अभिलेख

गौतमीपुत्र शातकर्णि का नासिक गुहा अभिलेख ( १८वाँ वर्ष )

भूमिका गौतमीपुत्र शातकर्णि का नासिक गुहा अभिलेख महाराष्ट्र के नासिक जनपद के निकट स्थित पाण्डुलेण नामक जो लयण-शृंखला ( गुहा-शृंखला ) है उसे सातवाहन और पश्चिमी क्षत्रपों ने द्वारा उत्कीर्ण कराये थे। उसी श्रृंखला के लयण ३ के बरामदे के पूर्वी दीवार पर छत के निकट ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में यह लेख अंकित है। संक्षिप्त परिचय नाम :- गौतमीपुत्र शातकर्णि का नासिक गुहा अभिलेख ( Nasik Cave Inscription of Gautmiputra Satkarni ) नासिक :- नासिक, महाराष्ट्र के गुहा संख्या – ३ के दीवार पर बरामदे के पूर्वी भाग पर भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- गौतमीपुत्र शातकर्णि का राज्यवर्ष १८ ( या १०६ से १३० ई० ) विषय :- बौद्धों को भूमिदान से सम्बन्धित लेख गौतमीपुत्र शातकर्णि का नासिक गुहा अभिलेख : मूलपाठ १. सि [ धि ] [ ॥ ] सेनाये [ वे ] जयं [ ति ] ये विजय-खधावारा [ गो ] वधनस बेनाकटक-स्वामि गोतमि-पुतो सिरि-सदकर्णि २. आनपयति गोवधने अमच वि [ ण्हु ] पालितं [ । ] गामे अपर-कखडि- [ ये ] [ य ] खेतं अजकालकियं उसभसदातेन भूतं निवतन- ३. सतानि बे २०० एत अम्ह-खेत निवरण-सतानि बे २०० इमेस पवजितान तेकिरसिण वितराम [ । ] एतस चस खेतस परिहार ४. वितराम अपावेसं अनोमस अलोण-खा [ दकं ] अरठसविनयिकं सवजातपारिहारिक च [ । ] ए [ ते ] हि नं परिहारेहि परिह [ र ] हि [ । ] ५. एते चस खेत-परिहा [ रे ] च एथ निबधापेहि [ । ] अवियेन आणतं [ । ] अमचेन सिवगुतेन छतो [ । ] महासामियोहि उपरखितो [ । ] ६. दता पटिका सवछरे १० ( + ) ८ वास पखे २ दिवसे १ [ । ] तापसेन कटा [ ॥ ] हिन्दी अनुवाद सिद्धम्। विजयमान१ सेना के गोवर्धन [ आहार ( जिले ) ] के बेनकट२ ( स्थित ) स्कन्धावार३ [ से ] स्वामी४ गौतमीपुत्र शातकर्णि अमात्य विष्णुपालित को आदेश करते हैं — अपर-कखड़ ( अथवा अपरक खड़ ) ग्राम में पूर्वकाल में ( अजकालकिय-अद्यतन समय ) उषवदात ( ऋषभदत्त ) के अधिकार में जो २०० ( दो सौ ) निवर्तन भूमि थी, उस दो सौ निवर्तन भूमि को मैं त्रिरश्मि [ पर्वत स्थित लयण निवासी ] प्रवज्जितों ( बौद्ध भिक्षुओं ) को प्रदान करता हूँ। इस भूमि के साथ यह परिहार ( क्षेत्र सम्बन्धी राज्याधिकार-विशेष से मुक्ति ) भी प्रदान करता हूँ। [ उस भूमि में कोई राजकर्मचारी ] प्रवेश नहीं करेगा; उसमें किसी प्रकार की बाधा नहीं डालेगा; [ उस क्षेत्र से प्राप्त होनेवाले ] लवण-खनिज [ पर अधिकार नहीं जतायेगा ]; उस पर किसी प्रकार के प्रशासनिक नियन्त्रण का दावा नहीं करेगा; तथा उस [ भूमि पर अन्य ] सब प्रकार के परिहार लागू होंगे। [ मेरे द्वारा दिये गये इन ] परिहारों का आप भी परिहार करें ( अर्थात् इन परिहारों को आप अपने पर लागू समझें )। इस क्षेत्र [ के दान ] तथा इन परिहारों [ के प्रमाण स्वरूप ] यह निबन्धन किया गया [ इसका ] आदेश मौखिक दिया गया था; उसे अमात्य शिवगुप्त