मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख

भूमिका

कुषाणवंशी शासक कनिष्क द्वितीय के शासनकाल का मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख प्राप्त हुआ है। यह प्राकृत मिश्रित संस्कृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में है।

मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख : संक्षिप्त परिचय

नाम :- मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख

स्थान :- मथुरा, उत्तर प्रदेश

भाषा :- प्राकृत ( संस्कृत प्रभावित )

लिपि :- ब्राह्मी 

समय :- कनिष्क द्वितीय ( १४० – १४५ ई० )

विषय :- बौद्ध मूर्ति स्थापना।

 

मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख : मूलपाठ

१. महाराज-देवपुत्रस्य कणिष्कस्य संवत्सरे १० [ + ] ४ पौष दिवसे १० [ । ] अस्मिं दिवसे प्रवरिक ह [ स्थिस्य ]

२. भर्य्य संघिला भागवतो पितहमास्य सम्यसंबुद्धस्य स्वमतस्य देवस्य पूजार्त्थ प्रतिमं प्रतिष्ठा-

३. पयित सर्व्व-दुक्ख-प्रहानार्त्थ॥

हिन्दी अनुवाद

महाराज देवपुत्र कनिष्क के संवत्सर १४ के पौष मास का १०वाँ दिन। इस दिन प्रावारिक ( बौद्ध भिक्षुओं का चीवर बनानेवाला दर्जी या बेचने वाला बजाज ) हस्तिन की भार्या ( पत्नी ) संघिला भगवत पितामह सम्यक्-बुद्ध ‘स्वमत’ वाले देव की मूर्ति-पूजा के निमित्त स्थापित करती है जिससे सारे दुःखों का निवारण हो।

मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख : विश्लेषण

मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख सामान्य रूप से प्रतिमा प्रतिष्ठापन की घोषणा मात्र है। इस अभिलेख में अंकित वर्ष १४ और शासक के रूप में कनिष्क का नाम देख कर इसे अब तक कनिष्क प्रथम के काल का अभिलेख समझा जाता रहा है। परन्तु मूर्ति की कला और अभिलेख की लिपि के सूक्ष्म परीक्षण से यह लेख कनिष्क प्रथम के समय का नहीं ठहरता है।

कनिष्क नामधारी तीन कुषाणवंशी शासक हुए :-

  • कनिष्क प्रथम – ७८ से १०१ ई०
  • कनिष्क द्वितीय – १४० से १४५ ई०
  • कनिष्क तृतीय – १८० से २१० ई०

इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि वर्ष २ और ९८ के बीच ( जिसे कनिष्क या कुषाण संवत् समझा जाता है ) के काल के मथुरा में काफी बड़ी संख्या में मूर्तियों का निर्माण हुआ था। इनमें से अनेक मूर्तियाँ अभिलेखयुक्त हैं। उन पर अंकित तिथि के अनुसार जोहाना लोहिजाँ द लियु ने मथुरा-कला के इतिहास को क्रमबद्ध करने की चेष्टा की है। इस प्रयास में उन्हें अनेक मूर्तियों की शैली तिथि-क्रम से मेल खाती हुई नहीं लगी; वे उनसे सर्वथा भिन्न प्रतीत हुई। उनमें उन्हें ऐसे तत्त्व दिखायी दिये जो उनसे अंकित तिथियों के बहुत बाद की मूर्तियों में पाये जाते हैं। तब उनका ध्यान दो जिन मूर्तियों की ओर विशेष रूप से गया। उन पर अंकित अभिलेखों में एक पर कनिष्क का नाम और वर्ष १५ और दूसरे पर वासुदेव का नाम और वर्ष ८६ का उल्लेख है। इन दोनों ही मूर्तियों में जो अभिलेख हैं उनमें एक ही प्रकार की शब्दावली में कहा गया है कि उन्हें संघमित्रा नाम्नी जैन भिक्षुणी की शिष्या वसुला ने प्रतिष्ठापित कराया था।

