अशोक का छठा बृहद् शिलालेख

भूमिका

छठा बृहद् शिलालेख ( Sixth Major Rock Edict ) सम्राट अशोक के चतुर्दश बृहद् शिलालेखों में से छठवाँ अभिलेख है। प्रियदर्शी राजा अशोक द्वारा भारतीय उप-महाद्वीप में ‘आठ स्थानों’ पर ‘चौदह बृहद् शिलालेख’ या चतुर्दश बृहद् शिला प्रज्ञापन ( Fourteen Major Rock Edicts ) लिखवाये गये। यहाँ पर ‘गिरनार संस्करण’ का मूलपाठ उद्धृत किया गया है। गिरनार संस्करण सबसे सुरक्षित अवस्था में है इसीलिए १४ शिला प्रज्ञापनों में अधिकर इसी संस्करण का उपयोग किया गया है। तथापि अन्य संस्करणों को मिलाकर पढ़ा जाता रहा है।

छठा बृहद् शिलालेख : संक्षिप्त परिचय

नाम – अशोक का छठा बृहद् शिलालेख अथवा षष्ठम् बृहद् शिलालेख ( Ashoka’s Sixth Major Rock Edict )।

स्थान –  गिरिनार, गुजरात।

भाषा – प्राकृत

लिपि – ब्राह्मी

विषय – राजा का राज्य के प्रति कर्त्तव्य, राजधर्म और सर्वलोकहित का उल्लेख।

मूलपाठ

१ – देवानंप्रि [ यो पियद ] सि राजा एवं आह [ । ] अतिक्रांत अन्तर

२ – न भूतप्रुव सवे काले अथकंमें व पटिवेदना वा [ । ] त मया एवं कतं [ । ]

३ – सवे काले भुंजमानस में ओरोधनम्हि गभागारम्हि वचम्हि व

४ – विनीतम्हि च उयानेसु चन सर्वत्र पटिवेदका स्टिता अथे में जनस

५ – पटिवेदेथ इति [ । ] सर्वत्र च जनस अथे करोमि [ । ] य च किंचि मुखतो

६ – आञपयामि स्वयं दापकं वा स्रावापकं वा य वा पुन महामात्रेसु

७ – आचायिके अरोपितं भवति ताय अथाय विवादो निझती व सन्तों परिसायं

८ – आनंतर पटिवेदेतव्यं में सर्वत्र सर्वे काले [ । ] एवं मया आञपितं [ । ] नास्ति हि मे तोसो

९ – तस च पुन एस मूले उस्टानं च अथ-संतोरणा च [ । ] नास्ति हि कंमतरं

११ – सर्वलोकहितत्पा [ । ] य च किंति पराक्रमामि अहं किंतु भूतानं आनंणं गछेयं

१२ – इध च नानि सुखापयामि परत्रा च स्वगं आराधयंतु [ । ] त एताय अथाय

१३ – अयं धंमलिपी लेखपिता किंति चिरं तिस्टेय इति तथा च मे पुत्रा पोता च प्रपोत्रा च

१४ – अनुवतरां सवलोकहिताय [ । ] दुकरं तु इदं अञत्र अगेन पराक्रमों [ । ]

संस्कृत में अनुवाद

देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवमाह। अतिक्रांतमन्तरं न भूतपूर्वे सर्वे कालमर्थकर्म वा प्रतिवेदना वा। तन्मया एवं कृतं सर्वकालम् अदतो मे अवरोधने गर्भागारे वर्चासि विनीते उद्याने सर्वत्र प्रतिवेदका अर्थे जनस्य प्रतिवेदयन्तु मे। सर्वत्र जनस्यार्थे करिष्याम्हम्। यद्यपि च किंचिन्मुखत आज्ञापयाम्हं दापकंवा श्रावकं वा यद्वा पुनर्महात्रैः आत्ययिके आज्ञापितं भवति तस्मै अर्थाय विवादे निर्ध्यातौ वा सत्यां परिषदा आनन्तर्येण प्रतिवेदायितव्यं मे सर्वत्र सर्वकालम्। एवमाज्ञापितं मया। नास्ति हि मे तोषो वा उत्यानाय अर्थसंतरणाय च। कर्त्तव्यं मतं हि मे सर्वलोकहितम्। तस्य पुनरेतन्मूलमुत्थानम् अर्थसंतरणं च। नास्ति हि कर्मान्तरं सर्वलोकहितने। यत्किंचित् पराक्रमेहं, किमित? भूतानामानण्यमेयाम् इह च कांश्चित् सुखयामि परत्र च स्वर्गमाराधयितुम्। तदेतस्मा अर्थायेयं अर्धलिपिलेखिता चिरस्थिका भवतु। तथा च मे पुत्रदारं पराक्रमतां सर्वलोकहिताय। दुष्करं चेदमन्यत्राग्रयात् पराक्रमात्।

हिन्दी में रूपान्तरण

१ – देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस तरह कहता है — बहुत काल ( समय ) व्यतीत हो गया

२ – पूर्व ( पहले ) सब काल में अर्थकर्म ( राजकार्य, शासन सम्बन्धित कार्य ) वा प्रतिवेदना ( प्रजा की पुकार या अन्य सरकारी कार्य का निवेदन, सूचना अथवा खबर ) नहीं होती थी। सो ( इसलिए ) मेरे द्वारा ऐसा किया गया है।

