भूमिका
बेसनगर गरुड़ध्वज अभिलेख मध्य प्रदेश में विदिशा से कुछ दूर स्थित बेसनगर में एक शिला-स्तम्भ पर अंकित है। यह संस्कृत से प्रभावित प्राकृत भाषा में ब्राह्मी लिपि में लिखा गया है। इसकी लिपि को सामान्यतः ईसा पूर्व दूसरी शती अनुमान किया जाता है किन्तु दिनेशचन्द्र सरकार इसे ई० पू० दूसरी शती के अन्त में रखते हैं।
बेसनगर गरुड़ध्वज अभिलेख : संक्षिप्त परिचय
नाम :- बेसनगर गरुड़ध्वज अभिलेख ( Base Nagar Garuada Pillar Inscription ) या हेलियोडोरस गरुड़ स्तम्भ लेख ( Heliodorus Garuda Pillar Inscription )
स्थान :- बेसनगर, विदिशा जनपद, मध्यप्रदेश
भाषा :- प्राकृत
लिपि :- ब्राह्मी
समय :- शुंगवंशी शासक भागभद्र के शासनकाल का १४वाँ वर्ष ( लगभग द्वितीय शताब्दी ई०पू० )
विषय :- यवन राजदूत हेलियोडोरस द्वारा विदिशा में आकर गरुड़ध्वज की स्थापना।
बेसनगर गरुड़ध्वज अभिलेख : मूलपाठ
पाठ – १
१ — [ दे ] वदेवस वा [ सुदेव ] स गरुड़ध्वजे अयं
२ — कारिते इ [ अ ] हेलिओदोरेण भाग-
३ — वतेन दियस पुत्रेण तखसिलाकेन
४ — योन दूतेन [ आ ] गतेन महाराजस
५ — अन्तलिकितस उपन्ता सकासं रञो
६ — कासी पु [ त्र ] स१ [ भा ] गभद्रस त्रातारस
७. वसेन च [ तु ] दसेन राजेन बधमानस [ । ]
- भण्डारकर, ब्लाख आदि के अनुसार कोसीपुतस (कौत्सीपुत्र) पाठ है। किन्तु कौत्सीपुत्र का प्राकृत रूप कोछीपुतस होगा।१
पाठ – २
१ — त्रिनि अमुत-पदानि [ इअ ] [ सु ] -अनुठितानि
२ — नेयन्ति ( स्वगं ) दम-चाग अप्रमाद [ । ]
संस्कृत अनुवाद
पाठ – १
देवदेवस्य वासुदेवस्य गरुडध्वजः अयं कारित इह हेलियोदोरेण भगवतेन दियस्य पुत्रेण तक्षशिलाकेन यवन दूतेन आगतेन महाराज अंतलिकितस्य उपान्तात् सकाश राज्ञः काशीपुत्रस्य भागभद्रस्य त्रातु: वर्षेण चतुद्र्दशेन राज्येन वद्धमानस्य।
पाठ – २
त्रीणि अमृत पदानि इह सुअनुष्ठितानि नयन्ति स्वर्ग — दमः त्यागः अप्रमादः।
हिन्दी अनुवाद
पाठ – १
१ — देवताओं में श्रेष्ठ वासुदेव का यह गरूड-ध्वज
२ — स्थापित किया गया हेल्योडोरस द्वारा
३ — दिवस या दिय के पुत्र भागवत धर्मानुयायी तक्षशिला के
४ —यवन दूत ने आकर महाराज
५ — अंतलिकितस के समीप से राजा
६ — काशीपुत्र के भागभद्र के
७ — चौदहवें वर्धमान राज्य काल में
[ अर्थात् इस देवदेव वासुदेव के गरुड़ध्वज को मैंने बनवाया। मैं तक्षशिला निवासी भागवत दिय का पुत्र हूँ जो महाराज अन्तलिकिद की ओर से यवनदूत हो यहाँ आया। त्राता राजा काशीपुत्र भागभद्र के १४वें वर्तमान राजवर्ष में। ]
पाठ – २
१ — तीन अमृत पद ये सुअनुष्ठान के द्वारा
२ — स्वर्ग में ले जाते हैं दम, त्याग और अप्रमाद॥
[ अर्थात् अपने अनुष्ठान से किये गये तीन अमृत पद- दम, त्याग और अप्रमाद से स्वर्ग झुक जाता है॥ ]
बेसनगर गरुड़ध्वज अभिलेख : विश्लेषण
राजनीतिक और धार्मिक इतिहास की दृष्टि से इस अभिलेख का महत्त्व है।
राजनीतिक इतिहास की दृष्टि से बेसनगर गरुड़ध्वज अभिलेख से निम्नलिखित बातें प्रकाश में आती हैं :—
