समुद्रगुप्त का एरण प्रशस्ति

भूमिका

९ इंच चौड़े और ३ फुट १ इंच आड़े (खड़े) लाल बलुआ पत्थर ( red-sandstone  ) के फलक पर समुद्रगुप्त का ‘एरण प्रशस्ति’ अंकित है। १८७४ और १८७७ ई० के बीच किसी समय यह फलक एलेक्जेंडर कनिंघम को मिला था। कनिंघम महोदय को यह अभिलेख बीना नदी के बायें तट पर स्थित एरण ( एरकिण ) नामक स्थान पर वराह मन्दिर के ध्वंसावशेषों के निकट प्राप्त हुआ था। ऐतिहासिक एरण ( एरकिण ) मध्य प्रदेश के सागर जनपद में स्थित है। सम्प्रति यह आजकल ‘भारतीय संग्रहालय, कोलकाता’ में सुरक्षित रखा गया है।

समुद्रगुप्त के एरण प्रशस्ति-लेख में कुल २८ पंक्तियाँ हैं। इस प्रशस्ति की आरम्भ की ६ पंक्तियाँ तथा पंक्ति संख्या २८ का समूचा अंश अनुपलब्ध है। पंक्ति संख्या २५, २६ और २७ के कुछ शब्दांश ही प्राप्त होते हैं। अन्य जो पंक्तियाँ उपलब्ध हैं वे भी क्षतिग्रस्त हैं। अधिकांश पंक्तियों के आरम्भ के कुछ अक्षर तथा पंक्ति २५-२७ का काफी भाग नष्ट हो गया है।

उपलब्ध अंशों से यह अनुमान किया गया है कि इस प्रशस्ति की रचना ‘बसन्त-तिलक छन्द’ में की गयी थी और आरम्भ की २४ पंक्तियों तक प्रत्येक पंक्ति में श्लोक का केवल एक पाद और पंक्ति २५ तथा उसके बाद की पंक्तियों में प्रत्येक श्लोक के दोनों पाद अंकित किये गये थे। प्रत्येक श्लोक के अन्त में दी गयी संख्या से यह भी ज्ञात होता है कि आरम्भ के केवल डेढ़ श्लोक अनुपलब्ध हैं। अन्त का कितना भाग अनुपलब्ध है यह अनुमान नहीं किया जा सका है।

इन अभिलेख के सम्बन्ध में सर्वप्रथम १८८० ई० में कनिंघम ने जानकारी दी। तत्पश्चात् फ्लीट ने इसे सम्पादित कर अपने गुप्तकालीन अभिलेखों के संग्रह में लेख २ के रूप में प्रकाशित किया। उन्होंने स्वसम्पादित पाठ में पंक्ति १४, १८, २०, २१ तथा २४ के आरम्भ के अनुपलब्ध अंश के सम्बन्ध में अनुमान करने का प्रयास किया। उनका यह सम्पादित पाठ ही मुख्यतः लोगों के ध्यान में रहा है।

परन्तु समय-समय पर अनेक विद्वानों ने इस अभिलेख के पाठ पर विचार किया है और अपनी-अपनी धारणा के अनुसार लुप्त अथवा त्रुटिपूर्णअंशों की पूर्ति करने का प्रयास किया है।

फ्लीट के पश्चात् इसकी ओर ध्यान सर्वप्रथम डी० आर० भण्डारकर ने दिया। उन्होंने इसका पाठ अपने ढंग से प्रस्तुत किया जिसमें उन्होंने पंक्ति ८ से २४ तक अनुपलब्ध आरम्भिक शब्दों की पूर्ति तो की ही साथ ही पंक्ति ७, २५ और २६ के पूर्वाशों के सम्बन्ध में भी अपनी कल्पना प्रस्तुत की। किन्तु उन्होंने अपना यह पाठ स्वयं प्रकाशित नहीं किया। इस पाठ को श्रीधर वासुदेव सोहोनी ने बहादुरचन्द छाबड़ा से प्राप्त करके अपने सुझावों के साथ प्रकाशित किया है।

डी० आर० भण्डारकर के अतिरिक्त काशी प्रसाद जायसवाल, दिनेशचन्द्र सरकार, बी० बी० मीराशी, जगनाथ अग्रवाल, साधुराम आदि अनेक विद्वानों ने भी इस अभिलेख के अभिप्राय के सम्बन्ध में अपनी-अपनी धारणा प्रस्तुत करते हुए पंक्ति ८ से २४ के त्रुटिपूर्ण आदि-भाग की पूर्ति के प्रयास किये हैं।

