समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति

भूमिका

प्रयाग प्रशस्ति ३५ फुट ऊँचे पत्थर के एक गोल स्तम्भ पर अंकित है, जो प्रयागराज ( इलाहाबाद ) में गंगा-यमुना तट पर स्थित मुगल कालीन दुर्ग के भीतर अवस्थित है। मूल रूप में सम्भवतः यह कौशाम्बी ( आधुनिक कोसम ) में, जो प्रयागराज के लगभग ४० किलोमीटर की दूरी पर पश्चिम की ओर यमुना तट पर स्थित है, स्थापित था। वहाँ से मुगल बादशाह अकबर के समय इसे लाकर वर्तमान स्थल पर खड़ा किया। यह स्तम्भ मूलतः मौर्य सम्राट अशोक-कालीन है। उस पर उसका कौशाम्बी स्थित महामात्यों को सम्बोधित किया गया शासनादेश अंकित है। इस अभिलेख में पंक्तियों के ऊपर तथा बीच में मध्यकाल में लोगों ने कुछ लिखने का प्रयास किया था, जिसके कारण तथा काल-कारण से चिप्पी उखड़ने से अभिलेख का आरम्भिक अंश क्षतिग्रस्त हो गया है।

इस अभिलेख को सर्वप्रथम १८३४ ई० में बंगाल एशियाटिक सोसाइटी के जर्नल में कप्तान ए० ट्रायर ने प्रकाशित किया था। उसके बाद डब्लू० एच० मिल, जेम्स प्रिंसेप, भाउ दाजी ने समय समय पर अपने पाठ प्रस्तुत किये। अन्ततोगत्वा जे०एफ० फ्लीट ( John Faithfull Fleet ) ने व्यवस्थित रूप से इसका सम्पादन किया जो उनके गुप्तकालीन लेख संग्रह ( Corpus Inscriptionum Indicarum Vol. III ) में प्रकाशित है।

संक्षिप्त परिचय

नाम :- समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति ( Prayag Prashasti of Samudragupta ) या समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तम्भलेख ( Prayag Pillar Inscription of Samudragupta ) या समुद्रगुप्त का इलाहाबाद स्तम्भलेख ( Allahabad Pillar Inscription of Samudragupta ) या हरिषेण का अभिलेख ( Inscription of Harishena )

स्थान :- गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम पर स्थित सम्राट अकबर के दुर्ग में, प्रयागराज। मौलिक रूप से यह कौशाम्बी में था।

भाषा :- संस्कृत

लिपि :- ब्राह्मी

समय :- समुद्रगुप्त का शासनकाल ( ३५० – ३७५ ई० )

विषय :- समुद्रगुप्त का प्रशस्ति गायन, जिसमें उसके दिग्विजय, व्यक्तित्व, राजनीतिक अवस्था आदि की जानकारी मिलती है।

लेखक :- संधिविग्रहिक सचिव हरिषेण

प्रयाग प्रशस्ति : मूलपाठ

१. [यः] कुल्यैः स्वै ….. तस ….

२. [यस्य ?] …. (॥) [१]

३. …… पुं (?) व ….. त्र …..

४. [स्फा]रद्वं (?)….. क्षः स्फुटोद्धंसित …. प्रवितत [॥ २]

५. यस्य प्र[ज्ञानु] यंगोचित-सुख-मनसः शास्त्र-त [त्व]तर्थ-भर्तुः — — स्तब्धो — —  [ह]नि **** — नोच्छृ — — * — — [।]

६. [स]त्काव्य-श्री-विरौधान्बुध-गुणित-गुणाज्ञाहतानेव कृत्वा [वि]द्वल्लोकेवि [नाशि] स्फुट-बहु-कविता-कीर्ति राज्यं भुनक्ति [॥ ३]

७. [आर्ये]हीत्युपगुह्य भाव-पिशुनैरुत्कर्ण्णितैरोमभिः सभ्येषूच्छवसितेषु तुल्य-कुलज-म्लानाननोद्वीक्षि[त]: [।]

८. [स्ने]ह-व्ययालुलितेन बाष्प-गुरुणा तत्वेक्षिणा चक्षुषा यः पित्राभिहितो नि[रिक्ष्य] निखि[लां] [पाह्येवमुर्वी] मिति [॥ ४]

९. [दृ]ष्ट्वा कर्म्माम्यनेकान्यमनुज-सदृशान्यद्भुतोद्भिन्न-हर्षा भ[ ] वैरा-स्वादय-[न्तः]

**** — — * — — ** [के] चित् [।]

१०. वीर्योत्तप्ताश्च केचिच्छरणमुपगता यस्य वृत्ते (ऽ) प्रणामे (ऽ) प्य [ र्ति ? ]-(ग्रस्ते-षु) — — ****** — — * — — * — — [॥ ५]

११. संग्रामेषु स्व-भुज-विजिता नित्यमुच्चापकाराः श्वः श्वो मान प्र **** — — * — — — — [।]

१२. तोषोत्तुङ्गैः स्फुट-बहु-रस-स्नेह-फुल्लैर्म्मनोभिः पश्चात्तापं व **** — — * मस्य [द्विषन्तः] [॥ ६]

१३. उद्वेलोदित-बाहु-वीर्य्य-रभसादेकेन येन क्षणादुन्मूल्याच्युत-नागसेन-ग[णपत्यादीननान्- संगरे] [I]

१४ दण्डेर्ग्राहयतैव कोतकुलजं पुष्पास्वये क्रीडता सूर्य्ये [नित्य (?) * — — तटा] * — — — * — — * — [॥  ७]

१५. धर्म-प्राचीर-बन्धः शशि-कर-शुचयः कीर्त्तयः स-प्रताना वैदुष्यं तत्व-भेदि प्रशम *** [कु—व* मुत्— * — णार्थम्] (?) [।]

१६. [अद्ध्येयः] सूक्त-मार्ग्गः कवि-मति-विभवोत्सारणं चापि काव्यं को नु स्याद्यो (ऽ) स्य न स्याद्गुण-(मति)-विदुषां ध्यान-पात्रं य एकः [॥ ८]

१७. तस्य विविध समर-शतावरण-दक्षस्य स्वभुज-बल-पराक्रमैकबन्धोः पराकमाङ्कस्य परशु-शर-शङ्कु-शक्ति-प्रासासि-तोमर-

१८. भिन्दिपाल-न[ ]च-वैतस्तिकाद्यनेक-प्रहरण-विरूढाकुल-व्रण-शताङ्क-शोभा-समुदयोप चित-कान्ततर-वर्ष्मणः

१९. कौसलक-महेन्द्र-माह[ ]कान्तारक-व्याघ्रराज-कौरालक-मण्टराज-पैष्टपुरक-महेन्द्रगिरि- कौट्टूरक-स्वामिदत्तैरण्डपल्लक-दमन-काञ्चेयक- विष्णुगोपावमुक्तक-

२०. नीलराज-वैङ्गेयक हस्तिवर्म्म-पालक्ककोग्रसेन-दैवराष्ट्रक-कुबेर-कौस्थलपुरक-धनञ्जय-प्रभृति-सर्व्वदक्षिणापथ-राज-ग्रहण-मोक्षानुग्रह-जनित-प्रतापोन्मिश्र-माहाभाग्यस्य

२१. रुद्रदेव-मतिल-नागदत्त-चन्द्रवर्म्म-गणपतिनाग-नागसेनाच्युत-नन्दि-बल-वर्म्माद्यनेकार्य्या- वर्त्त-राज-प्रसभोद्धरणोवृत्त-प्रभाव-महतः परिचारकीकृत-सर्व्वाटविक-राजस्य

२२. समतट-डवाक-कामरूप-नेपाल-कर्तृपुरादि-प्रत्यन्त-नृपतिभिर्म्मालवार्जुनायन-यौधेय-माद्रकाभीर-प्रार्जुन-सनकानीक-काक-खरपरिकादिभिश्च-सर्व्व-कर-दानाज्ञाकरण-प्रणामागमन-

२३. परितोषित-प्रचण्ड-शासनस्य अनेक-भ्रष्टराज्योत्सन्न-राजवंश प्रतिष्ठापनोद्भूत-निखिल- भु[व]न-[विचरण-श्रा]न्त-यशसः दैवपुत्रषाहिषाहानुषाहि-शकमुरुण्डैः सैंहलकादिभिश्च

२४. सर्व्व-द्वीप-वासिभिरात्मनिवेदन-कन्योपायनदान-गरुत्मदङ्क-स्वविषय-भुक्त्तिशासन-[य] -चनाद्युपाय-सेवा-कृत-बाहु-वीर्य-प्रसर-धरणिबन्धस्य प्रिथिव्यामप्रतिरथस्य

२५. सुचरित-शतालङ्कृतानेक-गुण-गणोत्सिक्तिभिश्चरण-तल-प्रमृष्टान्यनरपतिकीर्तेः साद्ध्य- साधूदय-प्रलय-हेतु-पुरुषस्याचिन्त्यस्य भक्त्यावनति-मात्र-ग्राह्य-मृदु-हृदयस्यानुकम्पावतो-(ऽ) नेक-गो-शतसहस्र-प्रदायिनः

२६. [कृ]पण-दीनानाथातुर जनोद्धरण-सत्र दीक्षाभ्युपगत-मनसः समिद्धस्य विग्रहवतो लोकानुग्रहस्य धनदं वरुणेन्द्रान्तक-समस्य स्वभुज-बल-विजितानेक-नरपति-विभव-प्रत्यर्पणा-नित्यव्यापृतायुक्तमुरुषस्य

२७. निशितविदग्धमति-गान्धर्व्वललितैर्व्रीडित-त्रिदशपतिगुरु तुम्बुरुनारदा-देर्व्विद्वज्जनो-पजीव्यानेक-काव्य-क्रियाभिः प्रतिष्ठित कविराज-शब्दस्य सुचिर-स्तोतव्या नेकाद्भुतोदार चरितस्य

२८. लोकसमय-क्कियानुविधान-मात्र-मानुषस्य लोक-धाम्नो देवस्य महाराज-श्रीगुप्त-प्रपौत्रस्य महाराज-श्री-घटोत्कच-पौत्रस्य महाराजाधिराज श्री-चन्द्रगुप्त-पुत्रस्य

२९. लिच्छवि-दौहित्रस्य महादेव्यां कुमारदेव्यामुत्पन्नस्य महाराजाधिराज-श्री—समुद्रगुप्तस्य सर्व्व-पृथिवी-विजय-जानितोदय-व्याप्त-निखिलावनितलां कीर्तिमितस्त्रिदशपति-

३०. भवन-गमनावाप्त-ललित-सुख-विचरणामाचक्षाण इव भुवो बाहुरयमुच्छ्रितः स्तम्भः [।] यस्य

प्रदान-भुजविक्रम-प्रशम-शास्त्रवाक्योदयै-

रुपर्युपरिसञ्च-योच्छ्रितमनेकमार्गं यशः [।]

३१.    पुनाति भुवनत्रयं पशुपतेर्ज्जटान्तर्गुहा-

         निरोध-परिमोक्ष-शीघ्रमिव पाण्डु गांगं [पयः] [॥ ९]

एतच्च काव्यमेषामेव भट्टारकपादानां दासस्य समीप परिसर्प्पणानुग्रहोन्मीलित-मतेः

३२. खाद्यटपाकिकस्य महादण्डनायक-ध्रुवभूति पुत्रस्य सान्धिविग्रहिक कुमारामात्य-म[हादण्डनाय]क- हरिषेणस्य सर्व्व-भूत-हित-सुखायास्तु।

३३. अनुष्ठितं च परमभट्टारक-पादानुध्यातेन महादण्डनायक तिलभट्टकेन।

  • बी० राघवन ने विशाले और भण्डारकर ने विकृष्टम् पाठका अनुमान प्रस्तुत किया है। विनाशि पाठ सरकार का है।
  • भण्डारकरने गणपानाजी समेल्यागतान होने का अनुमान किया है।
  • मूल में मंत्र है। फ्लीट ने संत्र को मन्त्र के रूप में और दिवेकर ने सत्र के रूप में शुद्ध किया है। उचित पाठ सत्र ही होगा।

हिन्दी अनुवाद

१. जो अपने वंश के लोगों से ….. ; उसका ……. ;

२. …. जिसका….. ;

३. जिसने…….. अपने धनुष की टंकारसे …… तितर बितर कर दिया …… नष्ट किया …… फैला दिया …..

