भूमिका
चतुर्थ बृहद् शिलालेख ( Fourth Major Rock Edict ) सम्राट अशोक के चतुर्दश बृहद् शिलालेखों में से चौथा अभिलेख है। मौर्य सम्राट अशोक द्वारा भारतीय उप-महाद्वीप में ‘आठ स्थानों’ पर ‘चतुर्दश बृहद् शिलालेख’ या चौदह बृहद् शिला प्रज्ञापन ( Fourteen Major Rock Edicts ) अंकित करवाये गये। गुजरात का ‘गिरनार संस्करण’ इसमें से सबसे सुरक्षित है। अधिकतर विद्वानों ने इसका ही प्रयोग किया है। इसके साथ ही यदा-कदा अन्य संस्करणों का भी उपयोग किया गया है।
संक्षिप्त परिचय
नाम – अशोक का चतुर्थ बृहद् शिलालेख ( Ashoka’s Fourth Major Rock-Edict )
स्थान – गिरनार, जूनागढ़ जनपद, गुजरात।
भाषा – प्राकृत।
लिपि – ब्राह्मी।
समय – अशोक के सिंहासनारोहण के १२ वर्ष के बाद।
विषय – सम्राट अशोक द्वारा धर्म का संदेश और उसके महत्त्व का रेखांकन।
मूलपाठ : चतुर्थ बृहद् शिलालेख
१ – अतिकातं अंतरं बहुनि बाससतानि वढितो एवं प्राणारंभो विहिंसा च भूतानं ज्ञातीसु
२ – असंप्रतिपती ब्राह्मण-स्रमणानं असंप्रतीपती [ । ] त अज देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो
३ – धंम-चरणेन भेरीघोसो अहो धम्मघोसो [ । ] विमानदसंणा च हस्तिदसणा च
४ – अगिखंधानि च अञानि च दिव्यानि रूपानि दसयित्पा जनं यारिसे बहूहि वास-सतेहि
५ – न भूत-पूवे तारिसे अज वढिते देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो धंमानुसस्टिया अनारं
६ – भो प्राणानं अविहीसा भूतानं ञातीनं संपटिपती ब्रह्मण-समणानं संपटिपती मातरि-पितरि
७ – सुस्रुसा थैरसुस्रुसा [ । ] एस अञे च बहुविधे धंमचरणे वढिते [ । ] वढयिसति चेव देवानंप्रियो।
८ – प्रियदसि राजा धंमचरण इदं [ । ] पुत्रा च पोत्रा च प्रपोत्रा च देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो
९ – प्रवधयिसंति इदं धंमचरण आव सवटकपा धंमम्हि सीलम्हि तिस्टंतो धंमं अनुसासिसंति [ । ]
१० – एस हि सेस्टे कंमे य धंमानुसासनं [ । ] धंमाचरणे पि न भवति असीलस [ । ] त इमम्हि अथम्हि
११ – वधी च अहीनी च साधु [ च ] एताय अथाय इदं लेखापितं इमस अथस वधि युजंतु हीनि च
१२ – मा लोचेतव्या [ । ] द्वादसवासाभिसितेन देवानंप्रियेन प्रियदसिना राञा इदं लेखापितं [ । ]
संस्कृत पाठ
अतिक्रान्तमन्तरनं बहूनि वर्षशतानि वर्धितः एव प्राणालम्भ विहिंसा च भूतानां ज्ञातीनामसम्प्रतिपत्तिः श्रमणब्राह्मणामसम्प्रतिपत्तिः। तद्द्य देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिनो राज्ञो धर्मचरणेन भेरीघोषोऽथो धर्मघोषो विमान दर्शनानि हस्तिनोऽग्निस्कन्धा अन्यानि च दिव्यानि रूपाणि दर्शयितुं जनस्य। यादशं बहुभिर्वषशतैर्न भूतपूर्व तादशमद्य वर्धितो देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिनो राज्ञो धर्मानुशिष्ट्या अनालम्भः प्राणानामविहिंसा भूतानां ज्ञातिषु संप्रतिपत्तिब्रर्ह्मिणश्रमणानां संप्रतिपत्तिर्मातापित्रोः शुश्रूषा एतच्चान्यच्च बहुविधं धर्मचरणं वर्धितम्। वर्धियिष्यति चैव देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजेदं धर्मचरणम्। पुत्राश्च नप्ताश्च प्रनप्ताश्च देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिनो राज्ञः प्रवर्धायिष्यन्ति चैव धर्माचरणमिदं यावत्कल्पं धर्मे शीले च तिष्ठन्ती धर्ममनुशासिष्यन्ति। एदद्धि श्रेष्ठं कर्म यद्धमानुशासनं, धर्मचरणमपि न भवत्यशीलस्य। तदस्यार्थस्य वृद्धि युञ्जन्तु हानिं च मा आलोचयन्तु। द्वादशवर्षाभिषिक्तेन देवानां प्रियेण प्रियदर्शिना राज्ञा लेखितम्।