(१) इससे यह प्रकट होता है कि उत्तर-पश्चिमी प्रदेश के विदेशी (यवन) शासक मध्य भारत के भारतीय राजाओं के साथ राजनीतिक मैत्री के इच्छुक थे और दोनों राज्यों के बीच राजदूतों का आदान-प्रदान होता था। इस अभिलेख को हेलिओडोरस नामक तक्षशिला निवासी यवन ने अंकित कराया है। हेलियोडोरस यवनराज एन्टियालकीड्स की ओर से राजदूत के रूप में शुंग शासक भागभद्र के विदिशा राजसभा में आया था।
(२) जिस समय यह लेख लिखा गया यवन राज्य में एन्टियालकीड्स नामक राजा था। एन्टियालकीड्स के समय के सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। सामान्यतः उसका समय ई०पू० दूसरी शती का अन्तिम चरण समझा जाता है। यदि इसका समय निश्चित हो सकता तो इस भारतीय नरेश के सम्बन्ध में कुछ सहज रूप से अनुमान किया जा सकता था।
(३) भारतीय नरेश का उल्लेख काशीपुत्र भागभद्र नाम से हुआ है। यह कौन था निश्चित रूप से कहना कठिन है। मालविकाग्निमित्र के उल्लेख को यदि प्रामाणिक माना जाय तो इस काल में विदिशा वाले क्षेत्र में शुंगवंशी राजा शासन कर रहे थे। अतः इसे कोई शुंगवंशी राजा ही होना चाहिए। किन्तु पुराणों में इस वंश के शासकों की जो नामावली उपलब्ध है, उसमें इस नाम का कोई शासक नहीं है। अतः विद्वानों ने इसके सम्बन्ध में विभिन्न मत प्रकट किये हैं। जान मार्शल ने भागभद्र को वसुमित्र के उत्तराधिकारी, पाँचवें शुंगनरेश के रूप में, जिसका उल्लेख ब्रह्माण्ड पुराण में भद्र और भागवत पुराण में भद्रक अथवा भड़क के रूप में हुआ है, पहचानने का यत्न किया है। किन्तु उसकी यह पहचान इस कारण ग्राह्य नहीं है कि उसका शासन-काल पुराणों में केवल २ अथवा ७ वर्ष बताया गया और भागभद्र का यह अभिलेख चौदहवें शासनवर्ष का है। इसके अतिरिक्त अन्य पुराणों में यह नाम सर्वथा भिन्न है। मत्स्यपुराण की विभिन्न प्रतियों में अन्धक, ध्रुक, वृक, अन्तक, वायुपुराण में अन्ध्रक और विष्णुपुराण में आर्द्रक और ओद्रुक नाम है। इसके आधार पर विद्वानों ने अन्ध्रक नाम शुद्ध होने की कल्पना की है। जायसवाल, भण्डारकर, रामप्रसाद चन्दा आदि विद्वान भागभद्र को नवाँ शुंग-शासक अनुमान करते हैं जिसका उल्लेख प्रायः सभी पुराणों ने भागवत नाम से किया है और उसका शासन काल ३२ वर्ष बताया है। किन्तु इस सम्बन्ध में यह द्रष्टव्य है कि बेसनगर से ही एक अन्य गरुड़स्तम्भ पर भागवत नामक शासक के १२वें राज्यवर्ष का लेख मिला है। यह आश्चर्य की बात होगी कि एक ही स्थान से मिले दो अभिलेखों में एक ही व्यक्ति का नाम भागवत और भागभद्र दो रूपों में लिखा जाय और वह भी केवल दो वर्षों के अन्तर से लिखे गये अभिलेखों में। अतः कुछ अन्य विद्वान भागभद्र को शुंगवंशी शासक नहीं मानते। उनकी धारणा है कि वह कोई स्थानीय शासक होगा।
