नागानिका का नानाघाट अभिलेख

भूमिका

नागानिका का नानाघाट अभिलेख पुणे से लगभग १२१ किलोमीटर उत्तर और मुम्बई से पूर्व दिशा में लगभग १६३ किलोमीटर की दूरी पर पश्चिमी घाट में स्थित नानाघाट या नाणेघाट दर्रे ( Naneghat pass ) की दोनों दीवारों पर अंकित है। यह ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में अंकित है।

नागानिका का नानाघाट अभिलेख : संक्षिप्त परिचय

नाम :- नागानिका का नानाघाट अभिलेख या नागनिका का नाणेघाट अभिलेख ( Nanaghat or Naneghat Inscription of Naganika )

स्थान :- नानाघाट, पुणे जनपद, महाराष्ट्र

भाषा :- प्राकृत

लिपि :- ब्राह्मी

समय :- प्रथम शताब्दी ई०पू० का उत्तरार्ध

विषय :- रानी नागानिका द्वारा विविध यज्ञों का विवरण, तत्कालीन राजनीतिक-धार्मिक-आर्थिक अवस्था का विवरण

नागानिका का नानाघाट अभिलेख : मूलपाठ

[ बायीं दीवार पर ]

१. [ॐ] (सिधं) नमो प्रजापति] नो धंमस नमो ईदस नो संकंसन-वासुदेवान चंद-सूरान [महि] मा [व] तानं चतुनं चं लोकपालानं यम वरुन-कुबेर-वासवानं नमो कुमारवरस [ ॥ ] [वेदि] सिरिस रञो

२. …. [वी] रस सूरस अ-प्रतिहत-चकस दखि [ नप ] ठ-पतिनो ….

३. [मा] …… [बाला] य महारठिनो अंगिय-कुल-वधनस सगर गिरिवर-वल [ या ] य पथविय पथम वीरस वस य व अलह वंतठ ? …… सलसु महतो मह …..

४. सिरिस …… भारिया [य] [;] देवस पुतदस वरदस कामदस धनदस [वेदि] सिरि मातु [य] सतिनो सिरिमतस च मातु[य] सोम [;]……

५. वरिय …….  [ना] गवर-दयिनिय मासोपवासिनिय गहतापसाय चरित-ब्रम्हचरियाय दिख-व्रत यंञ-सुंडाय यञा हुता धूपन-सुगंधा य निय …….

६. रायस ………. [य]ञेहि विठं [।] वनो अगाधेय यंत्रो द[ख]ना दिना गावो बारस १० [+] २ असो च १[ । ] अनारभनियो यंञो दखिना धेतु ……

७. दखिनायो दिना गावो १००० [+] १०० हथी १० …..

८. ……. स ससतरय [वा]सलठि २०० [+] ८० [+] ६ कुभियो रूपामयियो १० [+] ७ भि …..

९. रिको यंञो दखिनायो दिना गावो १००००० [+] १००० असा १००० पस [पको]

१०. ……. १० [+] २ गमवरो १ दखिना काहापना २०००० [+] ४००० [+] ४०० पसपको काहापाना ६०००। राज— [सूयो यंत्रो] सकट

  • यह अंश स्पष्ट नहीं है। कुछ लोगों की धारणा है कि बुहर के समय में ये अक्षर दिखाई पड़ते थे।
  • बुह्लर ने चन्द-सूतांन पढ़ा है पर इस पाठ की यहाँ कोई संगति नहीं है।
  • कृष्णशास्त्री के खुद पढ़ा है किन्तु दिनेशचन्द्र सरकार का कहना है कि वेदि पाठ स्पष्ट है।
  • दिनेशचन्द्र सरकार ने ‘रजो सिमुक सातवाहन सुन्हाय’ द्वारा इस अभाव की पूर्ति का सुझाव दिया है।
  • कुछ लोग यहाँ कललाय पाठ का अनुमान करते हैं। उनके इस अनुमान का आधार वे सिक्के हैं जिन पर यह नाम मिलता है।
  • यहाँ सातकणि-सिरिस अथवा सिरि सातकणिस होने की कल्पना की जाती है।
  • दिनेशचन्द्र सरकार ने यहाँ राय सतकणिननासह के होने का अनुमान किया है।
  • बुह्लर ने इसे एक की संख्या माना है। किन्तु अन्यत्र लेख में इसका प्रयोग विराम के लिए हुआ है। यहाँ भी यह विराम ही है।

[ दाहिनी दीवार पर ]

