भूमिका
अयोध्या से पुष्यमित्र शुंग के राज्यपाल धनदेव का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है। इससे पुष्यमित्र द्वारा अश्वमेध यज्ञ किये जाने की जानकारी मिलती है।
अयोध्या अभिलेख : संक्षिप्त विवरण
नाम – धनदेव का अयोध्या प्रस्तर अभिलेख ( Ayodhya Stone Inscription of Dhandeva )
स्थान – अयोध्या जनपद उत्तर प्रदेश।
भाषा – संस्कृत ( अशुद्ध प्राकृत प्रभावित )।
लिपि – ब्राह्मी।
समय – पुष्यमित्र शुंग का शासनकाल ( द्वितीय शताब्दी ई०पू० )
विषय – पिता फल्गुदेय की मृत्यु पर पुत्र धनदेव द्वारा स्मारक की स्थापना। जिससे पुष्यमित्र के अश्वमेध की जानकारी मिलती है।
मूल पाठ
१ – कोलाधिपेन द्विरश्वजिनः सेनापतेः१ पुष्यमित्रस्य पष्ठेन२ कोशिकीपुत्रेण धन [ देवेन ]३
२ – धर्मराज्ञा४ पितुः फल्गुदेवस्य केतन५ कारित [ ॥ ]
पुष्यमित्र के अश्वमेध यज्ञ का विवरण पतंजलि कृति महाभाष्य और कालिदास कृति मालिविकाग्निमित्र में भी हुआ है परन्तु यहाँ पर भी इसकी उपाधि ‘सेनापति’ ही मिलती है। यह परम्परा हम मध्यकाल में पेशवाओं के सम्बन्ध में देखते है। सिंहासन प्राप्त कर लेने के बाद भी वे पेशवा की उपाधि धारण करते रहे।१
इसका अभिप्राय है मातृपक्ष से पुष्यमित्र से छठे पीढ़ी में न कि पुष्यमित्र का छठा भाई। संस्कृत में इसके लिए ‘पुष्यमित्रित्’ का प्रयोग होना चाहिए परन्तु यह प्रयोग ‘पुष्यमित्रस्य’ पालि प्रभाव के कारण है।२
इसका पाठ कर सकते हैं — धनदेवन, धनदेन, धनकेन, धननन्दिना, धनभूतिना, धनमित्रेण, धनदत्तेन, धनदासेन इत्यादि। पिता नाम फलादेश होने से किन्तु पाठ ठीक प्रतीत होता है। धनदेवेन अयोध्या का स्थानीय शासक लगता है।३
पाठ – धर्मराजेन४
एक भवन या स्तम्भ ध्वज-स्तम्भ में फल्गुदेव की स्मृति में उसकी समाधि भूमि पर बना हुआ।५
हिन्दी रूपान्तरण
१ – कोशल के राजा दो अश्वमेध यज्ञ करने वाले सेनापति पुष्यमित्र के छठे कोशिकी के पुत्र धनदेव द्वारा
२ – धर्मराज पिता फल्गुदेव का निकेतन बनवाया गया।
ऐतिहासिक महत्त्व
अयोध्या अभिलेख जनपद ( उ० प्र० ) के अयोध्या से फैजाबाद जाने वाली सड़क पर अयोध्या से लगभग एक मील दूर बने रानोपाली भवन में बाबा सन्तबख्श की समाधि के पूर्वी द्वार के चौखट ललाट ( सिरदल ) से मिला है।
ऐसा प्रतीत होता है कि अयोध्या अभिलेख यहीं उत्कीर्ण कराया हुआ मिट्टी में दबा होगा जिसे शिलापट्ट का प्रयोग पीछे अनजाने में इस चौखट में किया गया होगा। इसका उद्धार किसी इतिहास की दृष्टि पड़ने पर हुआ होगा।