ने अंकित किया। महा-स्वामी ( राजा ? ) ने उसे देख ( उपलक्ष ) लिया। यह पट्टिका संवत्सर १८ के वर्षा ऋतु के द्वितीय पक्ष के प्रथम दिवस को दी गयी। तापसेन ने इसे उत्कीर्ण किया। सेनार्ट ने वेजन्तिये को नगर नाम अनुमान कर उसकी पहचान उत्तरी कनारा स्थित बनवासी से की है। किन्तु यहाँ, ‘वैजयन्ती की सेना’ के उल्लेख का कोई तुक नहीं है। जैसा कि दिनेशचन्द्र सरकार का मत है, यह सेना के लिए सामान्य विशेषण मात्र है। यहाँ इससे किसी अभियान में विजय प्राप्त कर लौटी सेना से अभिप्राय है। यह स्थान सम्भवतः वेणच नदी के तट पर रहा होगा जो नासिक क्षेत्र में ही होगा। स्कन्धावार सैनिक छावनी को कहते हैं। यह अनुवाद सामान्य भिन्नता के साथ बुह्लर के निकट है। पर दिनेशचन्द्र सरकार ‘बेनकट-स्वामि’ को एक पद मानते हैं; और उसे सापेक्ष्य समास बनाकर the lord now residing at Benkataka का भाव ग्रहण करते हैं। उनकी धारणा है कि अभिलेखों में ‘स्वामि’ विरुद मातृनाम के बाद और राजा के नाम के पूर्व आता है। अतः यहाँ यह शातकर्णि का विरुद नहीं हो सकता। ऐसा वहीं है जहाँ ‘राजा’ और ‘स्वामी’ दोनों शब्द हैं वहाँ ‘राजा’ शब्द मातृनाम से पूर्व और ‘स्वामी’ मातृनाम के बाद है। किन्तु जहाँ केवल एक ही विरुद ‘राजा’ है, वहाँ वह सदैव अभिलेखों और सिक्कों में मातृनाम के पूर्व प्रयुक्त हुआ है। निकटतम उदाहरण नासिक से ही प्राप्त शातकर्णि का ही वर्ष २४ वाला लेख है। उसमें ‘रजो गोतमी पुतस सातकनिस’ है। ‘स्वामी’ और ‘राजा’ परस्पर पर्याय हैं। अतः प्रस्तुत अभिलेख में ‘रजो’ का स्थान ‘स्वामी’ ने लिया गया है। गौतमीपुत्र शातकर्णि का नासिक गुहालेख : विश्लेषण यह अभिलेख सातवाहन नरेश गौतमीपुत्र शातकर्णि द्वारा त्रिरश्मि पर्वत ( नासिक के निकट स्थित पर्वत ) कदाचित् वही पर्वत, जिसमें उत्खनित गुफा में यह लेख अंकित है, के निवासी बौद्ध भिक्षुओं को दान दी गयी भूमि का घोषणापत्र है। सामान्यतः इस प्रकार के दानों की घोषणा दान-पत्र के रूप में होती है; पर यहाँ यह भूमि-स्थित प्रदेश के राजकर्मचारी के नाम आदेश पत्र के रूप में है। यह इस अभिलेख की विशिष्टता है। नाणेघाट अभिलेख को अब तक सातवाहन अभिलेख माना जाता रहा है। उसके आधार पर सातवाहनों को ब्राह्मण तथा वैदिक धर्मावलम्बी कहा जाता है। यहाँ हम उस वंश के राजा को बौद्धों को दान देते हुए देखते हैं। प्रशासनिक दृष्टि से इस लेख का विशेष महत्त्व है। इससे भूमि पर राज्य के अधिकारों पर प्रकाश पड़ता है। इसके साथ ही आदेशों के कार्यान्वयन की विधि का भी आभास मिलता है। प्रस्तुत अभिलेख महाराष्ट्र के नासिक स्थित गुफा संख्या ३ के बरामदे के पूर्वी दीवार की छत के निकट प्राकृत भाषा तथा ब्राह्मी लिपि में अंकित है। यह नासिक क्षेत्र में स्थित गोवर्धन जिले के वेनाकटक स्थित स्कंधावार से स्वामी गौतमीपुत्र श्रीशातकर्णी के आमात्य विष्णुपालित को सम्बोधित है। इसमें एक भूमिदान का उल्लेख है जो बौद्ध भिक्षुओं को प्रदान किया गया है। यह विशिष्टता है कि सातवाहन नरेश वैदिक धर्मानुयायी थे। पर यहाँ बौद्ध धर्म को उनके द्वारा दान देना उनकी सहिष्णु धार्मिक नीति का परिचायक है। राजनीतिक दृष्टि से भी यह अभिलेख अपनी विशेषता रखता है। इससे कुछ प्रमुख तथ्य ज्ञात होते हैं :-

