भूमिका
बिहार स्तम्भ-लेख एक प्रस्तर-स्तम्भ पर अंकित है जो बिहार (पटना) के प्राचीन दुर्ग के उत्तरी द्वार पर पड़ा हुआ मिला था। इसे बिहार के मजिस्ट्रेट ए० एम० ब्राडले उठा लाये और बिहार कचहरी के सामने एक चबूतरे पर उल्टा खड़ा कर दिया और उस पर आँग्ल भाषा में एक लेख अंकित कर दिया था। बाद में वह एक मकान की छत का सहारा बन गया। तदुपरान्त वहाँ से वह पटना संग्रहालय में आया और अब वहीं सुरक्षित रखा है।
इसे १८३९ ई० में रैवनशा ने ढूँढ निकाला था। १८६६ ई० में राजेन्द्रलाल मित्र ने इस लेख की छाप मिट्टी में तैयार कराकर पकवायी और फिर उस पकी हुई मिट्टी की छाप से इस लेख प्रतिलिपि तैयार कर इसका पाठ प्रकाशित किया। तत्पश्चात् कनिंघम महोदय ने स्वतः तैयार किये हुए छाप के आधार पर इसका अपना पाठ प्रकाशित किया। तदनन्तर जे० एफ० फ्लीट ने इसका सम्पादन करके Corpus Inscriptionum Indicarum में किया। बाद में रमेशचन्द्र मजूमदार ने फ्लीट महोदय की कतिपय भूलों की ओर ध्यान आकृष्ट किया था। इधर कुछ विद्वानों ने इसके पाठ पर पुनर्विचार किया है।
संक्षिप्त परिचय
नाम :- बिहार स्तम्भ-लेख
स्थान :- बिहार, पटना; बिहार
भाषा :- संस्कृत
लिपि :- उत्तरवर्ती ब्राह्मी
समय :- गुप्तकालीन, शासक का स्पष्ट अनुमान करना कठिन, इससे इतना ही स्पष्ट होता है कि यह पूरुगुप्त के पुत्र अभिलेख है।
विषय :- गुप्त राजवंशावली, प्रशासन का विवरण, सम्भवतः किसी मंदिर का निर्माण व अक्षयनीवी दान। अन्यंत क्षतिग्रस्त होने के कारण विषय अनुमान आधारित।
मूलपाठ
(१)
१. ……. — ……. — ……. ……… — — ……… ……. — ……. — ……. ……… — — ……… [।]
नृ-चन्द्र इन्द्रानुज-तुल्य-वीर्यो गुणैरतुल्यः ……. — ……. — ……. ……… — [॥] १
२. ……. — ……. — ……. ……… — — ……… ……. — ……. — ……. ……… — — ………[।]
तस्यापि सूनुर्भुवि स्वामि-नेयः ख्यातः स्वकीत्या ……. — ……. — ……. ……… — — [॥] २
३. ……. — ……. — ……. ……… — — ……… ……. — ……. — ……. ……… — — ……… [।]
[स्व]सैव यस्यातुल-विक्रमेण कुमारगु[प्तेन] ……. — ……. — ……. ……… — — ……… [॥] ३
४. ……. — ……. — ……. ……… — — ……… ……. — ……. — ……. ……… — — ……… [।]
[पि]त्रिंश्च देवांश्च हि हव्य-कव्यैः सदा नृशंस्यादि ……. — ……. — ……. ……… — — [॥] ४
५. ……. — ……. — ……. ……… — — ……… ……. — ……. — ……. ……… — — ……… [।]
[अ]चीकरद्देवनिकेत-मंडलं क्षितावनौपम्य ……. — ……. — ……. ……… — — ……… [॥] ५
६. ………….. [बटे ?] किल[।] स्तम्भ-वरोच्छिय-प्रभास तु मण्ड …………………………….. [॥] ६
७. ………….. भिर्वृक्षाणां [।] कुसुम-भरानताग्र-[शुंग ?]-व्यालम्ब-स्तवक ……………….. [॥] ७
८. ……. — ……. — ……. ……… — — ……… ……. — ……. — ……. ……… — — ……… [।]
भद्रार्य्य्या भाति गृहं नवाभ्रनिर्म्मोक-निर्मु[क्त] ……. — ……. — ……. ……… — — [॥] ८
९. ……. — ……. — ……. ……… — — ……… ……. — ……. — ……. ……… — — … [।]
स्कन्द-प्रधानैर्भुवि मातृभिश्च लोकान्स सुष्य (?) ……. — ……. — ……… — — [॥] ९
१०. ……. — ……. — ……. ……… — — ……… ……. — ……. — ……. ……… — — ………
……. — ……. — ……. ……… — ……. ……… — — ……… यपोच्छयमेव चक्क्रे [॥] १०
भद्रार्य्यादि — — — — —
११. ……………. न्द्रगुप्त-बटे अन्शानि ३०(+)५ ता(?) म्रकराकु(?): कल ………..
