विदिशा जैनमूर्ति लेख

परिचय

१६६९ ई० में विदिशा (मध्य प्रदेश) नगर से दो मील दूर बेस नदी के तटवर्ती दुर्जनपुर ग्राम के एक टीले की बुलडोजर से खुदाई करते समय जैन तीर्थकरों की तीन मूर्तियाँ प्राप्त हुई थीं, जो खुदाई करते समय क्षतिग्रस्त हो गयीं। विदिशा जैनमूर्ति लेख इस समय विदिशा संग्रहालय में संरक्षित हैं।

इनमें एक आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ स्वामी की, दूसरी नवें तीर्थंकर पुष्पदन्त स्वामी की और तीसरी छठवें तीर्थंकर पद्मप्रभ स्वामी की मूर्ति है। इनमें से प्रत्येक की चौकी पर यह लेख अंकित है।

पद्मप्रभ की प्रतिमा का अधिकांश लेख नष्ट हो गया है। पुष्पदन्त की मूर्ति पर केवल आधा लेख है। केवल चन्द्रप्रभ की प्रतिमा पर ही सम्पूर्ण लेख उपलब्ध है। इन मूर्ति लेखों को जी० एस० गाई ( G. S. Gai ) और रत्नचन्द्र अग्रवाल  ने एक साथ ही किन्तु स्वतन्त्र रूप में प्रकाशित किया था।

संक्षिप्त परिचय

नाम :- विदिशा जैनमूर्ति लेख, दुर्जनपुर जैनमूर्ति लेख

स्थान :- दुर्जनपुर ग्राम, विदिशा जनपद, मध्य प्रदेश

भाषा :- संस्कृत

लिपि :- ब्राह्मी

समय :- गुप्तकाल

विषय :- जैन धर्म से सम्बन्धित

महत्त्व :- विदिशा जैनमूर्ति लेख रामगुप्त की ऐतिहासिकता का साक्ष्य है

मूलपाठ

( १ )

१. भगवतोऽर्हतः। चन्द्रप्रभस्य प्रतिमेयं कारिता म-

२. हाराजाधिराज श्रीरामगुप्तेन उपदेशात् पाणिपा [ – ]

३. त्रिक चन्द्रक्षमाचार्य क्षमण-श्रमण-प्रशिष्याचा-

४. र्य्यसर्प्यसेन-क्षमण शिष्यस्य गोलक्यान्त्यासत्पुत्रस्य चेलू क्षमणस्येति [ । ]

( २ )

१. भगवतोऽर्हतः। पुष्पदन्तस्य प्रतिमेयं कारिता म-

२. हाराजाधिराज श्रीरामगुप्तेन उपदेशात् पाणिपात्रिक

३. चन्द्रश्रम[णा]र्य [क्षमणा] श्रमण प्रशि[ष्य ] ….

४. [ …………………………………………………………………. ]

( ३ )

१. भगवतोऽर्हतः [पद्मप्रभ]स्य प्रतिमेयं कारिता महाराजाधिरा[ज]

२. श्री [रामगुप्ते]न उ [पदेशात पा]णि[पात्रि][-]

३. [ …………………………………………………………………. ]

४. [ …………………………………………………………………. ]

हिन्दी अनुवाद

( १ )

भगवान् अर्हत्। पाणि-पात्रिक चन्द्रमणाचार्य क्षमण-श्रमण के प्रशिष्य आचार्य सर्प्पसेन श्रमण के शिष्य गोलक्यान्त के पुत्र चेल श्रमण के उपदेश से महाराजाधिराज श्री रामगुप्त ने चन्द्रप्रभ की इस प्रतिभा [ की प्रतिष्ठा ] करायी।

( २ )

भगवान् अर्हत्। पाणि-पात्रिक चन्द्रक्षमाचार्य क्षमण-श्रमण के शिष्य .….. के उपदेश से महाराजाधिराज श्री रामगुप्त ने पुष्पदन्त की इस प्रतिमा [ की स्थापना ] करायी।

( ३ )

भगवान् अर्हत्। पाणि-पात्रिक ……. के उपदेश महाराजाधिराज ……. ने [ पद्मप्रभ ] की प्रतिमा [ की स्थापना ] करायी।

टिप्पणी

ये तीनों अभिलेख जैन तीर्थकरों की प्रतिमाओं की स्थापना के सामान्य उद्घोष हैं। अभिलेखों की लिपि गुप्तकालीन है, जो चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के उदयगिरि और साँची अभिलेखों के समान ही है। इससे इन प्रतिमाओं का समय चौथी शताब्दी ई० सहज आँका जा सकता है।

