भूमिका
चन्द्रगुप्त द्वितीय का मथुरा स्तम्भलेख एक प्रस्तर-स्तम्भ पर अंकित है। यह मथुरा नगर स्थित रंगेश्वर महादेव के मन्दिर के निकट चन्दुल-मन्दुल की बगीचे के एक कुएँ में लगा हुआ था। यह अभिलेख अब मथुरा संग्रहालय में संरक्षित है। लेख स्तम्भ के पाँच पहलों पर अंकित है; तीसरे पहल वाला अंश क्षतिग्रस्त है। इसे सर्वप्रथम द० ब० दिस्कलकर ने प्रकाशित किया था। उसके बाद द० रा० भण्डारकर ने उसका सम्पादन किया। भण्डारकर के पाठ में दिनेशचन्द्र सरकार ने कुछ संशोधित किया है।
संक्षिप्त परिचय
नाम :- चन्द्रगुप्त द्वितीय का मथुरा स्तम्भलेख ( Mathura Pillar Inscription of Chandragupta II )।
स्थान :- चन्दुल-मण्डुल या चण्डू-भण्डू की वाटिका, मथुरा; उत्तर प्रदेश।
भाषा :- संस्कृत
लिपि :- ब्राह्मी
समय :- ३८० ई० या ६१ गुप्त सम्वत्। चन्द्रगुप्त द्वितीय का पंचम राज्यवर्ष।
विषय :- शिवलिंग और शैव आचार्यों से सम्बन्धित
मथुरा स्तम्भलेख : मूलपाठ
१. सिद्धम् [ । ] भट्टारक-महाराज- [ राजाधि ] राज श्री समुद्रगुप्त-स-
२. [ त्पु ] त्रस्य भट्टारक-म [ हाराज ]- [ राजाधि ] राज-श्री चन्द्रगुप्त-
३. स्य विजय-राज्य संवत्स [ रे ] [ पं ] चमे [ ५ ] कालानुवर्त्तमान-सं०-
४. वत्सरे एकषष्ठे ६० (+) १ [ आषाढ़ मासे प्र ] थमे शुक्ल दिवसे पं-
५. चम्यां [ । ] अस्यां पूर्व्वा [ यां ] [ भ ] गव [ त्कु ] शिकाद्दशमेन भगव-
६. त्पराशराच्चतुर्थेन [ भगवत्क ] पि [ ल ] विमल शि-
७. ष्य-शिष्येण भगव [ दुपमित ] विमल शिष्येण
८. आर्य्योदि [ त्ता ]चार्य्ये [ ण ] [ स्व ] – पु [ ण्या ] प्यायन-निमितं
९. गुरुणां च कीर्त्य [ र्थमुपमितेश्व ] र-कपिलेश्वरौ
१०. गुर्व्वायतने गुरु [ प्रतिमायुत्तौ ] प्रतिष्ठापितो [ । ] नै-
११. तत्ख्यात्यर्थमभिलि [ ख्यते ] [ । ] [ अथ ] माहेश्वराणां वि-
१२. ज्ञप्तिः क्रियते सम्बोधनं च [ । ] यथाका [ ले ] नाचार्य्या-
१३. णां परिग्रहमिति मत्वा विशङ्कं [ पू ] जा-पुर-
१४. स्कारं परिग्रह-पारिपाल्यं कुर्य्यादिति विज्ञप्तिरिति [ । ]
१५. यश्च कीर्त्यभिद्रोहं कुर्य्याद्यश्चाभिलिखितमुपर्य्यधो
१६. वा स पंचभिर्महापातकैरुपपातकैश्च संयुक्तस्स्यात् [ । ]
१७. जयति च भगवा [ णदण्डः ] रुद्रदण्डो (ऽ) ग्र [ ना ] यको नित्यं [ ॥ ]
हिन्दी अनुवाद
सिद्धि हो। भट्टारक महाराजाधिराज समुद्रगुप्त के सत्पुत्र भट्टारक महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त के विजय-राज्य के वर्ष पाँच, कालक्रम में वर्तमान संवत् ६१ के प्रथम [ आषाढ़ ] के शुक्ल पक्ष की पंचमी का दिन।
इस पूर्व [ कथित दिन को ] भगवत् कुशिक के [क्रम में] दसवें, भगवत् पराशर के [ क्रम में ] चौथे, भगवत् कपिलविमल के शिष्य के शिष्य, भगवत् उपमित के शिष्य आर्य उदिताचार्य ने अपने पुण्य एवं गुरु की कीर्ति के निमित्त गुर्व्वायतन ( गुरु के निवास-स्थान ) में अपने गुरु के नाम से उपमितेश्वर एवं कपिलेश्वर [ दो प्रतिमा अथवा लिंग ] का प्रतिष्ठापन किया।