(४) भागभद्र शुंगवंशी अथवा किसी अन्य वंश का हो, इस लेख में उसे त्रातार कहा गया है जो यवन विरुद सोटर (Soter) का पर्याय अथवा समकक्ष है और इसका अर्थ रक्षक (Saviour) होता है। इस विरुद का किसी भारतीय नरेश के लिए प्रयोग असाधारण है। अतः इसका प्रयोग अभिलेख में हेलियोडोरस के आदेश से ही साभिप्राय किया गया होगा। इस विरुद का महत्त्व तब और भी बढ़ जाता है जब हम देखते हैं कि हेलियोडोरस ने अपने नरेश एन्टियालकीड्स के लिए किसी भी यवन विरुद का प्रयोग नहीं किया है। एन्टियालकीड्स तथा उसके तात्कालिक पूर्ववर्तियों में से किसी ने भी इस विरुद का प्रयोग नहीं किया था। वे जयधर (Nikephorus) और ध्रमिक (Dekaious) ही कहे जाते रहे। इस परिप्रेक्ष्य में ऐसा अनुमान सहज रूप से किया जा सकता है कि एन्टियालकीड्स ने किसी घोर विपत्ति की अवस्था में भागभद्र से सहायता की याचना की होगी और उस समय उसे रक्षक के रूप में याद किया होगा। भागभद्र ने उसकी सहायता की या नहीं, यह कहा नहीं जा सकता। यदि की थी और वह सहायता वस्तुतः एन्टियालकीड्स के लिए रक्षक सिद्ध हुई थी, तभी कहा जा सकता है कि इस विरुद का सार्थक प्रयोग हुआ है। उस अवस्था में यह लेख इस प्रकार की सहायता के बाद लिखा गया कहा जा सकता है। यदि लेख ऐसी किसी सहायता के पहले लिखा गया हो तो उसे चाटुकारिता मात्र कह सकते हैं।
धार्मिक दृष्टि से बेसनगर गरुड़ स्तम्भलेख लेख भागवत् धर्म पर प्रकाश डालता है :—
वासुदेव और उनके गरुड़ध्वज के उल्लेख के आधार पर विद्वानों ने अनुमान लगाया है कि इस काल तक (ई०पू० दूसरी शती) वैष्णव धर्म पूर्णतः प्रतिष्ठित हो गया था। किन्तु इस प्रकार का अनुमान प्रकट करने से पूर्व इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि वासुदेव मात्र एक वीर थे उनका पूजा मथुरा के आसपास रहनेवाले वृष्णि लोगों के बीच प्रचलित थी। उनका जन्म वृष्णि लोगों के सात्वत समाज में वसुदेव के घर देवकी के गर्भ से हुआ था। उनको कृष्ण के नाम से भी जाना-पहचाना जाता है। महाभारत में उनकी चर्चा पाण्डवों के सहायक के रूप में की गयी है। महाभारत में प्रत्येक अवसर पर उनकी बड़ाई की गयी है और उसमें उनके जीवन की छोटी-से-छोटी घटनाओं की चर्चा है; किन्तु उनके बचपन के सम्बन्ध में एक शब्द भी नहीं है। इसके विपरीत पुराणों में उनके बाल जीवन की ही चर्चा है; उनके उत्तरवर्ती जीवन का कोई उल्लेख नहीं है। इस प्रकार वासुदेव के जीवन चरित्र को पुराण और महाभारत दोनों मिलकर सम्यक् रूप देते हैं। किन्तु एक दूसरे में वर्णित पक्ष स्वतन्त्र रूप से अपने-आप में महत्त्वपूर्ण और विचारणीय हैं। वासुदेव (कृष्ण) के बचपन का ग्वाल-जीवन कदाचित् आभीर जाति के किसी शिशु देवता के साथ उनके समाहित किये जाने का प्रतीक है। बहुत सम्भव है, आभीरों के शिशु देवता और वृष्णियों के वीर-देवता का एकीकरण समान संस्कृति का परिणाम हो गम्भीर विवेचन से ऐसा जान पड़ता है कि वासुदेव की उपासना में अनेक सूत्रों से आये हुए तत्त्व समाहित थे जिसके कारण कदाचित् उनकी उपासना अधिक लोक प्रचलित और काफी प्राचीन थी। पाणिनि की अष्टाध्यायी में वासुदेवक के रूप में वासुदेव के उपासकों का उल्लेख हुआ है, जो इस बात का प्रतीक है कि उनकी उपासना ईसा पूर्व पाँचवीं शती में प्रचलित थी और यह उपासना कुषाण-काल तक प्रचलित रही। कुषाण-नरेश वासुदेव