अशोक का दूसरा पृथक कलिंग अभिलेख

भूमिका

कलिंग अभिलेख अशोक की कलिंग के प्रति नीति का परिचायक है। इसमें वह सभी प्रजा को अपनी सन्तान घोषित करता है।

मौर्य सम्राट अशोक के चौदह बृहद् शिलालेखों ( Major Rock Edits ) आठ स्थानों से मिले हैं। इनमें से दो स्थान वर्तमान ओडिशा प्रांत ( प्राचीन कलिंग ) के धौली और जौगढ़ में मिले हैं।

धौली और जौगढ़ में ११वें से १३वें बृहद् शिलालेख की जगह दो अलग प्रकार के अभिलेख अंकित है। इसीलिए इन्हें दो पृथक कलिंग शिलालेख या पृथक कलिंग शिला प्रज्ञापन ( Two separate Kalinga Rock Edits ) कहते हैं। प्रथम पृथक कलिंग अभिलेख में २६ पंक्तियाँ हैं। द्वितीय पृथक कलिंग अभिलेख या कलिंग शिलालेख में १६ पंक्तियाँ हैं।

परन्तु यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है है कि इन दोनों को मिलाकर विश्लेषण करने पर पूरी बात स्पष्ट होती है।

इसमें अशोक द्वारा अन्तों ( अर्थात् सीमान्तवासियों और जनपदवासियों ) के लिए आदेश, कलिंग के प्रति नीति के विवरण के अलावा कलिंग के नगर व्यावहारिक के न्याय के सम्बन्ध में उदार और निष्पक्ष रहने का भी दिशानिर्देश दिया गया है।

इन दोनों पृथक कलिंग प्रज्ञापनों ( अभिलेखों ) में अशोक ने वहाँ के महामात्रों को सम्बोधित किया गया है।

धौली संस्करण वाला लेख तोसली के महामात्र को और जौगड़ संस्करण वाला समापा के महामात्र को सम्बोधित है। धौली ही प्राचीन तोसली जान पड़ता है। समापा जौगड़ पहाड़ी के निकट रहा होगा।

संक्षिप्त परिचय

नाम – अशोक का द्वितीय पृथक कलिंग शिलालेख या कलिंग शिलालेख या कलिंग का द्वितीय शिलालेख

स्थान – जौगढ़ संस्करण, गंजाम जनपद; ओडिशा

भाषा – प्राकृत

लिपि – ब्राह्मी

विषय – सभी प्रजा मेरी सन्तान है। सीमान्त नीति, राज्य अधिकारियों को निर्देश व धर्म कार्य।

मूलपाठ ( कलिंग अभिलेख : जौगढ़ संस्करण )

१ – देवानं हेयं आ [ ह ] [ । ] समापायं महमता लाजवचनिक वतविया [ । ] अं किछि दखामि हकं तं इछामि हकं तं इछामि हकं [ किं ] ति कं कमन

२ – पटिपातयेहं दुवालते च आलभेहं [ । ] एस च मे मोखियमत दुवाल एतस अथस सं तुफेसु अनुसथि [ । ] सव-मुनि-

३ – सा मे पजा [ । ] अथ पजाये इछामि किंति में सवेणा हितसुखेन युजेयू अथ पजाये इछामि किंति मे सवेन हित-सु-

४ – खेन युजेयू ति हिदलोगिक-पाललोकिकेण हेवंमेव में इछ सवमुनिसेसु [ । ] सिया अन्तानं अविजिता-

५ – नं किं-छांजे सु लाजा अफेसू ति [ । ] एताका वा मे इछ अन्तेसु पापुनेयु लाजा हेवं इछति अनविगिन ह्वेयू

६ – ममियाये अस्वसेयु च मे सुखंमेव च लहेयू ममते नो दुखं [ । ] हेवं च पापुनेयु खमिसति ने लाजा

७ – ए सकिये खमितवे ममं निमितं च धंमं चलेयू ति हिदलोगं च पललोगं च आलाधयेयू [ । ] एताये

