भूमिका
सातवाँ बृहद् शिलालेख ( Seventh Major Rock Edict ) सम्राट अशोक के चतुर्दश बृहद् शिलालेखों में से सातवाँ शिला प्रज्ञापन है। देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा अशोक द्वारा भारतीय उप-महाद्वीप में ‘आठ स्थानों’ पर ‘चौदह बृहद् शिलालेख’ या चतुर्दश बृहद् शिला प्रज्ञापन ( Fourteen Major Rock Edicts ) अंकित करवाये। यहाँ पर ‘शाहबाजगढ़ी संस्करण’ का मूलपाठ उद्धृत किया गया है। गिरनार संस्करण सबसे सुरक्षित अवस्था में है। इसीलिए १४ शिला प्रज्ञापनों में बहुधा इसी संस्करण का उपयोग किया गया है। यद्यपि अन्य संस्करणों को मिलाकर पढ़ा जाता रहा है। सातवाँ बृहद् शिलालेख १४ शिला प्रज्ञापनों में सबसे छोटा है।
सातवाँ बृहद् शिलालेख : संक्षिप्त परिचय
नाम – अशोक का सप्तम् बृहद् शिलालेख ( Ashoka’s Seventh Major Rock Edict ) या सातवाँ बृहद् शिलालेख।
स्थान – शाहबाजगढ़ी, पेशावर; पाकिस्तान।
भाषा – प्राकृत
लिपि – खरोष्ठी
विषय – सब धर्मों के प्रति समभाव और साथ-साथ रहने का विचार।
सातवाँ बृहद् शिलालेख : मूलपाठ
१ – देवानंप्रियो प्रिय [ द्र ] शि रज सवत्र इछति सव्र—
२ – प्रषंड वसेयु [ । ] सवे हि ते समये भव-शुधि च इछंति [ । ]
३ – जनो चु उचवुच-छंदो उचवुच-रगो [ । ] ते सव्रं व एकदेशं व
४ – पि कषंति [ । ] विपुले पि चु दने ग्रस नस्ति समय भव—
५ – शुधि किट्रञत द्रिढ-भवति निचे पढं [ । ]
संस्कृत अनुवाद
देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा सर्वत्र इच्छति सर्वे पाषण्डाः वसेयुः। सर्वे ते संयमं च भावशुद्धिं च इच्छन्ति। जनः तु उच्चावचछन्दः उच्चावचरागः। ते सर्वं वा कांक्षति एकदेशं वा करिष्यन्ति। विपुलं तु अपि दानं यस्य नास्ति संयमः भावशुद्धिः वा कृतज्ञता वा दृढ़भक्तिता च नित्या वा वाढम्।
हिन्दी अनुवाद
१ – देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा चाहता है कि
२ – सर्वत्र सब पाषंड ( पंथ वाले ) निवास करें। क्योंकि वे सभी ( पाषंड अर्थात् पंथ ) संयम एवं भावशुद्धि चाहते हैं।
३ – [ अंतर इस कारण होता है कि ] जन ( मनुष्य ) ऊँच-नीच विचार के एवं ऊँच-नीच राग के [ होते हैं ]। [ इससे ] वे पूर्णरूप [ अपने कर्त्तव्य का पालन ] करेंगे या [ उसके ] एक देश ( अंश ) का [ पालन ] करेंगे।
४ – जिसका दान विपुल है, [ परन्तु जिसमें ] संयम,
५ – भावशुद्धि, कृतज्ञता एवं दृढ़भक्ति नहीं है, [ ऐसा मानव ] अत्यंत निम्न या नीच है।
धाराप्रवाह हिन्दू रूपान्तरण
देवताओं का प्रिय प्रियदर्शी राजा चाहता है कि सभी स्थान पर सभी सम्प्रदायों के मानव निवास करें क्योंकि सब संयम एवं आत्मशुद्धि के इच्छुक होते हैं। किन्तु भिन्न-भिन्न मानव इन बातों का पूरा अथवा थोड़ा पालन करते हैं, क्योंकि विभिन्न मानवों की इच्छा तथा अनुराग भिन्न-भिन्न हैं। मानव कितना भी दान करे किन्तु उसमें संयम, आत्मशुद्धि नहीं है तो वह निश्चय ही नीच ( अधम ) है।