[ इस लेख को मैं ] अपनी ख्याति के लिये नहीं लिखा रहा हूँ [ वरन् ] माहेश्वरों ( शिव के उपासकों ) को सम्बोधित कर [ बताने के लिये ] विज्ञापित कर रहा हूँ। समय समय पर जो भी आचार्य हों, वे शंका रहित होकर इनकी पूजा, पुरस्कार ( भोग-प्रसाद ) और परिग्रह ( सेवा ) करें। वे इस [ आदेश ] का परिपालन करें इस लिये यह विज्ञप्ति है। जो इस कीर्ति के प्रति द्रोह करेगा अथवा इस विज्ञप्ति [ के आदेश ] को ऊपर-नीचे करेगा ( उलट-फेर करेगा ) ( अर्थात् विपरीत आचरण करेगा ) उसे पंच महापातक और उप-पातक लगेंगे।
अग्रनायक भगवान् दण्ड रूद्रण्ड ( शिव ) की सदा जय हो।
ऐतिहासिक महत्त्व
चन्द्रगुप्त के शासनकाल के मथुरा स्तम्भलेख का कई दृष्टियों से ऐतिहासिक महत्त्व है; यथा –
- पाशुपत सम्प्रदाय की जानकारी मिलती है।
- पाशुपत सम्प्रदाय के आचार्य परम्परा की जानकारी मिलती है।
- इस अभिलेख में दोहरे सम्वत् का उल्लेख मिलता है जिससे गुप्त सम्वत् के निर्धारण में सहायता मिली है।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के लिये ‘महाराज राजाधिराज’ विरुद का प्रयोग मिलता है।
पाशुपत सम्प्रदाय का विवरण
यह लेख मूलतः आचार्य उदित द्वारा उपमितेश्वर और कपिलेश्वर नाम से शिव-लिंग ( अथवा प्रतिमा ) की स्थापना की उद्घोषणा है। आचार्य उदित ने अपने को भगवत् कुशिक की शिष्य परम्परा में बताया है और कहा है कि वे उनकी परम्परा के क्रम में दसवें हैं।
पाशुपत मत के संस्थापक लकुलीन ( लकुलीश ) महेश्वर ( शिव ) के अन्तिम अवतार कहे जाते हैं। वे कायावरोहण या कायावतार ( पूर्ववर्ती बड़ौदा रियासत के डभोई ताल्लुका में स्थित आधुनिक कारवान ) में हुए थे। कहा जाता है उनके चार शिष्य हुए।
वायु और लिंग पुराणों के अनुसार इन शिष्यों के नाम हैं — कुशिक, गर्ग, मित्र और कौरुष्य। चालुक्य शासक शारंगदेव-कालीन सोमनाथ ( काठियावाड़ ) से मिले एक अभिलेख में उनका उल्लेख कुशिक, गार्ग्य, कौरुष्य और मैत्रेय के नाम से किया गया है।
इन चारों शिष्यों ने पशुपत मत के अन्तर्गत अपने अपने सम्प्रदाय स्थापित किये। सोमनाथ अभिलेख के अनुसार गार्ग्य के अपने सम्प्रदाय का केन्द्र काठियावाड़ में सोमनाथ को बनाया था। सम्भवतः उसी प्रकार कुशिक के शिष्य मथुरा आ बसे थे। उन्हीं कुशिक की शिष्य परम्परा की चर्चा इस अभिलेख में है।
पाशुपत सम्प्रदाय में दिवंगत साधुओं को भगवत् और जीवित साधुओं को आचार्य कहते हैं। इस परम्परा के अनुसार उदित ने अपना आचार्य के रूप में तथा अपने पूर्ववर्तियों को भगवत् कह कर परिचय दिया है। उन्होंने अपने को कुशिक की शिष्य परम्परा में दसवां बताते हुए पूरी सूची न देकर अपने से पूर्ववर्ती केवल तीन भगवतों का उल्लेख किया है। इसके अनुसार पराशर के शिष्य कपिलविमल हुए, कपिलविमल के शिष्य उपमितविमल थे और उपमितविमल के शिष्य उदित थे।