१२. — — — — पितुः स्वामातुर्य्यद्दस्ति हि दुष्यकृतं भवतु तत्रे — —
१३. …………. काग्रहारे अन्शानि ३ अनन्तसेननोप …………..
X X X
( २)
१४. ……….. [सर्व्व-राजोच्छे]त्तुः प्रिथिव्यामप्रतिरथस्य
१५. [चतुरुदधि-सलिलास्वादित-यशसो धनद-वरुणेन्द्रान्तक-समस्य कृतान्त-]
१६. [परशोः न्यायागतानेक गो-हिरण्य-कोटि-प्रदस्य चिरो]त्सन्नाश्वमेधाहर्तुः
१७. [महाराज-श्रीगुप्त-प्रपौत्रस्य महाराज श्रीघटो]त्कच-पौत्रस्य महाराजा-
१८. [घिराज-श्रीचन्द्रगुप्त-पुत्रस्य लिच्छवि दौहित्रस्य म]हादेव्यां कुमारदेव्यामुत्पन्नस्य
१९. [महाराजाधिराज-श्रीसमुद्रगुप्तस्य पुत्र]स्तत्परिगृहीतो महादेव्यां
२०. [दत्तदेव्यामुत्पन्नः स्वयं चाप्रतिरथः पर]मभागवतो महाराजा-
२१. [धिराज-श्रीचन्द्रगुप्तस्तस्य पुत्रस्तत्पादानुर्द्ध्या]तो महादेव्यां ध्रुवदेव्या-
२२. [मुत्पन्नः परम-भागवतो महाराजाधिराज श्रीकुमारगुप्तस्तस्य]पुत्रस्तत्पादानुयातः –
२३. [महादेव्यमनन्तदेव्यामुत्पन्नो परम-भागवतो महाराजाधिराज-श्रीपूरु]गुप्तः [।।]
२४. तत्पुत्रस्तत्पादानुध्यायतः महादेव्यां …….. देव्यामुत्पन्नो] परमभागवतो
२५. [महाराजाधिराज-श्री …….. गुप्तः] ……… [राजगृह] [वै]षयिकाजपुरक-सामै [ग्राम]-
२६. ……… ग्रा …….. क …. [अ]क्षय-नीवी ग्रामक्षेत्रं
२७. ……… [अधि]कृ[त] उपरिक-कुमारामात्प-
२८. ……… [औद्र]ङ्गि[क]कुलः वणि[ज]क पादितारिक-
२९. …….. [आ]ग्रहारिक-शौल्किक-गौल्मिकास[न]न्यांश्च-
३०. …….. वा[सि]कादीनस्मत्प्रसादोपजीविनः
३१. [कुशलमाशंस्य समाज्ञापयति] …… वर्म्मणा विज्ञापितो(ऽ)स्मि मम पितामहेन
३२. [पुण्याभिद्धये] …… भट्ट-गुहिलस्वामिना भद्रा [र्य्य का]
३३. …….. [प्र]ति[ष्ठापिता] ….. आग्रोकय ….. नाकय …..
हिन्दी अनुवाद
( १ )
१. …….. मनुष्यों में चन्द्रस्वरूप, शक्ति में इन्द्र के अनुज (विष्णु) के समान गुणों में अनुपम।
२. तदुपरि, पृथ्वी पर (अपने) स्वामी के प्रति भक्त उसका पुत्र, अपने यश से सुविख्यात …….