४-६. जिसका मन विद्या की आसक्ति-जनित सुखानुभूति के योग्य है; जो शास्त्रों के वास्तविक रहस्य को जानने का एक मात्र अधिकारी है; जो उत्तम काव्यों के सौन्दर्य (श्री) के विरोधी तत्वों को पण्डितों द्वारा निर्दिष्ट गुणों की आज्ञा (शक्ति) से क्षीण करके विद्वानों की मण्डली में अत्यन्त स्पष्ट कविताओं से [उपलब्ध] यश के साम्राज्य का उपभोग करता है;

७-८ [वह] जो सभासदों के [हर्ष से] उच्छवसित होते और तुल्य-कुलजो (भाई-बन्धुओं) द्वारा म्लान-मुखों द्वारा देखे जाते हुए [और] वात्सल्य से अभिभूत तत्वदर्शी नेत्रों में आँसू भरे, भावातिरेक से रोमांचित पिता द्वारा स्नेहालिंगन कर कहा गया— ‘वस्तुतः तुम आर्य हो! तुम समस्त भूमण्डल का पालन करो;

६-१०. जिसके अलौकिक कार्यों को देखकर आश्चर्य मिश्रित हर्ष के साथ लोग भावपूर्वक आनन्द का आस्वादन करते हैं; और अन्य उसके पराक्रम के तेज से सन्तप्त होकर उसका शरणागत बन उसे प्रणाम करते हैं;

११-१२. [जिसने] निरन्तर अत्यधिक क्षति पहुँचने वाले दुष्ट स्वभाव के लोगों को समर भूमि में अपनी भुजाओं के बल से पराजित किया [और] दिन प्रति दिन ….. [जिसके प्रति] उन्होंने अत्यन्त आनन्द और प्रेम से उत्फुल्ल और सन्तोष से उन्नत हो अन्तकरण से पश्चाताप किया …..

१३-१४. जिसने अपनी भुजाओं के अपार बल के वेग से अकेले ही क्षण मात्र में (संयुक्त रूप से आये) अच्युत, नागसेन, ग[णपति …… आदि] का उन्मूलन कर दिया [और] पुष्पपुर (नगर) में उत्सव मनाते हुए “तट” हुए कोत-कुल में उत्पन्न राजा को अपनी शक्ति से बन्दी बनाया (दण्ड दिया); सूर्य नित्य ही ….. तट …… ;

१५-१६. [जो] धर्म-रूपी प्राचीर [के भीतर] सुरक्षित है; जिसकी चन्द्रमा के किरणों के समान निर्मल कीर्ति चारों ओर फैली हुई है; जिसकी विद्वत्ता तत्वभेदिनी है; जिसने देव-विहित मार्ग (सूक्ति मार्ग) अपना लक्ष्य बना रखा है (अथवा आप्त-पुरुषों द्वारा प्रतिपादित मार्ग का अनुसरण करना ही जिसका उद्देश्य है); जिसके कहे वाक्य मननीय है; जिसका काव्य कवि-प्रतिभा की विभूति को उन्मुक्त रूप से प्रकाशित करता है (अथवा कवियों के काव्य-विषयक अभिमान को चूर्ण कर देता है); सहृदय विद्वत्समाज को आकर्षित करने वाला कौन सा ऐसा गुण है जो उसमें न हो;

१७-१८. जो विभिन्न प्रकार के सैकड़ों रण-कौशल में कुशल है; जिसका बाहु-बल का पराक्रम ही एक मात्र सहायक (बन्धु) है, पराक्रम जिसका प्रतीक है; जिसके शरीर की कान्ति परशु (कुठार); शर (वाण), शङ्कु (बर्छी), शक्ति (सांग), प्रास (भाला), असि (तलवार), तोमर ( (गड़ँसा), भिंजिपाल (ढेलवास), नाराच (कटीले शर), वैतस्तिक (भुजाली) प्रभृति अनेक शस्त्रास्त्रों से लगे सैकड़ों गम्भीर घावों के निशानों से संवर्धित शोभा-समूह के कारण दुगुणित हो रही है;

१९-२०. [जिसका प्रताप] कोसल के [राजा] महेन्द्र, महाकान्तार के [राजा] व्याघ्रराज, कौराल के [राजा] मण्टराज, पिष्टपुर के [राजा] महेन्द्रगिरि, कोट्टूर के [राजा] स्वामिदत्त, एरण्डपल्ल के [राजा] दमन, काञ्ची के [राजा] विष्णुगोप, अवमुक्त के [राजा) नीलराज, वेंगी के (राजा) हस्तिवर्मा, पालक्क के [राजा] उग्रसेन, देवराष्ट्र के [राजा] कुबेर, कुलस्थलपुर के [राजा] धनंजय [आदि] दक्षिण भारत के राजाओं को बन्दी बना कर मुक्त कर देने की उदारता से परिपूर्ण है।

२१. जिसने रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चन्द्रवर्मा, गणपति नाग, नागसेन, अच्युत, नन्दि, बलवर्मा आदि [आर्यावर्त देश] के विभिन्न राजाओं को बलपूर्वक उन्मूलन कर अपने प्रताप का विस्तार किया है; जिसने समस्त आटविक राजाओं को [जीतकर] अपना सेवक बनाया है;

२२. [जिसने] समतट, डवाक, कामरूप, नेपाल, कर्तृपुर आदि सीमान्त प्रदेश के राजाओं तथा मालव, आर्जुनायन, यौधेय, मद्रक, आभीर, प्रार्जुन, सनकानीक, काक, खर्परिक आदि [जन-राज्यों] को सभी प्रकार का कर देने, राजाज्ञा पालन करने, [राजधानी में] प्रणाम करने के लिए आने और [अपने] प्रचण्ड शासन (आदेश) को पूर्ण रूप से पालन करने के लिए बाध्य किया है;

२३-२५. जिसका शान्त-यश (कीर्ति), के कारण संग्राम में पराजित राजवंशों को फिर से अपने-अपने राज्य में प्रतिष्ठित करने के कारण विस्तृत भू-मण्डल के यात्रा से थकित (व्याप्त) है; [जिसके सम्मुख देवपुत्र-षाहि-षाहानुषाहि, शक-मुरुण्ड तथा सिंहल आदि सभी द्वीपवासी जातियों के राजाओं ने आत्म-समर्पण कर अपनी कुमारी कन्याओं को उपहार स्वरूप देकर विवाह किया है और अपने प्रादेशिक शासनाधिकार के उपभोग के निमित्त गरुड़-लांछन से युक्त राजकीय आज्ञा-पत्र की याचना की है; [जिसने] अपने भुजबल के प्रसार से सकल भूमण्डल को समतल (धरणि-बन्ध) कर दिया जिसका सम्पूर्ण जगत में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं रहा [जो] अपने शताधिक सदाचरणों से विभूषित है; [जो] विविध गुणों का निधान है [जिसने अन्य भूपतियों के यश को अपने पैरो तले रौंद डाला है; [जो] सज्जनों के अभ्युदय और दुर्जनों के विनाश का कारण है; [जिसका] कोमल हृदय श्रद्धा से नतमस्तक लोगों के वशीभूत हो जाता है, जो मृदु हृदय (दयालु) अनुकम्पावान् है [जिसने] लाखों गायें दान में दी हैं;

२६. [जो] दुखी, दरिद्र, असहाय और आर्तजनों के उद्धार रूपी यज्ञ में दत्तचित्त है; [जो] कल्याण का ज्वलन्त प्रतीक है; [जो] पराक्रम में कुबेर, वरुण, इन्द्र और यम के समान है: [जिसके] राजकर्मचारी उसके बाहुबल से विजित राजाओं के वैभव पुनस्थापन में सदैव लगे रहते हैं।

२७-२९. [जिन्होंने अपनी] बुद्धि की तीक्ष्णता और विदग्धता तथा गान्धर्व-कला की प्रवीणता में गुरु (बृहस्पति), तुम्बरु और नारद को लज्जित कर दिया है; [जो अपने] विद्वन्समाज के बीच उपजीव्य है; [जिसने] अपनी काव्य रचनाओं से कविराज का पद प्राप्त किया है; [जिसके] विविध, अद्भुत एवं उदार चरित चिरकाल तक गान करने योग्य हैं; [जिसने] लौकिक व्यवहार के निर्वाह के लिए ही मनुष्य का शरीर धारण किया है। [अन्यथा जो इस ‘मर्त्यलोक’ में रहता हुआ] देवता है। [जो] महाराज श्रीगुप्त का पौत्र, महाराज श्री घटोत्कच का पौत्र, लिच्छवि-कुल का दौहित्र और महादेवी कुमारदेवी से उत्पन्न महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त का पुत्र है; उस महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्त की सम्पूर्ण पृथ्वी के विजय से उत्पन्न (जो) कीर्ति समस्त विश्व में व्याप्त होकर इन्द्र के भवनों तक पहुँच गयी है, उस सुख पूर्वक विचरित ललित यश को प्रकट करने वाला यह स्तम्भ पृथिवी की भुजा के समान है;

३०. जिस [समुद्रगुप्त] का दान, बाहुबल के पराक्रम, ज्ञान आदि शास्त्रीय मान्यताओं द्वारा संचित यश, अनेक मार्गों से ऊपर उठता हुआ, शंकर के जटा समूह के बन्धन से मुक्त होकर वेग से बहती हुई गंगा की धारा के समान तीनों लोकों को पवित्र करता है,

३१-३२. उन्हीं भट्टारक [समुद्रगुप्त] के चरणों के सेवक खाद्यटपाक निवासी, ध्रुवभूति के पुत्र सन्धिविग्रहिक, कुमारामात्य, महादण्डनायक हरिषेण की, जिसकी बुद्धि उनके समीप रहने की अनुकम्पा से विकसित हुई है, यह काव्य-रचना सभी प्राणियों के लिए कल्याणकारी और आनन्ददायक हो।

३३. [इस काव्य को] परमभट्टारक (समुद्रगुप्त) के चरणों में दत्त-चित्त महादण्डनायक तिलभट्ट ने [पत्थर पर खुदवा कर] अनुष्ठित किया।

ऐतिहासिक महत्त्व

समुद्रगुप्त के इतिहास का सर्वप्रमुख स्रोत प्रयाग प्रशस्ति है जिसको ‘इलाहाबाद स्तम्भलेख’ ( Allahabad Pillar Inscription ) भी कहा जाता है। प्रयाग प्रशस्ति की रचना उसके सन्धिविग्रहिक सचिव हरिषेण ने की थी। समुद्रगुप्त के अन्य अभिलेखों ( गया ताम्रपत्र, नालन्दा ताम्रलेख व एरण अभिलेख ) की अपेक्षा प्रयाग प्रशस्ति का विशेष महत्त्व है क्योंकि इससे समुद्रगुप्त के सम्बन्ध में आद्योपान्त जानकारी मिलती है जो कि इसके बिना सम्भव नहीं था।

स्थान

एलेक्जेंडर कनिंघम के मतानुसार यह लेख मूलतः कौशाम्बी में खुदवाया गया था। इस मत के समर्थन में दो प्रमाण प्रस्तुत किये जाते हैं –

( १ ) अभिलेख के ऊपरी भाग में मौर्य शासक अशोक का एक लेख अंकित है जिसे उन्होंने कौशाम्बी में खुदवाया था।

( २ ) चीनी यात्री हुएनसांग अपने प्रयाग विवरण में इसका उल्लेख नहीं करते हैं।

मध्यकाल में मुगल बादशाह अकबर ने इसे कौशाम्बी से मंगाकर इलाहाबाद के किले में सुरक्षित करा दिया।

स्तम्भ पर अंकित अन्य अभिलेख

भारतीय अभिलेख के संदर्भों में कुछ स्थान ऐसे हैं जहाँ पर एक साथ कई शासकों के लेख मिलते हैं; उदाहरणार्थ – गिरिनार की पहाड़ी पर अशोक महान, शक क्षत्रप रुद्रदामन व गुप्त सम्राट स्कंदगुप्त के अभिलेख एक ही स्थान पर मिलते हैं। उसी तरह यह स्तम्भ भी हैं जिसपर एक साथ कई अभिलेख अंकित हैं।

प्रयाग स्तम्भ पर अंकित लेख :

  • अशोक के छः मुख्य लेखों का एक संस्करण,
  • समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति,
  • रानी का अभिलेख,
  • कौशाम्बी के महापात्रों को संघ भेद रोकने संबंधी आदेश,
  • जहाँगीर का एक लेख तथा
  • परवर्ती काल का एक देवनागरी लेख भी उत्कीर्ण मिलता है।

प्रयाग प्रशस्ति के प्रारम्भ में अशोक का लेख मिलता है। इसमें बौद्ध संघ के विभेद को रोकने के लिये कौशाम्बी के महामात्रों को दिया गया आदेश है। तत्पश्चात् समुद्रगुप्त का लेख अंकित है।

प्रयाग प्रशस्ति का काव्यात्मक महत्त्व

प्रयाग प्रशस्ति ब्राह्मी लिपि में तथा विशुद्ध संस्कृत भाषा में अंकित है। प्रशस्ति की प्रारम्भिक पक्तियाँ पद्यात्मक तथा बाद की गद्यात्मक है। इस प्रकार यह संस्कृत की चम्पू शैली ( गद्य-पद्य मिश्रित साहित्य ) का एक सुन्दर उदाहरण है अर्थात् यह गद्य-पद्य मिश्रित चम्पू-काव्य के रूप में है। आरम्भ में आठ श्लोकों के रूप में पद्य हैं; तदनन्तर गद्य में आलेख है और अन्त में पुष्पिका से पूर्व फिर पद्य है।

इसे काव्य कहा गया है (काव्यमेषामेव)। प्रशस्ति की भाषा प्रांजल और शैली मनोरम है। न केवल इतिहास अपितु साहित्य की दृष्टि से भी यह अभिलेख अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

प्रयाग प्रशस्ति : रचनाकाल

यह प्रश्न उठाया गया है कि प्रयाग प्रशस्ति समुद्रगुप्त के समय या उसके मरणोत्तर की रचना ?