संक्षिप्त परिचय

नाम :- समुद्रगुप्त का एरण प्रशस्ति ( Eran Prashasti of Samudragupta ), समुद्रगुप्त का एरण शिलालेख ( Eran Stone Inscription of Samudragupta )

स्थान :- एरण या एरकिण, सागर जनपद, मध्य प्रदेश।

भाषा :- संस्कृत

लिपि :- ब्राह्मी

समय :- समुद्रगुप्त का शासनकाल ( ३५० — ३७५ ई० )

विषय :- समुद्रगुप्त की प्रशंसा

एरण प्रशस्ति : मूलपाठ

१- ……………………………………………………………………।

२- ……………………………………………………………………[ । ]

३- ……………………………………………………………………।

४- ……………………………………………………………………[ ॥ २ ]

५- ……………………………………………………………………।

६- ……………………………………………………………………[ । ]

७- [ येनार्थि कल्पविटपेन ] सुवर्ण दाने

८- [ विस्मा ] रिता नृपतयः पृथु-राघवाद्याः ( ॥ २ )

९- [ भूपो ] बभूव धनदान्तक-तुष्टि-कोपतुल्यः

१०- [ पराक्र ]म -नयेन समुद्रगुप्तः ( । )

११- [ यं प्रा ]प्य पार्थिव-गणस्सकलः पृथिव्याम्

१२- [ उध्व ]स्त -राज्य-विभवद्ध्रुतमास्थितो(ऽ)भूत ( ॥ ३ )

१३- [ ताते ]न भक्तिनय-विक्रम-तोषितेन

१४- [ सौ ] राज-शब्द-विभवैरभिषेचनाद्यैः ( । )

१५- [ सम्मा ]नितः परम-तुष्टि पुरस्कृतेन

१६- [ सोऽयं ध्रुवो ] नृपतिरप्रतिवार्य-वीर्यः ( ॥ ४ )

१७- [ भूव ]स्य पौरुष-पराक्रम-दत्त-शुल्का

१८- [ हस्त्य ]श्व-रथ-धन-धान्या समृद्धि युक्त ( । )

१९- [ सुचिर ]ङ् गृहेषु मुदिता बहु-पुत्र-पौत्र

२०- [ च ] क्रामिणी कुलवधुः व्रतिनी निविष्टा ( ॥ ५)

२१- [ यस्यो ]र्ज्जितं समर-कर्म पराक्रमेद्धं

२२- [ पृथ्व्यां ]१० यशः सुविपुलम्परिवभ्रमीति ( । )

२३- [ वीर्या ]णि११ यस्य रिपवश्य रणोर्ज्जितानि

२४- [ स्व ]प्नान्तरेष्वपि विचिन्त्य परित्रसन्ति ( ॥ ६ )

२५- …………………………………………………………………………………………१२

[ स्तम्भ ? ]१३ स्वभोगनगरैरिकिंण-प्रदेशे ( । )

२६- …………………………………………………………………………………………१४

[ सं ]स्थापित्तस्स्वयशसः परिब्रिङ्हनार्त्थम् ( ॥ ७ )

२७- …………………………………………………………………………………………

………..  वो नृपतिराह यदा ………… ( । )

२८- …………………………………………………………………………………………

………………………………………………………………………………………… ( ॥ ८ )