परन्तु अयोध्या अभिलेख कोशल के राजा धन ( देव ? ) द्वारा खुदवाया गया है जो पुष्यमित्र की पीढ़ी का है। इसमें ‘धन’ के बाद का भाग टूटा है पर इसके पिता का नाम यहाँ है। अतः उसके पुत्र का नाम धनदेव ही रहा होगा। इस नामधारी राजा के सिक्के अयोध्या से प्राप्त हुए हैं और बनारस के राजपाट की खुदायी से इस नाम के राजा की मुहरे भी मिली है। अब यह कल्पना कि धनमित्र, धनदत्त, धनदास अयोध्या के शासक थे के स्थान पर धनदेव नाम ही प्रामाणिक प्रतीत होता है।
शुंग वंश के इतिहास में अयोध्या अभिलेख का विशेष महत्व है क्योंकि यही एकमात्र ऐसा अभिलेख प्राप्त हुआ है जिसमें पुष्यमित्र की उपाधि सेनापति दी गयी है और उसके द्वारा किए जाने वाले दो अश्वमेध यज्ञों का उल्लेख मिलता है। साथ ही शुंग राजाओं की धार्मिक नीति तथा वंशपरम्परा पर भी इस प्रस्तर अभिलेख से प्रकाश पड़ता है। यह संस्कृत भाषा का दो पंक्तियों वाला लघु शिलालेख अत्यन्त उपयोगी है।
कालिदास के माल्विकाग्निमित्र से ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र ने अश्वमेध यज्ञ किया था। इस सन्दर्भ में उसने अपने पुत्र अग्निमित्र को एक पत्र लिखा था जो यज्ञ के उद्देश्य को स्पष्ट करता है उसमें लिखा है – ‘स्वस्ति इस मण्डप से सेनापति पुष्यमित्र विदिशा में स्थित अपने पुत्र आयुष्मान अग्निमित्र को स्नेह से आलिंगन कर यह आदेश देता है — विदित हो राजसूय की दिशा के लिए मेरे द्वारा सैकड़ों राजपुत्रों से प्रवृत्त वसुमित्र की संरक्षता में एक वर्ष के भीतर लौट आने के विधान से यज्ञीय घोड़ा छोड़ा गया था। वह सिन्धु नद के दाहिने तट पर विचरता हुआ अश्वारोही सेना से युक्त यवन शासक द्वारा पकड़ा गया। इसके पश्चात् यवन सेना तथा वसुमित्र की सेना में घनघोर युद्ध हुआ। धनुर्धर वसुमित्र ने शत्रुओं को विजित कर बलपूर्वक मेरा अश्वमेध का घोड़ा छुड़ा लाया। जिस प्रकार अंशुमान द्वारा लाए हुए थोड़े से उनके पिता महासगर ने यज्ञ किया था उसी प्रकार मैं भी यज्ञ करूँगा। इस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए प्रसन्नचित होकर तुम्हें बहुओं के साथ यहाँ आना चाहिए।’
प्रस्तुत अभिलेख में भी पुष्यमित्र के लिए विशेषण प्रयुक्त है — ‘द्विरश्वमेधयाजिनः’ अर्थात् दो अश्वमेध यज्ञ करने वाला। इससे प्रमाणित होता है कि पुष्यमित्र ने दो अश्यमेधयज्ञ किया था जबकि माल्विकाग्निमित्र ( अंक – ५ ) से एक ही अश्वमेधयज्ञ का ज्ञान प्राप्त होता है जो यवनों को वहिष्कृत करने के लिए हुआ था पर यहाँ उल्लिखित दूसरे अश्वमेध यज्ञ का प्रयोजन स्पष्ट नहीं होता है।
क्या हाथीगुम्फा अभिलेख का बहस्पतिमित्र और पुष्यमित्र शुंग एक ही थे?