प्रारम्भ में फ्लीट ( Fleet ) ने यह मत व्यक्त किया था कि इस लेख की रचना समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उसके किसी उत्तराधिकारी द्वारा करवायी गयी थी और इस प्रकार यह मरणोत्तर ( Posthumous ) अभिलेख है। इसके पीछे निम्न तर्क दिए गए हैं :

  • ३०वीं पंक्ति का पाठ ‘आचक्षाण: वभूव’ पढ़ा गया। इस आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि उसकी मृत्यु हो चुकी थी।
  • २९वीं-३०वीं पंक्ति में ‘त्रिदशपति भवनगमन’ का अर्थ समुद्रगुप्त के ‘इन्द्रलोक गमन करने वाला’ लिया गया है। इसको उसके मृत्यु का बोधक मानकर उसके मृत्योपरान्त इस लेख को उत्कीर्ण कराना कहा गया है।

परन्तु ये निम्न आधार पर गलत लगते हैं :

  • ३०वीं पंक्ति का शुद्ध पाठ है ‘आचरण इव भुवो’ इस आधार पर समुद्रगुप्त की मृत्यु का अर्थ निकलता ही नहीं।
  • ‘त्रिदशपति भवनगमन’ का अभिप्राय समुद्रगुप्त की कीर्ति का स्वर्ग तक पहुँचना है न कि उसके शरीर का।
  • यहाँ भूतकाल की क्रिया का अभाव है। इसमें मेहरौली स्तम्भ लेख की तरह भूतकालिक क्रिया का उल्लेख नहीं है जिससे समुद्रगुप्त मृत्योपरान्त इसे माना जाय।
  • यदि यह अभिलेख बाद के शासक के काल में लिखा होता तो उसका भी नाम इसमें होता। करमदण्डा शिवलिंग अभिलेख से विदित है कि उत्कीर्ण कराने वाला कुमारगुप्त के पिता के समय का मन्त्री था। पर यहाँ हरिषेण तो संधिविग्रिहक और महादण्डनायक के पद पर आसीन है जब समुद्रगुप्त के गद्दी पर है।
  • अभिलेख के अन्त में यह उल्लिखित मिलता है कि ‘इस काव्य की रचना उस व्यक्ति ने की है जो परमभट्टारक के चरणों का दास था तथा जिसकी वृद्धि स्वामी के समीप कार्यरत रहने के कारण खुल गयी थी।*
    • काव्यमेषामेव भट्टारकपादानां दासस्य समीप परिसर्प्पणानुग्रहोन्मीलित-मतेः ( ३१वीं पंक्ति )।*
  • समुद्रगुप्त के अश्वमेध प्रकार के सिक्कों तथा एरण अभिलेख से इसके अश्वमेध यज्ञ का ज्ञान मिलता है जिसका उल्लेख यहाँ न होना इस यज्ञ सम्पादन के पूर्व का यह लेख ज्ञात होता है।
  • इसमें समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारियों की उपाधियाँ जिनका प्रयोग उन्होंने किया है यथा- ‘चतुरुदधिसलिलास्वादितयशसा’ आदि नहीं है।
  • इस लेख में समुद्रगुप्त की मृत्यु की तिथि नहीं दी गयी है।

अतः उपर्युक्त प्रमाणों के प्रकाश में हम इस प्रयाग प्रशस्ति को मरणोत्तर नहीं मान सकते हैं। वस्तुतः इसकी रचना समुद्रगुप्त के जीवन काल में ही की गयी थी। अभिलेख में समुद्रगुप्त के जीवन तथा कृतियों का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। कहा जा सकता है कि यदि यह लेख अप्राप्त होता तो समुद्रगुप्त जैसे महान् शासक के विषय में हमारी जानकारी अधूरी रह जाती।

प्रयाग प्रशस्ति : वर्ण्य विषय

यह विशुद्ध प्रशस्ति है; इसमें समुद्रगुप्त का यशोगान और उसके चरित्र और कृतित्व की विशद चर्चा है

प्रारम्भिक छः श्लोकों में समुद्रगुप्त की शिक्षा, उस पर आने वाले उत्तरदायित्व और महानपद के ग्रहण करने की तैयारी का उल्लेख है। उसमें युवक समुद्रगुप्त का वर्णन है। प्रथम दो श्लोक तो प्रायः नष्ट हो गये हैं; किन्तु जो शब्द बच रहे हैं, उनसे ऐसा प्रतीत होता है कि उसने अपने पिता के जीवन काल में कुछ सफल अभियान किये थे। पाँच व छः श्लोक में उसके विद्याव्यसन और उपलब्धियों का उल्लेख है।

समुद्रगुप्त का युवराज बानाया जाना

चौथे श्लोक ( ७वीं-८वीं पंक्ति ) में उसके युवराज घोषणा के दृश्य का मार्मिक चित्रण है। इससे ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपना उत्तराधिकारी चुनने के लिए एक सभा बुलायी। वह समुद्रगुप्त के सद्गुणों से इतना अभिभूत था कि भरी सभा चन्द्रगुप्त ने उसे आलिंगन करते हुए उद्घोषणा की कि ‘आर्य ! तुम योग्य हो, पृथ्वी का पालन करो।’ आगे हरिषेण लिखते हैं कि जहाँ एक ओर इस उद्घोषणा से संभावना प्रसन्न हुए वहीं तुल्य-कुलज म्लानमुख हो गये। इस मार्मिक चित्रण के कई कारण बताये गये हैं :-

  • काशी प्रसाद जायसवाल का मत है कि वह एक ऐसे राजा के भावों की अभिव्यक्ति है जो पराजित होकर शोक-सन्तप्त मृत्यु शैय्या पर पड़ा है। उसकी अश्रुधारा उसके मार्मिक वेदना का परिचायक है। उनका कहना है कि चन्द्रगुप्त ने समुद्रगुप्त को राज्य के पुनरुद्धार का भार सौंप कर आँखें मूँद ली होगी। के० पी० जायसवाल की यह कल्पना कौमुदी-महोत्सव के चण्डसेन को चन्द्रगुप्त मानने और उक्त नाटक को गुप्तकालीन अनुमान करने के कारण ही की है।
  • रमेशचन्द्र मजूमदार और भण्डारकर ने इन पंक्तियों में चन्द्रगुप्त (प्रथम) द्वारा समुद्रगुप्त का राज्याभिषेक कर सन्यास ग्रहण देखने की चेष्टा की है। वृद्धावस्था में राजाओं द्वारा सन्यास ग्रहण भारतीय परम्परा का एक जाना पहचाना आदर्श है। उस आदर्श के अनुरूप इस प्रकार की कल्पना सहज भाव से की जा सकती है।
  • परन्तु प्रशस्ति का यह वर्णन सन्यास ग्रहण करने की अपेक्षा उत्तराधिकार-निर्णय अर्थात् युवराज-निर्वाचन के अधिक निकट है।
  • प्रशस्ति के शब्दों से यह ध्वनित होता है कि गुप्त-वंश परम्परा में राजपद प्राप्त करने के लिए ज्येष्ठ होना आवश्यक न था। कोई भी राजकुमार अपनी योग्यता के आधार पर युवराज अथवा उत्तराधिकारी मनोनीत किया जा सकता था।
  • चन्द्रगुप्त प्रथम के उत्तराधिकार के अनेक प्रत्याशी रहे होंगे। चन्द्रगुप्त को उनमें से किसी एक को चुनना था। फलतः उसने अपनी प्रतिभा की परख की शक्ति ( तत्वेक्षिणा चक्षुणा ) से समुद्रगुप्त को शासन करने के योग्य पाया और उसने इसकी घोषणा की। इस घोषणा के समय भावातिरेक के चन्द्रगुप्त रोमांच हो उठा होगा और उसके आँखों से आँसू निकल पड़े होंगे। अपने बेटों में से किसी एक को योग्य, अन्य को अयोग्य घोषित करना पिता के लिए अत्यन्त कठिन होता है। उस समय जो मनोदशा किसी पिता की हो सकती है, उसी का चित्रण यहाँ किया गया है।
  • यदि यह अवसर मात्र राज्याभिषेक का होता, जैसा कि मजूमदार का अनुमान है, तो इस अवसर पर तुल्य-कुलजों के लिए म्लान-मुख होने जैसी कोई बात न होती ( तुल्य-कुलज-म्लानाननोद्वीक्षितः )। वह तो एक पूर्व-नियोजित औपचारिकता मात्र होती। किन्तु यहाँ अभिलेख में जो कुछ कहा गया है, उससे असन्दिग्ध प्रकट होता है कि अन्य राजकुमार भी गद्दी की ओर दृष्टि लगाये हुए थे और उनके उत्तराधिकार के दावों से प्रजा में उत्तेजना थी और सम्भवतः राजनीतिक जीवन अव्यवस्थित हो उठा था। फलतः वर्तमान और भावी सभी संकटों का निराकरण करने के लिए ही चन्द्रगुप्त प्रथम ने समुद्रगुप्त के युवराज होने की घोषणा की। इस घटना के बहुत दिन बीत जाने के बाद भी यदि प्रशस्तिकार ने प्रतिद्वन्द्वी राजकुमारों के मनोभावों की चर्चा की है तो इसका मात्र अर्थ यही है कि अपने समय में यह घटना अत्यन्त महत्त्व की रही होगी।

प्रयाग प्रशस्ति के ५वें ( ९वीं-१०वी पंक्ति ) तथा छठे ( ११वीं-१२वी पंक्ति ) श्लोकों के अधिकांश अंश नष्ट हो गये हैं, जो कुछ अवशिष्ट है, उससे समुद्रगुप्त द्वारा शत्रुओं के दमन किये जाने की बात का अनुमान होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारी मनोनीत होने के बाद जो तुल्य-कुलज दुःखी हुए थे, उन्होने कदाचित विद्रोह किया था। समुद्रगुप्त ने उसी विद्रोह का दमन किया होगा।

समुद्रगुप्त का विजय अभियान

सातवें श्लोक से समुद्रगुप्त के विजय अभियान की चर्चा शुरू होती है जो इस तरह है-

  • आर्यावर्त का प्रथम युद्ध
  • दक्षिणापथ का युद्ध
  • आर्यावर्त का द्वितीय युद्ध
  • आटविक राज्यों की विजय
  • प्रत्यन्त ( सीमावर्ती ) राज्यों की विजय
  • विदेशी शक्तियाँ
  • समुद्रपारीय शक्तियाँ
आर्यावर्त का प्रथम युद्ध

सातवें श्लोक ( १३वीं-१४वीं पंक्ति ) से समुद्रगुप्त की सामरिक सफलता की चर्चा आरम्भ होती है। इस श्लोक का भी कुछ अंश नष्ट है। प्रसंग और आगे के गद्यांश से ऐसा प्रकट होता है कि समुद्रगुप्त ने अच्युत, नागसेन, गणपति और कोत कुल के किसी राजा पर पूर्ण विजय प्राप्त की।

समझा जाता है कि जिन दिनों समुद्रगुप्त उत्तराधिकार के विवाद में व्यस्त था, इन राजाओं ने मिलकर उसके गृह कलह का लाभ उठाना चाहा अथवा उनके राज्यारोहण को चुनौती दी।

