भूमिका
वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि का नासिक गुहालेख गुफा ३ में, जिस पर गौतमीपुत्र शातकर्णि का अभिलेख अंकित है, बरामदे के सामने की दीवार पर बायें हाथ के द्वार और खिड़की के ऊपर ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में अंकित है।
संक्षिप्त परिचय
नाम :- वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि का नासिक गुहालेख ( Nasik Cave Inscription of Vashisthiputra Pulmavi )
स्थान :- नासिक, महाराष्ट्र
भाषा :- प्राकृत
लिपि :- ब्राह्मी
समय :- वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि का १९वाँ राज्यवर्ष
विषय :- गौतमीपुत्र शातकर्णि की राजनीतिक उपलब्धियाँ, भिक्षु संघ को महादेवी गौतमी बलश्री एवं पुलुमावि की माँ द्वारा गुहा का दान
वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि विका नासिक गुहालेख : मूलपाठ
१. सिद्धं [ । ] रञो वासिठीपुतस सिरि-पुलुमायिस सवरे एकुनवीसे १० (+) ९ गीम्हाणं पखे वितीये २ दिवसे तेरसे १० (+) ३ [ । ] राजररञो गोतमीपुतस हिमव[ त ] – मेरु
२. मदर-पवत सम-सारस असिक-असक-मुलक-सुरठ कुकुरापरंत- अनुपविदभ-आकरावंति-राजस विझछवत परिचात सय्ह कण्हगिरि-मच-सिरिटन मलय-महिद-
३. सेटगरि-चकोर-पवत-पतिस सवराज [लोक] मंडल-पतिगहीत-सासनस दिवसकर [क] र-विबोधित-कमलविमल सदिस वदनय तिस-मुद-तोय-पीत-वाहनस पटिपूंर्ण चद-मडल-ससिरीक-
४. पियदसनस वर वारण-विकस-चारु विकमस भुजगपति-भोग-पीन-वाट-विपुल-दीघ-सुद [र] -भुजस अभयोदकदान-किलिन निभय-करस अविपन-मातु सुसूसाकस सुविभत-तिवग देस-कालस
५. पोरजन-निविसेस-सम-सुक-दुखस खतिय-दप-मान-मदनस सक-यवन-पह्लव निसूदनस धमोपजित-कर-विनियोग-करस कितापराधे पि सतुजने अ-पाणहिसा-रुचिस दिजावर कुट्ब-विवध-
६. नस खखरात-वस-निरवसेस-करस सातवाहनकुल-यस-पतिथापन-करम सव मंडलाभिवादित-च[र]णस विनिवतित चालूवण संकरस अनेक समवजित-सतु-सपस अपराजित-विजयपताक-सतुजन दुपधसनीय-
७. पुरवरस कुल-पुरिस-परपरागत-विपुल-राज-सदस आगमान [नि]- लयस सपुरिसानं असयस सिरी [ये] अधिठानस उपचारान पभवस एक-कुसस एक-धनुधरस एक-सूरस एक-बम्हणस राम-
८. केसवाजुन-भीससेन-तुल-परकमस छण-धनुसव-समाज-कारकस नाभाग-नहुस जनमेजय-सकर-य [ या ] ति-रामाबरीस-सम-तेजस अपरिमित-मखयमचितयभुत पवन-गरुल-सिध-यख राखस-विजाधर भूत-गधव-चारण-
९. चंद-दिवाकर-नखत-गह-विचिण-समरसिरसि जित-रिपु-सधस नाग-वर-खधा गगनतलमभिविगाढस कुल-विपु [ लसि ] रि-करस सिरि-सातकणिस मातुय महादेवीय गोतमीय बलसिरीय सचवचन-दान-खमाहिसा-निरताय तप-दम-निय-
१०. मोपवास-तपराय राजरिसिवधु-सदमखिलमनुविधीयमानाय कारित देयधम [केलासपवत] सिखर-सदिसे [ति] रण्हु-पवत-सिखरे विम- [ना] वर-निविसेस महिनढीक लेण [ । ] एत च लेण महादेवी महा-राज-माता महाराज-[पि]तामही ददाति निकायस भदावनीयान भिखु-सधस [।]