इन उदिताचार्य ने गुर्व्वायतन में अपने गुरु उपमित और गुरु के गुरु कपिल की स्मृति में उनके नाम से दो शिव लिंगों की स्थापना की। गुर्व्वायतन का सीधा-साधा अर्थ गुरु-गृह होगा किन्तु यहाँ तात्पर्य दिवंगत शासकों की स्मृति में स्थापित कुषाण-कालीन प्रथा—परम्परा में स्थापित देवकुल की तरह ही दिवंगत पाशुपत-आचार्यो ( भगवत् ) की स्मृति के निमित्त शिवलिंगों की स्थापना के निमित्त बने भवन ( आयतन ) से जान पड़ता है। वह कदाचित् भास द्वारा प्रतिमा नाटक में उल्लिखित प्रतिमा-गृह की तरह ही रहा होगा और उसमें गुरुओं की स्मृति में उनके नाम से लिंग प्रतिष्ठापित किये जाते रहे होंगे। और उन लिंगों पर गुरुओं की प्रतिभा अंकित कर उनमें भेद प्रस्तुत किया जाता रहा होगा। इस अनुमान का समर्थन कारवान से प्राप्त दो लिंगों से होता है जिन पर लकुटधारी लकुलीश का लकुट उच्चित्रित किया गया है। इसी प्रकार उच्चित्रण भाग उदिताचार्य द्वारा प्रतिष्ठापित उपमितेश्वर और कपिलेश्वर नामक लिंगों पर विभेद स्पष्ट करने के निमित्त उपमित और कपिल की छवि अथवा प्रतीकों का उच्चित्रण किया गया रहा होगा।
पंचपातकों का उल्लेख
प्रस्तुत आलेख द्वारा भावी आचार्यों को बिना किसी ननुच के इन लिंगों की पूजा-सेवा करते रहने का आदेश दिया गया है। इस आदेश का कोई उल्लंघन न करें इसलिए यह कह कर उन्हें भयभीत किया गया है कि जो इस आदेश का उलंघन करेगा उसे पाँच महापातक और उपपातक लगेंगे।
मनुस्मृति के अनुसार ब्राह्मण — हत्या, मद्यपान, चोरी, गुरु-भार्या-गमन तथा इनमें से किसी एक भी पाप कृत्य करने वाले से सम्पर्क पाँच महापातक (पाप) थे(६।२३५; ११।५५-५९)।
बौद्ध धर्म में भी पंचपातक का उल्लेख मिलता है। वहाँ मातृ-हत्या, मित्र-हत्या, अर्हत् की हत्या, किसी बुद्ध का रक्त बहाने; तथा संघ-भेद को महा पातक कहा गया है।
ऐसा जान पड़ता है कि इस काल में पाप के आतंक ने काफी जड़ जमा लिया था।
गुप्त सम्वत्
इतिहास की दृष्टि से इस लेख दो बातें उल्लेखनीय हैं : एक तो इसका महत्त्व इस बात में है कि इसमें [ गुप्त ] संवत् के उल्लेख के साथ साथ चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के राज्य-वर्ष का भी उल्लेख है। इस अभिलेख से पूर्व भारतीय नरेश के जो भी अभिलेख मिले हैं, उनमें काल-गणना के लिये केवल उस शासक के राज्य-वर्ष का ही उल्लेख होता रहा। क्रमागत किसी काल-गणना (संवत्) का सर्वप्रथम उल्लेख मथुरा से प्राप्त कुषाण शासकों के अभिलेखों में ही हुआ है। उनमें किसी शासक के स्वतन्त्र राज्य वर्ष की स्पष्ट परिकल्पना नहीं है। कुषाण-संवत् की गणना कनिष्क के राज्य वर्ष के क्रम में की जाती रही है। इस प्रकार इस अभिलेख में राज्य वर्ष और गुप्त संवत् का दुहरा