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नानाघाट गुहा मूर्ति परिचयपट्ट

भूमिका नानाघाट गुहा मूर्ति परिचयपट्ट महाराष्ट्र के पुणे जनपद के में नाणेघाट ( = नानाघाट ) नामक दर्रे से प्राप्त हुआ है। इस घाट में स्थित एक लयण की भित्ति पर क्रम से कुछ आकृतियाँ उत्कीर्ण थीं जो अब नष्ट हो गयी हैं। इन आकृतियों के ऊपर प्रत्येक आकृति का नाम प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में अंकित है। संक्षिप्त परिचय नाम :- नानाघाट गुहा मूर्ति परिचयपट्ट या नानाघाट लयण मूर्ति परिचयपट्ट  ( Nanaghat cave idol plaque ) स्थान :- नाणेघाट या नानाघाट, पुणे जनपद, महाराष्ट्र भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- सातवाहनकाल विषय :- मूर्तियों का परिचय नानाघाट गुहा मूर्ति परिचयपट्ट : मूलपाठ प्रथम राया सिमुक सातवाह— नो सिरिमातो [ । ] द्वितीय देवि नायनिकाय रञो च सिरि-सातकनिनो [ । ] तृतीय कुमारो भा— य१ ……….. [ । ] चतुर्थ महारठि त्रनकयिरो [ । ] पंचम कुमरो हुकसिरि [ । ] षष्ठम् कुमारो सातवाहनो [ । ] हिन्दी अनुवाद प्रथम राजा सिमुक सातवाहन श्रीमत् द्वितीय देवी नागनिका तथा राजा श्री सातकर्णि तृतीय कुमार भाय …… १ चतुर्थ महारठी त्रणकयिर पंचम कुमार हकुश्री षष्ठम् कुमार सातवाहन नानाघाट गुहा मूर्ति परिचयपट्ट इन चित्र-पट्टों में अपने-आप ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे इनमें उल्लिखित व्यक्तियों के बीच किसी प्रकार के पारिवारिक और पारस्परिक सम्बन्ध की पुष्टि हो सके। परन्तु समझा जाता है कि ये सभी एक ही परिवार के व्यक्ति हैं। द्वितीय मूर्ति-परिचय में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग हुआ है। इससे अनुमान किया गया है कि वह परिचय उस राज-दम्पत्ति का है, जिसके काल में ये चित्र उत्कीर्ण किये गये थे; अतः यह चित्र राजा सातकर्णि और उसकी रानी नागनिका का समझा जाता है। द्वितीय परिचयपट्ट पहचान के आधार पर अनुमान किया जाता है कि पहला चित्र राजा सातकर्णि के पिता का होगा और इस प्रकार सिमुक सातवाहन को सातकर्णि का पिता समझा जाता है। इसी क्रम में यह भी समझा जाता है कि चौथा चित्र रानी के पिता का होगा अर्थात् महारठी त्रणकयिर रानी नागनिका के पिता थे। शेष अन्य चित्र राजकुमारों अर्थात् सातकर्णि और नयनिका के पुत्रों के अनुमान किये जाते हैं। नासिक गुहा अभिलेख : सातवाहन नरेश कृष्ण नागानिका का नानाघाट अभिलेख

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नागानिका का नानाघाट अभिलेख