डॉ० काशीप्रसाद जायसवाल ने खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख में उल्लिखित बहस्पतिमित्रि की समता पुष्यमित्र से मानकर खारवेल को पुष्यमित्र शुंग का समकालीन बताया है। उनके विचार में चूँकि पुष्यमित्र खारवेल से पराजित हो गया था अतः उसको अपनी प्रतिष्ठा के रक्षार्थ दूसरा अश्वमेध यज्ञ करना पड़ा था।
डॉ० राजबलि पाण्डेय के अनुसार जायसवाल की यह प्रतिस्थापना बड़ी ही संदिग्ध है। उनकी दृष्टि में लिपिविज्ञान के आधार पर खारवेल के हाथीगुफा अभिलेख की तिथि पुष्यमित्र के समकालीन नहीं ठहरायी जा सकती। अतः खारवेल को पुष्यमित्र के समकालीन नहीं रखा जा सकता। उसके द्वारा पुष्यमित्र के समय मगध पर आक्रमण का प्रश्न ही नहीं उठता।
पुनः हम यह भी कह सकते हैं कि जिस प्रकार नक्षत्र और स्थानी की समता का प्रतिस्थापन कर डॉ जायसवाल ने पुष्यमित्र की समता हाथीगुम्फा अभिलेख में वर्णित वहस्पतिमित्र से स्थापित की है उससे लगता है कि यहाँ पूर्वाग्रहपूर्वक खींचा-तानी की जा रही हो या कोई ज्यामितिक हल निकाला जा रहा हो, जिसे सर्वथा मान्य नहीं ठहराया जा सकता।
आगे हाथीगुम्फा अभिलेख के अध्ययन में यह देखेंगे कि वह अन्य प्रमाणों से भी पुष्यमित्र का समकालीन नहीं सिद्ध हो सकता। इसी से डॉ० पाण्डेय के मतानुसार यह “उसका दूसरा यज्ञ पूर्णार्थ ही था क्योंकि दूसरा अश्यमेधयज्ञ पूणार्थ होने का शास्त्रीय विधान है।
अयोध्या अभिलेख : दो अश्वमेध यज्ञ
डॉ० पुरुषोत्तम लाल भार्गव ने माना है कि पुष्यमित्र ने पहला यज्ञ मगध सिंहासन को हस्तगत करने तथा यवनों के आक्रमण को विफल करने के उपलक्ष्य मे किया होगा। अतएव दूसरे अश्यमेध यज्ञ का उद्देश्यपूर्ण पूर्ण ही माना जा सकता है।
परन्तु डॉ० भगवतशरण उपाध्याय के अनुसार पहला अश्वमेधयज्ञ उसने वृहद्रथ की छल से हत्या और अपने सिंहासनारूढ़ होने के शीघ्र बाद किया होगा। जबकि दूसरा अश्वमेध यज्ञ मिलिन्द ( मिनाण्डर ) के आक्रमण के पश्चात् किया था। इस प्रकार उनकी राय में माल्विकाग्निमित्र में वर्णित अश्वमेधयज्ञ दूसरा अश्वमेध है जो यवन शासक के पराजय से सम्बन्धित है।
पतंजलि ने भी अपने महाभाष्य में लिखा है कि ‘अरुणद यवनः साकेतम्। अरुणद यवनो माध्यमिकाम्।’ अर्थात यवनों ने साकेत घेर लिया था और माध्यमिका घेर लिया था उसने आगे यह भी कहा है कि — ‘इह पुष्यमित्र याजयामः। अर्थात् हम पुष्यमित्र को यज्ञ करा रहे हैं। इससे लगता है कि दूसरे अश्वमेध यज्ञ के ऋत्विज महर्षि पतंजलि ही थे।
अतः उपाध्याय का विचार अधिक उचित प्रतीत होता है कि साम्राज्य स्थापनार्थ उसने पहला यज्ञ किया था तथा बलापहारी यूनानियों के बहिष्कारार्थ दूसरा।
हरिवंश पुराण में भी एक सेनानी द्वारा कलियुग में यज्ञ की परम्परा को पुनः स्थापित करने का उल्लेख है। यह सेनानी दूसरा कोई नहीं अपितु पुष्यमित्र ही रहा होगा।
