रुद्रदामन का जूनागढ़ शिलालेख

भूमिका

रुद्रदामन का जूनागढ़ शिलालेख गुजरात के जूनागढ़ से प्राप्त एक महत्त्वपूर्ण अभिलेख है। जिस शिला पर यह उत्कीर्ण है उसी पर अशोक के चौदह प्रज्ञापनों की एक प्रति तथा स्कन्दगुप्त के दो लेख भी खुदे हुए हैं।

जूनागढ़ से लगभग एक मील पूर्व की ओर गिरनार पर्वत के पास जाने वाले दर्रे के पास यह स्थित है। जूनागढ़ का नाम इसमें गिरिनगर दिया गया है जो बाद में गिरनार भी कहा जाने लगा। सर्वप्रथम १८३२ ई० मे जेम्स प्रिंसेप ने इस लेख का पता लगाया तथा जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल (JASB ) के ७वें अंक में इसे प्रकाशित किया। तत्पश्चात् लासेन, एन० एच० विल्सन, भगवान लाल इन्द्रजी, बूलर आदि विद्वानों ने इसका उल्लेख विभिन्न शोध पत्रिकाओं में किया। अन्ततः कीलहार्न महोदय ने एपिग्राफिया इण्डिका के ८वें अंक में इसे प्रकाशित किया। यही प्रकाशन आज तक प्रामाणिक माना जाता है। जूनागढ़ लेख में कुल बीस पंक्तियाँ है जिनमें अन्तिम चार पूर्णतया सुरक्षित है। शेष कहीं-कहीं क्षतिग्रस्त हो गयी हैं

यह शुद्ध संस्कृत भाषा तथा ब्राह्मी लिपि (कुषाणकालीन) में लिखा गया है। इसमें रुद्रदामन के शासन काल के ७२वें वर्ष का उल्लेख है। यह शक संवत् की तिथि है। तदनुसार यह लेख ७८ + ७२ = १५० ई० का है।

जूनागढ़ लेख की रचना का मुख्य उद्देश्य सुदर्शन झील के बाँध के पुनर्निर्माण का विवरण सुरक्षित रखना है। इसमें झील का पूर्व इतिहास भी लिखा गया है। साथ ही यह लेख रुद्रदामन की वंशावली, विजयों, शासन, व्यक्तित्व आदि पर भी सुन्दर प्रकाश डालता है। भाषा तथा साहित्य की दृष्टि से भी इसका काफी महत्त्व है।

विशुद्ध संस्कृत भाषा में लिखित यह प्राचीनतम लेखों में से है जिससे संस्कृत साहित्य के सुविकसित होने का अन्दाजा लगाया जा सकता है। जब हम यह देखते हैं कि उस समय सर्वत्र प्राकृत भाषा का ही वर्चस्व था, तब इस लेख का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। भाषा की दृष्टि से प्राकृत के समुद्र में यह लेख एक द्वीप के समान ही है।

संक्षिप्त परिचय

नाम :- रुद्रदामन का जूनागढ़ शिलालेख ( Junagarh Rock Inscription of Rudradaman )

स्थान :- गिरिनार पहाड़ी, जूनागढ़ जनपद, गुजरात

भाषा :- संस्कृत

लिपि :- ब्राह्मी

समय :- १५० ई०

विषय :- सुदर्शन झील के पुनर्निर्माण से सम्बन्धित

रुद्रदामन का जूनागढ़ शिलालेख : मूलपाठ

१. सिद्धं [ । ] तड़ाकं सुदर्शनं गिरिनगराद [ पि ] …. मृ [ ति ]- कोपलविस्ताररायामोच्छय- निःसन्धि-बद्ध-दृढ़-सर्व्व-पालीकत्वात्पर्व्वत-पा-

२. द-प्प्रतिस्पर्द्धि-सुश्लि [ ष्ट ] – [ बन्ध ] …… [ व ] जातेनाकृत्रिमेण सेतुबन्धे-नोपपन्नं सुप्रति-विहित-प्रनाली-परीवाह-

३. मीढ़विधानं च त्रिस्क [ न्ध ] नादिभिरनुग्र [ है ] महत्युपचये वर्त्तते [ । ] तदिदं राज्ञो महाक्षत्रपस्य सुगृही-