११. एतस च लेण[स] चितण-निमित महादेवीय अयकाय सेवकामो पियकामो च ण [ता] [सिरि-पुलुमावि] [दखिणा] पथेसरो पितु-पतियो (पितिये) धमसेतुस [ददा] ति गामं तिरण्हु-पवतस अपर-दक्षिण पसे पिसाजिपदक सव जात-भोग-निरठि [॥]
हिन्दी अनुवाद
सिद्धम्। राजा वाशिष्ठीपुत्र श्री पुलुमावि के संवत्सर १९ (उन्नीस) के ग्रीष्म के दूसरे पक्ष का दिवस १३। राजराजा गौतमीपुत्र शातकर्णि की— [जिनकी] दृढ़ता हिमालय, मेरु, मन्दार पर्वत के समान थी; [जो] ऋषिक, अश्मक, मूलक, सुराष्ट्र, कुकुर, अपरान्त, अनूप, विदर्भ, आकर, अवन्ति के राजा [थे] ; [जो] विन्ध्य, ऋक्ष, परियात्र, सह्य, कृष्णगिरि, मत्त (मच), श्रीस्थान (सिरिटन), मलय, महेन्द्र श्रेष्ठ-गिरि (अथवा श्वेतागिरि), चकोर पर्वत के स्वामी [थे]; [जिनकी] सर्व-राजलोक-मण्डल आज्ञा पालन करता था; [जिनका] मुख किरणों से विबोधित कमल-सदृश विमल था; [जिनकी] सेना त्रिसमुद्र का जलपान करती थी; [जो] चन्द्रमण्डल के समान प्रियदर्शी थे; [जिनका] ललाट हाथी के मस्तक के समान सुन्दर और विशाल था; [जिनकी] भुजाएँ नागराज के समान स्थूल, गोल, विपुल, दीर्घ और सुन्दर थीं; [जिनकी] निर्भीक भुजाएँ सदैव अभय-दान के जल से भींगी रहती थीं; [जिन्हें] अपनी माता की सेवा करने में तनिक भी संकोच न था; [जो] त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) के देश और काल को अच्छी तरह समझते थे; [जो] पौरजन (प्रजा) के सुख-दुःख में समान रूप से भाग लेते थे: [जिन्होंने] क्षत्रियों के दर्प और मान का मर्दन किया था; [जिन्होंने] शक, यवन और पहवों का विनाश किया था; [जो] धर्मशास्त्र समर्थित ही कर लिया करते थे; [जिन्हें] अपराधी शत्रुओं की भी प्राण-हिंसा में रुचि न थी; [जो] द्विज और अद्विज परिवारों की समृद्धि के प्रति समान भाव रखते थे; [जिन्होंने] क्षहरात-वंश को निरवशेष कर दिया; [जिन्होंने] सातवाहन कुल की प्रतिष्ठा स्थापित की; [जिनके] चरणों की वन्दना सारे मण्डल के लोग करते थे; [जिन्होंने] चातुर्वर्ण के संकर होने से रोका; [जिन्होंने] अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की; [जिनकी] विजय-पताका कभी झुकी नहीं और [जिनकी] सुन्दर नगरी (राजधानी) में प्रवेश करना शत्रुओं के लिए महा कठिन था; परम्परागत उत्तराधिकार में [जिन्हें] सुन्दर ‘राज’ शब्द प्राप्त हुआ था; [जो] वेद आदि शास्त्रों (आगमों) के निलय (घर) थे [जो] सद्पुरुषों के आश्रय थे; [जो] अद्वितीय वीर थे; [जो] अद्वितीय ब्राह्मण थे; [जो] पराक्रम में राम, केशव, अर्जुन और भीमसेन के समान थे; [जो] शुभ अवसरों पर उत्सव और समाज कराते थे; [जिनका] तेज नाभाग, नहुष, जनमेजय, सगर, ययाति और अम्बरीष के समान था: [जो] अपरिमित, अक्षय, अचिन्त्य और अद्भुत थे; [जिन्होंने] पवन, गरुड़, सिद्ध, यक्ष, राक्षस, विद्याधर, भूत, गन्धर्व, चारण, चन्द्र-सूर्य, नक्षत्र, ग्रह से ईक्षित शत्रुओं को समर में पराजित किया था; [जिन्होंने] आकाश की गहराई में श्रेष्ठ पर्वत (हिमालय) के स्कन्द से भी ऊँचे प्रवेश किया था [जिन्होंने] कुल की श्री को विपुल बनाया था — माता महादेवी गौतमी बलश्री ने, जो सत्यवचन, दान, क्षमा, अहिंसा में निरत हैं, जो तप, दम, नियम, उपवास में तत्पर हैं और जो राजर्षिवधू शब्द के अनुरूप ही आचरण करती हैं, कैलास पर्वत के शिखर सदृश त्रिरश्मि पर्वत-शिखर पर स्थित विमान के समान पूर्ण एवं समृद्धि-पूर्ण लयण ( गुहा ) को देयधर्म के रूप में बनवाया और उस लयण को महादेवी, महाराज-माता, महाराज-पितामही ने भद्रायणी भिक्षु संघ को प्रदान किया। उनके नप्ता (प्रपौत्र) दक्षिणापथेश्वर [श्री पुलुमावि] पितामही (महादेवी आर्यका) की सेवा तथा प्रसन्नता के निमित्त तथा पिता के धर्म-सेतु के रूप में त्रिरश्मि पर्वत के अपर-दक्षिण पार्श्व में स्थित पिशचीपद्रक [नामक ग्राम] को, सर्व राज्याधिकार से मुक्त कर, इस लयण के चित्रण के निमित्त देते हैं।
वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि का नासिक गुहालेख : महत्त्व
इस लेख से ऐसा प्रकट होता है कि गौतमी बलश्री ने, जो गौतमीपुत्र शातकर्णि की माता और पुलुमावि की पितामही थीं, त्रिरश्मि पर्वत पर एक लयण उत्खनित कराया और उसे बौद्धों के भद्रायणी सम्प्रदाय को भेंट किया था और उनके पौत्र पुलुमावि ने उस लयण की व्यवस्था के लिए एक ग्राम दान किया। इस प्रकार यह दान का एक सामान्य घोषणा-पत्र है किन्तु अन्य कई दृष्टियों से यह लेख महत्त्वपूर्ण और विचारणीय है।
१. इस अभिलेख में जिस लयण के उत्खनित किये जाने का उल्लेख है, वह वही होगा जिसकी भित्ति पर यह टंकित है। सामान्य भाव से यह भी कहा जा सकता है कि इस लेख का अंकन लयण उत्खनन कार्य समाप्त हो जाने के पश्चात् तत्काल ही किया गया होगा। इस प्रकार इस लेख को लवण पर अंकित अद्यतन लेख होना चाहिए। यह लेख, जैसा कि उसकी प्रारम्भिक पंक्ति से ज्ञात होता है, पुलुमावि के १९वें राजवर्ष में टंकित किया गया था। इस लयण की भित्ति पर दो अन्य लेख अंकित हैं जो गौतमीपुत्र सातकर्णि के वर्ष १८वें और २४वें राज्यवर्ष के हैं। इन दोनों ही लेखों में त्रिरश्मि पर्वत पर स्थित लयण में निवास करने वाले भिक्षुओं के लिए भूमि दान देने का उल्लेख है। यद्यपि यह स्पष्ट नहीं है, फिर भी कहा जा सकता है कि दान उन्हीं भिक्षुओं को दिया गया होगा जो इसी लयण में रहते रहे होंगे, अन्यथा इन लेखों के इस पर अंकित किये जाने का कोई प्रयोजन न था। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि लयण गौतमीपुत्र शातकर्णि के समय तक उत्खनित हो चुका था और प्रस्तुत अभिलेख अद्यतन नहीं है। वर्ष २४ वाले लेख में राजमाता का उल्लेख है जिससे निस्सन्देह तात्पर्य प्रस्तुत अभिलेख की गौतमी बलश्री से ही है। ऐसी अवस्था में यह स्पष्ट है कि गौतमी बलश्री ने इस लयण का निर्माण कार्य अपने पुत्र के शासनकाल में पूरा कर लिया रहा होगा। फिर भी उन पूर्ववर्ती लेखों में उसके निर्माण कर्तृ की जितनी विशद चर्चा इस अभिलेख में है, उतनी न होकर बहुत बाद में उसके पौत्र के काल में क्यों की गयी, यह स्वाभाविक प्रश्न उभरता है। इसका सहज समाधान यह हो सकता है कि लयण का उत्खनन गौतमीपुत्र श्री शातकर्णि के राजवर्ष १८ से पूर्व किसी समय आरम्भ हुआ होगा और उत्खनन क्रम में ही वे दोनों लेख उस समय लिखे गये होंगे जब बरामदे का उत्खनन पूरा हो गया होगा और भिक्षुओं के लयण में रहने की कोई अस्थायी व्यवस्था हो गयी होगी और उस व्यवस्था क्रम में दोनों अभिलेखों में उल्लिखित दान किये गये होंगे। फिर पुलुमावि के शासन काल के १९वें वर्ष के आसपास जब लयण का पूरी तरह उत्खनन हो गया तब प्रस्तुत अभिलेख अंकित किया गया।
यदि ऐसी ही बात हो तो कहा जा सकता है कि इस लयण का निर्माण कार्य का आरम्भ गौतमीपुत्र श्री सातकर्णि के राजवर्ष १८ से कम-से-कम ७-८ वर्ष पूर्व हुआ होगा और वह कार्य पुलुमावि के राज्य काल के १८वें वर्ष तक चलता रहा । सातकर्णि के वर्ष २४ और पुलुमावि के राज्यारोहण के बीच का अन्तराल कितना था यह किसी सूत्र से ज्ञात नहीं है, फिर भी यदि अधिक नहीं तो एक आध वर्ष तो होगा ही। इस प्रकार अनुमान किया जा सकता है कि लयण के निर्माण में ३५-३६ वर्ष लगे होंगे। इस आधार पर उस पर होनेवाले व्यय और श्रम की भी कल्पना की जा सकती है।
साथ ही यह सम्भावना भी हो सकती है कि प्रस्तुत अभिलेख का लयण निर्माण के साथ कोई सम्बन्ध ही न हो। यह लेख पुलुमावि के शासन काल में उसके द्वारा पिशचीपत्रक ग्राम के दान दिये जाने की घोषणा मात्र हो और उस घोषणा क्रम में उसने अपने पितामही द्वारा लवण बनवाये जाने का उल्लेख किया हो। लयण के साथ अपनी पितामही का लगाव बताकर ही वह उनकी प्रसन्नता को स्पष्ट कर सकता था।