  • डी० आर० भण्डारकर ने इसकी पूर्ति सदागम के रूप में की है।
  • डी० आर० भण्डारकर ने इसके आज्ञाप्य होने का अनुमान किया है।
  • डी० आर० भण्डारकर ने येनस्त और दिनेशचन्द्र सरकार ने पर्यस्त के रूप में पूर्तिकी है।
  • डी० आर० भण्डारकर ने पित्रेव के रूप में पूर्ति की है।
  • डी० आर० भण्डारकर यो पढ़ते हैं।
  • डी० आर० भण्डारकर ने [भू-वास]वो के रूप में पूर्ति की सम्भावना प्रकट की है।
  • डी० आर० भण्डारकर श्रीरस्य और दिनेशचन्द्र सरकार दत्तास्य अनुमान करते हैं।
  • डी० आर० भण्डारकर नित्यङ्य के रूप में पूर्ति करते हैं।
  • डी० आर० भण्डारकर [ स ? ]ङ क्रामिणी होने का अनुभव किया है।
  • डी० आर० भण्डारकर ने [ कर्मा ]णि और दिनेशचन्द्र सरकार कार्याणि अनुमान किया है।१० डी० आर० भण्डारकर ने इसके भक्तिं निदर्शयतुमाच्युत-पाठपीठो के रूप में पूर्ति का सुझाव दिया है।११
  • डी० आर० भण्डारकर ने शुक्रम् अथवा शुक्लम् का सुझाव दिया है।१२
  • डी० आर० भण्डारकर ने प्राप्तः का अनुमान किया है।१३
  • डी० आर० भण्डारकर ने देवालयश्च कृतिवान्न जनार्दनस्य के रूप में पूर्ति का सुझाव दिया है।१४

हिन्दी अनुवाद

सुवर्ण-दान में [जो कल्प वृक्ष के समान है। ]

पृथु राघव आदि राजाओं को भुला दिया गया है।

[ ऐसे ] राजा पराक्रम एवं विनय से युक्त तुष्टि में कुबेर और क्रोध में अन्तक ( यमराज ) के समान हैं। उनके द्वारा, पृथिवी के समस्त शासक उध्वस्त एवं राज-वैभव से वंचित किये जा चुके हैं। अपनी भक्ति, विनम्रता, पराक्रम आदि गुणों के कारण ही उनका अभिषेक हुआ और वह राज-वैभव से सम्मानित एवं पुरस्कृत हुए। उसके समान विश्व में दूसरा कोई पराक्रमी नृपति नहीं है। [ जिस ] पृथिवी रूपी पत्नी को उन्होंने अपने पौरुष और पराक्रम रूपी शुल्क से प्राप्त किया है, वह हस्ति, अश्व, रथ, धन-धान्य से समृद्ध है। उसकी गोद में प्रमुदित पुत्र-पौत्र ( प्रजा ) है। वह कुलवधू पति-परायण और गुण सम्पन्न है।

युद्ध में अर्जित उसका कर्म उसके शौर्य द्वारा अनुप्राणित है। भूमण्डल में उसका यश दूर-दूर तक फैल रहा है, उसके पराक्रम को स्मरण कर शत्रु संत्रस्त हैं।

उसने स्वभोग नगर ऐरिकिण प्रदेश में अपने यश की वृद्धि के निमत्त स्तम्भ (?) की [ स्थापना की ] ।

…………… उस राजा ने कहा ……………….

टिप्पणी

खण्डित होने के कारण एरण अभिलेख का तात्पर्य और उद्देश्य समझ पाना सहज नहीं है। श्लोक ३ ( पंक्ति संख्या १० ) में समुद्रगुप्त के नाम का उल्लेख हुआ है। इसके आधार पर निर्विवाद रूप से इतना ही कहा जा सकता है कि इस अभिलेख की पंक्ति २४ तक समुद्रगुप्त की प्रशस्ति है।

पंक्ति २४ के बाद अधोभाग अनुपलब्ध होने के कारण न तो यह अनुमान किया जा सकता कि यह लेख कितना बड़ा था और न यही कहा जा सकता कि उसमें क्या लिखा था। कुछ विद्वानों ने अनुमान प्रकट किया है। कि समुद्रगुप्त की प्रशास्ति के उपरान्त इस अभिलेख में उसके किसी शासक उत्तराधिकारी अथवा उसके किसी समसामयिक सामन्त की चर्चा की गयी होगी ।

अभिलेख में किसी शासक उत्तराधिकारी के उल्लेख होने की कल्पना कदाचित पंक्ति संख्या ९ में आये भूतकालिक क्रिया बभूव को देखकर की गयी है। जगन्नाथ अग्रवाल का कहना है कि जिस समय इस स्तम्भ को प्रतिष्ठित किया गया, उस समय समुद्रगुप्त जीवित नहीं थे। परन्तु जैसा कि दिनेशचन्द्र सरकार ने बताया है कि अनेक अभिलेखों में भूतकालिक क्रियाओं का प्रयोग वर्तमान कालिक क्रिया के रूप में किया जाता रहा है। ‘बभूव’ का प्रयोग भी यहाँ इसी प्रकार का है। अकेले इस शब्द के आधार पर इसे समुद्रगुप्त के मृत्यु के बाद रचित प्रशस्ति नहीं कहा जा सकता।