४. तनान्नः स्वामि-चष्टनस्य-पौत्र [ स्य ] [ राज्ञः क्षत्रपस्य सुगृहीतनाम्नः स्वामि जयदाम्नः ] पुत्रस्य राज्ञो महाक्षत्रपस्य गुरुभिरभ्यस्त-नाम्नो [ द्र ] – दाम्नो वर्षे द्विसप्तित [ में ] ७० [ + ] २

५. मार्गशीर्ष-बहुल-प्र [ ति ] [ पदि]…….. : सृष्टवृष्टिना पर्जन्येन एकार्ण-वभूतायामिव पृथिव्यां कृतायां गिरेरुर्जयतः सुवर्णसिकता-

६. पलाशिनी प्रभृतीनां नदीनां अतिमात्रोदृत्तैर्व्वेगैः सेतुम [ यमा ] णानुरूप-प्रतिकारमपि गिरि-शिखर-तरु ताटाट्टालकोपत [ल्प] – द्वार शरणोच्छ्रय-विध्वंसिना युगनिधन-सदृ-

७. श-परम-घोर-वेगेन वायुना प्रमथि [ त ] सलिल-विक्षिप्त-जर्ज्जरीकृताव [ दी-र्ण ] [ क्षि ] ताश्म-वृक्ष-गुल्म-लताप्रतानं आ नदी – [ त ] लादित्यु-द्धाटितमासीत् [ । ] चत्वारि हस्त-शतानि वीशदुत्ताराण्यातेन एतावंत्येव [ वि ] स्ती [ र्णे ] न

८. पंचसप्तति हस्तानवगाढ़ेन भेदेन निस्सृत-सर्व्व-तोयं मरु-धन्व-कल्पमति-भृशं-दु [ र्द ] …… [ । ] [ स्य ] र्थे मौर्यस्य राज्ञ: चन्द्र [ गुप्तस्य ] राष्ट्रियेण [ वैश्येन पुष्यगुप्तेन कारितं अशोकस्य मौर्यस्य [ कृ ] ते यवनराजेन तुष [  ] स्फेनाधिष्ठाय

९. प्रणालीभिरलं कृतं [ । ] [ त ] त्कारित [ या ] च राजानुरूप-कृत-विधानया तस्मि [ भे ] दे दृष्टया प्रनाड्या वि [ स्तृ ] त-से [ तु ] ….. णा आ गर्भात्प्रभृत्य-वि [ ह ] त-समुदि [ व-रा ] जलक्ष्मी-धारणा-गुण-तस्सर्व्व-वर्णैरभिगंम्य रक्षाणार्थं पतित्वे वृतेन [ आ ] प्राणोच्छ्वासात्पुरुवध-निवृत्ति-कृत-

१०. सत्यप्रतिज्ञेन अन्य [ त्र ] संग्रामेष्वभिमुखागत-सदृश-शत्रु-प्रहरण-वितरण-त्वाविगुणरि [ पु ] …. त-कारुण्येन स्वयमभिगत जन-पद-प्रणिपति [ ता ] [ यु ]। षशरणदेन दस्यु-व्याल-मृग-रोगादिभिरनुपसृष्ट-पूर्व्व-नगर-निगम-

११. जनपदानां स्ववीर्य्यार्जितानामनुरक्त-सर्व्व-प्रकृतीनां पूर्व्वापराकर- वन्त्यनूपनीवृदानर्त्त-सुराष्ट्र-श्व [ भ्र-मरु-कच्छ-सिन्धु-सौवी ] र कुकुरापरांत-निषादादीनां समग्राणां तत्प्रभावाद्य [ थावत्प्राप्रधर्मार्थ ] – काम-विषयाणां विषयाणां पतिना सर्व्वक्षत्राविष्कृत-

१२. वीर शब्द जा – [ तो ] त्सेकाविधेयनां यौधेयानां प्रसह्योत्सादकेन दक्षिणा-पथपतेस्सातकर्णेद्विरपि नीर्व्याजमवजीत्यावजीत्य संबंधा [ वि ] दूरतया अनुत्सादनात्प्राप्तयशासा [ वाद ] ….. [ प्राप्त ] विजयेन भ्रष्टराज प्रतिष्ठापकेनं यथार्थ-हस्तो-