  • अच्युत सम्भवतः नागवंशी शासक था। वह उत्तरी-पंचाल पर शासन करता था। उतर-पंचाल की राजधानी अहिच्छत्र से ‘अच्यु’ नामांकित वाले कुछ सिक्के मिले हैं।
  • नागसेन की पहचान पद्मावती के नागवंशी राजा से की जाती है। पद्मावती की पहचान मध्य प्रदेश के ग्वालियर जनपद में स्थित पद्मपवैया से की जाती है।
  • गणपतिनाग को मथुरा अथवा विदिशा-नरेश अनुमान किया जाता है। अभिलेख में मात्र ‘ग’ अक्षर ही उपलब्ध है। अच्युत और नागसेन के साथ गणपति नाम आगे इसी अभिलेख में प्राप्त होता है।
  • कोतकुलज के साथ पुष्पपुर का उल्लेख है, पर अभिलेख खण्डित होने के कारण अभिप्रायः स्पष्ट नहीं होता। कुछ लोगों की धारणा है कि इस अंश में सफल सैनिक अभियान के पश्चात् समुद्रगुप्त के राजधानी पाटलिपुत्र ( पुष्पपुर ) में प्रवेश करने का निर्णय था। कुछ विद्वानों की धारणा है कि उन दिनों कोत वंशी लोग पाटलिपुत्र में राज्य करते थे, उन्हें परास्त कर समुद्रगुप्त ने पाटलिपुत्र पर अधिकार किया। कुछ अन्य विद्वान कोतों का राज्य गंगा के ऊपरवाले भूभाग अथवा कोसल में माने हैं। ‘कोत’ शब्द अंकित ताँबे के सिक्के हरियाणा और दिल्ली प्रदेश से प्राप्त होते हैं। हो सकता है यहाँ अभिप्राय इस सिक्कों के प्रचलन करने वाले राजवंश से हो जोकि अधिक सम्भावना लगती है।
  • इन राजाओं पर विजय को विद्वानों ने आर्यावर्त के प्रथम अभियान की संज्ञा दी है।
दक्षिणापथ का युद्ध

अभिलेख की १९वीं और २०वीं पंक्ति में समुद्रगुप्त द्वारा सर्व-दक्षिणापथ-राज को पराजित करने की चर्चा है।

यहाँ दक्षिणापथ के बारह राजाओं और राज्यों का नाम गिनाया गया और कहा गया है कि उन्हें पराजित कर बन्दी बना लिया और फिर अनुग्रहपूर्वक मुक्त कर दिया गया। ये नाम अभिलेख में क्रमश: इस प्रकार हैं :

  • कोसल का राजा महेन्द्र
  • महाकान्तार का राजा व्याघ्रराज
  • कौराल का मण्टराज
  • पिष्टपुर का राजा महेन्द्रगिरि
  • कोट्टूर का राजा स्वामीदत्त
  • एरण्डपल्ल का राजा दमन
  • काञ्ची का राजा विष्णुगोप
  • अवमुक्त का राजा नीलराज
  • वेङ्गी का राजा हस्तिवर्मा
  • पालक्क का राजा उग्रसेन
  • देवराष्ट्र का राजा कुबेर
  • कुस्थलपुर का राजा धनञ्जय।

दक्षिणापथ के राज्यों की पहचान :

  • कोसल का राजा महेन्द्र : इस कोसल का अर्थ दक्षिणी कोसल से है न कि कोसल महाजनपद से। अनुमान किया जाता है इसकी राजधानी श्रीपुर (आधुनिक सिरपुर) थी। समझा जाता है कि इसके अन्तर्गत छत्तीसगढ़ के बिलासपुर, रायपुर और दुर्ग जनपद तथा ओडिशा का सम्भलपुर और गंजाम का कुछ भाग था। वहाँ का राजा महेन्द्र था।
  • महाकान्तार का राजा व्याघ्रराज : व्याघ्रदेव नामक एक सामन्तराज का उल्लेख बुन्देलखण्ड स्थित गंज और नचना कुठारा से प्राप्त अभिलेखों में हुआ है। इनमें उसे महाराज पृथ्वीषेण का भक्त कहा गया है। इस पृथ्वीषेण को वाकाटक नरेश पृथ्वीषेण प्रथम ( ३६० से ३८५ ई० ) अनुमान किया जाता है जो समुद्रगुप्त का समकालिक था। एक अन्य अभिलेख में उच्छकल्प-वंशी व्याघ्र नामक राजा का उल्लेख है जो जयनाथ का पिता था। जयनाथ का समय कुछ विद्वान कलचुरि संवत् १७४ अनुमान करते हैं। इस प्रकार वह चन्द्रगुप्त द्वितीय का समकालिक प्रतीत होता है। अतः उसका पिता समुद्रगुप्त का समकालीन कहा जा सकता है। पृथ्वीषेण का सामन्त व्याघ्रदेव और उच्छकल्प के जयनाथ का पिता व्याघ्र एक व्यक्ति थे अथवा दो भिन्न यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता है; किन्तु दोनों में से किसी को महाकान्तार-नरेश व्याघ्रराज मानने में कठिनाई यह है कि इनका राज्य बघेलखण्ड-बुन्देलखण्ड में सीमित था, जो आटविक प्रदेश के अन्तर्गत था जिसका इस प्रशस्ति-लेख में अलग से उल्लेख हुआ है। महाकान्तार कोसल के निकट दक्षिण की ओर रहा होगा। महाभारत में कान्तार का उल्लेख है जो वेणव-तट (बेनगंगा का काँठा) और प्राच्यकोसल (पूर्वी कोसल) के बीच था। इसके आधार पर हेमचन्द्र रायचौधुरी का मत है कि महाकान्तार मध्यप्रदेश का वन्य प्रदेश था। जोवियाउ दुब्रिपूल की धारणा है कि वह उड़ीसा में सोनपुर के दक्षिण था। राधाकुमुद मुखर्जी ने महानदी तटवर्ती सम्भपुर को महाकान्तार की राजधानी बताया है। काशीप्रसाद जायसवाल काँकर और बख्तर को महाकान्तार कहते हैं। रामदास ने उसे गंजाम और विजगापट्टन (विशाखापत्तन) के झारखण्ड का भाग माना है। रमेशचन्द्र मजूमदार के अनुसार वह उड़ीसा स्थित जयपुर का वन्य-प्रदेश या जिसे एक परवर्ती अभिलेख में महावन कहा गया है।
  • कौराल का मण्टराज : कौराल की पहचान के सम्बन्ध में विद्वानों में गहरा मतभेद हैं। फ्लीट इसकी पहचान किसी देश अथवा नगर के रूप में करने में असमर्थ रहे। साथ ही उन्हें दक्षिण के सुप्रसिद्ध प्रदेश केरल का उल्लेख न होने से आश्चर्य हो रहा था। अतः उन्होंने यह मत प्रतिपादित किया कि कौराल केरल का अपरूप है। परन्तु स्पष्ट भौगोलिक कठिनाइयों के कारण उनका यह मत अग्राह्य है। कीलहार्न ने कौशल को कुणाल का, जिसकी ऐहोल अभिलेख में है, अपरूप बताया है। जायसवाल ने कौशल को कोल्लुरु (कोलेर झील) से पहचानने की चेष्टा की है। भण्डारकर ने इसको महानदी तट स्थित सोन जिले के ययाति नगरी के रूप में पहचाना है। सधियानाथियर उसे चैरल (नागपुर ताल्लुका, जिला पूर्वी गोदावरी) से, बी० बी० कृष्णराव महेन्द्रगिरि-स्तम्भ लेख में उल्लिलिखित कुलूत (जिला चाँदा, मध्यप्रदेश) से, एल० डी० बानेंट कोरड (दक्षिण भारत) से, रायचौधुरी कोलड (रसेलकोण्ड, जिला गंजाम) से करते हैं। किन्तु इनमें से किसी से भी कौरल की पहचान करना कठिन है। सम्प्रति इतना ही कहा जा सकता है कि वह पूर्वी तटवर्ती पट्टी में ही कहीं था। दक्कन (दक्षिण भाग) में नहीं। वह महाकान्तार से बहुत दूर न रहा होगा।
  • पिष्टपुर का राजा महेंद्रगिरि : गोदावरी जिले का वर्तमान पीठापुरम्।
  • कोट्टूर का राजा स्वामीदत्त : फ्लीट इसकी पहचान कोयम्बतूर जिले में अत्रमलई पर्वत के एक दर्रे के नीचे स्थित कोतूर से, सलातूर बेलारी जिले के कुडलिंगी ताल्लुका के कोत्तूर से, आयंगार कोयम्बतूर जिले से, विवाचिया गोदावरी जिले में दूनी के निकट स्थित कोतूर से करते हैं। किन्तु भौगोलिक दृष्टि को ध्यान में रखते हुए इसकी पहचान गंजाम जिले में महेन्द्रगिरि से १२ मील दक्षिण-पूर्व स्थित कोतूर से या फिर विशाखापत्तन जिले में पहाड़ियों की तलहटी में स्थित कोत्तूर से करना अधिक तर्कसंगत जान पड़ता है।
  • एरण्डपल्ल का राजा दमन : एरण्डपल्ल का उल्लेख कलिंग-नरेश देववर्मन के सिद्धान्तम् के ताम्रलेख में हुआ है। यह या तो विशाखापत्तन जिले के शिकाकुल स्थित अरण्डपल्ली है या फिर एलोर तालुका का एण्डपल्ली। नायर की धारणा है कि यह पश्चिमी गोदावरी जिले में पेण्टलपुरी तालुका स्थित एर्रगुण्टपल्ली है। फ्लीट ने इसके खानदेश स्थित एरण्डोल होने का अनुमान किया था। यहाँ का शासक दमन था।
  • काञ्ची का विष्णुगोप : यह उत्तरी तमिलनाडु में पालार नदी तट पर स्थित सुप्रसिद्ध नगर कांचीपुरम् (कांजीवरम्) है। काँची के राज्य का विस्तार कृष्णा नदी के मुहाने से लेकर पालेर नदी और कहीं कहीं कावेरी नदी के तट तक फैला हुआ था। यहाँ के राजा विष्णुगोप की पहचान पल्लव वंशी युवामहाराज विष्णुगोपवर्मन (प्रथम) से की जा सकती है।
  • अवमुक्त का राजा नीलराज : सम्भवतः यह कौंची और वेंगी के बीच में स्थित कोई छोटा सा राज्य था। इसकी समुचित पहचान नहीं हो सकी है। हाथीगुम्फा अभिलेख में आवा और उसकी राजधानी पिथुण्ड का उल्लेख हुआ है। जायसवाल ने इसके प्रसंग में उसकी ओर ध्यान आकृष्ट किया है। इस राज्य के राजा नीलराज के नाम से रायचौधुरी को गोदावरी जिले के समुद्री तट पर स्थित नीलपल्ली नामक प्राचीन पत्तन (बन्दरगाह) का ध्यान हो आया है। अविमुक्त क्षेत्र का उल्लेख ब्रह्मपुराण में हुआ है जो गोदावरी तट पर था।
  • वेंगी का राजा हस्तिवर्मा : इस राज्य की पहचान कृष्णा और गोदावरी जिले के वेंगी अथवा पेडुवेंगी से की जाती है। यहाँ का राजा हस्तिवर्मन था। शालंकायन वंश के शासक-सूची में यह नाम प्राप्त होता है; इससे अनुमान होता है कि यह हस्तिवर्मन उसी वंश का होगा। हुत्श की धारणा है कि वह सुविख्यात संत आनन्द के वंश का अत्तिवर्मन है।
  • पालक्क का उग्रसेन : यह सम्भवतः आंध्र प्रदेश के नैल्लोर जनपद में स्थित पलक्कड़ अथवा पालकट है। इसका उल्लेख अनेक ताम्र-शासनों में राजधानी के रूप में हुआ है।
  • देवराष्ट्र का राजा कुबेर : विशाखापत्तन जिले के कासिमकोट नामक स्थान से चालुक्य भीम (प्रथम) का एक ताम्रशासन प्राप्त हुआ है जिसमें एलामांची नामक स्थान के देवराष्ट्र प्रदेश में स्थित होने का उल्लेख है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि विशाखापत्तन जिले के भूभाग को ही देवराष्ट्र कहते रहे होंगे। इस धारणा की पुष्टि एक अन्य अभिलेख से भी होती है जिससे ज्ञात होता है कि पिष्टपुर गुणवर्मन-शासित देवराष्ट्र का अंग था।
  • कौस्थलपुर का राजा धनंजय : इस स्थान की समुचित पहचान नहीं की जा सकी है। बार्नेट की धारणा रही है कि यह उत्तरी अर्काट में पोलर के निकट स्थित कुट्टलूर है। आयंगर का कहना है कि यह प्रदेश कुशस्थली नदी के आस पास था।