श्लोक २ से ७ तक स्वयं समुद्रगुप्त की प्रशस्ति है। श्लोक ८ का अधिकांश अंश नष्ट हो गया है जो कुछ उसमें बचा है, उसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे किसी सम-सामयिक सामन्त के उल्लेख की कल्पना की जा सके।

अतः यह मानना तर्कसंगत है कि समुद्रगुप्त के जीवनकाल में ही एरण प्रशस्ति प्रतिष्ठापित किया गया था। श्रीधर वासुदेव सोहोनी ने भी यही मत प्रतिपादित किया है। उनकी धारणा है कि प्रयाग प्रशस्ति में उल्लिखित एक अथवा दो नाग राजाओं के पराजित करने के बाद समुद्रगुप्त ने इसे स्थापित कराया होगा।

प्रारम्भ के अनुपलब्ध डेढ़ श्लोकों (पंक्ति १-६) के सम्बन्ध में विद्वानों ने अनेक प्रकार की कल्पनाएँ प्रस्तुत की हैं । पंक्ति संख्या ९ में आये बभूवशब्द के आधार पर फ्लीट का कहना है कि लुप्त अंश में समुद्रगुप्त के किसी पूर्वज ( अथवा पूर्वजों ) उल्लेख रहा होगा। दिनेशचन्द्र सरकार का अनुमान है कि पंक्ति संख्या ९ में बभूव शब्द से पूर्व लुप्त शब्द पुत्रो था। श्रीधर वासुदेव सोहोनी ने यहाँ वंशे शब्द की कल्पना की है। डी० आर० भण्डारकर आदि ने राजा होने की कल्पना की है। पुत्रो द्वारा क्षति-पूर्ति का अर्थ यह होगा कि पूर्ववर्ती श्लोक में समुद्रगुप्त के पिता का और वंशे द्वारा पूर्ति का तात्पर्य किसी पूर्व का उल्लेख होगा।

इस प्रकार इन विद्वानों की कल्पना है कि अनुपलब्ध प्रथम श्लोक में चन्द्रगुप्त ( प्रथम ) अथवा किसी अन्य पूर्वज का उल्लेख रहा होगा और बाद के श्लोकों में चन्द्रगुप्त ( प्रथम ) के पुत्र के रूप में समुद्रगुप्त का प्रशस्ति गान किया गया है।

परन्तु एरण प्रशस्ति को अन्य प्रशस्ति-अभिलेखों के परिप्रेक्ष्य में देखते हुए एक सम्भावना यह भी हो सकती है कि प्रथम श्लोक में मात्र मंगलाचरण रहा होगा जिसमें भगवान विष्णु अथवा उनके किसी रूप की स्तुति की गयी हो।

यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि पंक्ति ७ में सुवर्ण दान का उल्लेख है और अब तक किसी भी सूत्र से चन्द्रगुप्त ( प्रथम ) अथवा समुद्रगुप्त के किसी अन्य पूर्वज द्वारा सुवर्ण-दान की जानकारी नहीं होती। गुप्त वंशावली में समुद्रगुप्त के लिये न्यायागत अनेक गो-हिरण्य कोटि प्रदायविरुद का प्रयोग हुआ है। अतः स्पष्ट है कि यहाँ संकेत समुद्रगुप्त का ही है।

प्रशस्ति ( पंक्ति संख्या ७-८ ) में समुद्रगुप्त की तुलना पृथु और राघव से की गयी है। पृथु का तात्पर्य निसन्देह पृथु वैन्य से है, जिनका उल्लेख चक्रवर्ती नरेश के रूप में पाया जाता है। राघव अर्थात् रामः को भी चक्रवर्ती कहा गया है और उनकी गणना उन राजाओं में की गयी है जिन्होंने गोदान, उदारता और ब्राह्मण-भक्ति के कारण ख्याति प्राप्त की थी।

पंक्ति संख्या ८ के आरम्भिक लुप्त अंश की पूर्ति दिनेशचन्द्र सरकार ने संवा से, जगनाथ ने विस्म से और साधुराम ने न्यक्क से की है। इस प्रकार इस पंक्ति के प्रथम शब्द को संवारित, विस्मारित और न्क्करित रूप दिया गया है।