८ – च अठाये हकं तुफेनि अनुसासामि अनने एतकेन हकं तुफेनि अनुसासितु छंदं च वेदि-

९ – तु आ मम घिति पटिंना च अचल [ । ] व हेवं कटू कंमे चलितविये अस्वासनिया च ते एन ते पापुने-

१० – यु अथा पित हेवं ने लाजा ति अथ अतानं अनुकंपति हेवं अफेनि अनुकंपति अथा पजा हे-

११ – वं मये लाजिने [ । ] तुफेनि हकं अनुसासित छांदं च वेदित आ मम धिति पटिंना चा अचल सकल-

१२ – देसा आयुतिके होसामी एतसि अथसि [ । ] अलं हि तुफे अस्वासनाये हित-सुखाये च तेसं हिद-

१३ – लोगिक-पाललोकिकाये [ । ] वं च कलन्तं स्वगं च अलाधयिसथ मम च आननेयं एसथ [ । ] ए-

१४ – ताये च अथाये इयं लिपी लिखित हिद एन महामाता सास्वतं समं युजेयू अस्वासनाये च

१५ – धंम-चलनाये च अन्तानं [ । ] इयं च लिपी अनुचातुंमासं सोतविया तिसेन [ । ] अन्तला पि च सीतविया [ । ]

१६. खने सन्तं एकेन पि सोतविया [ । ] बेवं च कलन्तं चघथ संपटिपातयितवे [ । ]

  • धौली का पाठ : ‘तोसलियं कुमाले महमता च’

संस्कृत छाया

देवानां प्रियः एवम् आह। समापायां महामात्राः राजवाचनिकं वक्तव्याः। यत् किंचित् पश्यामि अहं तत् इच्छामि अहं किमिति कं कर्मणा प्रतिपादये द्वारतः च आरभे। एतत् च मे मुख्यमतं द्वारं एतस्य अर्थस्य या युष्मासु अनुशिष्टिः। सर्वे मनुष्याः मे प्रजाः। यथा प्रजायै इच्छामि किमिति मे सर्वेण हितसुखेन युज्येरन इति इहलौकिक पारलौकिकेन, एवम् एवमे इच्छा सर्व मनुष्येषु। स्यात् अन्तानां अविजितानां किं छन्दः स्वित् राजा अस्मासु इति? एतकाः वा इच्छा: अंतेषु प्राप्णुयुः ‘राजा एवम् इच्छति – अनुद्विग्नाः भवेयुः मया आश्वस्युः च। मया सुखम् एव च लभेरन मत्तः न दुःखम्। एवं च प्राप्णुयुः क्षमिष्यते नः राजा यत् शक्यं क्षन्तुम्। मम निमित्तं च धमं चरेयुः इति। इहलोक च परलोक च आराधयेयुः। एतस्मै च अर्थाय अहं युष्मासु अनुशास्मि। अनणः एतकेन अहं — युष्मान् अनुशिष्य इदं च वेदयित्वा या मम धतिः प्रतिज्ञा च अचला। तत् एवं कृत्वा कर्म चरितव्यम्, अश्वासनीयाः च ते येन ते प्राप्णुयः यथा पिता एवं नः राजा इति, यथा आत्मानम् अनुकम्पते एवम् अस्मान् अनुकम्पते, यथा प्रजा एवं वयं राज्ञः इति। युष्मान् अहं अनुशिष्य छंदं च वेदयित्वा या मम घतिः प्रतिज्ञा च अचला सकल देशावत्तिकः भविष्यामि एतस्मिन् अर्थे। अलं हि यूयम् आश्वासनाय हितसुखाय च तेषा इहलौककाय। एवं च कुर्वन्तः स्वर्गं च आराधयिष्यथ मम च आनण्यं एष्यथ। एतस्मै च अर्थाय इयं लिपिः लेखिता इह येन महामात्राः शाश्वतं समयं युञ्जयुः आश्वासनाय च धर्मचरणाय च अन्तानाम् इयं च लिपिः अनुचातुर्मासं श्रोतव्या तिष्येण। अन्तरा अपि च श्रोतव्या। क्षणे सति एकेन अपि श्रोतव्या। एवं च कुर्वन्तः चेष्टध्वं सम्प्रतिपादयुतिम्।