११. धंञगिरि-तंस-पयुतं १ सपटो १ असो १ अस-रथो १ गावीनं १०० [ । ] असमेधो यंञो बितियो [यि] ठो दखिनायो [दि] ना असो रूपालं [का] रो १ सुवंन …. नि १०[+]२ दखिना दिना काहापना १०००० [+] ४००० गामो १ [ हठि ] ….. दखि]ना दि[ना]

१२. गावो सकटं धंञगिरि-तस पयुतं १ [ । ] वायो यंञा १०[+]७ [ धेनु ?] …. वाय सतरस

१३. …… १०[+]७ अच ….. न …… लय पसपको दि- [नो] …… [दखि] ना दिना सु ….. पीनि १० (+) ३ अ ( ? )सो रूपा [लं]कारो १ दखिना काहाप[ना] १०००० २

१४. गावो २०००० [।] [भगल]-दसरतो यंञो यि[ठो] [दखिना ] [दि]ना [गावो] १००००। गर्गतिरतो यञो यिठो [दखिना] पसपका पटा ३००। गवामयनं यंञो यिठो [दखिना दिना] १०००[+]१००। गावो १०००[+]१०० (?) पसपको काहापना पटा १०० [।] अतुयामो यंञो …..

१५. ……… [ग] वामयनं य[ञो] दखिना दिना गावो १००० [+]१००। अंगिरस [  ] मयनं यंञो यिठो [द]खिना गावो १०००[+]१००। त …… [दखिना दि]ना गावो १०००[+]१००। सतातिरतं यंञो ……… १००[।] [यं] ञो दखिना ग[ावो] १०००[+]१०० [।] अंगिरस[ति]रतो यंञो यिठो [दखि] ना गा[ वो ] …… [।]…..

१६. …. [गा] वो १०००[+]२ [।] छन्दोमप[व]मा [नतिरत] दखिना गावो १०००। अं[गि]रसतिर] तो यं[ञो] [यि]ठो द[खिना] [।] रतो यिठो यंञो दखिना दिना [।] तो यंञो यिठो दखिना [।] यञो यिठो दखिना दिना गावो १०००।

१७. …… न स सय …… [दखि]ना दिना गावो त ……. [।] [अं]  गि[रसा] मयनं छवस [दखि] ना दिना गाव १०००……….[।] ….. [दखिना] दिना गावो १०००। तेरस अ …….. [।]

१८. …… [।] तेरसरतो स ….. छ ……. [आ]ग-दखिना दिना गावो …… [।] दसरतो म [दि]ना गावो १००००। उ …….. १००००| द ……

१९. …… [ यं ] ञो दखिना दि[ना] ……

२०. ……. [द]खिना दिना ……

हिन्दी अनुवाद

ॐ अथवा सिद्धम्। [प्रजापति को नमस्कार]; धर्म को [नमस्कार]; इन्द्र को नमस्कार: संकर्षण-वासुदेव, चन्द्र-सूर्य, महिम, चतुर्दिक् लोकपाल, यम, वरुण, कुबेर, आसव आदि को नमस्कार; कार्तिकेय को नमस्कार।

राजा वेदिश्री [ के…… ]

वीर, शूर, अप्रतिहतचक्र, दक्षिणापति …. [की बेटी], महारठी, अंगिय-कुल-वर्धन, सागर और गिरिवर (हिमालय) से घिरी पृथ्वी (भारतवर्ष) के प्रथम वीर श्री …… की भार्या, देव, पुत्रद, वरद, कामद, धनद वेदश्री की माता और श्रीमद् साति की भी माता; जो नागवरदायिन्य (?), मास भर उपवसवास करनेवाली (मासोपवासिनी), घर में तपस्वी की तरह रहनेवाली (गृह-तापस्या), ब्रह्मचारिणी का जीवन व्यतीत करनेवाली (चरितब्रह्मचर्या), दीर्घ व्रत, यज्ञ, शौण्ड करनेवाली है। [उन्होंने] धूप सुगन्ध से [युक्त] अनेक यज्ञ किये (?)। …….. रायस (?) जो यज्ञ किये उनकी सफलता के लिए [जो] वर्ण१० (दान-दक्षिणा) [दिया गया उसका यह विवरण है]-

  • दिनेशचन्द्र सरकार की धारणा है कि यहाँ भूलोक-सम्बन्धी बौद्ध कल्पना प्रतिध्वनित है, जिसके अनुसार पृथ्वी, समुद्र और चक्रवाल पर्वतों से घिरी है। किन्तु यहाँ तात्पर्य भारतवर्ष से हैं, यह गिरिवर शब्द से स्पष्ट है जो हिमालय का पर्याय है।
  • वर्ण शब्द को लोगों ने वर्णन अथवा विवरण के अर्थ में लिया है; किन्तु दान-दक्षिणा के लिए प्रयुक्त होनेवाला यह एक सामान्य शब्द है।१०