तिथियों के अनुसार भिक्षुणी का ७१ वर्षों तक अस्तित्व बना रहना असाधारण लगा। इन दोनों मूर्तियों की कला-शैली का अध्ययन करने पर यह बात सामने आयी कि कनिष्क के नाम और वर्ष १५ वाली मूर्ति वासुदेव के नाम और वर्ष ८६ की मूर्ति के बाद के काल की है; उसमें जो कला-तत्त्व हैं वे बाद के हैं, पूर्ववर्ती नहीं। परवर्ती कला के लक्षण अन्य अनेक मूर्तियों के देखने से प्रकट हुए; यही बात प्रस्तुत अभिलेख की मूर्ति में भी देखने में आयी। इस प्रकार शैली की दृष्टि से परवर्तीकालीन लगनेवाली मूर्तियों पर अंकित तिथियों पर विचार कर यह बात स्पष्ट कि इन परवर्तीकालीन शैलीवाली मूर्तियों पर अंकित तिथियों की गणना १०० के बाद शत संख्या की उपेक्षा कर नये सिरे से गणना १ से आरम्भ की गयी थी। इस प्रकार कनिष्क नामांकित अनेक मूर्तियाँ प्रख्यात कनिष्क से भिन्न कनिष्क की और वासुदेव के उपरान्त काल की हैं।

मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख के लिपि-स्वरूप की ओर लिपि-विशेषज्ञों का ध्यान बहुत पहले गया था। उनकी दृष्टि में यह बात आयी थी कि इस अभिलेख के अक्षर ल, स और ह पूर्वी गुप्त-शैली के तथा प और स पश्चिमी गुप्त-शैली के हैं। इस कारण उन्होंने इसे परवर्तीकालीन होने का सन्देह प्रकट किया था और अनेक विद्वानों ने इस अभिलेख को कनिष्क तृतीय के होने की बात भी कही थी। परन्तु किसी अन्य साक्ष्य के अभाव में वर्ष संख्या के कारण अनेक लोग इसे स्वीकार करने में संकोच करते और येन-केन प्रकारेण समाधान करने की चेष्टा करते रहे हैं। कला-सम्बन्धी अन्तर के विवेचन से इस बात में अब सन्देह नहीं रहा कि यह अभिलेख वासुदेव के काल के बाद का है और इसकी तिथि में शत की संख्या का लोप है। वास्तव में यह कनिष्क सम्वत् [ १ ] १४ का अभिलेख है।

अब तक कनिष्क द्वितीय की कल्पना अनुमान के सहारे कनिष्क और हुविष्क के काल में उपराजा या सहशासक के रूप में की जाती रही है। परन्तु जिस आधार पर इस प्रकार की कल्पना की जाती थी, वह आधार नयी शोधों से निर्मूल प्रमाणित हुई है। अतः मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेखकनिष्क द्वितीय का है।

धार्मिक दृष्टि से इस अभिलेख में प्रयुक्त पितामह और स्वमत शब्द उल्लेखनीय हैं :—

  • पितामह : अनेक लेखों में बुद्ध के लिए पितामह शब्द का प्रयोग हुआ है। यहाँ भी यह प्रयोग उसी प्रकार का है।
  • स्वमत : इस शब्द के सम्बन्ध में दिनेशचन्द्र सरकार की धारणा है कि इसे वास्तव में स्वमत-विरुद्ध होना चाहिए। इसका प्रयोग कुमारगुप्त प्रथम के मानकुंवर अभिलेख में भी हुआ है। वहाँ बुद्ध की प्रतिमा के लिए भगवतो सम्यक् सम्बुद्धस्य स्वमताविरुद्धस्य प्रयुक्त हुआ है। वहाँ उसे स्वमत-अविरुद्ध के रूप में देखा जाता और उसका अर्थ है – वह जो अपने उपदेश के प्रति आस्थावान् हो ( One who lived according to his own teachings ) लिया जाता है। यही भाव स्वमतस्य में भी ध्वनित होता है वह अपने-आपमें पूर्ण है उसे स्वमताविरुद्ध के रूप में देखने की कल्पना करने की आवश्यकता नहीं है।
    • [ स्वास्ति ] नमो बुद्धानं ( । ) भगवतो सम्यक्सम्बुधस्य स्व-मताविरुद्धस्य इयं प्रतिमा प्रतिष्ठापिता भिक्षु बुद्धमित्रेण।

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