हिन्दी अनुवाद : कलिंग अभिलेख

१ – देवों का प्रिय इस प्रकार कहता है — समापा में महामात्र ( तोसली संस्करण में — कुमार और महामात्र ) राजवचन द्वारा ( यों ) कहे जायँ – जो कुछ देखता हूँ, उसे मैं चाहता हूँ कि किस प्रकार कर्म द्वारा

२ – मैं प्रतिपादित ( सम्पादित ) करूँ तथा [ किस प्रकार तरह-तरह के ] उपायों

द्वारा मैं [ उसे ] पूर्ण करूँ। इस अर्थ ( उद्देश्य ) में [ सिद्धि प्राप्ति के लिए ] यह मेरे द्वारा मुख्य उपाय माना गया है कि आप लोगों में अनुशासन ( शिक्षा ) हो। सब मनुष्य

३ – मेरी सन्तान हैं। जिस प्रकार सन्तान के लिए मैं चाहता हूँ कि मेरे द्वारा वह सब प्रकार के

४ – इहलौकिक तथा पारलौकिक हित एवं सुख से युक्त हों, उसी प्रकार मेरी इच्छा सब मनुष्यों के सम्बन्ध में है। सम्भवतः अविजित अन्त ( सीमान्त जातियाँ ) यह पूछें कि

५ – ‘राजा हम लोगों के बारे में क्या चाहता है ?’ अन्तों ( सीमान्त जातियों ) के प्रति मेरी इच्छा इस तरह की है — वे समझें कि राजा ( देवों का प्रिय ) इस प्रकार चाहता है कि मुझसे अनुद्विग्र ( निश्चित ) रहें;

६ – मुझसे आश्वासन प्राप्त करें तथा मुझसे सुख का लाभ करें, मुझसे वे दुःख न पायें। वे इस प्रकार समझें कि “जहाँ तक क्षमा करना शक्य ( सम्भव ) है, राजा ( देवों का प्रिय ) हम लोगों को क्षमा करेगा।”

७ – मेरे निमित्त वे धर्म का आचरण करें एवं [ इस प्रकार ] इहलोक और परलोक को प्राप्त करें।

८ – इस अर्थ ( उद्देश्य ) के लिए मैं आपको अनुशासन ( शिक्षा ) देता हूँ कि इसके द्वारा मैं उऋणता को प्राप्त हो जाऊँ, आप लोगों को अनुशासित करूँ और अपनी इच्छा विदित कराऊँ कि मेरी धृति ( विचार ) और प्रतिज्ञा अचल है।

९ – सो इस तरह काम करते हुए ( आप लोगों को ) चलना ( जिसमें ) वे [ सीमान्त जातियाँ मुझसे ] आश्वासन प्राप्त करें एवं यह समझें कि

१० – “जैसे पिता है, वैसी ही हमारे लिए राजा ( देवों का प्रिय ) है। वह जिस प्रकार अपने ऊपर अनुकम्पा करता है, उसी प्रकार हम लोगों पर भी अनुकम्पा करता है। जिस प्रकार सन्तान है, उसी प्रकार हम लोग [ भी ]

११ – राजा ( देवों के प्रिय ) [ की सन्तान ] हैं।” सो आप लोगों को अनुशासन दे और ( अपनी यह इच्छा विदित कराकर कि मेरी धृति ( विचार ) और प्रतिज्ञा अटल है।

१२ – मैं इस अर्थ ( प्रयोजन ) के लिए समस्त देश में आयुक्तों को रखूँगा। क्योंकि वे आप सभी के इहलौकिक एवं पारलौकिक हित एवं सुख के लिए आश्वासन देने में समर्थ होंगे।