१३. च्छयार्जितोर्जित-धर्मानुरागेन शब्दार्थ- गान्धर्व्व-न्यायाद्यानां विद्यानां महतीनां पारण-धारण-विज्ञान प्रयोगावाप्त-विपुल-कीर्तिना-तुरग-गज- रथ-चर्य्यासि-चर्म-नियुद्धाद्या …. ति-परबल-लाघव-सौष्ठव-क्रियेण-अहरहर्द्दान-मानान-

१४. वमान-शीलेन स्थूललक्षेण यथावत्प्राप्तैर्बलिशुल्को भागैः कानक-रजत-वज्र-वैडूर्य-रत्नोपचय-विष्यन्दमान कोशेन स्फुट-लघु-मधुर-चित्र-कान्त-शब्दसमयोदारालंकृत-गद्य-पद्य- [ काव्य-विधान-प्रवीणे ] न प्रमाण-मानोमान-स्वर-गति-वर्ण्ण-सार-सत्वादिभिः

१५. परम-लक्षण-व्यंचनैरुपेत-कान्त-मूर्तिना स्वयमधिगत-महाक्षत्रप-नाम्ना नरेन्द्र-क [ न्या ] – स्वयंवरानेक-माल्य-प्राप्त-दाम्न [  ] महाक्षत्रपेण रुद्र-दाम्ना वर्ष सहस्राय गो-ब्रा [ ह्मण ] …… [ र्त्थं ] धर्म्मकीर्ति-वृदध्यर्थ च अपीडयि [ त्व ] कर-विष्टि-

१६. प्रणयक्रियाभिः पौरजानपदं जनं स्वस्मात्कोशा महता धनौधेन-अनति-महता च कालेन त्रिगुण-दृढ़तर-विस्तारायामं सेतुं विधा [ य ] सर्वत [ टे ] ……सुदर्शनतरं कारितमिति [ । ] [ अस्मि ] न्नर्त्थे-

१७. [ च ] महाक्षत्रपस्य मतिसचिव-कर्मसचिवैरमात्य-गुण-समुद्युक्तैरप्यति-महत्वाद्भेदस्यानुत्साह-विमुख-मतिभिः प्रत्याख्यातारंभ

१८. पुनः सेतुबन्ध-नैराश्याहाहाभूतासु प्रजासु इहाधिष्ठाने पौरजानपद-जनानुग्रहार्थ पार्थिवेन कृत्स्नानामानर्त्त-सुराष्टानां पालनार्थन्नियुक्तेन

१९. पह्लवेन कुलैप-पुत्रेणामात्येन सुविशाखेन यथावदथं धम व्यवहार-दर्शनैरनुरागमभिवर्द्धयता शक्तेन दान्तेनाचपलेनाविस्मितेनार्येणा-हार्य्येण

२०. स्वधितिष्ठता धर्म-कीर्ति-यशांसि भर्तुरभिवर्द्धयतानुष्ठितमिति [ । ]

हिन्दी अनुवाद

१. सिद्धम्। गिरिनगर के समीप, मिट्टी और पाषाण खण्डों [ से निर्मित ] चौड़ाई और लम्बाई ऊँचाई में बिना जोड़ के बंधी मजबूत बन्ध पंक्तियों के कारण दृढ़ता में पर्वत के

२. समीपवर्ती छोटी पहाड़ियों के साथ स्पर्धा करनेवाली ठोस प्राकृतिक विशाल बाँध से युक्त, समुचित रूप से बने जल निकालने की नालियों, बढ़े जल को निकालनेवाले नालों और

३. गन्दगी से बचने के उपायों से युक्त तीन भागों में विभक्त और सुरक्षा की समुचित व्यवस्था से सम्पन्न सुदर्शन नाम की यह झील इस समय बड़ी अच्छी अवस्था में रही है।

४. सुविख्यात राजा महाक्षत्रप चष्टन के पौत्र [ सुविख्यात ( सुनाम ) राजा क्षत्रप जयदामन के ] पुत्र, श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा सतत स्मरणीय नामवाले राजा महाक्षत्रप रुद्रदामन के बहत्तरवें राजवर्ष में