इन विजित राज्यों की भौगोलिक अवस्थिति पर विचार करने से प्रकट होता है कि समुद्रगुप्त का अभियान बंगाल की खाड़ी के तटवर्ती दक्षिण के पूर्वी भाग तक ही सीमित था। समुद्रगुप्त की सेना मध्य प्रदेश के वन्य प्रदेशों से होते हुए उड़ीसा तट की ओर बढ़ी और वहाँ से गंजाम, विशाखापत्तन गोदावरी, कृष्णा, नेल्लोर जिलों से गुजरती हुई मद्रास के दक्षिण काँधी के सुप्रसिद्ध राज्य तक पहुँची थी। कुछ विद्वानों ने यह मत प्रकट किया है कि समुद्रगुप्त ने लौटते समय पश्चिमी तटवर्ती कतिपय राजाओं को विजित किया था। इन विद्वानों ने कौरल को केरलपुत्र अथवा चेर राज्य से, कोट्टूर को कोयम्बतूर जिला स्थित कोयुर पोलाची से, पालक को मलाबार तटवर्ती पालघाट से, एरण्डपल्ल को खानदेश स्थित एरण्डोल से और देवराष्ट्र को महाराष्ट्र से पहचानने की चेष्टा की थी। इस प्रकार अभियान के जिस रूप की कल्पना इन विद्वानों ने की थी, उसके अनुसार अभियान के स्वाभाविक क्रम में समुद्रगुप्त को वेंगी और कांची के दक्षिणतम राज्यों को पराजित करने के बाद ही मालाबार तट की और बढ़ना चाहिये। वहाँ से पश्चिमी तट के उत्तरी राज्यों को जीतते और मध्य प्रदेश को रौंदते अपने राजधानी वापस आना चाहिये। अभिलेख में जिस क्रम से विजित राज्यों का उल्लेख हुआ है, उसका इन विद्वानों की धारणा के अनुसार अर्थ यह होता है कि वह पहले दक्षिण की ओर गया और फिर अचानक पश्चिम की ओर मुड़ गया और तब सुदूर दक्षिण की ओर लौटा। किन्तु समुद्रगुप्त पूर्वी तट से बिना मध्यवर्ती राज्यों को पार किये पश्चिम में महाराष्ट्र और खानदेश तक कैसे पहुँचा होगा इस पर विचार करने की चेष्टा इन विद्वानों ने नहीं की। भौगोलिक स्थिति को दृष्टिगत रखते हुए इस कल्पना को कोई महत्त्व नहीं दिया जा सकता।

आर्यावर्त का द्वितीय युद्ध

दक्षिण विजय के उल्लेख के बाद अभिलेख में आर्यावर्त के नौ राजाओं के उन्मूलन का उल्लेख २१वीं पंक्ति में मिलता है। इससे सामान्य धारणा यह उभरती है कि जब समुद्रगुप्त दक्षिण के अभियान से लौटा तो उसने अपने को उत्तर की ओर नौ शत्रुओं से घिरा पाया और उसने उनका उच्छेदन किया। इस प्रकार उत्तर में आर्यावर्त में समुद्रगुप्त ने दो सामरिक अभियान किये।

किन्तु कुछ विद्वानों की धारणा है कि इस प्रशस्ति में समुद्रगुप्त के विजयों का वर्णन काल-क्रम से नहीं हुआ है। उनकी धारणा है कि इन राजाओं का उन्मूलन कर उत्तर में अपनी सत्ता स्थापित करने के बाद ही उसने दक्षिण अभियान किया होगा। ऐसा न करना समुद्रगुप्त की बहुत बड़ी भूल होती। किन्तु इस प्रकार के अनुमान का कोई कारण नहीं जान पड़ता। यदि ऐसा होता तो इसकी चर्चा अलग से करने की आवश्यकता हरिषेण को न होती।

आर्यावर्त के इस द्वितीय अभियान में समुद्रगुप्त ने ९ राजाओं को हराया। पराजित राजाओं की सूची में तीन अच्युत, नागसेन और गणपति तो वहीं हैं जिनका उल्लेख पहले हो चुका है। शेष छः — रुद्रदेव, मत्तिल, नागदत्त, चन्द्रवर्मन, नन्दि और बलवर्मन

रुद्रदेव : रुद्रदेव के सम्बन्ध में निम्न विचार प्रस्तुत किये गये हैं :

  • काशीनाथ दीक्षित, काशीप्रसाद जायसवाल, बी० बी० मीराशी आदि विद्वान इसे वाकाटक नरेश रुद्रसेन (प्रथम) अनुमान करते हैं। किन्तु इस प्रकार का मत व्यक्त करने के मूल में अभिलेख में वाकाटकों का, जो उन दिनों मध्यवर्ती और पश्चिमी दकन की प्रमुख शक्ति थे, उल्लेख न होना है। यह बात उन लोगों को आश्चर्यजनक सी लगी है। किन्तु यह मत व्यक्त करते समय इन विद्वानों ने इस तथ्य को नजर अन्दाज कर दिया है कि –
    • वाकाटक रुद्रसेन (प्रथम) दक्षिणपथ का शासक था।
    • अभिलेख के अनुसार समुद्रगुप्त ने रुद्रदेव का उन्मूलन कर दिया था जब कि वाकाटक रुद्रसेन की वंश परम्परा उसके बाद भी अनेक पीढ़ी तक चलती रही।
    • इस अभिलेख में समुद्रगुप्त की विविध सफलताओं का विस्तृत वैभवपूर्ण चित्रण किया गया है। उसके आतंकपूर्ण प्रभाव को जताने के लिए कुषाण-शक राजाओं का, जिनकी नाम मात्र के लिए भी अधीनता स्वीकार करने की बात सन्दिग्ध सी ही है, विस्तृत उपाधियों के साथ उल्लेख किया गया है। ऐसी अवस्था में यदि समुद्रगुप्त ने वाकाटकों के विरुद्ध (जो इस समय देश के सबसे शक्तिशाली सम्राट थे और जिनकी अधिकार सीमा, समुद्रगुप्त की अधिकार सीमा से किसी प्रकार कम न थी) किसी प्रकार का अभियान किया होता तो यह कदापि सम्भव न था कि हरिषेण अधिक शक्तिहीन राजाओं की श्रेणी में रुद्रदेव को रखकर चुप रह जाता और दर्प पूर्ण शब्दों में इस बात का उल्लेख न करता।
    • इन कारणों से इस प्रशस्ति के रुद्रदेव का अभिप्राय वाकाटक-नरेश से कदापि स्वीकार नहीं किया जा सकता।
  • दिनेशचन्द्र सरकार ने यह मत प्रतिपादित किया है कि रुद्रदेव की पहचान पश्चिमी शक क्षत्रप-रुद्रदामन (द्वितीय) अथवा उसके पुत्र रुद्रसेन (तृतीय) से की जानी चाहिए। यह मत भी इस कारण अग्राह्य है कि समुद्रगुप्त ने पश्चिम अथवा मध्यभारत की ओर कोई अभियान नहीं किया था। एरण अभिलेख से उस ओर उसकी अन्तिम सीमा का अनुमान होता है। साथ ही, वाकाटक पृथ्वीषेण (प्रथम) के अभिलेख से ज्ञात होता है कि वाकाटक राज्य यमुना के दक्षिण, विन्ध्य के दक्षिण-पश्चिम तक फैला था। शक क्षत्रपों की राज्य सीमा इसके पश्चिम थी। यहाँ तक समुद्रगुप्त के पहुँचने की कल्पना का कोई आधार नहीं है। आर्यावर्त के राजाओं के बीच किसी शक क्षत्रप के उल्लेख की कल्पना अस्वाभाविक ही होगी।
  • इस प्रकार की दुरूह कल्पनाओं की अपेक्षा सहज भाव से यह अनुमान किया जा सकता है कि अभिलेख का रुद्रदेव कौशाम्बी से प्राप्त सिक्कों से प्राप्त रुद्र होगा जिसका समय चौथी शती ई० ज्ञात होता है। ये सिक्के आर्यावर्त के बीच उसी स्थान से मिले हैं, जहाँ इस अभिलेख का स्तम्भ मूलतः लगा था। और सिक्कों पर अंकित लिपि भी स्तम्भ लेख की लिपि के अनुरूप ही है।

मतिल – फ्लीट और ग्राउस का कहना है कि बुलन्दशहर (उत्तर-प्रदेश) से मिली मिट्टी की मुहर पर जो मत्तिल नाम अंकित है वह इसी राजा का नाम है। इस आधार पर वे उसे बुलन्दशहर के आसपास का राजा अनुमान करते हैं। किन्तु इस मुहर पर राजोचित उपाधि का सर्वथा अभाव है जिसके कारण यह मानना कि मत्तिल किसी रूप में सत्ताधारी था। सम्भव नहीं जान पड़ता। सम्प्रति मतिल की पहचान संदिग्ध ही है।

नागदत्त – नाम के आधार पर अनुमान किया जाता है कि नागसेन और गणपति नाग की भाँति ही नागदत्त भी कोई नागराज होगा; किन्तु नाग नामांश से ही इसे नागवंशी अनुमान करने का कोई औचित्य नहीं है। जायसवाल ने इसकी पहचान लाहौर से प्राप्त चौथी शती ई० की मुहर पर अंकित महाराज महेश्वर नाग के पिता नागभट (महाराज नागभट पुत्र महेश्वरनाग) से करने की चेष्टा की है। दिनेशचन्द्र सरकार की धारणा है कि वह उत्तर बंगाल के शासक और गुप्तों के दत्त नामान्त उपरिकों का पूर्वज होगा। किन्तु दत्त नामान्त के आधार पर उसके उत्तरी बंगाल के शासक होने की कल्पना नहीं की जा सकती और न नागभट का समीकरण नागदत्त से करने का ही कोई आधार है। सम्प्रति इस राजा के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

चन्द्रवर्मन – चन्द्रवर्जन की पहचान प्रायः लोग बाँकुरा (बंगाल) के समीप सुसुनिया पर्वत पर अंकित अभिलेख में उल्लिखित पुष्कर्ण-नरेश सिंहवर्मन के पुत्र चन्द्रवर्मन (पुष्करणाधिपतेर्महाराज श्री सिंहवर्मणः पुत्रस्य महाराज श्री चन्द्रवर्म्मणः) से कहते हैं किन्तु यह अनुमान दुरुह ही है। यह आर्यावर्त नरेश था और वह बंगाल में आर्यावर्त और बंगाल यदि इसे ध्यान में रखें तो दोनों स्पष्ट दो भौगोलिक इकाइयाँ हैं।

नन्दि – नन्दि नामक राजा के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञात नहीं है। कुछ विद्वानों की धारणा है कि वह पुराणों उल्लिखित नागराज शिवनन्दि होगा; किन्तु पुराणों में इस राजा का उल्लेख जिन राजाओं के साथ हुआ है वे गुप्तकाल से पहले के हैं। इस कारण यह पहचान सम्भव नहीं है। भण्डारकर ने नन्दि को अच्युत का नामांश अनुमान किया है। उसे वे अच्युत से भिन्न नहीं समझते।

बलवर्मन – कुछ विद्वानों की धारणा है कि यह हर्षवर्धन के समकालिक असम-नरेश भास्करवर्मन का पूर्वज था। किन्तु अभिलेख में असम का उल्लेख आर्यावर्त से भिन्न, स्वतन्त्र रूप में हुआ है। इस कारण इसे असम-नरेश अनुमान करना सम्भव नहीं है। सम्भव है वह चन्द्रवर्मन का कोई दायाद रहा हो। पर इसके सम्बन्ध में भी निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।

अभिलेख का उपर्युक्त अंश इस कथन के साथ समाप्त होता है कि इन नौ राजाओं के अतिरिक्त आर्यावर्त में अन्य बहुत से राजा थे जिनके राज्य को समुद्रगुप्त ने अपने में समेट लिया (अनेकार्यावर्त-राज-प्रसभोद्धरण) तथा सम्पूर्ण आटविक नरेशों को अपना दास बना लिया था।

आटविक राज्यों की विजय

प्रयाग प्रशस्ति के २१वें पंक्ति में ही आटविक राज्यों की चर्चा है। इसमें कहा गया है कि समुद्रगुप्त ने ‘सभी आटविक राज्यों को अपना सेवक बना लिया’ — ‘परिचारकीकृत सर्वाटविकराज्यस्य।’