१३ – इस तरह इहलौकिक एवं पारलौकिक ( हित ) करते हुए आप लोग स्वर्ग प्राप्त करेंगे और मेरे सानृण्य को प्राप्त होंगे ( मुझसे उऋण होंगे )।

१४ – इस अर्थ से यह लिपि ( अभिलेख ) यहाँ लिखवायी गयी है, जिससे महामात्र सब समय उन अन्तों ( सीमान्त जातियों ) के आश्वासन और

१५ – धर्माचरण के लिए प्रयत्न करें। यह लिपि प्रत्येक चातुर्मास्य में तिष्य नक्षत्र में सुनी जानी चाहिए। कमना होने पर एक ( व्यक्ति ) के द्वारा भी तिष्य के बीच में क्षण-भर पर ( अधिकतर अवसरों पर ) सुनी जानी चाहिए।

१६. ऐसा करते हुए ( आप लोग मेरी आज्ञा के ) सम्यक् प्रतिपादन ( पालन ) के लिए चेष्टा करें।

कलिंग अभिलेख : विश्लेषण

ये दोनों अभिलेख अर्थात् कलिंग के पृथक शिलालेख ग्यारहवें से तेरहवें बृहद् शिलालेखों के स्थान पर उड़ीसा में पाये गये हैं।

इन दोनों पृथक कलिंग प्रज्ञापनों ( अभिलेखों ) में अशोक ने वहाँ के महामात्रों को सम्बोधित किया है। धौली संस्करण वाला लेख तोसली के महामात्र को और जौगड़ संस्करण वाला समापा के महामात्र को सम्बोधित है। धौली ही प्राचीन तोसली जान पड़ता है। समापा जौगड़ पहाड़ी के निकट रहा होगा।

प्रथम कलिंग अभिलेख में भी अशोक ने कार्य के प्रति व्यग्रता प्रकट की है तथा उसे उसने इस लेख में अपने कर्मचारियों को समझाने का प्रयास किया है। इसका आरम्भिक अंश प्रथम लेख के समान ही राजा प्रजा के सम्बन्ध को व्यक्त करता है। इसके बाद उसने प्रजा के हित में अपने कर्मचारियों को कठोरपूर्वक व्यवहार न कर मध्यम मार्ग अपनाने एवं मार्ग में आनेवाली कठिनाइयों के प्रति सजग रहते हुए उन्हें दूर करने का उपाय बताया है। इस प्रकार कर्त्तव्य पालन से स्वर्ग-प्राप्ति होगी, ऐसी अशोक की धारणा है।

लोग उसके कथनानुसार आचरण ( कार्य ) करते हैं या नहीं, यह देखने के लिए उसने राजधानी से महामात्रों को प्रति पाँचवें वर्ष दौरे पर भेजने की घोषणा की है और कहा है कि इसी प्रकार उज्जयिनी और तक्षशिला के कुमार ( प्रादेशिक शासक ) भी तीन-तीन वर्ष पर इसे देखने के लिए आदमी भेजेंगे।

इस लेख में उज्जयिनी और तक्षशिला के उल्लेख से ऐसा प्रकट होता है कि इन स्थानों पर अशोक की प्रादेशिक राजधानियाँ थीं और उनका शासन कुमार ( सम्भवतः राजकुमार ) किया करते थे।

द्वितीय पृथक कलिंग अभिलेख में अपने उद्देश्य-सिद्धि के निमित्त कार्य सम्पादन के प्रति अशोक ने अपनी व्यग्रता व्यक्त करते हुए राजा-प्रजा के सम्बन्ध की व्याख्या की गयी है और प्रजा को अपनी सन्तान बताया है। किन्तु इस लेख का मुख्य उद्देश्य सीमान्त की प्रजा के प्रति अपनी नीति का स्पष्टीकरण है।

कलिंग युद्ध का विवरण अशोक के १३वें बृहद् शिलालेख में मिलता है। इसको साथ मिलाकर विश्लेषण करने से स्थिति और ऋण स्पष्ट होती है।

अशोक का पहला पृथक कलिंग शिलालेख

अशोक का तेरहवाँ बृहद् शिलालेख

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