२. सामान्यतः महिलाएँ अपने परिचय स्वरूप के पहले अपने पिता का और फिर पुत्र का उल्लेख किया करती थीं। यदि यह अभिलेख बलश्री का अपना हो तो इस अभिलेख में पिता और उनके कुल की तो कोई चर्चा है ही नहीं; पति के सम्बन्ध में भी प्रायः मौन ही धारण किया गया है। जो कुछ भी कहा गया है, वह पुत्र के सम्बन्ध में, वह भी एक विशद प्रशस्ति के रूप में। इस प्रशस्ति में पुत्र का गुणगान करने में ऐसा कोई गुण नहीं है जो उसमें छूटा हो। इस प्रकार यह चाटुकार कवियों द्वारा प्रस्तुत अत्युक्तिपूर्ण प्रशस्ति को छूता हुआ लेख है, अन्तर यही है कि उसमें कवियोंवाली भाषा नहीं है। पुत्र की इस प्रकार प्रशस्ति-गान करने के कारण हो सकते हैं; किन्तु पति की इस प्रकार उपेक्षा करने का कोई भी कारण नहीं हो सकता। इस बात की सम्भावना अधिक है कि यह अभिलेख बलश्री का अपना न होकर उसके पौत्र पुलुमावि द्वारा अंकित कराया हुआ है और उसने अपने पितामही के परिचय के माध्यम से अपने पिता का गुणगान किया है।
३. इस अभिलेख का उत्खनन जब भी हुआ हो, उसका महत्त्व गौतमीपुत्र सातकर्णि की प्रशस्ति के कारण ही है। इसमें उसे ‘क्षत्रिय-दर्प-मान-मर्दक, शक-यवन-पह्लव निसूदन, क्षहरातवंश-निरवशेषकर’ कहा गया है। इस विशेषणों अथवा विरुदों में ऐतिहासिकता ढूँढ़ने का प्रयास किया जा सकता है। ‘क्षत्रिय’ शब्द से राजस्थान; गुजरात और मध्य प्रदेश के शासकों का तात्पर्य ग्रहण किया जा सकता है, किन्तु इस कथन में कितनी ऐतिहासिकता है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता। यही बात शक-यवन-पह्लव-निसूदन के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। केवल- ‘क्षहरात-वंश-निरवशेषकर’ ही ऐसा है जिसे ऐतिहासिक तथ्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। क्षहरात-वंशीय नहपान के चाँदी के सिक्के बड़ी मात्रा में जोगलथम्बी से मिले हैं। जिन्हें गौतमीपुत्र सातकर्णि ने अपने ठप्पों से पुनः आहत किया है। वे नहपान के पराभव के प्रतीक हैं। अभिलेख के कई अन्य विरुदों से प्रकट होता है कि वह वीर योद्धा था और उसने अनेक युद्ध किये और विजय प्राप्त किये थे।
४. सातकर्णि को इस प्रशस्ति में ऋषीक१, अश्मक-मूलक२, सुराष्ट्र (सौराष्ट्र- काठियावाड़), कुकुर३, अपरान्त (उत्तरी-कोंकण), अनूप४ (नर्मदा घाटी स्थित माहेश्वर-मान्धाता के आसपास का प्रदेश), विदर्भ (बरार), आकर (पूर्वी मालवा), अवन्ति (पश्चिमी मालवा) और विन्ध्य, ऋक्ष५परियात्र (पश्चिमी विन्ध्य और अड़ावली), सह्य६, कृष्णगिरि (कन्हेरी), मत्त७ (मच), श्रीस्थान८ (सिरिटिन), मलय (पश्चिमी घाट का दक्षिणी भाग; त्रिवांकुर पर्वत), महेन्द्र (महानदी और गोदावरी के बीच पूर्वी घाट), श्रेष्ठगिरि९ (श्वेतगिरि) और चकोर१० (पूर्वी घाट का दक्षिणी भाग) का पति कहा गया है।
- वराहमिहिर ने असिक नामक जन का उल्लेख किया है पर उसके निश्चित प्रदेश को जानकारी नहीं दी है। सेनार्ट ने इसे ऋषीक माना है, जिसे वराहमिहिर ने दक्षिण प्रदेश में रखा है। दिनेशचन्द्र सरकार ने इसे कृष्णानदी के तट पर स्थित ऋषीकनगर के आसपास का प्रदेश अनुमान किया है।१