आटविक का सामान्य अर्थ बनवासी होता है और वह महाकान्तार का पर्याय जान पड़ता है। किन्तु महाभारत में आटविक और महाकान्तार में स्पष्ट भेद किया गया है। परिव्राजक महाराज संक्षोभ के खोह अभिलेख में कहा गया है कि उसके पूर्वज अठारह आटविक राज्यों सहित डाभाल (जबलपुर प्रदेश) के पैत्रिक राज्य पर शासन करते थे। परिव्राजकों की भूमि बुन्देलखण्ड, बघेलखण्ड, रींवा तथा विन्ध्य शृंखला के अन्य भागों में थी। अतः बहुत सम्भव है इन्हीं को इस अभिलेख में आटविक कहा गया हो।

प्रत्यन्त ( सीमावर्ती ) राज्यों की विजय

प्रयाग प्रशस्ति की २२वीं पंक्ति में प्रत्यन्त ( सीमावर्ती ) राज्यों की एक लम्बी सूची मिलती है। ये राज्य और गणतन्त्र सर्वकरदान (सब तरह के कर देकर), आज्ञाकरण (आज्ञा पालन कर) और प्रमाणागमन (उपस्थित होकर) समुद्रगुप्त के शासन का परितोष करने को उत्सुक रहते थे। इन सीमान्त राज्यों में पूर्व और उत्तर के पाँच राज्यों और पश्चिम तथा उत्तर-पश्चिम के दस गणराज्यों का नामोल्लेख है।

पूर्वी सीमान्त के रूप में समतट, डवाक और कामरूप का उल्लेख होता है।

  • समतट — बृहत्संहिता के अनुसार भारत का पूर्वी भाग समतट कहा जाता था। सम्भवतः यह समुद्रतटवर्ती बंगलादेश का अंश या उसकी राजधानी कर्मान्त अथवा कुमिल्ला जिला स्थित बड़कामता था।
  • डवाक – फ्लीट की धारणा है कि ढाका ही प्राचीन डवाक है। स्मिथ का मत है कि डवाक का तात्पर्य बोगरा, दिनाजपुर और राजशाही जिलों के प्रदेश से है। कुछ विद्वान इसे आसाम में नवगाँव स्थित डवाक बताते हैं। उनके अनुसार यह राज्य कपिली-यमुना (कोलोग) की घाटी में फैला था।
  • कामरूप – आसाम के गुवाहाटी जिला और उससे सटे थोड़े से भूभाग को कामरूप कहते हैं।

समुद्रगुप्त के राज्य की उत्तरी सीमा पर नेपाल और कर्तृपुर स्थित थे।

  • कर्तृपुर सम्भवतः जलन्धर जिले का करतारपुर और कटुरिया के भूभाग का संयुक्त क्षेत्र था। कुछ विद्वान इसकी पहचान मुल्तान और लोहानी के बीच स्थित कहरीर से करते हैं और कुछ का कहना है कि वह कुमायूँ, गढ़वाल और रुहेलखण्ड में विस्तृत कटयूर राज्य था। यही अधिक सम्भव है।
  • नेपाल से अर्थ आधुनिक नेपाल से है। प्राचीन नेपाल गंडक और कोसी नदियों के मध्य स्थित था। यहाँ पर लिच्छिवियों का शासन था। समुद्रगुप्त की माँ स्वयं लिच्छवि कन्या थीं। समुद्रगुप्त स्वयं को लिच्छविदौहित्र कहने में गौरव का अनुभव करते थे।

अभिलेख में पश्चिम और उत्तर पश्चिम में स्थित निम्नलिखित गणराज्यों का उल्लेख है। इनके सम्बन्ध में अभिलेख में कहा गया है कि वे समुद्रगुप्त को कर देते थे ।

  • मालव – प्रायः सभी विद्वान मालव का तात्पर्य यवन लेखकों द्वारा उल्लिखित मल्लोइ से (जिन्होंने पंजाब में सिकन्दर के आक्रमण का प्रतिरोध किया था), अनुमान करते हैं। यह धारणा रा० ग० भण्डारकर ने प्रस्तुत की है। मालव लोगों का उल्लेख महाभारत में भी उपलब्ध होता है। पंजाब का सतलज और घग्घर नदी के बीच का भूभाग, जिसके अन्तर्गत फीरोजपुर, फरीदकोट, भटिण्डा, लुधियाना, संगरूर, पटियाला, रूपड़, चण्डीगढ़ और अम्बाला जिले आते हैं, अब तक मालवा या मालव कहा जाता है। इसी के साथ ही, राजस्थान का दक्षिणी, पूर्वी भाग तथा मेवाड़ और टोंक में भी मालव निवास करते थे ऐसा टोंक के निकट कर्कोटनगर के आसपास के क्षेत्र से मालवों के सिक्के मिलते हैं जिन पर मालवां जय आदि आलेख प्राप्त होता है और उसका समय चौथी शती ई० अनुमान किया जाता है। इन दोनों ही भू-भागों में उपनिवेसित मालवों से किससे तात्पर्य इस अभिलेख में है, कहना कठिन है। दोनों ही उपनिवेशों की सम्भावना का अनुमान समान रूप से किया जा सकता है।
  • आर्जुनायन – आर्जुनायनों का प्राचीनतम उल्लेख पाणिनि के अष्टाध्यायी में हुआ है। बृहत्संहिता के अनुसार वे उत्तरी भाग के निवासी थे। उनके अवस्थिति का निश्चित अनुमान उनके सिक्कों से होता है। इन सिक्कों पर मालव और यौधेय सिक्कों के समान ही अर्जुनायनां जय लेख है। इन सिक्कों के लांछन रूप (device or motif) भी यौधेय सिक्कों से मिलते-जुलते हैं। ये सिक्के अभी अल्प मात्र में ही ज्ञात हो पाये हैं। वे कहाँ से मिले इनका समुचित उल्लेख प्राप्त नहीं है। कनिंघम को मिले एक सिक्के के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वह मथुरा से मिला था। इन सभी तथ्यों पर विचार करने से ऐसा लगता है कि उनका उपनिवेश दिल्ली-जयपुर-आगरा से लगे हरियाणा वाले भू-भाग में कहीं रहा होगा।
  • यौधेय – यौधेयों का भी उल्लेख पाणिनि के अष्टाध्यायी में हुआ है। उन्होंने उसकी अवस्थिति बाहीक (विभाजन पूर्व पंजाब) के बीच बतायी है। उनके जो सिक्के उपलब्ध होते हैं उनके अनुसार वे तीसरी शती ई० के आस पास सतलुज और व्यास के उपरी काँठे में आ बसे थे और सुनेत को सम्भावतः उन्होंने अपनी राजधानी बनाया था। समुद्रगुप्त के समय वे इसी भू-भाग में रहते रहे होंगे।
  • मद्रक – मद्र देश का प्राचीनतम उल्लेख उपनिषदों में प्राप्त है। मद्रकों की चर्चा पाणिनि के अष्टाध्यायी और महाभारत में भी है। वे पूर्व और अपर दो भागों में बँटे हुए थे। पूर्व मद्र रावी से चिनाव तक और अपर भद्र चिनाव से झेलम तक फैला था। पाणिनि के अनुसार मद्र का नाम भद्र भी था। भद्र राजस्थान में घग्घर के किनारे बीकानेर के उत्तर-पूर्वी सीमा पर स्थित है। सम्भवतः समुद्रगुप्त के समय मद्रक यहीं रहते थे।

शेष पाँच गणों आभीर, प्रार्जुन, सनकानिक, काक और खपरिक की अवस्थिति विद्वानों ने मालवा (मध्य-भारत) में अनुमान किया है। किन्तु इस प्रकार का अनुमान प्रकट करते हुए यह भुला दिया गया है कि समुद्रगुप्त के राज्य के अन्तर्गत एरण तक का ही भू-भाग था। उसके राज्य के पश्चिम वाकाटको का राज्य था और उनके समीप ही विदिशा के भू-भाग में नागों का अधिकार था, जैसा कि पौराणिक कथनों और सिक्कों के प्रमाण से स्पष्ट है। नागों से आगे शक क्षत्रपों का अधिकार था। ऐसी स्थिति में यह सम्भव नहीं कि उपर्युक्त गणराज्यों में से कोई भी इस क्षेत्र के किसी भू-भाग में रहा हो।

  • आभीर— झाँसी और विदिशा के बीच का भू-भाग अहीरवार कहलाता है। इस कारण लोगों ने यह मत प्रकट किया है कि समुद्रगुप्त के समय आभीर इसी प्रदेश में रहते रहे होंगे। किन्तु महाभारत में आभीरों की अवस्थिति सरस्वती और विनशन नदियों के निकट अर्थात् निचले सिन्धु-काँटे और पश्चिमी राजस्थान में बताया गया है। अतः समुद्रगुप्त के समय तक आभीर इसी ओर रहते रहे होंगे ।
  • प्रार्जुन – स्मिथ ने प्रार्जुनों के मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले में होने का अनुमान प्रकट किया है। किन्तु कौटिल्य ने प्रार्जुनों का उल्लेख गन्धारों के साथ किया है। अर्थशास्त्र की एक प्राचीन टीका में उन्हें चण्डाल-राष्ट्र कहा गया है। अतः यह अनुमान अधिक सत्य के निकट होगा कि वे पंजाब के किसी भू-भाग के निवासी थे।
  • सनकानिक – चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के सामन्तों में एक सनकानिक महाराज थे जिन्होंने उदयगिरि के एक देवालय को दान दिया था। इस कारण रायचौधुरी और उनके अनुकरण में अन्य लोगों ने मान रखा है कि सनकानिक विदिशा के प्रदेश में रहते थे। इस धारणा को व्यक्त करते समय इन लोगों ने यह तथ्य भुला दिया है कि इसी काल में गणपति नाग को विदिशा का शासक कहा जाता है। सनकानिक महाराज उन सैनिक और प्रशासनिक अधिकारियों में रहे होंगे जो चन्द्रगुप्त (द्वितीय) की पुत्री प्रभावती गुप्ता के संरक्षणकाल में वाकाटक राज्य की शासन व्यवस्था के लिए पाटलिपुत्र से भेजे गये थे। वीरसेन (साब) और अम्रकारदेव गुप्त राज्य के कुछ अन्य अधिकारी हैं जिनका उल्लेख उदयगिरि और साँची के अभिलेखों में मिलता है। वे निःसन्देह इस भू-भाग के निवासी न थे। इस बात को ध्यान में रखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि सनकानिक महाराज विदिशा प्रदेश के ही निवासी थे। हरिषेण ने सनकानिकों को, प्रार्जुनों और कार्यों के बीच रखा है; उन्हें उन्हीं के पड़ोसी राज्य के रूप देखना उचित होगा।
  • काक – राखालदास बनर्जी ने काकों की पहचान कश्मीर के काकों से की है। साँची में काकनादबोट नामक एक विहार था इसलिए स्मिथ ने काकों का सम्बन्ध साँची से जोड़ने का प्रयास किया है। भिलसा के निकट काकपुर नामक एक ग्राम है; उसका भी सम्बन्ध कार्कों से जोड़ने की चेष्टा की गयी है। किन्तु महाभारत में काकों का उल्लेख ऋषिक, तंगण, प्रतंगण और विठ्ठल लोगों के साथ हुआ है। ऋषिक तो यू-ची (कुषाणों का कबीला) ही हैं। पुराणों के अनुसार तंगण कश्मीर के निकट के प्रदेश के निवासी थे। विठ्ठल सम्भवतः यू-चियों की ही एक शाखा का नाम है। इस प्रकार काक भी उनके पड़ोसी रहे होंगे।
  • खर्परिक – बटियागढ़ अभिलेख में खर्पर शब्द का प्रयोग देख कर अनुमान कर लिया गया है कि खर्परिक मध्य प्रदेश के दमोह जिले के निवासी थे किन्तु इस अभिलेख में मात्र इतनी सी बात कही गयी है कि सुल्तान महमूद ने मीर जुलाच को, जो खर्पर सेना के विरुद्ध लड़ा था, चेदि का सूबेदार नियुक्त किया था। मध्यकालीन ग्रन्थों में खर्पर का तात्पर्य मंगोल बताया गया है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए समुद्रगुप्त-कालीन खर्परिक लोगों को उत्तर-पश्चिमी प्रदेश का निवासी ही अनुमान किया जाना चाहिये।

इस प्रकार हरिषेण की इस सूची से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त के प्रशासित प्रदेश के पश्चिम गणराज्यों की एक पाँत थी जिसकी एक छोर दक्षिण-पूर्व में राजस्थान में और दूसरा छोर उत्तर-पश्चिम की ओर पंजाब में था।