५. मार्गशीर्ष महीने के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को घनघोर वर्षा हुई, जिससे समस्त पृथ्वी समुद्र के समान प्रतीत होने लगी। फलस्वरूप ऊर्जयंत नाम के पर्वत से निकलनेवाली सुवर्णसिक्ता,

६. पलाशिनी प्रभृति नदियों के उमड़े हुए वेग और पर्वत की चोटियों, वृक्षों, तटों, अटारियों, मकानों के ऊपरी तल्लों, दरवाजों और बचाव के लिये बनाये गये ऊँचे स्थानों को विनष्ट कर देनेवाले

७. प्रचण्ड पवन से विलोड़ित जल के विक्षेप से, यथोचित उपाय किये जाने पर भी जर्जरित होकर पत्थरों, वृक्षों, झाड़ियों और लताओं के फेंके जाने से क्षुब्ध यह सुदर्शन झील नदी की तलहटी तक उखड़ गयी। [ जिसमें ] ४२० हाथ लम्बी और उतनी ही चौड़ी और

८. ७४ हाथ गहरी दरार पड़ जाने के कारण झील का सारा पानी बह गया। फलस्वरूप यह सुदर्शन झील देखने में रेगिस्तान के समान दुर्दर्शन लगने लगी। जन-कल्याण के लिए इस झील को सर्वप्रथम मौर्य वंशी राजा चन्द्रगुप्त के राष्ट्रिक ( राज्यपाल ) वैश्य पुष्यगुप्त ने निर्माण कराया था। तदनन्तर उसमें अशोक मौर्य की ओर से सुराष्ट्र प्रान्त के यवन-शासक तुषास्प ने

९. छोटी-बड़ी नालियाँ बनवायी थीं। राजानुरूप निर्मित उस झील में पड़ी दरार को देखकर जन्म से ही अबाध रूप में प्राप्त राज-लक्ष्मी के धारणात्मक गुणों के कारण रक्षा के निमित्त सभी जाति के लोगों ने जिसे अपना राजा बनाया था, जिसने युद्ध के अतिरिक्त आजीवन मनुष्य-हिंसा नहीं की,

१०. जो सत्य प्रतिज्ञ रहे, जो समर-भूमि में सामने उपस्थित शत्रुओं पर प्रहार करने में हटनेवाले न थे, जो दुर्बल शत्रुओं को अपनी दया का पात्र बनाते थे, जो स्वयं अपने उपस्थित अवनत जन-समूह को दीर्घ जीवन तथा अभयदान देते थे, जिन्होंने चोर-डाकू तथा हिंसक जन, जंगली जानवर और नानाविध रोग आदि से मुक्त, नगर निगम,

११. जनपद से युक्त, सभी प्रकृति से अनुरक्त पूर्वी तथा पश्चिमी आकर, अवन्ति-अनूप, आनर्त, सुराष्ट्र, स्वभ्र, मरु, कच्छ, सिन्धु, सौवीर, कुकुर, अपरान्त, निषाद आदि देशों को अपने पराक्रम से अर्जित किया था, जो अपने प्रभाव के कारण धर्म, अर्थ और काम के स्वामी है, जो सभी क्षत्रियों में प्रख्यात

१२. वीर कहे गये यौधेयों का बल उत्सादन करनेवाले हैं, जो दक्षिणापथ-पति सातकर्णि को खुले मैदान में दो-दो बार पराजित कर निकटतम सम्बन्धी होने के कारण

उच्छेदन न करने का यश प्राप्त करनेवाले हैं, जो सर्वदा सर्वत्र विजय प्राप्त करनेवाले हैं, जो राज्यच्युत राजाओं को फिर से प्रतिष्ठित करनेवाले हैं, जो न्याय के आसन से हाथ उठाकर यथार्थ निर्णय लेकर