३. जिसकी [बहन] अतुलनीय पराक्रम वाले कुमारगुप्त की [परिणीता थी]।
४. …….. हव्य (देवताओं के निमित्त दी गयी आहुति) और कव्य (पितरों के निमित्त दी गयी आहुति) से युक्त …… सदैव मनुष्यों के लिये हानिकर वस्तुओं ……
५. ……. मन्दिर-समूह को बनवाया जिनकी विश्व के किसी वास्तु से तुलना नहीं हो सकती।
६. ……. निश्चित ही इसमें …….. जो कि इस उत्कृष्ट स्तम्भ की स्थापना से सुन्दर है।
७. ………. उदुम्बर और एरण्ड वृक्षों के समूह, जिनके सिरे अपने पुष्प-भारों से झुके हुए हैं।
८. ………. भद्रार्थ्य (की उपस्थिति) से ……. गृह प्रकाशमान है; नूतन मेघों से आच्छादित आकाश …….
९. ……… पृथ्वी पर स्कन्द तथा मातृकाओं के नेतृत्व में …….. मनुष्य
१०. …… इस यूप की स्थापना करायी …… भद्रार्थ तथा अन्य ……
१२. …… गुप्तवाट नामक ग्राम में ३० तथा ५ अंश …….
१३. ….. के अग्रहार में ……. ३ अंश …… अनन्तसेन द्वारा।
( २ )
सब राजाओं के उन्मूलक, पृथ्वी पर अप्रतिरथ (जिसके समान पृथ्वी पर अन्य कोई न हो), चारों समुद्रों के जल से आस्वादित कीर्तिवाले, कुबेर (धनद), वरुण, इन्द्र तथा यम (अन्तक) के समान, कृतान्त के परशु-तुल्य, न्याय से उपलब्ध अनेक गो और कोटि हिरण्य (सिक्के) के दान-दाता, चिरोत्सन्न-अश्वमेधहर्ता, महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त के पुत्र, लिच्छवि-दौहित्र महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्त। (१४-१६)
उनके पुत्र परिगृहीत महादेवी दत्तदेवी से उत्पन्न अप्रतिरथ परमभागवत महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त। (१६-२१)
उनके पुत्र, पादानुध्यात, महादेवी ध्रुवदेवी से उत्पन्न परमभागवत महाराजाधिराज श्री
कुमारगुप्त। (२१-२२)
उनके पुत्र पादानुध्यात महादेवी अनन्तदेवी से उत्पन्न परमभागवत महाराजाधिराज श्री पूरुगुप्त। २२-२३
उनके पुत्र, पादानुध्यात महादेवी …… से उत्पन्न परमभागवत श्री ….. गुप्त। २४
[राजगृह] विषय के अजपुर ग्राम …… के अक्षय-नीवी ग्राम क्षेत्र के ….. उपरिक, कुमारामात्य, ….वणिजक, पादितारिक ……. आग्रहारिक, शौल्किक, गौल्मिक ……. वासिक आदि [जो] मेरे प्रसाद (कृपा) पर आश्रित (उपजीवी) हैं, उन सबकी कुशल-मंगल की कामना करते हुए यह आज्ञा देते हैं। २५-३१
..…. वर्मन ने हमसे निवेदन किया है कि मेरे पितामह — — — — ने भद्रार्य्यक के भट्ट-गुहिलस्वामी को ……. । ३१-३३
विश्लेषण
पूरुगुप्त-पुत्र के बिहार स्तम्भ-लेख के दो भाग हैं। दोनों के बीच में दो रेखाएँ खींचीं गयी हैं। पहले भाग (पंक्ति संख्या १ से १३) स्तम्भ के चार पहलों पर और दूसरा खण्ड (पंक्ति संख्या १४ से आगे) केवल तीन पहलों पर अंकित है। पंक्ति संख्या ३६ के आगे भी लेख का कुछ अंश रहा होगा जो अब अनुपलब्ध है। पंक्ति संख्या १ से १० में लेख पद्यात्मक है, शेष भाग गद्यात्मक है। लेख के उपलब्ध अंशों से ज्ञात होता है कि प्रथम खण्ड के दोनों ओर की पत्तियाँ अधूरी हैं अर्थात् उनका कुछ भाग और दूसरे खण्ड के बायीं ओर का अंश अनुपलब्ध है।