३ – सब काल ( समय ) में भोजन करते हुए, अवरोधन ( अन्तःपुर ), गर्भागार, व्रज ( पशुशाला )

४ – विनीत ( व्यायामशाला, पालकी ) एवं उद्यान [ उद्यानों ] में [ होते हुए ] मुझे सर्वत्र प्रतिवेदक ( निवेदक ) उपस्थित होकर मेरे जन ( प्रजा ) के अर्थ ( शासन सम्बन्धित कार्य ) का

५ – प्रतिवेदन ( निवेदन ) करें। मैं सर्वत्र ( सभी स्थानों पर ) जन ( जनता, प्रजा ) का अर्थ ( शासन सम्बन्धित कार्य ) करता हूँ ( करूँगा ) जो कुछ भी मैं मुख से ( मौखिक रूप से )।

६ – दापक ( दान ) वा श्रावक ( घोषणा ) के लिए आज्ञा देता हूँ या पुनः महामात्रों पर

७ – अत्यंत आवश्यकता पर जो [ अधिकार अथवा कार्यभार ] आरोपित होता है ( दिया जाता है ) उस अर्थ ( शासन सम्बन्धित कार्य ) के लिए परिषद् से विवाद

८ – वा पुनर्विचार होने पर बिना विलम्ब के मुझे सर्वत्र सब काल में प्रतिवेदन ( निवेदन ) किया जाय। मेरे द्वारा ऐसी आज्ञा दी गयी है।

९ – मुझे वस्तुतः उत्थान ( उद्योग ) एवं अर्थसन्तरण ( राजशासनरूपी सरिता को अच्छी तरह तैरकर पार करने ) में तोष ( संतोष ) नहीं है। सर्वलोकहित वस्तुतः ( वास्तव में ) मेरे द्वारा कर्त्तव्य माना गया है।

१० – पुनः उसके मूल उत्थान ( उद्योग ) और अर्थसन्तरण ( कुशलता से राजकार्य का संचालन ) हैं। सचमुच सर्वलोकहित के अलावा दूसरा [ कोई अधिक उपादेय या उपयोगी ] कार्य या काम नहीं है।

११ – जो कुछ भी मैं पराक्रम करता हूँ, वह क्यों? इसलिए कि भूतों ( जीवधारियों या प्राणियों ) से उऋणता को प्राप्त होऊँ ( या उऋण हो जाऊँ ) और

१२ – यहाँ ( इस लोक में ) कुछ [ जीवों या प्राणियों ] को सुखी करूँ और अन्यत्र ( परलोक मे ) वे स्वर्ग को प्राप्त करें। इस अर्थ ( प्रयोजन ) से

१३ – यह धर्मलिपि लिखवायी गयी कि [ यह ] चिरस्थित हो तथा सब प्रकार मेरे स्त्री, पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र

१४ – सब लोगों के हित के लिए पराक्रम अनुसरण करें। बिना उत्कृष्ट पराक्रम के यह ( सर्वलोकहित ) वास्तव में ( वस्तुतः ) कठिन ( दुष्कर ) है।

धारा प्रवाह हिन्दी अनुवाद

देवताओं के प्रिय राजा ये कहता है — पुरातन समय से ही यह पूर्व में कभी नहीं हुआ कि सब समय राजकार्य व राजकीय समाचार राजा के सामने प्रस्तुत किये गये हों। अस्तु मैंने यह व्यवस्था दी कि हर समय एवं हर स्थान पर चाहे मैं भोजन कर रहा हूँ, चाहे महल में, अंतःपुर में, अश्व के पीठ पर और चाहे बगीचे में होऊँ; सभी स्थान पर राजकीय प्रतिवेदक मुझे प्रजा के कार्य की सूचना दें। सभी स्थान पर ( सर्वत्र ) मैं प्रजा-कार्य करता हूँ।

यदि मैंने स्वयं किसी सूचना या बात के जारी अथवा उद्घोषणा करने का आदेश दिया हो, या यदि कोई आकस्मिक ( अचानक ) कार्य महामात्रों पर आन पड़े और परिषद में उसपर मतभेद हो जाय तो इसकी सूचना मुझे सभी स्थनों पर दी जाय।

राजकार्य मे मैं कितना भी उद्योग करूँ, उससे मुझको संतोष नहीं होता। क्योंकि सर्वलोकहित करना ही मैंने अपना उत्तम कर्त्तव्य माना है एवं यह उद्योग और राजकर्म संचालन से ही पूर्ण हो सकता है।

सर्वलोकहित से बढ़कर अनय कोई अच्छा कर्म नहीं है। मैं जो भी पराक्रम ( पुरुषार्थ या उद्योग ) करता हूँ — उसका क्या प्रयोजन है? — जिससे मैं जीवमात्र का जो मुझपर ऋण है उससे मुक्त होऊँ और उनका लोक व परलोक में हितसाधन हो।

यह धर्मलेख इसलिए लिखवाया गया कि यह चिरस्थायी रहे और मेरे पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र सभी कल्याणार्थ सदैव प्रयत्नशील रहें। लेकिन अत्यधिक प्रयत्न बिन यह कार्य दुष्कर है।

प्रथम बृहद् शिलालेख

द्वितीय बृहद् शिलालेख

तृतीय बृहद् शिलालेख

चतुर्थ बृहद् शिलालेख

पाँचवाँ बृहद् शिलालेख

सांस्कृतिक और ऐतिहासिक स्थल – ३ ( गिरिनार )

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