औद्भिज्जो भविता कश्चित् सेनानी काश्यपो द्विजः।
अश्वमेधं तु कलयुगे पुनः प्रत्याहरिष्यति॥
अर्थात् कलियुग में एक औद्भिज्ज ( नवोदित ) काश्यप गोत्रीय द्विज सेनानी अश्वमेध यज्ञ का पुनरुद्धार करेगा।
हरिवंशपुराण
इस अभिलेख से यह भी ज्ञात होता है कि जो यज्ञ बहुल वैदिक परम्परा नन्दों से पूर्व ही कुण्ठित हो चुकी थी जिसका कोई ज्ञान मौर्य शासकों के समय नहीं मिलता वहीं फिर अब प्रारम्भ हो गयी।
बौद्ध भिक्षु और पुष्यमित्र शुंग
बौद्ध और जैन धर्मों के प्रभाव के कारण ही यज्ञ परम्परा लगभग समाप्तप्राय थी उसे इस ब्राह्मण धर्मानुयायी ने पुनः विकसित किया। इसीलिए इस पर बौद्धों द्वारा आक्षेप किया जाता है कि यह नास्तिकों का पौरोहित्य करने वाला तथा बौद्धों का शत्रु या ( लामा तारानाथ )।
ऐसी ही बात दिव्यावदान से भी ज्ञात होती है जहाँ यह घोषित करता है कि- ‘यो में श्रमणशिरं दास्यति तस्याहं दीनारशतं दास्यामि’ ( जो मुझे एक श्रमण का सिर देगा उसको मैं सौ दिनार दूंगा )।
परन्तु ये सारे कथन एकपक्षीय प्रतीत होते है क्योंकि उसके शासन काल में बौद्ध कलाकृतियाँ भरहुत, साँची तथा बोधगया में विकसित हुई। अनेक बौद्ध धर्मावलम्बियों ने इस कला के निर्माण में आर्थिक सहयोग दिया जिनका नाम उन स्तूपों की सूचियों तथा कार्ले की गुफाओं पर अंकित है।
भरहुत अभिलेख में राजा धनभूति द्वारा स्तूप के तोरण के निर्माण का उल्लेख है।
मथुरा स्तम्भ लेख से ज्ञात होता है कि धनभूति द्वितीय भी बौद्ध धर्म का अनुयायी था। इनके अतिरिक्त गृहस्य बौद्धों और भिक्षु भिक्षुणियों द्वारा भी दान का उल्लेख मिलता है। पर उपर्युक्त प्रसंग में डब्ल्यू डब्ल्यू टॉर्न का विचार उचित प्रतीत होता है कि यह कट्टर ब्राह्मण नीति के कारण बौद्धों का विरोधी नहीं था बल्कि पश्चिमी भारत के बौद्धों की देशद्रोही नीति के ही कारण उसने केवल उसी क्षेत्र के बौद्धों का विरोध किया क्योंकि वे यवन आक्रमणकारियों को भारत पर आक्रमण के हेतु आमन्त्रित किये थे।
यदि उसकी नीति बौद्ध धर्म के विरोध की होती तो वह दिव्यावदान में दी गई अपनी घोषणा को स्यालकोट से प्रसारित न करके राजधानी पाटलिपुत्र से ही उद्घोषित करता। उसने किसी भी मौर्यकालीन बौद्ध कला का जो उसके राज्य में पहले से ही पल्लवित थी क्षति नहीं पहुँचायी। अतः यह ब्राह्मण होकर भी एक धर्म सहिष्णु शासक कहा जा सकता है, बौद्ध विरोधी नहीं।
अयोध्या अभिलेख : विश्लेषण
इस अभिलेख का प्रारम्भ ‘कोसलाधिपेन’ शब्द से होता है। पर यह विशेषण है जिसका अर्थ है कोसल का राजा इससे स्पष्ट है कि पाटलिपुत्र के इस शासक का अधिकार कोसल पर भी था। यहाँ कोसल को विशेष रूप से सम्बोधित करना इस बात का परिचायक है कि यह उसके साम्राज्य का दूसरा प्रशासनिक महत्त्व का स्थान रहा होगा जहाँ पुष्यमित्र का प्रतिनिधि धनदेव शासन कर रहा था, जिसके लिए यह उपाधि प्रयुक्त है।
