घोसुण्डी अभिलेख

भूमिका

घोसुण्डी अभिलेख चित्तौड़गढ़ जनपद के पास नगरी और घोसुण्डी नामक स्थान प्राप्त हुए हैं। घोसुण्डी ( घोसुंडी ) अभिलेख को हाथीबाड़ा अभिलेख भी कहते हैं। यह भागवत् ( वैष्णव ) धर्म से सम्बंधित है।

चित्तौड़गढ़ के निकट नगरी नामक ग्राम से डेढ़ किलोमीटर पूर्व हटकर एक बड़ा आहाता है, जिसके चारों ओर दीवार थी जो अब गिर गयी है। यह आहाता प्राचीन काल में एक नारायणवाटिका था। मुगल काल में, जब अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया था, उसकी सेना ने यहाँ पड़ाव डाला था और इस अहाते का उपयोग हाथीखाने के रूप में किया था। तब से इसका नाम हाथीबाड़ा पड़ गया। आज भी यह इसी नाम से प्रसिद्ध है।

इस हाथीबाड़ा की उत्तरी दीवार के दाहिने कोने में भीतर की ओर लगा एक शिला-फलक १९३४-३५ ई० में प्राप्त हुआ जिसकी दो पंक्तियों का ब्राह्मी लिपि में एक लेख है। उसके आरम्भ का कुछ अंश अनुपलब्ध है। इसी अभिलेख की एक दूसरी प्रति इससे पूर्व उस स्थान से कुछ दूर घोसुण्डी नामक स्थान में एक कुएँ में लगी प्राप्त हुई थी। इस प्रति में यह लेख तीन पंक्तियों में है। इस कारण इस अभिलेख को कुछ लोग घोसुण्डी अभिलेख के नाम से और कुछ लोग हाथीबाड़ा अभिलेख के नाम से पुकारते हैं। इसी लेख की एक तीसरी प्रति का एक खण्डित अंश १९१५-१६ ई० में और दूसरा खण्डित अंश १९२६-२७ ई० में प्राप्त हुआ था। इन तीनों प्रतियों की सहायता से लेख लगभग सर्वांश में प्राप्त किया जा चुका है।

घोसुण्डी अभिलेख : संक्षिप्त परिचय

नाम :- घोसुण्डी अभिलेख या हाथीबाड़ा अभिलेख

स्थान :- नगरी-घोसुण्डी, चित्तौड़गढ़ जनपद, राजस्थान

लिपि :- ब्राह्मी

भाषा :- संस्कृत

समय :- प्रथम शताब्दी ई०पू०

विषय :- भागवत् धर्म सम्बन्धी

घोसुण्डी अभिलेख : मूलपाठ

१ — [ कारितो अयं राज्ञा भाग ] वतेन राजायनेन पराशरीपुत्रेण स-

२ — [ र्वतातेन अश्वमेध-या ] जिना भागव [ द् ] भ्यां संकर्षण-वासुदेवाभ्याँ

३ — [ अनिहताभ्याँ सर्वेश्वरा ] भ्यां पूजा-शिला-प्रकारो नारायण वाटिका

  • मूलपाठ का संयोजन घोसुण्डी पाठ के अनुसार किया गया है।
  • हाथीबाड़ा प्रति में ‘वतेन’ स्पष्ट है। उसके आधार पर इस अनुपलब्ध अंश की कल्पना की गयी है।
  • यह अंश हाथीबाड़ा प्रति तथा तीसरी प्रति में उपलब्ध है।
  • इस शब्द के पश्चात् हाथीबाह्य प्रति की दूसरी आरम्भ होती है।
  • यह अंश हाथीबाड़ा की प्रति में उपलब्ध है।

हिन्दी अनुवाद

अश्वमेध याजिन ( अश्वमेध करनेवाले ) राजा भागवत ( भगवद्-भक्त ) गाजायन पाराशरीपुत्र सर्वतात ने इस पूजाशिला प्राकार को भगवान् संकर्षण-वासुदेव के लिए, जो अनिहत और सर्वेश्वर हैं, बनवाया।