१३. धर्म के प्रति अनुराग उपार्जित करनेवाले हैं, जो व्याकरण, राजनीति, संगीत, न्याय आदि महती विद्याओं के अध्ययन, स्मरण, सम्यक् अनुभूति और व्यवहार से प्रभूत यश प्राप्त करने वाले हैं, जो घोड़े, हाथी और रथ के चलानेवाले, ढाल तथा तलवार के युद्ध में अत्यधिक साहस, स्फूर्ति तथा सफाई दिखानेवाले हैं, जो रात-दिन दान तथा सम्मान के विषय में सर्वदा उदार भाव से

१४. सजग रहनेवाले हैं, जो समुचित बलि, कर और राजवंश से मिलने वाले सोना, चाँदी, हीरा, वैदूर्य, रत्नों आदि के ढेर से भरे कोषवाले हैं, जो स्फुट, लघु, मधुर, चित्र, कान्त प्रभृति शब्दों से समुचित रूप से प्रशस्त और अलंकारों से युक्त गद्य-पद्यात्मक काव्य-रचना में निपुण हैं, जो शरीर, बोल-चाल, चाल-ढाल, वर्ण, सत्त्व आदि शारीरिक गुणों तथा लक्षणों से युक्त

१५. कान्ति की मूर्ति हैं, जो स्व-अर्जित महाक्षत्रप उपाधि से भूषित हैं; जो राजकुमारियों से स्वयंवर में अनेक जयमालाओं को प्राप्त करनेवाले हैं, उन महाक्षत्रप रुद्रदामन ने हजारों वर्ष तक गौ तथा ब्राह्मणों की कल्याण-कामना और पुण्य तथा यश की वृद्धि के निमित्त, नगर तथा ग्रामवासी प्रजाजनों को कर, बेगारी और भेंट आदि की पीड़ा दिये बिना ही

१६. अपने राजकोष से अपार धनराशि व्यय कर थोड़े ही समय में पहले की अपेक्षा तिगुने लम्बे-चौड़े तथा सुदृढ़ बाँध को बँधवा कर उस सुदर्शन झील को और अधिक सुन्दर बनवाया।

१७. इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय यह भी है कि झील के दरारों के विकराल रूप को देखकर जब महाक्षत्रप के गुण-सम्पन्न परामर्श देनेवाले अमात्यों और कार्य संपन्न करनेवाले सचिवों में अनुत्साह व्याप्त था और उसके निर्माण कार्य आरम्भ करने के विरुद्ध मत प्रकट करने के कारण

१८. बाँध के फिर से बाँधे जाने की आशा टूट गयी थी, उस समय अपने राज्य की प्रजा के हित को ध्यान में रख कर रुद्रदामन द्वारा समस्त आनर्त और सुराष्ट्र प्रदेश के राज्यपाल के रूप में

१९. [ नियुक्त ] पह्लव कुलैप-पुत्र अमात्य सुविशाख ने, जो धर्म, अर्थ और व्यवहार के समुचित निरीक्षण से प्रजा के अनुराग को बढ़ानेवाले, शक्तिशाली, संयमी, स्थिर, निरभिमानी, आर्योंचित गुणों से सम्पन्न और अपने कर्त्तव्य से कभी न डिगनेवाले थे, सफल शासक के रूप में

२०. अपने स्वामी के धर्म, कीर्ति और यश को बढ़ाने के लिए इस कार्य को पूरा किया।

ऐतिहासिक महत्त्व

ऐतिहासिक सुदर्शन झील का विवरण :-

  • सुदर्शन झील का निर्माण मौर्यकाल में किया गया था। इसको चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में वहाँ के राज्यपाल पुष्यगुप्त ने कराया था। मौर्य सम्राट अशोक महान के समय में उनके प्रांतपति यवन तुषास्फ ने इसका पुनर्निर्माण कराया था।
  • रुद्रदामन के समय में इसका जीर्णोद्धार कराया गया।
  • स्कंदगुप्त के जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है गिरनार के पुरपाल चक्रपालित ने पुनः सुदर्शन झील का पुनर्निर्माण कराया था। चक्रपालित सौराष्ट्र प्रान्त के गोप्ता ( राज्यपाल ) का पुत्र था।
  • इस तरह इतिहास प्रसिद्ध सुदर्शन झील का निर्माण मौर्यकाल में हुआ और उसका गुप्तकाल तक बार-बार पुनर्निर्माण कराया जाता रहा।
  • इससे सम्बन्धित व्यक्ति इस तरह हैं :
    • चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में प्रान्तपति पुष्पगुप्त द्वारा निर्माण
    • सम्राट अशोक के समय प्रान्तपति तुषास्फ ( यवन ) द्वारा विस्तारित
    • रुद्रदामन के समय सुविशाख ( पह्लव ) द्वारा जीर्णोद्धार
    • सम्राट स्कंदगुप्त के समय पुरपाल चक्रपालित ( पर्णदत्त का पुत्र ) द्वारा जीर्णोद्धार