यहाँ दूसरा उपाधि है — सेनापतेः। यह उपाधि पुष्यमित्र के लिए प्रयोग की गयी है। उसे राजा न कहकर सेनापति कहा गया है। इसका यह अर्थ नहीं कि शुंगवशीय किसी शासक का सेनापति था वरन् डॉ० भगवत शरण उपाध्याय के अनुसार सेना से पुष्यमित्र का अधिक लगाव था। वह बृहद्रथ मौर्य का सेनापति था। इसी के इशारे पर मौर्य सेना ने वृहद्रथ मौर्य की हत्या कर इसको अपना शासक नियुक्त किया।
यह भी सम्भव है कि सैनिक शासन का प्रधान होने के कारण उसने अपनी पूर्व उपाधि ‘सेनापति’ ही धारण करना अधिक पसन्द किया हो न कि राजा कहलाना यही उपाधि उसके लिए साहित्य में भी मिलती है।
माविकानिमित्र में भी उसकी उपाधि सेनापति ही दी गयी है। बहुत बाद की कृतियों यथा बाणभट्ट के हर्षचरित तथा पुराणों में भी इसको इसी उपाधि से सम्बोधित किया गया है। श्री शंकर पाण्डुरंग और विल्सन ने सेनापति विरुद के प्रयोग से यह निष्कर्ष निकाला है कि पुष्यमित्र कभी राजा था ही नहीं। उसका राजत्व कोरी कल्पना के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता। किन्तु इस विचार को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
यहाँ पुष्यमित्र से छठा पिता फल्गुदेव तथा माता कौशिकी के पुत्र धर्मराज धनदेव का उल्लेख है। इससे ज्ञात होता है कि इस वंश में धनदेव नामक एक राजा ने शासन किया था। पुराणों के अनुसार शुगवंश में पुष्यमित्र से लेकर दस शासकों ने शासन किया। पर इनकी तालिका में धनदेव का उल्लेख नहीं मिलता। साथ ही इस अभिलेख में धनदेव की उपाधि ‘कौशलाधिपेन’ कोशल का शासक होने से उसके कौशल के माण्डलिक शासक होने की सम्भावना की जा सकती है।
किन्तु यहाँ उल्लिखित ‘पुष्यमित्रस्य ष्ठेन’ बड़ा ही महत्त्वपूर्ण और दिवादास्पद स्थिति उत्पन्न करता है। इस समास से यह सन्दिग्ध है कि यह पुष्यमित्र का छठा लड़का था या उसकी छठी पीढ़ी का शासक।
रत्नाकर, डॉ० बनर्जी, शास्त्री तथा डॉ० काशी प्रसाद जायसवाल के अनुसार यह पुष्यमित्र का छठा लड़का था क्योंकि जहाँ पंचमी का प्रयोग पीढ़ी को बताने के लिए किया जाता है वही षष्ठी का प्रयोग लड़के के क्रम निर्धारण के लिए किया जाता है।
इसकी पुष्टि में उन्होंने स्मृतियों का उदाहरण लिया है कि सपिण्ड के सम्बन्ध में वंशक्रम निर्धारण के लिए पंचमी का प्रयोग किया गया है।
किन्तु एन० जी० मजुमदार ने रघुवंश में प्रयुक्त ‘पञ्चमम् तक्षकस्य’ के उद्धरण पर कहा है कि पांचवी संतान के लिए पंचमी का प्रयोग किया गया है। अतः षष्ठी का प्रयोग पीढ़ी को व्यक्त करने के लिए किया गया है।
परन्तु डॉ० जायसवाल ने मल्लिनाथ की टीका के आधार पर मजुमदार के तर्क के विरोध में प्रतिस्थापित किया कि यहाँ ‘षष्ठे’ से अभिप्राय छठे पुत्र से है। वायुपुराण के अनुसार पुष्यमित्र के आठ पुत्र थे।
निष्कर्ष
इस तरह धनदेव का अयोध्या अभिलेख शुंगकालीन इतिहास पर प्रकाश डालनेवाला एक प्रमुख ऐतिहासिक स्रोत है।