के सिक्के से यह बात प्रकट होती है। जिस पर Bazodeo नाम से वासुदेव का अंकन किया गया है। वे चतुर्भुज तो हैं पर उनके तीन ही हाथों में आयुध हैं और चौथा कटिविनयस्थ है। वे तीन आयुध हैं- शंख, चक्र और गदा। पुराणों में वासुदेव की चर्चा इन्हीं आयुधों के साथ हुई है। इस प्रकार वासुदेव विष्णु से सर्वथा भिन्न देवता हैं जिनके चारों हाथों में आयुध होने की बात कही और वैष्णव-धर्म की कल्पना की जाती है।
वैष्णव-धर्म के मूल में नारायण नामक एक अवैदिक देवता अनुमान किये जाते हैं। उन्होंने कालक्रम में वैदिक देवताओं के बीच प्रमुख स्थान प्राप्त कर लिया था। पीछे उनकी कल्पना आदिपुरुष के रूप में की और उन्हें भागवत की संज्ञा दी गयी और इसी नाम पर उनका सम्प्रदाय भागवत कहा गया। तदनन्तर किसी समय इस धर्म में विष्णु नामक एक दूसरे वैदिक देवता समाविष्ट हुए। विष्णु का उल्लेख यद्यपि ऋग्वेद में मिलता है पर उस समय उनका महत्त्व कम था। वे इन्द्र के सहायक मात्र समझे जाते थे और देवताओं के बीच उनका स्थान बहुत नीचे था। पीछे लोक-विश्वास में उन्हें काफी मान-सम्मान प्राप्त हुआ। नारायण के साथ विष्णु का सान्निध्य किस प्रकार हुआ और दोनों कब और किस प्रकार एकाकार हुए कहना कठिन है। अनुमान है कि दोनों देवताओं के रूप और कार्यों में लोक दृष्टि से काफी साम्य रहा होगा जिसने दोनों को निकट लाकर एकाकार कर दिया होगा।
इस नारायण-विष्णु से स्वतन्त्र वासुदेव की उपासना कुषाण काल तक होती रही। उसके बाद ही किसी समय वासुदेव-सम्प्रदाय की धारा नारायण विष्णु-सम्प्रदाय की धारा में आकर तिरोहित हुई होगी। इस प्रकार इस अभिलेख को वासुदेव के देवदेव के रूप में उल्लेख मात्र से वैष्णव-धर्म के ई०पू० दूसरी शती में प्रतिष्ठित होने का प्रमाण नहीं कहा जा सकता।
इस अभिलेख में ‘भागवत’ शब्द का जो प्रयोग हेलियोडोरस के पिता दिय के लिए हुआ है, उससे उनके भागवत-धर्म अर्थात् वैष्णव धर्म के अनुयायी होने का भ्रम होता है। किन्तु ‘भागवत’ शब्द से वैष्णव धर्मानुयायी समझने की भावना बहुत पीछे की है। पूर्वकाल में भागवत शब्द का व्यवहार मात्र वैष्णव मतावलम्बियों के लिए ही नहीं होता था। पतंजलि ने अपने महाभाष्य में शिव-भागवतों का उल्लेख किया है। यौधेयगण के सिक्कों पर ब्रह्मण्य (कार्त्तिकेय) के लिए भागवत शब्द का प्रयोग हुआ है। इसी क्रम में देवी भागवत का भी उल्लेख किया जा सकता है। स्पष्ट है कि भागवत शब्द का प्रयोग देवताओं के प्रसंग में सामान्य रूप से होता रहा है।
अतः इस अभिलेख के आधार पर इतना ही कहा जा सकता है कि हेलियोडोरस वासुदेव-भक्त था और हो सकता है कि उसकी तरह ही उनका पिता दिय भी वासुदेव-भक्त रहा हो। यवन वासुदेव-धर्म के प्रति काफी पहले से आकृष्ट रहे यह अगथुक्लेय के उन सिक्कों से प्रकट है जिन पर एक ओर चक्रधारी वासुदेव और दूसरी ओर हलधर बलराम का अंकन है। ये सिक्के अफगानिस्तान और रूस की सीमा पर वक्षुनद के काँठे में एइ-खानुम नामक स्थान से पुरातात्त्विक उत्खनन में प्राप्त हुए हैं।