भूमिका
नाम – महास्थान अभिलेख या महास्थान खण्डित प्रस्तर पट्टिका अभिलेख ( Mahasthan Fragmentary Stone Plaque Inscription )
स्थान – महास्थान, बोगरा जनपद; बांग्लादेश
भाषा – प्राकृत
लिपि – ब्राह्मी
विषय – अन्न भण्डारण
महास्थान अभिलेख का मूल पाठ
१ – × नेन [ । ] [ स ] बगि१ यानं [ तल दन स ] सपदिन। [ सु ]
२ – [ म ] ते। सुलखिते पुडनगलते। ए [ त ]
३ – [ नि ] वहिपयिसति। संवगियानं [ च ] [ द ] ने × ×
४ – [ धा ] नियं। निवहिसति। दग-तिया [ ि ] यके × ×
५ – × [ यि ] कसि। सुअ-तियायिक [ सि ] पि गंड [ केहि ]।
६ – × [ यि ] केहि एस कोठागाले कोसं ×
७ – × × ×
संस्कृत छाया
महामात्राणामं वचनेन। षडवर्गीयाणां तिलः दत्तः सर्षपञ्च दत्तम्। सुमात्रः सुलक्ष्मीतः पुण्ड्रनगरतः एतत् विवाहयिष्यति षड्वर्गीयेभ्यश्च दत्तं …… धान्यं निवक्ष्यति उदकात्ययिकाय देवात्ययिकाय शुकात्ययिकाय अपि गण्डकैः धान्यैश्च एष कोष्ठागारः कोषश्च ( परिपूरणीयौ )।
हिन्दी अनुवाद
१ – [ महामात्र के वचन ] से संवर्गीयों के लिये तिल दिया गया और सरसों दी गयी। सु
२ – केवल भली प्रकार लक्ष्मीयुक्त पुण्ड्रनगर से यहाँ
३ – भिजवायेगा एवं संवर्गीयों के लिए दिये गये
४ – धान्य को बतायेगा। उदकात्ययिक
५ – देवात्ययिक तथा शुकात्ययिक हेतु एवं
६ – धान्य से यह कोष्ठागार तथा कोष परिपूरणीय है।
७ – ………………..
महास्थान अभिलेख का ऐतिहासिक महत्त्व
महास्थान वर्तमान में बांग्लादेश में है। यह बोगरा जनपद में गंगा नदी की सहायक पद्मा नदी के तट पर स्थित है। यहाँ से अशोक पूर्व एक अभिलेख प्राप्त हुआ है। यह भग्न अवस्था में है। इसको प्रस्तर पर अंकित किया गया है।
इस अभिलेख के अनुसार इस स्थान का नाम पुण्ड्रनगर था। गुप्तकालीन दामोदर अभिलेख के अनुसार इसका नाम पुण्ड्रवर्धन भुक्ति मिलता है।
सोहगौरा अभिलेख और महास्थान अभिलेख दोनों से आपत्तिकाल अर्थात् अकाल के लिए अन्न भाण्डारण की जानकारी मिलती है। ये दोनों अभिलेख अकाल और धान्य संग्रह के प्राचीनतम् अभिलेखीय साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।
इन दोनों अभिलेखों ( सोहगौरा और महास्थान ) को अशोकपूर्व मौर्यकालीन अभिलेख माना जाता है। अधिकतर विद्वान इसको चन्द्रगुप्त मौर्य के समय का मानते हैं। जैसा कि जैन अनुश्रुतियों से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल के अंतिम दिनों में १२ वर्षीय अकाल पड़ा था। बहुत प्रयत्नों के बाद भी जब सम्राट नियंत्रण न पा सके तो वे अपने पुत्र बिन्दुसार को गद्दी सौंपकर दक्षिण भारत के वर्तमान मैसूर के पास श्रवणबेलगोला तपस्या हेतु जैन मुनि भद्रबाहु के साथ चले गये। जहाँ उन्होंने संलेखना विधि से २९८ ई०पू० में प्राण त्याग दिये। वर्तमान में भी श्रवणवेलगोला के पास चन्द्रगिरि नामक पहाड़ी और पास में ही चन्द्रगुप्त बस्ती नामक मन्दिर है।
यद्यपि १२ वर्षीय अकाल और उस समस्या जनित सिंहासन त्याग को जैनियों की अतिशयोक्ति कहा जा सकता है, परन्तु उपर्युक्त दोनों अभिलेखों व जैन अनुश्रुतियों को साथ विश्लेषित करने से यह तो स्पष्ट होता ही है कि प्राचीन भारत में अकाल पड़ते थे और राज्य उससे निपटने के लिए पहले से ही तैयारी करके रखता था।
१ – इतिहासकार डी०आर० भण्डारकर ने इसको संवंगियानं पढ़ा है और इसका अर्थ ‘बंगाल के लोग’ बताया है। जबकि सरकार ने सवर्ग मानकर इसका अर्थ एक स्थान बताया है।