भूमिका
वीरपुरुषदत्त का नागार्जुनकोंडा अभिलेख आंध्र प्रदेश के इसी नाम के पहाड़ी पर स्थित भग्न स्तूप से मिले एक आयक स्तम्भ ( संख्या – बी०५ ) पर अंकित मिला है।
संक्षिप्त परिचय
नाम :- वीरपुरुषदत्त का नागार्जुनकोंडा अभिलेख ( Nagarjunakonda Inscription of Veerpurushdatta ) या नागार्जुनकोण्डा अभिलेख ( Nagarjunakonda Inscription )
स्थान :- नागार्जुनकोंडा पहाड़ी, पलनाडु जनपद, आंध्र प्रदेश
भाषा :- प्राकृत
लिपि :- ब्राह्मी
समय :- गुप्त-पूर्व, इक्ष्वाकु वंशी शासक वीरपुरुषदत्त का अभिलेख ( तृतीय शताब्दी का उत्तरार्ध )
विषय :- बौद्ध धर्म हेतु स्तूप पुनर्निर्माण और स्तम्भ स्थापना का उल्लेख
मूलपाठ
१. सिधं [ ॥ ] नमो भगवतो देवराज-सकतस संमसंमसंबुधस धातुवर-
२. परिगहितस [ । ] महाचेतिये महरजस विरुपखपति-महासेन-परिगहितस
३. अगिहोता गिठीगितोम-वाजेपयासमेध-याजिस हिरणकोटि-गोसत-
४. सहस-हलसतसहस-पदायिस सवथेसु अपतिहत-संकपस
५. विसिठीपुतस इखाकुस सिरि-चातमूलस सोदराय भागिनिय हंम-
६. सिरिंणिकाय बालिका रंञो सिरि-विरपुरिसदतय भया महादेवि बपिसिरिणका
७. अपनो मातरं हंमसिरिणिकं परिनमततुन अतने च निवाण-संपति-सपादके
८. इमं सेल-थंभं पतिठपति [ । ] अचरि [ या ] नं अपरमहाविनसेलियानं सुपरिगहितं
९. इमं महाचेतिय-नवकमं [ । ] पंणगाम-वथवानं दीघ-मझिम-पद-म [ ] तुक-देस [ क-वा ] चकान
१०. अ ( च ) रयान अयिर-हधान अंतवासिकेन दीघ-मझिम-निगयधरेन भदंतानं-देन
११. निठपितं इमं ननकमं महाचेतियं खंभा च ठपिता ति [ । ] रञो सरिविरिपुरिसदतस
१२. संव ६ वा प ६ दि १० [ ॥ ]
हिन्दी अनुवाद
१. सिद्धम् ! भगवान्, देवराज द्वारा आदरित, सम्यक्-सम्बुद्ध प्राप्त करने वाले, श्रेष्ठतम् धातु को ग्रहण करनेवाले ( अर्थात् भगवान् बुद्ध ) को नमस्कार !
२. [ इस ] महाचैत्य में महाराज, विरुपाक्षपति महासेन द्वारा परिगृहीत ( स्कन्द-कार्तिकेय के भक्त ),
३. अग्निहोत्र, अग्निष्ठोम, वायपेय, अश्वमेध [ नामक ] यज्ञों को करनेवाले, करोड़ों सिक्के ( हिरण्य ), शत सहस्र गाय,
४. शत सहस्र हल प्रदान करने ( दान देनेवाले ), समस्त कार्यों में अप्रतिहत संकल्प ( अटूट निश्चय ) वाले,
५. वाशिष्ठीपुत्र इक्ष्वाकु-वंशीय श्रीचन्तिमूल की सहोदरा ( बहन )
६. हर्म्यश्री की बालिका ( पुत्री ), राजा श्रीवीरपुरुषदत्त की भार्या ( पत्नी ) महादेवी वप्पीश्री ने
७. अपनी माता हर्म्यश्री को ध्यान में रखकर ( अर्थात् अपनी माता हर्म्यश्री के ) और अपने निर्वाण की सम्प्राप्ति के निमित्त
८. इस शैल-स्तम्भ को स्थापित किया [ और ] अपर महावन-शैल [ सम्प्रदाय ] के आचार्यों द्वारा सुगृहीत
९. इस महाचैत्य का नवकर्म ( मरम्मत, संस्कार या परिवर्धन ) कराया। पर्णग्राम निवासी, दीघ, मझ्झिम आदि पञ्च मात्रिकों ( मूल सिद्धांतों अर्थात् निकायों ) के देशक और वाचक ( पढ़ने और पढ़ानेवाले )
१०. आचार्यों के साथ आर्यसंघ में निवास करनेवाले अन्तेवासिक दीघ और मझ्झिम निकाय को धारण करनेवाला आनन्द द्वारा
११. महाचैत्य का नवकर्म ( संस्कार या परिवर्धन ) तथा स्तम्भ की स्थापना का कार्य निष्ठापित हुआ ( पूरा किया गया )। राजश्री वीरपुरुषदत्त के
१२. सम्वत् ६ में छठे वर्षा पक्ष १०वें दिन [ को ]।
ऐतिहासिक महत्त्व
इक्ष्वाकुवंशी शासक श्री वीरपुरुषदत्त की भार्या वप्पीश्री ने नागार्जुनकोण्डा के स्तूप की मरम्मत करायी थी और एक शाल-स्तम्भ स्थापित किया था।
इस अभिलेख में ‘अपर महावन-शैल’ नामक बौद्ध सम्प्रदाय की चर्चा की गयी है। इसका अन्यत्र कहीं उल्लेख नहीं मिलता है। ह्वेनसांग ने जिस अपर-शैलीय बौद्ध सम्प्रदाय की चर्चा की है शायद यह वही हो पर निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है।
वीरपुरुषदत्त की भार्या वप्पीश्री उसकी फुफेरी बहन भी थी। अर्थात् फुफेरी बहन से विवाह का प्रचलन था। दक्षिण भारत के राष्ट्रकूट शासकों में ममेरी व फुफेरी बहन से विवाह का प्रचलन था। उदाहरणार्थ – कृष्ण द्वितीय ने अपने मामा रणिविग्रह की पुत्री लक्ष्मी से विवाह किया था। इन्द्र तृतीय ने अपने मामा कलचुरिवंशी अम्मणदेव की पुत्रों विवाह किया था। ममेरी और फुफेरी बहन से विवाह का प्रचलन आज भी दक्षिण भारत में है।
एक ही परिवार के लोग अलग-अलग धर्म के प्रति आस्था रख सकते थे :-
- वीरपुरुषदत्त के पिता और वप्पीश्री का श्वसुर; चान्तमूल कार्तिकेय के भक्त थे। उन्होंने वैदिक यज्ञों किये थे।
- वप्पीश्री स्वयं बौद्ध थी।