इस अभिलेख में सुदर्शन नामक कृत्रिम झील के बाँध के टूट जाने पर शक महाक्षत्रप रुद्रदामन के अमात्य पह्लव कुलैप-पुत्र सुविशाख द्वारा उसके पुनर्निर्माण कराये जाने का उल्लेख है।

रुद्रदामन का राज्यविस्तार का विवरण :-

इतिहास की दृष्टि से इस अभिलेख का महत्त्वपूर्ण अंश ६ से १६ तक की पंक्तियाँ हैं जिससे शक-महाक्षत्रप रुद्रदामन की प्रशस्ति है। उसमें रुद्रदामन के पुरुषोचित गुण, विद्यानुराग, वीरता, धर्मपरायणता आदि की चर्चा की गयी है। इस अंश में सत्यता और चाटुकारिता दोनों ही हो सकती है। इस अभिलेख से रुद्रदामन के राज्य विस्तार की चर्चा की गयी है। इसके अनुसार रुद्रदामन के शासनकाल में उसके राज्य के अन्तर्गत आकर-अवन्ति, अनूप, आनर्त, सुराष्ट्र, स्वभ्र, मरु, कच्छ, सिन्धु, सौवीर, कुकुर, अपरान्त, निषाद के प्रदेश थे।

अभिलेख में निम्नलिखित स्थानों की विजय करने का श्रेय रुद्रदामन को प्रदान किया गया है :-

  • आकर-अवन्ति — इनसे तात्पर्य पूर्वी तथा पश्चिमी मालवा से है। आकर की राजधानी विदिशा तथा अवन्ति की राजधानी उज्जयिनी में थी।
  • अनूप — नर्मदा तट पर स्थित माहिष्मती में यह प्रदेश स्थित था। इस स्थान की पहचान म० प्र० के खरगोन जनपद में स्थित माहेश्वर अथवा मान्धाता से की जाती है।
  • अपरान्त — इससे तात्पर्य उत्तरी कोंकण से है। इसकी राजधानी शूर्पारक में थी। प्राचीन साहित्य में इस स्थान का प्रयोग पश्चिमी देशों को इंगित करने के लिये किया गया है। महाभारत में इसे परशुराम की भूमि बताया गया है।
  • आनर्त तथा सुराष्ट्र — इनसे तात्पर्य उत्तरी तथा दक्षिणी काठियावाड़ से है। पहले की राजधानी द्वारका तथा दूसरे की गिरिनगर में थी। ये सभी आजकल गुजरात प्रान्त में है।
  • कुकुर — यह आनर्त का पड़ोसी राज्य था। डी० सी० सरकार के अनुसार यह उत्तरी काठियावाड़ में स्थित था।
  • स्वभ्र — गुजरात की साबरमती नदी के तट पर यह प्रदेश स्थित था।
  • मरु — इस स्थान की पहचान राजस्थान स्थित मारवाड़ से की जाती है।
  • सिन्ध तथा सौवीर — निचली सिन्धु नदी घाटी के क्रमशः पश्चिम तथा पूर्व की ओर ये प्रदेश स्थित थे। कनिष्क के सुई-बिहार लेख से निचली सिन्धु घाटी पर उसका अधिकार प्रमाणित होता है। ऐसा लगता है कि रुद्रदामन् ने कनिष्क के उत्तराधिकारियों को हराकर इस भूभाग पर अपना अधिकार कर लिया था।
  • निषाद — महाभारत में इस स्थान का उल्लेख मत्स्य के बाद मिलता है जिससे सूचित होता है कि यह उत्तरी राजस्थान में स्थित था। यहीं पर विनशन तोर्थ था। बूलर ने निषाद देश की स्थिति हरियाणा के हिसार-भटनेर क्षेत्र में निर्धारित की है।