उल्लेख भारतीय अभिलेखों के इतिहास में अनोखा है। काल-गणना के इस दुहरे उल्लेख से यह संकेत स्पष्ट रूप से मिलता है कि इस लेख में राज्य-वर्ष के अनुसार काल-गणना, उस भारतीय परम्परा के क्रम में की गयी है जिसका परिपालन समुद्रगुप्त के ताम्र-शासनों में हुआ है। वांशिक संवत् के उल्लेख में कुषाण कालीन स्थानीय व्यवहार को अपनाया गया है। गुप्त शासकों के जो भी अभिलेख इसके बाद के हैं, उन सब में राज्य वर्ष की गणना-परिपाटी को त्याग कर वांशिक संवत् की परिपाटी को अपनाया गया है।
यह अभिलेख निर्विवाद रूप से गुप्त-सम्वत् के आरम्भ को निश्चित करने में सहायक है। इस दृष्टि से भी इसका महत्त्व है। तन्तुवायों की श्रेणी के मन्दसोर अभिलेख ( आगे अभिलेख २५ ) की सहायता से केवल इतना ही निश्चय किया जा सकता था कि गुप्त संवत् का आरम्भ २८५ अथवा ३१९ ई० में हुआ होगा।
फ्लीट ने जो ३१९ ई० को गुप्त-सम्वत् का आरम्भिक वर्ष निर्धारित किया था, वह सत्य होते हुए भी तब तक अपुष्ट रहा, जब तक कि प्रस्तुत लेख ज्ञात नहीं हुआ। इस अभिलेख के अनुसार गुप्त-सम्वत् ६१ में अधिक मास था। इस अधिक मास का नाम अभिलेख में नष्ट हो गया है। जो कुछ स्पष्ट है, उससे कुछ अनुमान नहीं किया जा सकता। यदि यह ज्ञात होता तो हमारे कार्य को अतिरिक्त बल मिलता। ज्ञात न होने से विशेष हानि भी नहीं है। गुप्त सम्वत् के सम्बन्ध में मन्दसोर अभिलेख के आधार पर उपलब्ध निष्कर्षो से इतना तो अनुमान किया ही जा सकता था कि गुप्त-सम्वत् ६१ (२८५+६१) ३४६ ई० या (३१६+६१) ३८० ई० में आरम्भ हुआ होगा। इन दो वर्षों में से केवल ३८० ई० में ही अधिक मास (आषाढ़) था; ३४६ ई० में कोई भी मास अधिक न था। अतः सुगमता से २८५ ई० को छाँटकर अब दृढ़ता से कहा जा सकता है कि गुप्त-संवत् का आरम्भ ३१९ ई० में हुआ।
महाराज-राजाधिराज विरुद
इस लेख में दूसरी दृष्टव्य बात यह है कि इसमें समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त (द्वितीय) दोनों शासकों को भट्टारक महाराज-राजाधिराज कहा गया है। भट्टारक विरुद तो सामान्य रूप से गुप्त शासकों के लिए प्रयुक्त होता रहा है। इसमें कोई असामन्यता नहीं है। असामन्यता महाराज राजाधिराज विरुद में है जो उनके लिये सर्वाथा अनजाना है और कुषाण शासकों के विरुद षाहि-षाहा-नुषाहि की संस्कृत प्रतिच्छाया है। यह इस तथ्य का प्रतीक जान पड़ता है कि यह अभिलेख ऐसे समय में अंकित किया गया था जब मथुरा में कुषाण शासन की प्रतिध्वनि झंकृत हो रही थी। कहने का तात्पर्य यह है कि इस अभिलेख के अंकन से कुछ ही समय पहले अपने शासन के आरम्भ में ही चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने कुषाण शासन को मथुरा से निकाल बाहर किया होगा। इस प्रकार मध्यदेश से कुषाण शासन के उन्मूलन का समय सहज भाव से ३७५-३८० ई० के बीच निर्धारित किया जा सकता है।