास बनर्जी ने फ्लीट के मत को चुनौती दी और गया-शासन के मौलिक होने की बात कही। नालन्दा-शासन के प्रकाश में आने पर द० रा० भण्डारकर ने कहा कि केवल व्याकरण विरुद्ध एक वाक्य, जो दोनों ही लेख में समान रूप से मिलता है, इन शासनों को कूट घोषित करने के लिए पर्याप्त नहीं है। शकुन्तला राव ने इस प्रसंग में इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि इस प्रकार की भूलें मौलिक कहे जाने वाले अनेक लेखों में देखी जा सकती हैं। उदाहरणार्थ उन्होंने विन्ध्यशक्ति के बासिम-ताम्रलेख की ओर संकेत किया है। उनका यह भी कहना है कि परमभागवत उल्लेख मात्र से इन शासनों को कूट नहीं कहा जा सकता।

रमेशचन्द्र मजूमदार ने अनेक अभिलेखों का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए इन लेखों की मौलिकता के प्रति सन्देह व्यक्त करने वाली सभी बातों का विश्लेषण किया है और इन लेखों के कूट होने के पक्ष में कही जाने वाली बातों में निहित ऐसी असंगतियों की ओर इंगित किया है जिनका किसी भी प्रकार सामान्य रूप में समाधान सम्भव नहीं है। वे दोनों लेखों की मौलिकता को असंदिग्ध तो नहीं कहते किन्तु यह मानते हैं कि गुप्त-लिपि के प्रयोग से इस बात में सन्देह करने की गुंजाइश नहीं है कि कूटकारको के सम्मुख कोई मौलिक लेख अवश्य था।

श्रीधर वासुदेव सोहनी ने पक्ष-विपक्ष की बातों पर विचार कर मत व्यक्त किया है कि ये लेख मूल लेख के प्रामाणिक प्रतिकृति हैं। उनकी इस बात से वीरेश्वर सिंह सहमत नहीं है। उन्होंने भास्करवर्मन के निधनपुर ताम्र-लेख की ओर ध्यान आकृष्ट किया है जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि उक्त लेख जल गये मूल शासन की प्रतिकृति है। उनका कहना है कि इन लेखों में प्रतिकृति होने का कोई संकेत नहीं है। सभी आपत्तियों को निरस्त करने का प्रयास कर वे इन्हें मौलिक ही मानते हैं।

इस रूप में इन शासन-लेखों के मौलिक होने के पक्ष-विपक्ष में अब तक जो भी कहा गया है, उनसे यही प्रतिध्वनित होता है कि ये मौलिक न हो तब भी मूल शासन के प्रति-लेख तो हैं ही।

इसलिए नालन्दा-ताम्रलेख समुद्रगुप्त के बहुत बाद का नहीं हो सकता: हाँ, गया-लेख कुछ पीछे का हो सकता है। इन्हें वास्तविक अर्थ में कूट न कह कर क्षतिग्रस्त मूल-लेखों की पूर्ति के निमित्त तैयार किये गये प्रतिलेख या प्रतिलिपि मानना उचित होगा।

वस्तुस्थिति जो भी हो, मौलिक होने से उसमें उपलब्ध ऐतिहासिक सूचनाओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ये लेख सामान्य दान-पत्र हैं। नालन्दा ताम्र-शासन द्वारा जयभट्ट नामक ब्राह्मण को वाविरिक्ष्यर विषय स्थित भद्रपुष्करक और क्रिमिल विषय स्थित पूर्ण नामक ग्राम को अग्रहार स्वरूप दिये जाने की बात कही गयी है। इसी तरह गया ताम्र-शासन द्वारा ब्रह्मचारी ब्राह्मण गोपदेव स्वामी को गया-विषय अन्तर्गत रैवतिक ग्राम दिया गया है।

इन दोनों शासनों से हमें तीन विषय — वाविरिक्ष्यर, क्रिमिल तथा गया के नाम ज्ञात होते हैं। इनमें गया नाम तो सुपरिचित है ही। यह बिहार स्थित एक नगर है। इसी प्रकार क्रिमिल की पहचान सहज रूप से क्यूल से की जा सकती है जो पटना से हावड़ा जाने वाले मार्ग पर गंगा के किनारे स्थित एक प्रख्यात रेलवे स्टेशन है। तीसरे विषय वाविरिक्ष्यर की पहचान अभी तक नहीं की जा सकी है।