इनमें से आकर-अवन्ति, अनूप, सुराष्ट्र, कुकुर और अपरान्त सातवाहनों के अन्तर्गत थे ऐसा वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि के १९वें वर्ष के अभिलेख से ज्ञात होता है। इनका उल्लेख गौतमीपुत्र सातकर्णि की शासन-सीमा के अन्तर्गत हुआ है। प्रस्तुत अभिलेख की पंक्ति १२ में रुद्रदामन के सम्बन्ध में यह कहा गया है कि उसने दक्षिणापथ पति सातकर्णि को युद्ध में दो बार पराजित किया था। अतः सम्भावना इस बात की है कि इस युद्ध के परिणामस्वरूप ही ये प्रदेश उसके हाथ लगे होंगे।

रुद्रदामन द्वारा दक्षिणापथपति शातकर्णि को दो बार हराना :-

इसी अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने ‘दक्षिणापथ के स्वामी शातकर्णि को दो बार पराजित किया। किन्तु सम्बन्ध को निकटता ( अनतिदूर ) के कारण उसका वध नहीं किया।’ यह पराजित नरेश वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावी था।

वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि के नासिक अभिलेख से पता चलता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णि असिक, अश्मक, मूलक, सुराष्ट्र, कुकुर, अपरान्त, अनूप, विदर्भ, आकर तथा अवन्ति का शासक था। ऐसा प्रतीत होता है कि उसकी मृत्यु के बाद रुद्रदामन् ने उसके उत्तराधिकारी वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावी से उपर्युक्त में से अधिकांश प्रदेशों को जीत लिये थे। सिन्ध-सौवीर क्षेत्र को उसने कनिष्क के उत्तराधिकारियों से जीता होगा।

यौधेयों से युद्ध :-

जूनागढ़ अभिलेख स्वाभिमानी तथा अदम्य यौधेयों के साथ उसके युद्ध तथा उनकी पराजय का भी उल्लेख करता है जिन्होंने संभवत उत्तर की ओर से उसके राज्य पर आक्रमण किया होगा। यौधेय गणराज्य पूर्वी पंजाब में स्थित था। वे अत्यन्त वीर तथा स्वाधीनता प्रेमी थे। पाणिनि ने उन्हें ‘आयुधजीवी संघ’, अर्थात् ‘शस्त्रों के सहारे जीवित रहने वाला’ कहा है। यौधेयों को पराजित कर रुद्रदामन् ने उन्हें अपने नियंत्रण में कर लिया तथा उसका राज्य उनके आक्रमणों से सदा के लिये सुरक्षित हो गया। यौधेयों की प्रशंसा ‘सर्व क्षत्रियों में वीर’ कह कर की गयी है।

आर्थिक जानकारी :- 

रुद्रदामन का जूनागढ़ शिलालेख से हमको छः प्रकार के करों का विवरण मिलता है – बलि, कर, भाग, शुल्क, विष्टि और प्रणय। इसमें प्रथम बार विष्टि ( बेगार ) का अभिलेखीय साक्ष्य मिलता है।

इतिहासबोध :-

इस अभिलेख की एक विशेषता, जिसकी ओर लोगों ने कम ध्यान दिया है, यह है कि इसमें तत्कालीन इतिहास-बोध का परिचय मिलता है। इस अभिलेख में झील के बाँध के पुनर्निर्माण की चर्चा करते समय झील के ५०० वर्ष पूर्व के इतिहास का भी उल्लेख है। उसमें न केवल यह कहा गया है कि मौर्यवंशी चन्द्रगुप्त ने इसे बनवाया और अशोक ने इसका विस्तार किया वरन् इस बात का भी उल्लेख है कि उसके निर्माण-विस्तार में उनके किन अधिकारियों का हाथ था। इस प्रकार का विस्तृत उल्लेख इस बात का प्रमाण है कि उस समय भी लोग इतिहास के महत्त्व से परिचित थे।

इसके अलावा स्वयंवर का भी यह अभिलेखीय साक्ष्य प्रस्तुत करता है।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top