घोसुण्डी अभिलेख : विश्लेषण

संस्कृत बनाम प्राकृत भाषा

घोसुंडी अभिलेख ईसा पूर्व पहली शताब्दी के उत्तरार्ध का अनुमान किया जाता है। इसकी भाषा संस्कृत है। संस्कृत में लिखे गये अभिलेखों में कदाचित् यह प्राचीनतम है अथवा प्राचीन दो अभिलेखों में से एक है (दूसरा संस्कृत अभिलेख अयोध्या से प्राप्त हुआ है)। इन अभिलेखों के प्रकाश में आने से पूर्व शक क्षत्रप रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख (१५० ई०) संस्कृत का प्राचीनतम् अभिलेख समझा जाता था। ई० पू० ३०० और १०० ई० के बीच के जो भी अभिलेख प्राप्त हुए हैं, उनकी भाषा प्राकृत थी। इस कारण अनेक विद्वानों की, जिनमें फ्लीट और रीस डेविड्स मुख्य हैं, धारणा थी कि १०० ई० तक बोलचाल की भाषा पाली थी और उस समय तक जनता के बीच संस्कृत का प्रचार-प्रसार न था। उनकी इस धारणा के विरुद्ध यह कहा जाता रहा है कि पतञ्जलि का कहना है कि जिस भाषा का व्याकरण पाणिनि ने प्रस्तुत किया है वह शिष्टजन को भाषा है। उनके इस कथन से ऐसा मालूम होता है कि उनके समय (ई० पू० १५०) में संस्कृत आर्यावर्त के ब्राह्मणों की बोलचाल की भाषा थी। इस लेख के प्रकाश में आ जाने से इस कथन को बल मिलता है। संस्कृत का प्रसार ईसा पूर्व की शताब्दियों में बना हुआ था। पालि-प्राकृत के साथ-साथ देश में संस्कृत भी प्रचलित थी।

  • दिनेशचन्द्र सरकार ने इसे प्राकृत से प्रभावित कहा है जबकि लूहर्स ने इसकी भाषा को मिश्रित बताया है। लूडर्स के कथन का आधार कविराज श्यामदास का पाठ रहा है जो सर्वथा अशुद्ध है। किन्तु सरकार की इस धारणा के लिए कोई आधार नहीं है।

भागवत् धर्म का प्रमाण

इस अभिलेख को भी लोग बेसनगर अभिलेख की तरह ही भागवत् (वैष्णव) – धर्म के ईसा पूर्व की शताब्दी में प्रचलित होने का प्रमाण मानते हैं। किन्तु इससे इतना ही ज्ञात होता है कि वासुदेव तथा संकर्षण की उपासना लोगों में प्रचलित थी। वासुदेव की उपासना विष्णु की उपासना से भिन्न थी। संकर्षण, वासुदेव की भाँति ही वसुदेव के पुत्र कहे जाते हैं। उनका जन्म रोहिणी के गर्भ से हुआ था। वे महाभारत तथा पुराणों में वासुदेव के बड़े भाई कहे गये हैं। किन्तु महाभारत में उनकी चर्चा नगण्य है और यदि कहीं कुछ हुई भी है तो वह उनके छोटे भाई वासुदेव श्रीकृष्ण के आगे फीकी है। किन्तु वीर के रूप में वृष्णियों के बीच संकर्षण अत्यन्त पूज्य थे। उन्हें यह देवत्व किस प्रकार प्राप्त हुआ, कहा नहीं जा सकता। संकर्षण का शाब्दिक अर्थ ‘हल जोतना’ है। इससे जान पड़ता है कि वे कृषि से सम्बद्ध देवता रहे होंगे। इसकी पुष्टि मूर्ति-विधान से भी होती है। वे कृषि के आयुध हल और मूसल लिये व्यक्त किये जाते हैं। पुराणों की एक अनुश्रुति के अनुसार उन्होंने अपने हल से यमुना का मार्ग बदल दिया था और मूसल से हस्तिनापुर को गंगा के निकट पहुँचा दिया था। उनसे सम्बद्ध एक अन्य अनुश्रुति है कि उन्होंने फसल नष्ट करनेवाले द्विविध नामक राक्षस को मार डाला था। ये सब भी उनके कृषि-देवता होने का संकेत करते हैं। किन्तु संकर्षण का विकास नागपूजा से भी सम्बद्ध जान पड़ता है। इसका प्रचार वृष्णियों के प्रदेश मथुरा के आसपास काफी था। संकर्षण को शेषनाग का अवतार कहा जाता है। संकर्षण के मूर्तियों में नाग छत्र इसकी ओर संकेत करता है। संकर्षण की पूजा का उल्लेख अर्थशास्त्र में हुआ है। लगता है, वासुदेव और संकर्षण आरम्भ में अलग-अलग पूजित थे। बाद में वे दोनों एक-दूसरे के निकट आ गये और उनकी एक साथ पूजा होने लगी, जैसा एक लेख तथा अगथुक्लेय के सिक्कों से ज्ञात होता है।