  • साधुराम के पाठ को स्वीकार करने का अर्थ यह होगा कि समुद्रगुप्त ने पृथु और राम को शर्मा दिया। ऐसा किसी भारतीय कवि-मुख से पृथु निकलने की कल्पना नहीं की जा सकती है। यह एक प्रकार से उनका ( श्रीराम ) अपमान होगा।
  • संवारित का अर्थ दूर करना, भगाना, पीछे हटाना आदि होता है। प्रस्तुत प्रसंग में इनमें से किसी भी अर्थ की संगति नहीं बैठती।
  • अधिक सम्भावना इस बात की है कि कवि ने समुद्रगुप्त की महत्ता प्रकट करने के लिये यह कहना चाहा है कि उनकी दानशीलता इस प्रकार की थी कि लोगों ने पृथु और राम की उदारता को भी भुला दिया। अतः जगन्नाथ अग्रवाल द्वारा विस्मारित शब्द के प्रयोग किये जाने की कल्पना अधिक सार्थक जान पड़ती है।

पंक्ति संख्या १७ से २० को पूर्ण कर दिनेशचन्द्र सरकार ने निम्नलिखित रूप दिया है —

[ दत्ता ] स्य पौरुष-पराक्रम-दत्त शुल्का

[ हस्त्य ]श्व-धन-धान्य समृद्धि-युक्त [ । ]

[ नित्य ]ङ्गहेषु मुदित्ता बहु-पुत्र-पौत्र

[ सं ]क्रामिणी कुलवधुः व्रतिनिनिविष्टा [ ॥ ]

पौरुष-पराक्रम-दत्त शुल्का, मुदिता, कुलवधू और व्रतनी के प्रयोग सामान्यरूप से किसी स्त्री के लिये ही किये जाते हैं। इसलिये फ्लीट और जायसवाल की धारणा रही है कि इस श्लोक में समुद्रगुप्त की राजमहिषी दत्तदेवी का संकेत है।

  • सम्भवतः इसी आधार पर दिनेशचन्द्र सरकार ने पंक्ति संख्या १७ की दत्ता शब्द द्वारा पूर्ति की है और उसे दत्तदेवी का लघवीकरण माना है। उनकी इस पूर्ति को प्रायः सभी लोग स्वीकार करते आ रहे हैं।
  • किन्तु उनकी इस पूर्ति की सार्थकता स्वीकार करने में अनेक कठिनाइयाँ हैं, जिनकी ओर उन्होंने ध्यान नहीं दिया है। इनकी ओर जगनाथ अग्रवाल और सोहोनी ने ध्यान आकृष्ट करने की चेष्टा की है।
  • ध्यातव्य है कि बहु-पुत्र-पौत्र संक्रामिणी का फ्लीट ने जो अनेक पुत्र-पौत्रों के साथ घूमती रही प्रस्तुत किया है, वह अर्थ सर्वथा आग्राह्य है।
  • सक्रामणि संक्रमण का स्त्री-वाची रूप है और इसका अर्थ होगा — ऊपर से चले जाना अथवा दूसरे को दे देना। उससे घूमने का अर्थ ग्रहण नहीं किया जा सकता। इस पद का मूल अर्थ तो यह होगा कि वह अपने पुत्र-पौत्रों को लाँघ कर अर्थात् मृत्यू के बाद भी जीवित रही। यह बात ऐतिहासिक तथ्य के विरुद्ध तो है ही, कवि भी किसी भी अवस्था में इस प्रकार की कल्पना प्रस्तुत करने की धृष्टता नहीं करेगा। इस तथ्य पर ध्यान देने पर यह स्पष्ट होता है कि इस श्लोक में पट्टमहिषी की कोई चर्चा नहीं है।
  • वी० वी० मीराशी का कहना है कि इस श्लोक का संकेत समुद्रगुप्त की राजलक्ष्मी की ओर है। कवि यह कहना चाहता है कि राजलक्ष्मी समुद्रगुप्त के मृत्यू के उपरान्त भी उसके पुत्र-पौत्रों के पास बनी रहेंगी।
  • सम्भवतः इसी भाव को ग्रहण कर डी० आर० भण्डारकर ने इस त्रुटित शब्द की पूर्ति में श्रीरस्य शब्द का सुझाव दिया है।
  • श्रीधर वासुदेव सोहोनी ने इसमें पृथ्वी की कल्पना की है। पौरुष-पराक्रम दत्त-शुल्का का प्रयोग लक्ष्मी और पृथिवी दोनों ही के लिए किया जा सकता है।