विदेशी शक्तियाँ

अभिलेख की २३वीं-२४वीं पंक्ति में कहा गया है कि देवपुत्र-षाहि-षाहानुसाहि, शक-बुरुण्ड तथा सिंहल आदि द्वीप समुद्रगुप्त की साम्राज्य-शक्ति के प्रभाव में थे और उन्होंने सब प्रकार की सेवा प्रदान कर समुद्रगुप्त की प्रभुता स्वीकार की थी। उनकी सेवाएँ थीं—

(१) आत्म-निवेदन (सम्राट के सम्मुख प्रत्यक्ष हाजिरी);

(२) कन्योपायन दान (अपनी कन्याओं को भेंट स्वरूप लाकर राजा के साथ विवाह) और

(३) गरुत्मदांक-स्वविषय भुक्तिशासन याचना (अपने विषय अथवा भुक्ति के भोग के निमित्त गरुड़ अंकित मुहर से छपे शासनादेश की प्राप्ति)।

देवपुत्र-षाहि-षाहानुसाहि – इसका अर्थ कुषाण शासक से है। कुषाण गुप्तों के समय पश्चिमी पंजाब में शासन करते थे। कुषाण शासक देवपुत्र, षाहि व षाहानुषाहि जैसी उपाधियाँ धारण करते थे। समुद्रगुप्त के समय कुषाण शासक ‘किदार’ पेशावर के आस-पास शासन करते थे। पहले किदार ससानी शासक ‘शापुर द्वितीय’ की अधीनता में थे परन्तु समुद्रगुप्त की सहायता से उसने स्वयं को स्वतंत्र कर लिया।

अभिलेख के इस अंश में उल्लिखित देवपुत्र-षाहि-षाहानुवाहि, शक-मुरुण्ड को लेकर विद्वानों में काफी मतभेद है। कनिंघम ने समूचे पद को एक राज्य का बोधक बताया है। उनके इस मत का समर्थन अभी हाल में ए० डी० एच० बीवर ने किया है। वे इस सम्पूर्ण पद को कुषाणों का बोधक मानते हैं। बीवर ने अपना मत इस प्रकार प्रतिपादित किया है— मुरुण्ड उपाधि का प्रयोग कुषाणों ने कनिष्क के समय में आरम्भ किया। पीछे वह गंगा के उपरी काँठे में रहनेवाले कुषाण उपनिवेशको के लिए सामान्य रूप से व्यवहृत होने लगा। इस प्रकार समुद्रगुप्त के इस अभिलेख में कुषाण सम्राटों द्वारा प्रयुक्त उपाधियों के माध्यम से कुषाण साम्राज्य के शक-कुषाण राजाओं की चर्चा की गयी है। वे या तो पुराने कुषाण वंश के अवशेष थे (इस स्थिति में बीवर ने उनकी पहचान सिक्कों के आधार पर वासुदेव और तृतीय कनिष्क से की है।) अथवा वे सासानी सामन्त थे जिनका उल्लेख उभरते हुए गुप्तों ने पूर्ववर्ती कुषाणों के चिरपरिचित उपाधियों के माध्यम से किया है। बीवर का यह भी कहना है कि समुद्रगुप्त ने सम्भवतः कुषाणों पर सासानियों के विजय का लाभ उठा कर ध्वस्त मुरुण्ड साम्राज्य पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने की चेष्टा की थी। वे अपनी इस बात का समर्थन उन सिक्कों में देखते हैं जो बनावट में कुषाण सिक्कों के समान हैं और जिनको ये मुरुण्डो के सिक्के होने का अनुमान करते हैं और जिनपर समुद्र नाम अंकित है। इसे वे इस बात का द्योतक अनुमान करते हैं कि समुद्रगुप्त और उनके उत्तराधिकारियों का इन विदेशी राजाओं पर प्रभुत्व था। बीवर की यह सारी बातें इन सिक्कों से सम्बन्धित अनेक भ्रान्ति धारणाओं पर आधारित है।

कुछ विद्वान देवपुत्र-षाहि-षाहानुषाहि, शक-मुरुण्ड को किसी एक राज्य अथवा राजा का वाचक न मानकर देवपुत्र, षाहि, षाहानुषाहि, शक और मुरुण्ड नामक पाँच राज्यों के उल्लेख की कल्पना करते हैं। वे इन्हें दो वर्गों में बाँट कर देखते हैं एक वर्ग में ये देवपुत्र, षाहि और षाहानुषाही को और दूसरे वर्ग में शक और मुरुण्ड को रखते हैं।

देवपुत्र, षाहि और षाहानुषाहि के रूप में ये विद्वान कुषाण साम्राज्य को तीन राज्यों के रूप में विभाजित अनुमान करते हैं। इन लोगों ने इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट करने की चेष्टा की है। कि चीनी इतिहासकारों ने भारत के देवपुत्र (ति-पोनो-फो-तान लो) का बार-बार उल्लेख किया है; इसका तात्पर्य भारत के किसी अज्ञात सम्राट से न होकर देवपुत्र उपाधिधारी राजा से है। कनेडी का कहना है कि भारत के देवपुत्र को पंजाब में होना चाहिये क्योंकि चौथी शती ई० के चीनी इतिहासकारों ने इस देश को हाथियों के लिए प्रसिद्ध बताया है।

षाहि के सम्बन्ध में एलन का कहना है कि इस उपाधि का प्रयोग किदार-कुषाण करते थे। इसे उन्होंने अपने पूर्वाधिकारियों से प्राप्त किया था। उन्होंने इस बात की ओर भी ध्यान आकृष्ट करने की चेष्टा की है कि षाहि कुषाणों की एक शाखा विशेष थी जिसका सम्बन्ध गन्धार से था। वे इस बात की भी सम्भावना बताते हैं कि षाहि षाहानुषाहि भारत के किसी बड़े राजा की उपाधि थी, जो ईरानी उपाधि धारण करता था। किन्तु इसके साथ ही वे षाहानुषाहि को षाहि से भिन्न भी मानते हैं। स्मिथ का कहना है कि षाहानुषाहि या तो सासानी सम्राट शापुर (द्वितीय) था, जिसने असंदिग्ध रूप से यह उपाधि धारण की थी या फिर वह वक्षु-तट स्थित कुषाणों का कोई राजा था। एलन उसे काबुल का कुषाण राजा अनुमान करते हैं। उनके अनुसार षाहानुषाहि (सम्भवतः षाहि षाहानुषाहि) की पहचान उस कुषाण राजा से की जानी चाहिये जिसके राज्य का विस्तार भारतीय सीमा से बाहर था।

अन्य अनेक विद्वान देवपुत्र-षाहि-षाहानुषाहि में तीन राज्यों की बात नहीं सोचते ये समूचे पद को एक राजा अथवा राजवंश की उपाधि के रूप में देखते हैं। रमेशचन्द मजूमदार का मत है कि यह अकेले एक कुषाण शासक का बोधक है जिसका राज्य काबुल, पंजाब के कुछ अंश और आगे पश्चिम की ओर कुछ दूर तक था। स्मिथ का अनुमान है कि इस उपाधि को धारण करनेवाला राजा ग्रम्बेट था जिसने ३५० ई० के आस पास सासानी सम्राट शापुर (द्वितीय) की भारतीय हाथियों के एक दल से सहायता की थी। हेमचन्द्रराय चौधुरी को इसमें कुषाणों के अतिरिक्त सासानियों की भी झलक दिखायी पड़ी है। बुद्ध प्रकाश को तो इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं है कि यह समस्त पद कुषाणों की उपाधि है; उनका यह कहना है कि इस उपाधि का प्रयोग ३५६ ई० के पूर्व ही हुआ होगा। वे इसे ३५० और ३५६ ई० के बीच रखते हैं, जिन दिनों कुषाणों पर सासानियों का दबाव जोरों पर था। उनका यह भी कहना है कि इस समय कुषाण शासक ने समुद्रगुप्त की उभरती हुई शक्ति के साथ मैत्री करके उनकी सहायता प्राप्त की होगी। अल्तेकर भी समस्त पद को एक उपाधि मानते हैं किन्तु वे इसे ससानियों के करद किदारों की उपाधि बताते हैं।

निष्कर्ष रूप से कहा जाय तो कनिष्क (प्रथम) से लेकर जितने में कुषाण शासक हुए (जिन्हें महान कुषाण कहा जाता है) उन्हें उनके अभिलेखों में या तो मात्र महाराज देवपुत्र कहा गया या फिर महाराज रजतिराज देवपुत्र। कंकालीटीला (मथुरा) से मिले वासुदेव के वर्ष ८७ के अभिलेख में यह महाराज रजतिराज षाहि कहा गया है। तदन्तर मथुरा से प्राप्त अभिलेखों में उसके उत्तराधिकारी कनिष्क (द्वितीय), वशिष्क आदि भी महाराज रजतिराज देवपुत्र षाहि कहे जाते रहे। और ठीक यही भाव इस प्रशस्ति के देवपुत्र-षाहि-षाहानुषाहि में भी निहित है। अन्तर केवल इतना ही है कि इस प्रशस्ति में उसका मूल ईरानी रूप अक्षुण्ण है और मथुरा के सम्मुख अभिलेखों में उसका आलेख संस्कृत अनुवाद है। किन्तु इसकी और अभी तक किसी ने समुचित रूप से ध्यान नहीं दिया है। उत्तरवर्ती कुषाणों के सम्बन्ध में लन्दन में आयोजित एक संगोष्ठी ( १९८१ ई० में ) सरोजिनी कुलश्रेष्ठ ने इस तथ्य को विस्तृत रूप से उद्घाटित किया। यही नहीं, संगोष्ठी में प्रस्तुत निबन्ध में हरियाणा और उत्तर प्रदेश से मिले सिक्कों के ऐसे निखातों की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है जिनमें उक्त कुषाण शासकों के सिक्कों के साथ समुद्रगुप्त के भी सिक्के पाये गये हैं। इन निखातों की ओर भी अभी तक किसी का ध्यान नहीं गया था। ये निखात उत्तरवर्ती कुषाण मथुरा के शासकों और समुद्रगुप्त के नैकट्य को निर्विवाद रूप से उद्घोषित करते हैं। इस प्रकार ये दोनों निबन्ध संयुक्त रूप से इस तथ्य पर प्रकाश डालते हैं कि गुप्त सम्राटों के उत्थान काल तक मथुरा पर यमुना के काँठे में कुषाणों का अधिकार अक्षुण्ण बना हुआ था और वे समुद्रगुप्त के सीमावर्ती मित्र थे। यहाँ इस प्रशस्ति में देवपुत्र चाहि चाहानुषाहि से तात्पर्य इन्हीं कुधागों से है, किसी अन्य से नहीं।

शक-मुरुण्ड – शक लोग गुप्तों के समय पश्चिमी मालवा, गुजरात और काठियावाड़ में शासन करते थे। समुद्रगुप्त का समकालीन शक नरेश रुद्रसिंह तृतीय ( ३४८ – ३७८ ई० ) था।

इनके सम्बन्ध में अनेक विद्वानों का मत रहा है कि यह जाति (अथवा जातियों) का नाम जान पड़ता है। इसका तात्पर्य कुषाण राजाओं से भिन्न किसी अन्य राजा अथवा राज्य से है। उनका यह भी अनुमान है कि ये पश्चिम भारत के वे शक क्षत्रप होंगे जिनकी राजधानी उज्जयिनी थी और जो चष्टन और रुद्रदामन के वंशज थे। इस प्रसंग में कहा गया है कि मुरुण्ड शक शब्द है जिसका अर्थ स्वामी होता है और इस उपाधि का प्रयोग शकों ने और उनके बाद कुषाणों ने किया था। उसके भारतीय रूप स्वामी का प्रयोग पश्चिमी क्षत्रपों ने भी किया है। प्रसंगवश में साँची से मिले एक अभिलेख की ओर भी संकेत किया जाता है जिससे ३१६ ई० के आसपास नन्दि-सुत महादण्डनायक श्रीधरवर्मन के अधीन एक शक राज्य होने का अनुमान होता है। इसके अतिरिक्त विन्ध्य प्रदेश में कुछ अन्य छोटे-छोटे शक राजाओं का भी संकेत सिक्कों से मिलता है।

