भूमिका
किसी भी विषय को पढ़ने, समझने, और आत्मसात करने के लिये पहली स्वाभाविक जिज्ञासा यह होती है कि – अमुक विषय क्या है? अथवा अमुक विषय की परिभाषा क्या है? अतः सबसे पहले हम यही जानने का प्रयास करेंगे कि — दर्शन क्या है? अथवा दर्शन की परिभाषा क्या है?
दर्शन किन प्रश्नों पर विचार करता है?
मनुष्य एक चिन्तनशील एवं विवेकवान प्राणी है। सोचना मानव का विशेष गुण है। इसी सोचने व समझने की क्षमता के कारण वह पशुओं से भिन्न समझा जाता है। इसी भाव को अरस्तू ने ‘मनुष्य को विवेकशील प्राणी’ कहकर व्यक्त किया है। विवेक अर्थात् बुद्धि की कारण मानव जगत् की विभिन्न वस्तुओं को देखकर उनके स्वरूप को जानने व समझने का प्रयास करता रहा है। मनुष्य की बौद्धिकता उसे अनेक प्रश्नों पर गहन व गम्भीर विचार करने के लिये सदैव प्रेरित और उत्साहित करती रही है; यथा :—
- जगत् का स्वरूप क्या है? इसकी उत्पत्ति किस तरह और क्यों हुई? संसार का कोई प्रयोजन है या यह प्रयोजनहीन है? यह जगत् क्यों है?
- इस विश्व का सर्जनकर्ता कौन है?
- ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं है? यदि ईश्वर है तो उसका स्वरूप कैसा है? ईश्वर के अस्तित्व और अनस्तित्व का प्रमाण क्या है? सत्ता का स्वरूप क्या है?
- आत्मा क्या है? आत्मा है या नहीं?
- जीव क्या है? मनुष्य क्या है?
- जीवन का परम लक्ष्य क्या है?
- ज्ञान का साधन क्या है? सत्य ज्ञान का स्वरूप और सीमाएँ क्या है?
- शुभ और अशुभ क्या है? उचित और अनुचित क्या है?
- नैतिक निर्णय का विषय क्या है?
- व्यक्ति और समाज का क्या सम्बन्ध है? इत्यादि।
दर्शन ऐसे अनेकानेक जटिल प्रश्नों का युक्तिपूर्वक उत्तर देने का प्रयास करता है। यहाँ एक बात स्पष्ट करना प्रासंगिक है कि दर्शन में इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिये भावना या विश्वास का सहारा नहीं लिया जाता है, वरन् ‘बुद्धि-विवेक’ का प्रयोग किया जाता है।
ऐसे जटिल प्रश्नों का उत्तर जानना मानवीय स्वभाव का चिरकाल से अंग रहा है। यही कारण है कि यह प्रश्न हमारे समक्ष नहीं उठता कि हम दार्शनिक हैं या नहीं हैं। वरन् प्रश्न यह है कि कितने कुशल दार्शनिक हैं। दार्शनिक तो हैं ही हम। इस सन्दर्भ में हक्सले महोदय का यह कथन उल्लेखनीय है कि — हम सबों का विभाजन दार्शनिक और अदार्शनिक के रूप में नहीं, वरन् कुशल और अकुशल दार्शनिक के रूप में ही सम्भव है।”१
- देखें – Problems of Philosophy. — Cunningham ( p. 70 ).१
इन प्रश्नों को देखने से पता चलता है कि सम्पूर्ण विश्व दर्शन का विषय है। इन प्रश्नों का उत्तर मानव अनादिकाल से देता आ रहा है और भविष्य में भी निरन्तर देता रहेगा।
दर्शन क्या है?