ये शासनादेश समुद्रगुप्त ने सम्भवतः किसी सैनिक अभियान में जाते हुए जारी किये थे ऐसा दोनों शासनों में उल्लिखित महानौ-हस्त्यश्व-जयस्कन्धावारात् से अनुमान होता है। प्राचीन काल में सेना के तीन अंग— नौका, हाथी और घोड़े माने जाते थे। इसका प्रयोग यहाँ क्रमशः आनन्दपुर और अयोध्या स्थित छावनी के लिए किया गया है

दोनों ही शासनादेश गोपस्वामी नामक अधिकारी के आदेश से लिखे गये थे। नालन्दा-लेख में उन्हें अक्षपटलाधिकृत, महापीलुपति और महाबलाधिकृत कहा गया है। गया ताम्र-शासनादेश में उनका उल्लेख केवल अक्षपटलाधिकृत और द्यूत के रूप में हुआ है। ऐसा जान पड़ता है कि इस दूसरे शासन के जारी किये जाने के समय से पूर्व किसी समय उनके अधीनस्थ विभाग, जिनके कारण वे महापीलुपति और महापीलुपति कहे जाते थे, हस्तान्तरित करके उन्हें एक दूसरे विभाग का अधिकारी बना दिया गया था। इस कारण वे द्यूत कहे गये हैं। दिनेशचन्द्र सरकार का अनुमान है कि द्यूत-घरों को नियन्त्रित करने वाले विभाग के प्रधान को द्यूत कहा जाता रहा होगा ।

नालन्दा ताम्र-शासनादेश में एक अन्य उल्लेखनीय बात यह है कि उसमें दूतक के रूप में कुमार चन्द्रगुप्त का उल्लेख है। दूतक का तात्पर्य यहाँ कदाचित यह है कि सम्राट समुद्रगुप्त ने इस शासनादेश को कुमार चन्द्रगुप्त के माध्यम से मौखिक रूप से गोपस्वामी को दिया था। इस प्रकार दूतक का तात्पर्य आदेश वाहक अथवा राज-प्रतिनिधि लिया जा सकता है। इस रूप में कुमार चन्द्रगुप्त का उल्लेख अपना महत्त्व रखता है।

इन दोनों ताम्र-लेखों में उल्लिखित तिथियों को सामान्य ढंग से देखने से ऐसी धारणा बनती है कि परवर्ती अभिलेखों में उल्लिखित गुप्त संवत् इन्हीं तिथियों के क्रम में होगा। ऐसी धारणा कुछ विद्वानों की रही है। किन्तु गुप्त संवत् को इन तिथियों के क्रम में मानने का अर्थ यह होगा कि समुद्रगुप्त ने ५५ वर्ष तक राज्य किया था द्वितीय चन्द्रगुप्त के मथुरा अभिलेख में उसके ५वें राज्य वर्ष का उल्लेख ६१वें गुप्त संवत् के रूप में हुआ है। किन्तु परवर्ती द्वितीय चन्द्रगुप्त और प्रथम कुमारगुप्त के ३८-३८ वर्ष के शासन काल पर ध्यान देने पर यह सर्वथा असम्भव सिद्ध होता है।

ऊपर हमने नालन्दा ताम्र-शासनादेश में दूतक के रूप में कुमार चन्द्रगुप्त के उल्लेख की चर्चा की है। यह कुमार चन्द्रगुप्त, द्वितीय चन्द्रगुप्त के अतिरिक्त दूसरा कोई व्यक्ति नहीं हो सकता। इस उल्लेख का स्पष्ट अर्थ यह है कि इस समय तक द्वितीय चन्द्रगुप्त इतना वयस्क हो चुका था कि उसे शासन का उत्तरादायी कार्य सौंपा जा सके। द्वितीय चन्द्रगुप्त के शासन का आरम्भ गुप्त संवत् ५६ में हुआ और उसने कम से कम गुप्त संवत् ६३ तक राज्य किया। यदि हम कल्पना करें कि उसने दूतक का कार्य, वयस्कता की न्यूनतम आयु १८ वर्ष में किया था तो इसका अर्थ यह होगा कि वह ६६ वर्ष (५६-५+१६) की अवस्था में गद्दी पर बैठा और १०६ वर्ष से अधिक आयु तक जीवित रहा। यह यद्यपि असम्भव नहीं तो असाधारण अवश्य कहा जायेगा।

इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि द्वितीय चन्द्रगुप्त ७४-७५ वर्ष की अवस्था में इतना स्फूर्तिवान न रहा होगा कि वह अपने साम्राज्य के विस्तृत तथा संयोजित करने के लिए दूर-दूर तक अभियान कर सके। इन बातों पर ध्यान देने पर यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि इन ताम्र-शासनों की तिथि गुप्त-संवत् के क्रम में न होकर, पूर्व-कालिक परम्परा के अनुसार समुद्रगुप्त के राज्य-वर्ष के प्रतीक है।

भू-व्यवस्था की दृष्टि से कुछ पारिभाषिक शब्द विचारणीय हैं :-

बलत्कौषन – इस शब्द का उल्लेख नालन्दा तथा गया ताम्र-शासनादेशों दोनों में हुआ है, किन्तु वह अन्यत्र किसी अन्य अभिलेख में उपलब्ध नहीं हैं। इन शासनों में इसका उल्लेख जिस रूप में हुआ है उससे यह धारणा होती है कि यह भू-कर अधिकारी सदृश पदाधिकारी था। उसका मुख्य कार्य आय-संचय करना था और वह ग्राम को उपलब्ध सुविधाओं की देख भाल करता था। दिनेशचन्द्र सरकार की धारणा है कि यह राजा का ग्राम स्थित प्रतिनिधि था।

अग्रहार – राज्य की ओर से देवताओं अथवा ब्राह्मणों के निमित्त प्रदान किया जाने वाला ग्राम अथवा भूखण्ड

उपरिकर – फ्लीट के मतानुसार उपरिकर उन किसानों पर लगाया जाने वाला कर था, जिनका भूमि पर अपना कोई स्वामित्व न था। घोषाल के अनुसार यह ऐसे लगान अथवा मालगुजारी का नाम था जिसे अस्थायी किसान दिया करते थे। बार्नेट उत्पादन में राज्यांश को उपरिकर मानते हैं। अतः नीवि-धर्म और अप्रदा नीविधर्म के अनुसार भूमि लोगों को कतिपय शर्तों के साथ प्राप्त होती थी और प्राप्तकर्ता को भूमि में स्वामित्व जैसा कोई अधिकार प्राप्त नहीं होता था। वह केवल उसके उत्पादन का उपभोग कर सकता था। यह उपभोग स्थायी हो सकता था, पर किसी को वह भूमि हस्तांतरित नहीं कर सकता था। इस व्यवस्था के अनुसार भूमि का स्वामी अस्थायी भूमिधर और राज्य भूमि का स्वामी होता था। इस प्रकार के भूमिधरों से राज्य को जो कर प्राप्त होता रहा होगा उसे ही उपरिकर कहते हैं। यही मौर्य काल में सत कहा जाता था। और कदाचित इसी का उल्लेख गुप्त साम्राज्य के सामन्तों के लेखों में भोग कहा गया है।

मेय और हिरण्य – मेय और हिरण्य का शाब्दिक अर्थ क्रमशः तौलकर दी जाने वाली वस्तु अर्थात् अन्न तथा सुवर्ण (सोना) समझा जाता है। यहाँ इनका उल्लेख ग्राम प्रत्याय (ग्राम से होने वाली आय) के रूप में हुआ है। इनसे ज्ञात होता है कि उन दिनों उपरिकर आदि कर अन्न और नकदी दोनों रूप में दिये जाते थे। सोने का पर्याय हिरण्य अवश्य है किन्तु उसका एक दूसरा अर्थ धन अथवा सिक्का भी था। यहाँ इसका प्रयोग इसी पारिभाषिक रूप में नकदी के लिए हुआ है। यह परिभाषिक शब्द है। इस अर्थ में इसका उल्लेख अर्थशास्त्र, मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में भी हुआ है।

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