- अश्मक और मूलक को गोपालाचारी ने उत्तरी महाराष्ट्र अनुमान किया है। वे नासिक जिले तथा पैठण के आसपास के प्रदेश को अश्मक-मूलक कहते हैं। दिनेशचन्द्र सरकार ने मूलक को वह प्रदेश माना है जिसकी राजधानी पैठण थी। वे अश्मक को आन्ध्र प्रदेश में प्राचीन पौडन्य (बोधन) के आसपास का प्रदेश बताते हैं।
- कुकुर को भण्डारकर और रैप्सन ने पूर्वी राजस्थान (राजपूताना) बताया है। गोपालाचारी उसे पश्चिमी राजपूताना कहते हैं। दिनेशचन्द्र सरकार ने उसे गुजरात-काठियावाड़ का प्रदेश कहा है।३
- रघुवंश के अनुसार महिष्मती अनूप की राजधानी थी।४
- पार्जिटर और रेप्सन सतपुड़ा पर्वत और बटर के मध्य से नागपुर के दक्षिण बढ़नेवाली शृंखला को ऋक्ष कहते हैं। दिनेशचन्द्र सरकार के अनुसार वह मालवा के दक्षिणवाला विन्ध्य का भाग है।५
- सह्य नीलगिरि के उत्तर के पश्चिमी घाट को कहते हैं।६
- मत (मत) पर्वत की पहचान नहीं की जा सकी है।७
- श्रीस्थान (सिरिटन) को भण्डारकर कुर्नूल जिले में स्थित श्रीशैल अनुमान करते हैं। अन्य विद्वान् इसके सम्बन्ध में मौन हैं।८
- गोपालाचारी श्रेष्ठगिरि (श्वेतगिरि) और चकोर दोनों को सम्मिलित रूप से पूर्वी घाट का दक्षिणी भाग अनुमान करते हैं।९
- मार्कण्डेयपुराण में श्रीपर्वत और चकोर का साथ-साथ उल्लेख हुआ है।१०
यदि इन भौगोलिक उल्लेखों की सत्यता को पूर्णतः स्वीकार किया जाय तो कहा जा सकता है कि सातकर्णि के राज्य के अन्तर्गत दक्षिण में कृष्णा नदी से लेकर उत्तर में मालवा और सौराष्ट्र- राजस्थान तक और पूर्व में बगर से पश्चिम में कोंकण तक का सारा प्रदेश था। पर्वतों के उल्लेखों को देखने पर यह सीमा अधिक विस्तृत हो जाती है। तब ऐसा लगता है कि विन्ध्य तथा पूर्वी और पश्चिमी घाट से घिरा समूचा दक्षिणी प्रायद्वीप उसके राज्य के भीतर था। ऐसा ही कुछ उसके ‘त्रि-समुद्र-तोय-पोतवाहन’ विरुद से भी झलकता है। किन्तु इतने विस्तृत राज्य की कल्पना अन्य सूत्रों से समर्थित नहीं होती। सम्भवतः परम्परागत दिग्विजय की कवि कल्पना ही इनमें निहित है।
५. इस अभिलेख में गौतमीपुत्र सातकर्णि के लिए प्रयुक्त सातवाहन कुल-यश-प्रतिष्ठापनकर और कुल-विपुल-श्रीकर सदृश विरुद विशेष द्रष्टव्य है। इससे ऐसा झलकता है कि गौतमीपुत्र से पूर्व सातवाहन राजवंश की स्थिति अत्यन्त सामान्य थी। इसका उत्कर्ष उसके ही काल में हुआ। गौतमी बलश्री को राजर्षिवधू कहा गया है।
इससे लगता है कि गौतमीपुत्र के पिता साधु प्रकृति के रहे होंगे। उनकी राजकाज के प्रति उदासीनता ही कुल के उत्थान में बाधक रही होगी।