बिहार स्तम्भ-लेख के दूसरे खण्ड की पंक्ति संख्या १४ से २३ तक गुप्त-वंशावली है; इस अंश की अभिलेखों में उपलब्ध वंशावली के आधार पर पूर्ति की जा सकती है। इस पूर्ति से यह ज्ञात होता है कि प्रत्येक पंक्ति में २० अक्षर के लगभग रहे होंगे, जिनमें आरम्भ के लगभग १८ अक्षर अप्राप्त हैं। इसी प्रकार प्रथम खण्ड की पतियों में आरम्भ के लगभग २२ और अन्त के लगभग ६ अक्षर अनुपलब्ध हैं। आरम्भ की दो पंक्तियाँ अर्थात् प्रथम श्लोक का प्रथम चरण और दूसरे चरण का उत्तरार्ध भी अनुपलब्ध है। इस प्रकार प्रथम खण्ड इतना अधिक है कि उसकी न तो किसी आधार पर पूर्ति की जा सकती है और न अभिप्राय ही समझा जा सकता है।
दिनेशचन्द्र सरकार की धारणा है कि खण्ड २ राज्य शासन की प्रतिलिपि जान पड़ती है और पंक्ति संख्या १४ से २३ तक उस शासन के मुहर की अभिव्यक्ति है।
कुछ विद्वानों की धारणा है कि बिहार स्तम्भ-लेख का दूसरा खण्ड पहले लिखा गया था और बाद में स्तम्भ के ऊपरी भाग को खाली जगह का उपयोग लेखन में किया गया है। उनकी बातों से ऐसा झलकता है कि वे लेख के दूसरे खण्ड को पहले खण्ड के क्रम में ही उस अन्तिम भाग अनुमान करते हैं।
पहला भाग
प्रथम खण्ड का लेख (पंक्ति १-१३) अत्यन्त खण्डित होने के कारण उसके सम्बन्ध में विस्तृत रूप से कुछ कहना सम्भव नहीं है। इतना ही कहा जा सकता है कि किसी व्यक्ति ने देवताओं और पितरों को हव्य-कव्य देकर अनुपम मन्दिर समूह (देवनिकेतन मण्डल) का निर्माण कराया था जिसमें स्कन्द, भद्रार्या और अन्य मातृकाओं के मन्दिर थे। इनके साथ ही उसने एक स्तम्भ भी स्थापित किया था। सम्भवतः यह वही स्तम्भ था जिस पर यह लेख अंकित है। पंक्ति संख्या ११ में यूप का भी उल्लेख किया गया है। इसका तात्पर्य कदाचित् इसी स्तम्भ से होगा। यदि यही बात हो तो कहा जा सकता है कि किसी यज्ञ के पश्चात् यह यूप (स्तम्भ) स्थापित किया गया रहा होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि पंक्ति संख्या ६-१० में उक्त मन्दिरों और यूप की प्रशंसा अथवा परिचय दिया गया था। यह मन्दिर समूह और यूप किसी ऐसे स्थान पर बनाये गये थे जिसके नाम के अन्त में वट था। जे० एफ० फ्लीट ने इस नाम की पूर्ति स्कन्दगुप्तवट के रूप में करने की चेष्टा की है। दिनेशचन्द्र सरकार ने केवल न्द्रगुप्तबटे पढ़ा है। उसकी पूर्ति लोग इन्द्र अथवा चन्द्र के रूप में करते हैं। वास्तविक नाम क्या था कहा नहीं जा सकता। तदनन्तर निर्माता ने कहा है कि यदि उसके माता-पिता से कोई दुष्कृत्य हुआ हो तो मेरे इस कार्य से उसका निवारण हो सकेगा।
मन्दिर-समूह और स्तम्भ के प्रतिष्ठापक का नाम पंक्ति संख्या ३-४ के अनुपलब्ध भाग में रहा होगा। अन्तिम पंक्ति संख्या १३ में अनन्तसेन का नाम दिया हुआ है। उससे ऐसा लगता है कि उसने उक्त ग्राम का कुछ अंश अग्रहार के रूप में भद्रार्यादि के मन्दिरों के लिये दिया था; स्पष्ट कुछ नहीं है। इस अनन्तसेन को ही इस धर्म-संस्थान का संस्थापक अनुमान किया जाता है।