अग्नेय यज्ञ दक्षिणा दिया १२ गाय और एक घोड़ा।

अनालम्भणीय यज्ञ दक्षिणा ……

[यज्ञ] दक्षिणा दिया ११०० गाय, १० हाथी ….. २८९ बाँस की लाठी (वास-लठी, वंश-यष्टि); चाँदी से भरा हुआ कलश १७; ….. ।

……. रिक यज्ञ-दक्षिणा दिया गया १०००१; अश्व १०००; पसपक (प्रसर्पक)११

…….. १२; ग्रामवर १; दक्षिणा २४४०० कार्षापणोच प्रसर्पक ६००० कार्षापण। राजसूय यज्ञ …… अन्नकूट (धान्य- गिरि) से लगा शकट (गाड़ी) १; सपट (सत्पट्ट ?) १; अश्व १; अश्वरथ १; गाय १००।

अश्वमेध यज्ञ (द्वितीय) के इष्ट के लिए दक्षिणा दिया ……. अश्व[…….]; रौप्यालंकार १; सुवण ….. १२ दक्षिणा दिया १४००० कार्यापण ग्राम १ हाथी ……

दक्षिणा दिया गया …… ; अन्नकूट से लदी गाड़ी १।

…. वाय यज्ञ- [दक्षिणा दिया]…. १७….

सप्तदशा [भिराज्ञ यज्ञ]….. १० …… प्रसर्पक दिया ….. दक्षिणा दिया

……. दक्षिणा दिया ….. १३; अश्व [ ….. , रौप्यालंकार १; दक्षिणा कार्षापण १००० ….. गाय २८००००।

भगाल दशरात्र यज्ञ के इष्ट के लिए। दक्षिणा दिया गया १००००।

गर्गातिरात्र यज्ञ के इष्ट के लिए। दक्षिणा ….. प्रसर्पक पट (वस्त्र) ३००।

गवामयन यज्ञ के इष्ट के लिए। [दक्षिणा दिया] गाय ११००।

…… गाय ११००। पसर्पक कार्षापण ….. पट १००।

आप्तोर्याम यज्ञ ……।

गवामयन यज्ञ दक्षिणा दिया गाय ११००।

अंगिरसामयन यज्ञ के लिए दक्षिणा दिया गाय ११००।

[दक्षिणा ] दिया गाय ११००।

शतातिरात्र यज्ञ ….. १०० ……

……. यज्ञ-दक्षिणा १०० गाय।

अंगिरसातिरात्र यज्ञ के इष्ट के लिए दक्षिणा गाय

गाय १००२।

छन्दोमपवमानातिरात्र [ यज्ञ ] ….. दक्षिणा १००० गाय।

अंगिरसातिरात्र यज्ञ के इष्ट के लिए दक्षिणा …..

……. रात्र यज्ञ के इष्ट के लिए। दक्षिणा दिया …… ।

…… रात्र यज्ञ के इष्ट के लिए दक्षिणा ……।

…… यज्ञ के इष्ट के लिए दक्षिणा दिया गाय १००० …..।

…… यज्ञ के इष्ट के लिए दक्षिणा दिया गाय ……।

अंगिरसामयन षड्वर्ष [यज्ञ]-दक्षिणा दिया गाय १०००।

…… यज्ञ दक्षिणा दिया गाय १००० ……।

…… त्रयोदशरात्र यज्ञ दक्षिणा दिया ……।

त्रयोदशरात्र …… अग्र दक्षिणा दिया गाय ……।

…… दशरात्र [ यज्ञ ] – [दक्षिणा दिया] गाय १००००|

……. १००००। ……

यज्ञ दक्षिणा दिया

……. दक्षिणा दिया॥

नागानिगा का नानाघाट अभिलेख : महत्त्व

समय के प्रवाह कारण से नागानिका का नानाघाट अभिलेख इतना क्षतिग्रस्त है कि इसका समुचित पाठोद्धार सम्भव नहीं हो सका है। जो कुछ पढ़ा गया है उसमें विराम चिह्नों का सर्वथा अभाव है। इस कारण विद्वानों ने इस लेख की आरम्भिक पंक्तियों में, जो ऐतिहासिक महत्त्व की हैं, वाक्यों की सीमा विविध प्रकार से निर्धारित कर अनुवाद और व्याख्या प्रस्तुत की है।