‘पूजा-शिला-प्राकार’ का दो प्रकार से अर्थ किया जा सकता है —

  • (१) पूजा-शिला के चारों ओर दीवार (पूजा-शिलाय: प्राकारः)
  • (२) पूज्य वस्तु के चारों ओर शिला (पत्थर) की दीवार (पूजायाः शिला-प्राकारः)

यदि पहला अर्थ ग्रहण किया जाय तो कहना होगा कि पूज्य वस्तु शिला (पत्थर) की अथवा शिला ही पूज्य थी। वासुदेव-संकर्षण के रूप में शिलाफलक की पूजा होती रही होगी ऐसी कल्पना क्लिष्ट है। यदि पूज्य वस्तु पत्थर की बनी रही हो तो वह मूर्ति अथवा चरण चिह्न हो रहा होगा। इनमें से किसी के लिए पूजा-शिला शब्द का प्रयोग देखने में नहीं आता। इस कारण पूजा- शिलाप्राकार को दूसरे अर्थ में ही ग्रहण किया जा सकता है। साँची और भरहुत के स्तूपों के चारों ओर बर्नी वेदिकाओं (बाड़, रेलिंग) को सहज भाव से पूजा-शिला-प्राकार कहा जा सकता है। अशोक ने लुम्बिनी में बुद्ध के जन्मस्थान के चारों और जिस वास्तु का निर्माण कराया था, उसे रुम्मिनदेई स्तम्भ लेख में शिला-विगड भीचा (शिला-विकट भिट्टा) -शिला की बनी विशाल भित्ति (दीवार) कहा गया है। जो शिला प्राकार का समानार्थी ही है। हाथीबाड़ा के रूप में जो वास्तु बना था वह २९६’ १०” लम्बा और १५१’ चौड़ा अहाता है जिसे बड़े-बड़े तराशे हुए पत्थर के टुकड़ों को चुनकर बनाये गये। ९ ॥ फीट ऊंची दीवार से घेर दिया गया और इस दीवार के ऊपर उष्णीष रखी गयी थी। इस प्रकार वह वास्तविक अर्थ में शिला-प्राकार था। इससे स्पष्ट होता है कि मन्दिरों के विकास से पूर्व पूजा स्थल केवल एक घेरा मात्र होते थे।

यहाँ यह बात भी उल्लेखनीय है कि जिस व्यक्ति ने संकर्षण-वासुदेव के निमित्त पूजा-शिलाप्राकार बनवाया था, उसने अश्वमेध यज्ञ किया था। इस प्रकार इस व्यक्ति की वैदिक कर्मकाण्ड के साथ-साथ वासुदेव-सम्प्रदाय के प्रति भी निष्ठा थी । अर्थात् धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों के बीच उस समय सौम्य भाव थे।

  • अश्वमेध एक वैदिक यह है जो राजा लोग अपने सम्राट् अथवा चक्रवर्ती होने की घोषणा के निमित्त किया करते थे। इस यज्ञ के आरम्भ करने से पूर्व विधि-विधान के साथ एक विशेष अश्व की पूजा की जाती थी और उसे स्वतन्त्र विचरण के लिए छोड़ दिया जाता था। वह अश्व स्वच्छंद विचरण करता था। इस घोड़े के साथ स्वयं राजा अथवा उसके अधिकारी सेना के साथ जाते थे। घोड़ा विचरण करते हुए जिस राज्य में प्रवेश करता, वहाँ का राजा यदि उस घोड़े के साथ कोई छेड़-छाड़ न करता तो समझा जाता कि उसे घोड़े के स्वामी की अधीनता स्वीकार है। घोड़े के साथ छेड़-छाड़ का अर्थ था कि उसे यह बात स्वीकार नहीं है। ऐसी अवस्था में घोड़े के साथ जानेवाले सैनिक उससे युद्ध कर उससे अधीनता स्वीकार करने पर बाध्य करते। इस प्रकार राजाओं को सफलतापूर्वक पराजित करने के बाद यह यज्ञ विधिवत् सम्पन्न किया जाता था।

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