ऐसे प्रश्नों के द्वारा ज्ञान के लिये मानव का प्रेम या उत्कंठा का भाव अभिव्यक्त होता है। इसलिये फिलॉसफी का अर्थ ‘ज्ञान के लिये प्रेम’ या ‘विद्यानुराग’ होता है।
पाश्चात्य चिंतन में दर्शन का अर्थ —
दर्शन शब्द को आँग्ल भाषा में ‘Philosophy’ लिखते हैं। इसकी उत्पत्ति यूनानी भाषा के दो शब्दों से हुई है —
- Philosophy = ‘philein’ + ‘sophos’.
- Philein का अर्थ है – to love.
- Sophos का अर्थ है – wise or wisdom.
- इस तरह Philosophy का अर्थ है – ‘love to wisdom.’ अर्थात् ‘ज्ञान-प्रेम’ या ‘विद्यानुराग’।
भारतीय चिंतन में दर्शन का अर्थ —
‘दर्शन’ शब्द संस्कृति भाषा के ‘दृश्’ धातु से बना है जिसका अर्थ है — ‘देखना’ अथवा ‘जिसके द्वारा देखा जाय।’ परन्तु इस देखने का सामान्य देखना नहीं है अपितु ‘तार्किक एवं अन्तर्दृष्टि’ से देखने से है। इस सम्बन्ध में कहा गया है कि – ‘दृश्यता यथार्थ तत्त्वमनेन’ अर्थात् ‘जिससे यथार्थ तत्त्व की अनुभूति हो वह दर्शन है।
अतः भारतीय चिंतन परम्परा में दर्शन उस विद्या को कहा जाता है जिसके द्वारा ‘तत्त्व का साक्षात्कार’ हो सके। भारत का दार्शनिक केवल तत्त्व की बौद्धिक व्याख्या से ही सन्तुष्ट नहीं होता, बल्कि वह तत्त्व की अनुभूति प्राप्त करना चाहता है।
ऐन्द्रिय व अनैन्द्रिय अनुभव
भारतीय दर्शन में अनुभूतियों की दो श्रेणी बतायी गयी है :-
- एक, ऐन्द्रिय ( sensuous )
- द्वितीय, अनैन्द्रिय ( non-sensuous )
जिस ज्ञान या अनुभव को मनुष्य इन्द्रियों के माध्यम से प्रत्यक्ष रूप में ग्रहण करता है वह ऐन्द्रिय या लौकिक ज्ञाता श्रेणी में आता है। वह ज्ञान जिसकों हम इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त नहीं कर सकते अर्थात् अनैन्द्रिय अनुभवजन्य ज्ञान होता है और आध्यात्मिक अनुभूति की श्रेणी में रखा जाता है।
इन दोनों अनुभूतियों में अनैन्द्रिय अनुभूति (आध्यात्मिक अनुभूति) का दर्शन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान है। भारतीय मनीषियों के मतानुसार तत्त्व का साक्षात्कार आध्यात्मिक अनुभूति से ही सम्भव है।
आध्यात्मिक अनुभूति (intuitive experience) बौद्धिक ज्ञान से उत्तम है। बौद्धिक ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय के बीच द्वैतभाव वर्तमान रहता है, परन्तु आध्यात्मिक ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का भेद समाप्त हो जाता है। चूँकि भारतीय दर्शन ‘तत्त्व के साक्षात्कार’ में आस्था रखता है, इसलिये इसे ‘तत्त्व दर्शन‘ भी कहा जाता है।
दर्शन : व्यावहारिकता और आध्यात्मिकता
भारतीय दर्शन की प्रमुख विशेषता ‘व्यावहारिकता’ है। भारत में जीवन की समस्याओं को हल करने के लिये दर्शन का सृजन हुआ है। जब मानव ने अपने को दुःखों के आवरण से घिरा हुआ पाया तब उसने पीड़ा और क्लेश से छुटकारा पाने की कामना की। इस प्रकार दुःखों से निवृत्ति के लिये उसने दर्शन को अपनाया। इसीलिये प्रो० हिरियाना ने कहा है “पाश्चात्य दर्शन की भाँति भारतीय दर्शन का आरम्भ आश्चर्य एवं उत्सुकता से न होकर जीवन की नैतिक एवं भौतिक बुराइयों के शमन के निमित्त हुआ था। दार्शनिक प्रयत्नों का मूल उद्देश्य था जीवन के दुःखों का अन्त ढूँढ़ना और तात्त्विक प्रश्नों का प्रादुर्भाव इसी सिलसिले में हुआ।”२