हिन्दी अनुवाद
१ – बहुत काल बीत गया, बहुत सौ वर्ष [ बीत गये, परन्तु ] प्राणि-वध, भूतों की विहिंसा, सम्बन्धियों के साथ
२ – अनुचित व्यवहार [ एवं ] श्रमणों व ब्राह्मणों के साथ अनुचित व्यवहार बढ़ते गये। इसलिए आज देवों के प्रियदर्शी राजा के
३ – धर्माचरण से भेरीघोष-जनों ( मनुष्यों ) को विमान-दर्शन, हस्तिदर्शन,
४ – अग्नि-स्कन्ध ( ज्योति-स्कन्ध ) और अन्य दिव्य रूप दिखाकर धर्मघोष हो गया। जिस प्रकार अनेक वर्षों से
५ – पहले कभी न हुआ था, उस प्रकार आज देवों के प्रियदर्शी राजा के धर्मानुशासन से
६ – प्राणियों का अनालम्भ ( न मारा जाना ), भूतों ( जीवों ) की अविहिंसा, सम्बंधियों के प्रति उचित व्यवहार, ब्राह्मणों [ तथा ] श्रमणों के प्रति सही व्यवहार, माता [ एवं ] पिता की
७ – सुश्रूषा [ और ] वृद्ध ( स्थविरों ) की सुश्रूषा में वृद्धि आ गयी है। ये और अन्य प्रकार के धर्म-आचरण में वृद्धि हुई है।
८ – देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस धर्माचरण को [ और भी ] बढ़ायेगा। देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा के पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र भी
९ – इस धर्माचरण को यावत्कल्प बढ़ायेंगे। धर्म और शील में [ वे स्वयं स्थित ] रहते हुए धर्म के अनुसार आचरण करेंगे।
१० – यह धर्मानुशासन ही सर्वश्रेष्ठ कर्म है; परन्तु अशील ( व्यक्ति ) का धर्माचरण भी नहीं होता। सो इस अर्थ ( उद्देश्य ) की
११ – वृद्धि एवं अहानि अच्छी है। इस अर्थ के लिए यह लिखा ( लिखवाया ) गया [ कि लोग ] इस अर्थ ( उद्देश्य ) की वृद्धि में जुट जायें
१२ – और हानि न देखें। बारह वर्षों से अभिषिक्त देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा यह लिखवाया गया।
धाराप्रवाह हिन्दी भाषा में रूपान्तरण
बहुत समय बीत गया, सहस्रों वर्षों से जीव-हत्या, जीव-हिंसा, सम्बन्धियों, ब्राह्मणों और श्रमणों का अनादर ही होता गया। परन्तु अब देवताओं के प्रिय, प्रियदर्शी राजा के धर्म आचरण के भेरीनाद द्वारा धर्म का उद्घोष होता है, एवं पहले लोगों को विमान, हस्ति, अग्नि स्कन्ध तथा अन्य दिव्य रूपों के दर्शन कराये जाते हैं। जैसा सहस्रों वर्षों में पूर्वमें पहले कभी नहीं हुआ; आजकल देवताओं के प्रिय राजा प्रियदर्शी के धर्म अनुशासन से जीवों की अहिंसा, प्राणियों की रक्षा, सम्बन्धियों, ब्राह्मणों और श्रमणों का आदर, माता व पिता एवं वृद्धों की सेवा सहित अन्य धर्म आचरण में अनेक तरह से वृद्धि हुई है।
देवताओं का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस धर्म के आचरण को और भी बढ़ायेगा एवं उसके पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र भी इसे कल्पान्त तक बढ़ायेंगे और शीलाचरण करते हुए धर्मानुशासन का प्रचार करेंगे। धर्म का अनुशासन ही अच्छा काम है और शील-हीन ( व्यक्ति ) के लिए धर्म का आचरण बहुत कठिन है। इस धर्म के अनुशासन का अह्रास और सदैव वृद्धि ही श्रेष्ठ है। इसीलिए यह धर्मलिपि लिखवायी गयी है ताकि लोग इस उद्देश्य की वृद्धि में लगे एवं उसमें कमी न होने दें। १२ वर्षों से अभिषिक्त देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने यह लेख अंकित करवाया।