यह नायनिका या नागनिका का का लेख है। यह शातकर्णि की रानी थी और अंगीय वंश की कन्या थी। यह वंश बहुत अधिक शक्तिशाली था क्‍योंकि अंगीय वंश के राजा अपने को महारथी कहते थे। अंगीय वंश नाग वंश था अतएव सातकर्णी को इन्होंने विजय अभियान करने में पर्याप्तसहायता की होगी। तभी इस अभिलेख में उनके द्वारा सम्पादित दो अश्वमेघ यज्ञों का वर्णन है।

इसमें वर्णित सातकर्णी को मार्शल ने सातकर्णी प्रथम से भिन्न माना है क्योंकि साँची स्तूप शुंग काल में द्वितीय शताब्दी ई०पू० में बना था। तब वहाँ शुगों का अधिकार था, जबकि सातकर्णी प्रथम खारवेल का समकालीन दूसरी शती ई०पू० का शासक है। पर मार्शल खारवेल की तिथि प्रथम शती ई०पू० के स्थान द्वितीय शती मानने के कारण शंका उठा रहे हैं।

यहाँ ‘दक्षिणापथपति’ सातकर्णी की उपाधि दी गयी है। इससे लगता है कि दक्षिण में उसका अधिकार था। साँची के अभिलेख और मालव शैली के सिक्कों से मालवा तथा काठियावाड़ पर उसका अधिकार ज्ञात होता है। तभी यहाँ दो अश्वमेघ यज्ञों की बात की गयी है – एक राज्य के प्रारम्भ में और दूसरे अन्त में तथा एक राजसूय यज्ञ करने का भी उल्लेख किया गया है।

इस अभिलेख से सातवाहन शासकों के समय दक्षिणी भारत की धार्मिक स्थिति पर व्यापक प्रकाश पड़ता है। साथ ही सातवाहन शासन में नागानिका की महत्त्वपूर्ण भूमिका एवं उसका चरित्र भी ज्ञात होता है।

इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे शब्द भी यहाँ शतकर्णी के लिए प्रयुक्त किये गये हैं जिनसे उनकी कृतियों की गुरुता पर भी आलोक पड़ता है जैसे – ‘शूर’, ‘वीर’ तथा “अप्रतिहत दक्षिणापथपति:’ आदि। ये शब्द शातकर्णी के दक्षिणी भारत के विजय का परिचय कराते हैं। इससे सातवाहन परिवार के सदस्यों का परिचय मिलता है जो उस समय के दूसरे किसी भी अभिलेख से ज्ञात नहीं होता।

इसमें वर्णित देवताओं से विदित होता है कि लोकपालों की अवधारणा स्थापित हो चुकी थी तथा पौराणिक हिन्दू धर्म; यथा – यज्ञ, दान, पुरोहितवाद आदि एवं चतुर्व्यूह सिद्धान्त का भी समुचित विकास हो चला था। धार्मिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों के समबन्ध में निम्नलिखित विवरण इस अभिलेख में मिलते हैं –