- Philosophy in India did not take its rise in wonder or curiosity as it seems to have done in the West; rather it originated under the pressure of practical need arising from the presence of moral and physical evil in life….Philosophic endeavour was directed primarily to a remedy for the ills of life, and the consideration of metaphysical questions came in as matter of course. — Outline of Indian Philosophy ( p. 18-19 ).२
इस तरह मानव जीवन की समस्याओं से छुटकारा पाने के लिये चिंतन-मनन करता रहा है। दुःखों से मुक्ति की छटपटाहट मानव को दर्शन की ओर ले गयी। इस प्रक्रिया में दुःखों से पूर्णतः निवृत्ति दर्शन का मुख्य उद्देश्य बन गया।
मनुस्मृति में दर्शन के सम्बन्ध में कहा गया है — “सम्यक् दर्शन प्राप्त मनुष्य को कर्म के बन्धन नहीं बाँध सकते, दर्शनहीन व्यक्ति ही संसार के जाल में उलझते हैं।”३
सम्यक् दर्शन सम्पन्नः कर्मभिर्न निबद्ध्यते।
दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते॥३
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत में ज्ञान की चर्चा ज्ञान के लिये न होकर मोक्षानुभूति के लिये हुई है। यहाँ पर मोक्ष से अर्थ है – ‘दुःखों से पूर्णतः निवृत्ति।’ दूसरे शब्दों में मोक्ष की अवस्था में दुःखों से पूर्णरूपेण छुटकारा मिल जाता है। इसीलिये भारतीय दर्शन में मोक्ष को ‘परम लक्ष्य’ या ‘चरम लक्ष्य’ कहा गाया है। मोक्ष को परम लक्ष्य मानने के कारण ही भारतीय दर्शन को ‘मोक्ष दर्शन’ भी कहा जाता है। इस तरह भारत में दर्शन का अनुशीलन मोक्ष के लिये ही किया गया है।
मोक्ष को प्राप्त करने के लिये आत्मा की आवश्यकता स्वीकार की गयी है। यही कारण है कि चार्वाक को छोड़कर सभी दर्शनों में आत्मा का विचार पाया जाता है। आत्मा के स्वरूप की व्याख्या भारतीय दर्शन के ‘अध्यात्मवाद’ को प्रमाणित करता है।
भारतीय दर्शन में आत्मा को परम महत्ता प्रदान करने के कारण कभी-कभी ‘आत्म-विद्या या ‘आत्मा विद्या’ भी कहा जाता है।
‘अतः व्यावहारिकता और आध्यात्मिकता भारतीय दर्शन की मुख्य विशेषताएँ हैं।’
निष्कर्ष
अतः दर्शन का अर्थ है – ‘दृश्यता यथार्थ तत्त्वमनेन’। अर्थात् जिससे वास्तविक तत्त्व का अनुभव प्राप्त हो वह दर्शन है। दूसरे शब्दों में भारत में दर्शन उन विद्या को कहते हैं जिसके द्वारा हमें ‘तत्त्व-ज्ञान’ हो या ‘तत्त्व-साक्षात्कार’ हो।
भारतीय दर्शन को ‘तत्त्व-दर्शन; ‘मोक्ष-दर्शन’; ‘आत्म-विद्या’ आदि भी कहते है। व्यावहारिकता और आध्यात्मिकता भारतीय दर्शन की मूल विशेषताएँ हैं।