कुछ लोग मुरुण्ड को शक से भिन्न राज्य अनुमान करते हैं। स्टेन कोनो ने इन्हें कुषाण कहा है। विल्सन ने मुरुण्डों को हूणों की एक जाति बताया है और उनकी पहचान टॉलमी कथित मुरुण्ड से की है। सिल्वाँ लेवी ने यह बताने का यत्न किया है कि वे शक अथवा कुषाण थे। उन्होंने इसे चीनी शब्द म्यूलोन में पहचाना है जिसका प्रयोग तीसरी शती ई० में फु-नान (स्याम) जाने वाले चीनी राजदूत ने भारत के किसी प्रादेशिक राज्य के रूप में किया है। टॉलमी ने मुरुण्डाइ को गंगा के बायें किनारे पर घाघरा के दक्षिणी काँठे के सिरे पर स्थित बताया है। जैन ग्रन्थों में मुरुण्डराज को कान्यकुब्ज का शासक कहा गया है। इन सभी उल्लेखों से केवल इतना ही ज्ञात होता है कि ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में गंगा काँठे में मुरुण्डों का कोई शक्तिशाली राज्य था।

शक-मुरुण्डों की पहचान के लिए उपर्युक्त मतों के विवेचन की अपेक्षा यह कहना सहज और अधिक बुद्धि-संगत समझते हैं कि इसका तात्पर्यउन षक (षाक) शासकों से है जिनके सिक्के कुषाणों के सिक्कों के अनुकरण पर बने हैं और उनके पट ओर ओरदोक्षो का अंकन और सामने की ओर राजा के नाम के सांकेतिक अक्षरों में ब्राह्मी में षक अथवा षाक अंकित पाया जाता है। इस सम्बन्ध में दृष्टव्य यह भी है कि ये सिक्के उत्तरप्रदेश से मिले अनेक निखातों में देखने में आये हैं और कुछ निखातों में तो इन सिक्कों के साथ समुद्रगुप्त अथवा उसके उत्तराधिकारियों के सिक्के भी पाये गये हैं। इन दो प्रकार के सिक्कों का एक साथ पाया जाना इस बात के प्रमाण हैं कि ये षक या षाक लोग समुद्रगुप्त के समसामयिक थे। अतः पूर्ण सम्भावना इस बात की जान पड़ती है कि इन्हीं की ही चर्चा प्रयाग प्रशस्ति में षक के रूप में की गयी है। सम्भव है वे षक और मुरुण्ड दोनों नामों से जाने जाते रहे हो। जैन-ग्रन्थों ने उनका उल्लेख उनके अपर नाम मुरुण्ड से करके उन्हें कान्यकुब्ज का शासक बताया हो।

यद्यपि हमें यह ज्ञात नहीं कि इन वैदेशिक शक्तियों से समुद्रगुप्त का कोई युद्ध हुआ था या नहीं। वे समुद्रगुप्त के अधीन थे अथवा मात्र कूटनीतिक सम्बन्ध थे। परन्तु यह स्पष्ट है कि शकों और कुषाणों ने समुद्रगुप्त की अधीनता मानी थी। कुछ कुषाण मुद्राओं पर ‘समुद्र’ और ‘चन्द्र’ अंकित है। शकों की मुद्राएँ भी ‘गुप्त’ प्रकार की हैं। इन साक्ष्यों के आलोक में शकों और कुषाणों पर गुप्तों का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

समुद्रपारीय शक्तियाँ

समुद्र पार के मित्रों के रूप में इस अभिलेख में यद्यपि द्वीपों की बात कही गयी है, केवल सिंहल का ही नामोल्लेख है। समुद्रगुप्त के शासन काल में सिंहल और भारत के पारस्परिक राजनीतिक सम्बन्ध की जानकारी अन्यत्र भी प्राप्त है। चीनी लेखक वैंग ह्वेन-त्सी के कथनानुसार सिंहल-नरेश श्री मेघवर्ष (ची-मि-किया-पो-मो) ने समुद्रगुप्त के पास बहुमूल्य उपहारों के साथ अपना राजदूत भेज कर सिंहली यात्रियों के लिए बोधगया में एक बिहार और विश्राम गृह बनाने की अनुमति प्राप्त की थी और बोधि वृक्ष के उत्तर एक आलीशान बिहार बनवाया था युवानच्वांग ने इस विहार का इतिहास बताते हुए कहा है कि सिंहल-नरेश ने भारत नरेश को भेंट में अपने देश के समस्त रत्न दिये थे।

सिंहल के अलावा कुछ और भी द्वीपों ने समुद्रगुप्त की अधीनता या मैत्री स्वीकार कर ली थी। प्रशस्ति में सिंहल के बाद ‘आदि सर्वद्वीपवासिभिः’ लिखा गया है। इसका अर्थ दक्षिण-पूर्व एशियाई द्वीपों से है। यहाँ के भारतीय शासक अपनी मातृभूमि से सम्बन्ध बनाये हुए थे। जावा द्वीप से मिले तन्त्रीकामन्दक नामक ग्रंथ में ‘ऐश्वर्यपाल’ नामक शासक का विवरण मिलता है और वह स्वयं को समुद्रगुप्त का वंशधर बताता है।

इस अभिलेख में जो अन्य सभी द्वीपों की बात कही गयी है उसके विवेचन में लोगों ने कई प्रकार के मत प्रकट किये हैं। हेमचन्द्र रायचौधरी की धारणा है कि इस अभिलेख में समुद्रगुप्त को जो वरुणेन्द्रान्तक कहा गया है (पंक्ति २६) उससे यह झलकता है कि समुद्र स्थित पड़ोसी द्वीपों पर उसका किसी प्रकार का कोई नियन्त्रण अवश्य था। रमेशचन्द्र मजूमदार का मत है कि अभिलेख में सम्भवतः सामान्य भाव से मलय प्रायद्वीप, जावा, सुमात्रा, तथा भारतीय द्वीप समूह के अन्य द्वीपों के भारतीय उपनिवेशों की ओर संकेत किया गया है। उन्होंने इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि भारतीयों ने गुप्त काल में अथवा उससे पहले ही इन भू-भागों में अपने उपनिवेश और राज्य स्थापित कर लिये थे उन पर गुप्त कालीन संस्कृति की गहरी छाप दिखायी पड़ती है। इन उपनिवेशों और भारत के बीच निरन्तर घनिष्ट आवागमन होता रहा यह फाह्यान के विवरण से भी प्रकट होता है। इन सुंदर प्रदेश के भारतीय उपनिवेशियों के लिए स्वाभाविक ही था कि वे अपनी मातृभूमि के शक्तिशाली साम्राज्य के साथ अपना सम्बन्ध बनाये रखें। अतः मजूमदार का मत है कि अन्य सभी द्वीप-वासियों द्वारा की जानेवाली अभ्यर्थना की बात को कोरा कवि वचन नहीं कहा जा सकता। हरिषेण का कथन इन द्वीपों में से कुछ के साथ वास्तविक सम्बन्ध पर आधारित हो सकता है।

समुद्रगुप्त का व्यक्तित्व

हरिषेण रचित इस प्रशस्ति में समुद्रगुप्त के राज्य और उसके सीमावर्ती राज्यों की जो विस्तृत चर्चा की गयी है उससे समुद्रगुप्त का उभरता हुआ चित्र सामने आता है। इस प्रशस्ति से यह झलकता है कि समुद्रगुप्त शक्तिशाली और दृढ निश्चयी शासक था। उसमें राजनीतिज्ञ के सभी गुण समाहित थे। कुशल राजनीतिज्ञ की तरह उसने समग्र देश को अपने प्रत्यक्ष शासन के अधीन रखने का प्रयास कभी नहीं किया। जहाँ एक ओर सत्य यह है कि उसने अपने राज्य के चारों ओर के छोटे छोटे राज्यों को एक साम्राज्यवादी की तरह उखाड़ कर अपना एक विस्तृत साम्राज्य स्थापित किया, वहीं यह भी सत्य है कि उसने पूर्वी सीमान्तर राज्यों और पश्चिमी गण-राज्यों को हड़पने का प्रयास कभी नहीं किया वरन् उन्हें विश्वस्त करद के रूप में ही देखा। यह उसकी कुशल राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचायक है।

इस प्रशस्ति से जहाँ समुद्रगुप्त के योग्य सेनापति, राजनीतिज्ञ और शासक होने की बात प्रकट होती है, वहीं उसके व्यक्तित्व के रूप को भी हरिषेण समुचित ढंग से प्रस्तुत किया है। हरिषेण के शब्दों में समुद्रगुप्त मृदु हृदय और अनुरक्त था और दरिद्र, दुखी, असहायों की सहायता के लिए तत्पर रहता था, उदारता का वह प्रतिमूर्ति था। साथ ही वह विद्याव्यसनी और कला-रसिक भी था। हरिषेण के अनुसार वह सुखमन प्रज्ञनुसंगोचित, शास्त्रतत्वज्ञ था। उसके दरबार में उस समय के बहुणित लोग थे। उनकी सहायता से समुद्रगुप्त सत्काव्यश्री की परख करता था और वह स्वयं भी बहु-कविता का रचयिता था और कविराज कहा जाता था। (अनेक-काव्य-क्रियाभिः प्रतिष्ठित कविराज)। वह अपनी विद्वत्सभा का उपजीव्य था। समुद्रगुप्त केवल कवि ही नहीं वरन् महान संगीतज्ञ भी था। हरिषेण ने उसकी तुलना बृहस्पति तुम्बरु, नारद सदृश संगीत-शास्त्रियों से की है।

प्रशासन की जानकारी

इस प्रशस्ति का रचयिता हरिषेण था, इसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। उसकी काव्य- प्रतिभा का परिचय इस प्रशस्ति के काव्य-स्वरूप से सहज ही प्राप्त होता है। वह कवि होने के साथ-साथ समुद्रगुप्त के शासन-तन्त्र का एक अधिकारी भी था। उसने अपने को सन्धिविग्रहिक, कुमारामात्य, और दण्डनायक बताया है; साथ ही यह भी कहा है कि उसके पिता ध्रुवभूति भी उसकी भाँति एक राज्याधिकारी – महादण्डनायक थे। इससे यह दो बातें ज्ञात होती हैं। एक तो यह कि एक ही परिवार के अनेक लोग राजपदों पर काम करते थे। आश्चर्य नहीं, राज-पद प्राप्त करने के वंश-गत अधिकार की परम्परा रही हो। दूसरी बात यह कि एक ही व्यक्ति कई पदों पर काम करता था। किसी अधिकारी को एक से अधिक पद देने के पीछे दो कारण हो सकते हैं एक तो विश्वस्त व्यक्तियों का अभाव दूसरे वेतन व्यय में मितव्ययिता। ब्रिटिश शासन काल में भारत में जो देशी रियासतें थीं, उनमें से अनेक में एक ही व्यक्ति कई पदों पर काम करता था। उसे एक पद के लिए वेतन और अन्य पदों पर काम करने के लिए भत्ता मिलता था।

सन्धिविग्रहिक – यह मित्र एवं सामन्त राज्यों के साथ सम्बन्ध की देख-रेख करने वाला अधिकारी था। उसका मुख्य काम कदाचित सामन्तों और मित्र राजाओं के साथ सद्भाव बनाये रखने के प्रति सजग रहना और विद्रोहोन्मुख राज्यों का दमन करना था। कदाचित वह युद्ध में सम्राट के साथ उपस्थित भी रहता था। कुछ विद्वानों ने आधुनिक युद्ध-मंत्री के ढंग पर उसके युद्ध और शान्ति मन्त्री होने की कल्पना की है।

कुमारामात्य – गुप्त अभिलेखों और मुहरों में कुमारामात्य का उल्लेख प्रायः देखने आता है। सम्भवतः यह आजकल के आई० सी० एस० और आई० ए० एस० के समान उच्चवर्गीय अधिकारियों का वर्ग था। इस वर्ग से केन्द्रीय तथा स्थानीय शासन के लिए अधिकारियों का मनोनयन अथवा निर्वाचन होता था। दूसरे शब्दों में गुप्त-शासन के शासनतन्त्र (ब्यूरोक्रेसी) का नाम कुमारामात्य था।

दण्डनायक और महादण्डनायक – दण्ड का तात्पर्य सेना और न्याय दोनों से समझा जाता है।

इस कारण कुछ लोग इन पदों का सम्बन्ध सेना और कुछ न्याय से अनुमान करते हैं। इससे अनुमान होता है कि ये उच्च पुलिस अधिकारियों के पद रहे होंगे। किन्तु दण्ड शब्द का प्रयोग अनेक स्थानों पर (टैक्स) कर के अर्थ में भी हुआ है। यदि इस भाव को ग्रहण करें तो इसका तात्पर्य कर से सम्बन्धित अधिकारी से लिया जा सकता है।

समुद्रगुप्त का नालन्दा ताम्रलेख

समुद्रगुप्त का गया ताम्रपत्र

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