मूर्तियों की कला शैली में कुषाण कालीन तथा पाँचवीं शती ई० की गुप्तकालीन कला के बीच के लक्षण परिलक्षित होते हैं। मथुरा आदि से प्राप्त कुषाण कालीन बौद्ध और जैन मूर्तियों की चरणपीठिका पर जिस ढंग से सिंह का अंकन पाया जाता है, वैसा ही अंकन इन मूर्तियों में भी हुआ है। प्रतिमाओं के अंगविन्यास तथा सिर के पीछे के प्रभामण्डल में कुषाण-गुप्त सन्धिकालिक लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं। इस प्रकार ये मूर्तियाँ निसन्देह आरम्भिक गुप्तकाल की है।

इनका ऐतिहासिक महत्त्व इस बात में है कि इन्हें महाराजाधिराज रामगुप्त ने प्रतिष्ठित काराया था। समसामयिक अभिलेखों के अनुसार समुद्रगुप्त के उपरान्त उनके पुत्र चन्द्रगुप्त (द्वितीय) शासक समझे जाते हैं। परन्तु विशाखदत्त कृत देवीचंद्रगुप्तम् नामक संस्कृत नाटक के कुछ अवतरण प्रकाश में आने पर यह ज्ञात हुआ कि चन्द्रगुप्त (द्वितीय) अपने पिता के तत्कालिक उत्तराधिकारी नहीं थे। उनसे पहले कुछ काल के लिये उनके बड़े भाई रामगुप्त ने शासन किया था।

परन्तु अनेक विद्वान इसे काल्पनिक कहानी मान कर इस नाटक की इतिहास के प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं।

रामगुप्त की ऐतिहासिकता के साधन

  • साहित्यिक साधन
    • विशाखदत्त कृत देवीचन्द्रगुप्तम्
    • बाणभट्ट कृत हर्षचरित
    • राजशेखर की काव्यमीमांसा
    • भोज कृत शृंगारप्रकाश
    • शंकरार्य कृत हर्षचरित की टीका
    • अबुल हसन अली कृत मुजमल-उत-तवारीख
  • अभिलेखीय साधन
    • संजन का लेख
    • काम्बे का लेख
    • संगली का लेख
  • मुद्रा साधन
    • भिलसा और एरण से प्राप्त ताम्र मुद्राएँ

जब विदिशा-एरण प्रदेश से रामगुप्त के नाम के ताँबे के सिक्के प्रकाश में आये तब लोगों ने रामगुप्त की ऐतिहासिकता तो स्वीकार की परन्तु वे उसे गुप्तवंशीय सम्राट न मानकर मालय प्रदेश का स्थानीय शासक ही बताते रहे हैं।

जैन-मूर्ति पर अंकित इन अभिलेखों के प्रकाश में आने पर यह तथ्य सामने आया कि रामगुप्त ने महाराजाविराज की उपाधि धारण की थी। यह उपाधि सर्वप्रथम गुप्त वंशीय सम्राटों ने ही धारणा किया था। इस परिप्रेक्ष्य में रामगुप्त के गुप्त वंशीय सम्राट होने में सन्देह नहीं रह जाता। इससे ध्रुवस्वामिनी के कथानक की ऐतिहासिकता भी सिद्ध होती है।

गुप्त सम्राटों के वैष्णव होने के कारण रामगुप्त द्वारा जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों की प्रतिष्ठा कोई असाधारण सी बात नहीं है। क्योकि गुप्त सम्राट धार्म सहिष्णु थे। जैनधर्म की स्थापन से विद्वानों ने दो अर्थ निकाले हैं :

  • एक; रामगुप्त अन्य गुप्त शासकों के विपरीत जैन मत में आस्था रखते थे।
  • दो; रामगुप्त वैष्णव ही थे परन्तु धर्म सहिष्णु नीति के कारण जैन मूर्तियाँ स्थापित करायी होंगी।

जो भी हो रामगुप्त द्वारा जैन-मूर्तियों की स्थापना का केवल इतना ही अर्थ लेना उचित होगा कि शासक के रूप में उसकी दृष्टि में सभी धर्म समान थे और उसने जैन-श्रमण के अनुरोध को मान कर इन मूर्तियों की स्थापना की व्यवस्था कर दी होगी।

इस अभिलेख में चन्द्रक्षमाचार्य को पाणि-पात्रिक कहा गया है जो उल्लेखनीय है। पाणि-पात्रिक ऐसे साधु-सन्यासियों को कहते हैं जो भोजन किसी पात्र में रख कर नहीं करते; वरन पात्र के रूप में हाथ की अँजलियों का ही प्रयोग करते हैं।

समुद्रगुप्त का नालन्दा ताम्रलेख

समुद्रगुप्त का गया ताम्रपत्र

समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति

समुद्रगुप्त का एरण प्रशस्ति

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