आरम्भ की तीन पंक्तियों में जो कुछ उपलब्ध है उससे ऐसा लगता है कि उसमें संस्थान के निर्माता का परिचय रहा होगा। प्रथम पंक्ति में नृ-चन्द्रइन्द्रानुजतुल वीर्यो गुणैतुल्यः विशेषण-युक्त किसी व्यक्ति का उल्लेख है। दूसरी पंक्ति में उसके पुत्र का स्वामिनेयः ख्यातः स्वकीर्त्या कहा गया है। तीसरी पंक्ति में सैव यस्यातुल विक्रमेण कुमारगुप्तेन है। इस तीसरी पंक्ति में स्पष्ट रूप से अतुल विक्रमी कुमारगुप्त का उल्लेख है। कुमारगुप्त का तात्पर्य कुमारगुप्त (प्रथम) से ही होगा, यह मानकर श्रीधर वासुदेव सोहोनी की कल्पना है कि प्रथम पंक्ति में समुद्रगुप्त की दूसरी पंक्ति में उनके पुत्र चन्द्रगुप्त (द्वितीय) की; तदन्तर उनके पुत्र कुमारगुप्त का उल्लेख है। प्रथम पंक्ति के विशेषण समुद्रगुप्त के उपयुक्त हैं। इसलिए उनके अनुमान की सार्थकता प्रतीत होती है। वैसी अवस्था में अनुमान करना होगा कि कुमारगुप्त ने ही देवता और पितरों की पूजा कर स्कन्द और भद्रार्यादि के मन्दिर बनवाये थे। किन्तु भण्डारकर ने इसे कुमारगुप्त के उत्तराधिकारी स्कन्दगुप्त के काल का अनुमान किया है। किन्तु उनकी बात का आधार स्पष्ट नहीं है।
जे० एफ० फ्लीट ने पंक्ति संख्या ३ के उपलब्ध अंश के आरम्भ में स्वसैव पाठ का अनुमान किया है और पूरी पंक्ति का अनुवाद जिसकी बहन परम विक्रमी कुमारगुप्त की पत्नी थी किया है। यदि फ्लीट का यह पाठ और अनुवाद ठीक है, जैसा कि अनेक विद्वान् मानते हैं, तो सहसा ध्यान भितरी मुद्रा-लेख की ओर जाता है जिसमें कुमारगुप्त की पत्नी के रूप में अनन्तदेवी का उल्लेख है। भाई-बहनों के समान नाम की प्राचीन प्रथा के आधार पर पंक्ति संख्या १३ में उल्लिखित अनन्तसेन को अनन्तदेवी का भाई अनुमान किया जा सकता है। इस प्रकार इन तीन पंक्तियों में अनन्तसेन, उसके पिता और पितामह के उल्लेख की कल्पना उभरती है।
वास्तविकता जो भी हो, सोहोनी और फ्लीट दोनों ही विद्वानों की कल्पनाओं के अनुसार पहला खण्ड कुमारगुप्त प्रथम के काल का ठहरता है। यदि दूसरा खण्ड पूरुगुप्त के पुत्र के काल का है, जैसी कि डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त की धारणा है, तो इन दोनों आलेखों के बीच लगभग तीस बरसों का अन्तराल स्पष्ट है। भण्डारकर ने इसे बुधगुप्तकालीन अनुमान किया है किन्तु यह नरसिंहगुप्त अथवा वैन्यगुप्त का भी हो सकता है।
धर्म-संस्थान में प्रतिष्ठित देवताओं के रूप में स्कन्द, भद्रार्य और मातृकाओं का उल्लेख हुआ जान पड़ता है। भद्रा स्कन्द-पत्नी के नामों में से एक हैं। उन्हें षष्ठी भी कहते हैं और वे शिशुओं की रक्षिका कही जाती हैं। इस रूप में शिशु के जन्म के छठे दिन उनकी पूजा देश के अनेक भागों में छठी के नाम से प्रसिद्ध है। मातृकाओं की संख्या सामान्यतः सात समझी जाती हैं; उनके नाम हैं— ब्राह्मी (ब्रह्माणी), माहेश्वरी (दुर्गा), कौमारी (कार्तिकेय-पत्नी), वैष्णवी, माहेन्द्री (इन्द्राणी), बाराही और चामुण्डा। कहीं-कहीं इन्हें आठ भी कहा गया है और परवर्ती काल में तो इनकी संख्या नौ, सोलह आदि कही जाने लगी थी। स्कन्द के साथ मातृकाओं का उल्लेख कदम्ब और चालुक्यों के अभिलेखों में भी प्राप्त होता है।