  • बेसनगर गरुड़-ध्वज स्तम्भ लेख, पहला ज्ञात अभिलेख है, जिससे वैष्णव धर्म के जानकारी मिलती है। नागानिका का नानाघाट अभिलेख कुछ बाद का है। इस अभिलेख से वैष्णव धर्म की जानकारी मिलती है। इसमें विभिन्न देवताओं के साथ-साथ संकर्षण व वासुदेव का विवरण मिलता है। वासुदेव वैष्णव धर्म के प्रमुख देवता हैं। इससे स्पष्ट होता है कि वैष्णव धर्म का प्रसार दक्षिणी भारत में इस समय हो रहा था। साथ ही संकर्षण और वासुदेव का यहाँ साथ-साथ युग्म रूप में उल्लेख हुआ है। इसी प्रकार दोनों देवताओं के साथ-साथ उपासना का ज्ञान घोशुण्डी के प्रस्तर अभिलेख से भी होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि अब तक दोनों की स्वतन्त्र सत्ता बनी थी तथा एक साथ दोनों की पूजा होती थी। व्यूहवाद का प्रचार इस समय तक नहीं हुआ था क्योंकि प्रद्यू॑म्न आदि का यहाँ उल्लेख नहीं मिलता है।
  • हिन्दूधर्म का पौराणिक सम्प्रदाय इस समय दक्षिण भारत में प्रचलित था। डा० हरिपद चक्रवर्ती के अनुसार नागनिका का नानाघाट अभिलेख इस विशेष दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है कि इस समय दक्षिण भारत धार्मिक संतरण से गुजर रहा था। यहाँ वैदिक धर्म का स्थान पौराणिक धर्म लेने लगा था। इसका स्पष्ट परिचय यहाँ पौराणिक देवताओं के उल्लेख से प्राप्त होता है। इसमें इन्द्र, संकर्षण-वासुदेव, सूर्य, चारों लोकपाल —यम, वरुण, कुबेर और वासव का उल्लेख है।
  • पौराणिक धर्म सम्बन्धी कर्मकाण्डों का भी विवरण मिलता है। इसमें ३६ यज्ञों का उल्लेख किया गया है। इनमें से उन्‍नीस यज्ञों का नाम स्पष्ट रूप से पढ़ा जा सका है। शेष इतना टूटा-फूटा है कि उसको पढ़ना सम्भव नहीं है। इनमें कुछ यज्ञों का उल्लेख एक से अधिक बार किया गया है। लगता है कि यज्ञों को बार-बार किये जाने का चलन था। इनमें दो यज्ञ प्रमुख हैं —राजसूय तथा अश्वमेध। राजसूय एक बार किया गया और अश्वमेध दो बार। इनके अतिरिक्त अन्य वर्णित यज्ञों में रिक, अगाध, अनारभनिय, भगल, भगाल-दसरथ, गर्गतिरात्र आदि। इससे ज्ञात होता है कि सातवहनों के शासनकाल में दक्षिण भारत में विभिन्‍न वैदिक यज्ञों का प्रचलन प्रारम्भ हो चुका था। डा० सरकार के अनुसार इतनी बड़ी संख्या में वहाँ यज्ञों का होना सिद्ध करता है कि सातवाहन राज्य के प्रारम्भ में वैदिक कर्मकाण्ड का व्यापक प्रभाव था। इनमें दक्षिणा के रूप में बहुत अधिक सम्पत्ति का दान लोगों की समुन्नत आर्थिक स्थिति का मात्र बोधक ही नहीं है अपितु सामान्य वैदिक यज्ञ परम्परा में जटिलता का भी द्योतक है।
  • इन यज्ञों में बहुत अधिक दान-दक्षिणा का विवरण मिलता है। यद्यपि यह परम्परा वैदिक काल में देखने को मिलती है। पुरोहितों को दी जाने वाली दक्षिणा में गायों का उल्लेख बड़ी संख्या में मिलता है। इसके साथ ही घोड़े, हाथी आदि पशु भी दान में देने का उल्लेख है। बर्तन दान भी किया गया और वह द्रव्य से भरकर। सोने तथा चाँदी प्रायः बहुत कम मात्रा में दान देते थे। परन्तु कहीं इसका भी प्रभूत दान देखने को मिलता है। धान से लदी बैलगाड़ी के दान का विवरण है। कभी-कभी ग्राम दान भी दिया जाता था। इसी अभिलेख में बाँस की लाठी में मुद्राएँ भरकर दान दिए जाने का वर्णन किया गया है। यह गुप्तदान का परिचायक है। हमारे शास्त्रों में गुप्त दान का विशेष महत्त्व स्वीकार किया गया है। परन्तु इन सभी दान विवरणों की प्रमुख विशेषता थी कि दान बहुत अधिक मात्रा में दान; यथा – १०० गोदान काबा-बार उल्लेख किया गया है परन्तु कई बार यह १००० भी है। इसी प्रकार अश्व और हाथी भी इसके अतिरिक्त अश्वरथ, शकट आदि गाड़ियों को धान्य से भरकर दिया जाता था। वस्त्रों का भी दान देते थे।
  • जहाँ एक ओर धार्मिक पक्ष का ज्ञान इस लेख से मिलता है वहीं यह आर्थिक सम्पन्नता को भी इंगित करता है।
  • इस समय दक्षिण भारत में क्रय-विक्रय के लिए प्रचलन में सुवर्ण और कार्षापण नामक मुद्राएँ थीं। कार्षापण का उल्लेख पूरे लेख में पाँच-छ: बार हआ है।
  • प्रशासनिक दृष्टि से यह ज्ञात होता है कि राजाओं की उपाधि राजन व स्वामिन की थी।
  • सामाजिक जीवन के सम्बन्ध में वैधव्य जीवन का आभास मिलता है। वेदश्री तपस्विनी की तरह रहने वाली, ब्रह्मचारिणी, दीर्घव्रत और यज्ञ करने वाली तथा कल्याण के लिए दक्षिणा देनेवाली थी। ऐसा ही वैधव्य जीवन अब विधवाएँ भी बिताती होंगी।

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