कहना न होगा कि संस्कृत के कवियों ने पृथ्वी को प्रायः राजा की पत्नी के रूप में प्रस्तुत किया और उसे नारी गुणों से विभूषित किया है। रघुवंश में कालिदास ने अनेक स्थलों पर ऐसा किया है (रघुवंश, ६/६३; १८/५३, ८/१)।

सम-सामयिक कला में भी पृथ्वी का नारी रूप में ही अंकन हुआ है। अतः इस श्लोक में प्रयुक्त विशेषण समुद्रगुप्त के अपने पौरुष-पराक्रम द्वारा अर्जित पृथ्वी और श्री पर सहज लागू किये जा सकते हैं।

कुलवधू और व्रतिनी विशेषण का भी प्रयोग पृथिवी के लिये किया जा सकता है। समुद्रगुप्त ने राज्य अपने पिता से प्राप्त किया था। इस प्रकार उसकी राज्यश्री कुल-क्रमागत थी और वह उसने समुद्रगुप्त के प्रति निष्ठा का व्रत लिया था। साथ ही यह भी निश्चित था कि वह उनके पास सदा रहने वाली नहीं थी। उसके मरणोपरान्त उसके पुत्र-पौत्रों के पास जानेवाली थी। इस प्रकार नारी सुलभ विशेषणों का प्रयोग पृथ्वी अथवा लक्ष्मी के लिये अनुचित नहीं है।

अतः पंक्ति संख्या १७ का आरम्भ शब्द श्रीः अथवा भूः शब्द से ही मानना उचित होगा।

आगे के उपलब्ध अंश से इतना ही संकेत मिलता है कि समुद्रगुप्त ने स्वभोग नगर एरिकिण प्रदेश में अपने यश की वृद्धि के निमित्त किसी वस्तु का निर्माण करा कर उसके सामने स्तम्भ स्थापित किया होगा, जिस पर यह अभिलेख अंकित है। स्तम्भ के उल्लेख से यह भी अनुमान किया जा सकता है कि समुद्रगुप्त ने वहाँ किसी देवालय की स्थापना की होगी और उसके देव प्रतीक इस स्तम्भ को खड़ा किया होगा।

अभिलेख के उपलब्ध अंश को समुद्रगुप्त की प्रशस्ति के रूप में सहज भाव से प्रयाग प्रशस्ति का संक्षिप्त रूप कह सकते हैं। ऐरिकिण प्रदेश के लिए ‘स्वयभोगनगर’ विशेषण ध्यानाकर्षक है। इसका कुछ विशेष अभिप्राय होना चाहिये।

भोग का सामन्य अर्थ उपभोग (enjoyment) है। भोग का प्रयोग एक प्रकार के कर के रूप में भी पाया जाता है । यहाँ स्व के साथ भोग के प्रयोग का क्या तात्पर्य है यह बहुत स्पष्ट नहीं है। हो सकता है इस नगर से प्राप्त होने वाले राजस्व का उपयोग समुद्रगुप्त के निजी खर्च (स्व-भोग) के लिये किया जाता रहा हो। पर जब तक इस प्रकार का कोई स्पष्ट भाव प्रकट करने वाला प्रयोग अन्यत्र कहीं प्राप्त न होने से इस सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक कुछ भी कहना कठिन है।

सन्दर्भ

Alexander Cunningham – Archaeological Survey Report, 10 ( 1980 )

John Faithful Fleet – Corpus Inscriptionum Indicarum, Vol. 3, p. 18

Hira Lal – Inscription in the Central Provinces and Berar

Kashi Prashad Jayaswal – The journal of the Bihar Research Society ( 1951 )

Dines Chandra Sarkar – Select Inscriptions Bearing on Indian History & Civilization

Dr. Vasudev Vishnu Mirashi – Literary & Historical Studies in Indology

V. Sohoni – Journal Bihar Research Society

R. Bhandarkar – Inscriptions of Early Gupta Kings ( 1981 )

समुद्रगुप्त का नालन्दा ताम्रलेख

समुद्रगुप्त का गया ताम्रपत्र

समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति

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