दूसरा भाग
बिहार स्तम्भ लेख की पंक्ति संख्या १४ से २२ तक समुचित पूर्ति के साथ समुद्रगुप्त से आरम्भ कर कुमारगुप्त (प्रथम) तक शासकों का क्रमबद्ध उल्लेख है। पंक्ति संख्या २३ का पाठ विवादास्पद रहा है इस पंक्ति के अन्त के केवल तीन अक्षर उपलब्ध हैं जिनमें केवल दो का पाठ गुप्तः के रूप में निर्विवाद है उनसे पूर्व के अक्षर को फ्लीट ने न्द पढ़कर शासक के नाम की पूर्ति स्कन्दगुप्त के रूप में की थी। इस प्रकार यह लेख बहुत काल तक स्कन्दगुप्त का समझा जाता रहा है और अनेक विद्वान उसे आज भी उसका ही मानते हैं परन्तु अभिलेख में उपलब्ध इस अक्षर को किसी प्रकार भी अनुमान नहीं किया जा सका। राजेन्द्रलाल मित्र ने इसे प्ल पढ़ा था। किन्तु रमेशचन्द्र मजूमदार ने इस ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि यह अक्षर वस्तुतः रु है अतः यह नाम पूरु होगा, स्कन्द नहीं। उनकी इस बात को अधिकांश विद्वानों ने स्वीकार कर लिया है फलतः दिनेशचन्द्र सरकार ने अपने Select Inscriptions में यही पाठ स्वीकार किया है वे इसे सन्दिग्ध भाव से पूरुगुप्त का लेख मानते हैं।
वस्तुतः बिहार स्तम्भ-लेख स्कन्दगुप्त का तो है ही नहीं, पूरुगुप्त का भी नहीं है, वरन् लेख में वंशक्रम पूरुगुप्त के भी आगे भी जाता है जैसा कि पंक्ति संख्या २४ में उपलब्ध परम भागवत शब्द से अनुमान किया जा सकता है। दिनेशचन्द्र सरकार ने इसके आगे पंक्ति संख्या २५ में भी महाराजाधिराज श्री गुप्त पाठ का अनुमान किया है। इसका कारण सम्भवतः यह है कि पंक्ति संख्या २३ में गुप्त के आगे विसर्ग है। यह बात विद्वान को खटक रही है कि यदि शासन-क्रम आगे जाता तो मुद्रा लेखों की परम्परा में यहाँ पूरुगुप्तस्य होना चाहिये था। यह बात विचारणीयअवश्य है पर उतनी चिन्त्य नहीं, जितनी उनकी यह कल्पना कि अगली पंक्ति में गुप्त का ही नाम दुहराया गया है। इस प्रकार की पुनरुक्ति भारतीय अभिलेखों में अन्यत्र अनजानी है। स्वयं दिनेशचन्द्र सरकार ने पंक्ति संख्या २२ में अनुपलब्ध अंश का पाठ श्री कुमारगुप्तस्य पुत्र के रूप में प्रस्तुत किया है। उसी क्रम में यहाँ भी पूरुगुप्तस्य पुत्र पाठ हो सकता था परन्तु लेखक ने यहाँ सन्धि न करके पूरुगुप्तः के साथ पक्ति समाप्त कर दी और अगली पंक्ति को तस्यपुत्र से आरम्भ किया होगा और उसमें पूरुगुप्त के पुत्र का नाम रहा होगा, जो अनुपलब्ध है यह नाम बुधगुप्त, वैन्यगुप्त या नरसिंहगुप्त में से कोई भी हो सकता है। भण्डारकर ने छाबड़ा और गाइ द्वारा सम्पादित कार्पस इन्स्कृप्पशनम् इण्डिकेरम् के संस्करण में इसे बुद्धगुप्त अनुमान किया गया है।
पंक्ति संख्या २५ के उत्तरार्ध से राज्यादेश आरम्भ होता है। इसमें अजपुर ग्राम का उल्लेख है, जो किसी विषय के अन्तर्गत था। यह लेख पटना संग्रहालय में आने से पूर्व बिहार नामक स्थान पर था; वहाँ भी वह अन्यत्र से लाया गया था अतः अजपुर, जहाँ यह स्तम्भ मूलतः स्थापित किया गया रहा होगा, बिहार से बहुत दूर न रहा होगा। नालन्दा से मिले लेखों में प्रायः राजगृह विषय का उल्लेख हुआ है। बिहार नालन्दा से बहुत दूर नहीं है। अतः यह सहज अनुमान किया जा सकता है कि यह क्षेत्र राजगृह के अन्तर्गत ही रहा होगा। अतः वैषयिक के पहले राजगृह शब्द रहा होगा, यह अनुमान समीचीन है।
इस शासनादेश को यदि गुनैघर ताम्रलेख के परिप्रेक्ष्य में देखें, जो इसके समान राज्यादेश है, तो पायेंगे कि उसकी पंक्ति संख्या २ के अन्त में स्वपादोपजीविनश्च कुशलमाशस्य समाज्ञापयति अंकित है। यहाँ भी अस्मत्प्रसादोपजीविनः का प्रयोग हुआ है। अतः सहज कल्पना की जा सकती है कि इसके आगे यहाँ भी कुशलमाशस्य समाज्ञापयति शब्द ही रहे होंगे और तब हम यह भी अनुमान कर सकते हैं कि यह शासन राजगृह विषय और अजपुर ग्राम से सम्बन्धित निवासियों और राज्याधिकारियों को सम्बोधित किया गया होगा। लगता है कि अजपुर के निकट आग्रहारिक अक्षयनीवि ग्रामक्षेत्र था अर्थात् ऐसे खेत थे जिन्हें अक्षयनीवी-धर्म के अनुसार अग्रहार रूप में दिया गया था। अतः स्वाभाविक रूप से अग्रहारिकों को सम्बोधित किया गया है। तदनन्तर उपरिक, विषयपति, औद्रंगिक, कुलिक (जिन्हें यहाँ कुल कहा गया है) नगर-श्रेष्ठि (जिसे यहाँ वणिजक कहा गया है), पादितारिक, आग्रहारिक, शौल्किक और गौल्मिक आदि सम्बद्ध अधिकारियों का उल्लेख है। लेख खण्डित होने के कारण यह सूची अपूर्ण है; अन्यथा इससे समूचे प्रशासन तन्त्र की व्यवस्थित जानकारी उपलब्ध हो सकती थी।
बिहार स्तम्भ-लेख में जो नाम उपलब्ध हैं उनमें :
- उपरिक, भुक्ति के शासक के रूप में ज्ञात है।
- औद्रंगिक, सम्भवतः राजस्व के रूप में प्राप्त होनेवाले धान्य एकत्र करनेवाले अधिकारी को कहते थे।
- आग्रहारिक सम्भवतः अग्रहार सम्बन्धी व्यवस्था की देखरेख करनेवाला अधिकारी होगा।
- शौल्किक कदाचित् चुंगी (कर) वसूल करनेवाले अधिकारी को कहते रहे होंगे।
- गौल्मिक का सम्बन्ध वन-विभाग से रहा होगा।
ग्रामवासियों और राज्याधिकारियों को सम्बोधित कर आगे बताया गया है कि किसी वर्मन नामान्त व्यक्ति (नाम का पूर्वांश अनुपलब्ध है) ने सम्भवतः अपने पितामह की इच्छा के अनुसार गुहिलस्वामी के पक्ष में, जिसका भद्रार्य के मन्दिर से किसी प्रकार का सम्बन्ध था, अग्रहार प्रतिष्ठित किये जाने की प्रार्थना की थी। आगे का अंश अनुपलब्ध है; किन्तु गुनैधर ताम्रलेख के परिप्रेक्ष्य में स्वाभाविक रूप से अनुमान किया जा सकता है कि इस अनुपलब्ध अंश में गुहिलस्वामी के पक्ष में अग्रहार प्रतिष्ठित किये जाने की घोषणा रही होगी। तदनन्तर अग्रहार में हस्तक्षेप करने के प्रति निषेधात्मक श्लोकों का उल्लेख, अग्रहार भूमि की सीमा, दूतक, लेखक और तिथि का उल्लेख रहा होगा। इनके क्रम में कुछ उलटफेर सम्भव हो सकता है।
सारनाथ बुद्ध-मूर्ति लेख; गुप्त सम्वत् १५४ ( ४७३ ई० )