भूमिका नागानिका का नानाघाट अभिलेख पुणे से लगभग १२१ किलोमीटर उत्तर और मुम्बई से पूर्व दिशा में लगभग १६३ किलोमीटर की दूरी पर पश्चिमी घाट में स्थित नानाघाट या नाणेघाट दर्रे ( Naneghat pass ) की दोनों दीवारों पर अंकित है। यह ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में अंकित है। नागानिका का नानाघाट अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- नागानिका का नानाघाट अभिलेख या नागनिका का नाणेघाट अभिलेख ( Nanaghat or Naneghat Inscription of Naganika ) स्थान :- नानाघाट, पुणे जनपद, महाराष्ट्र भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- प्रथम शताब्दी ई०पू० का उत्तरार्ध विषय :- रानी नागानिका द्वारा विविध यज्ञों का विवरण, तत्कालीन राजनीतिक-धार्मिक-आर्थिक अवस्था का विवरण नागानिका का नानाघाट अभिलेख : मूलपाठ [ बायीं दीवार पर ] १. [ॐ] (सिधं) नमो प्रजापति]१ नो धंमस नमो ईदस नो संकंसन-वासुदेवान चंद-सूरान२ [महि] मा [व] तानं चतुनं चं लोकपालानं यम वरुन-कुबेर-वासवानं नमो कुमारवरस [ ॥ ] [वेदि]३ सिरिस रञो २. …. [वी] रस सूरस अ-प्रतिहत-चकस दखि [ नप ] ठ-पतिनो ….४ ३. [मा] …… [बाला] य५ महारठिनो अंगिय-कुल-वधनस सगर गिरिवर-वल [ या ] य पथविय पथम वीरस वस य व अलह वंतठ ? …… सलसु महतो मह ….. ४. सिरिस …… ६ भारिया [य] [;] देवस पुतदस वरदस कामदस धनदस [वेदि] सिरि मातु [य] सतिनो सिरिमतस च मातु[य] सोम [;]…… ५. वरिय …….  [ना] गवर-दयिनिय मासोपवासिनिय गहतापसाय चरित-ब्रम्हचरियाय दिख-व्रत यंञ-सुंडाय यञा हुता धूपन-सुगंधा य निय ……. ६. रायस ……….७ [य]ञेहि विठं [।] वनो अगाधेय यंत्रो द[ख]ना दिना गावो बारस १० [+] २ असो च १[ । ] अनारभनियो यंञो दखिना धेतु …… ७. दखिनायो दिना गावो १००० [+] १०० हथी १० ….. ८. ……. स ससतरय [वा]सलठि २०० [+] ८० [+] ६ कुभियो रूपामयियो १० [+] ७ भि ….. ९. रिको यंञो दखिनायो दिना गावो १००००० [+] १००० असा १००० पस [पको] १०. ……. १० [+] २ गमवरो १ दखिना काहापना २०००० [+] ४००० [+] ४०० पसपको काहापाना ६०००।८ राज— [सूयो यंत्रो] सकट यह अंश स्पष्ट नहीं है। कुछ लोगों की धारणा है कि बुहर के समय में ये अक्षर दिखाई पड़ते थे।१ बुह्लर ने चन्द-सूतांन पढ़ा है पर इस पाठ की यहाँ कोई संगति नहीं है।२ कृष्णशास्त्री के खुद पढ़ा है किन्तु दिनेशचन्द्र सरकार का कहना है कि वेदि पाठ स्पष्ट है।३ दिनेशचन्द्र सरकार ने ‘रजो सिमुक सातवाहन सुन्हाय’ द्वारा इस अभाव की पूर्ति का सुझाव दिया है।४ कुछ लोग यहाँ कललाय पाठ का अनुमान करते हैं। उनके इस अनुमान का आधार वे सिक्के हैं जिन पर यह नाम मिलता है।५ यहाँ सातकणि-सिरिस अथवा सिरि सातकणिस होने की कल्पना की जाती है।६ दिनेशचन्द्र सरकार ने यहाँ राय सतकणिननासह के होने का अनुमान किया है।७ बुह्लर ने इसे एक की संख्या माना है। किन्तु अन्यत्र लेख में इसका प्रयोग विराम के लिए हुआ है। यहाँ भी यह विराम ही है।८ [ दाहिनी दीवार पर ] ११. धंञगिरि-तंस-पयुतं १ सपटो १ असो १ अस-रथो १ गावीनं १०० [ । ] असमेधो यंञो बितियो [यि] ठो दखिनायो [दि] ना असो रूपालं [का] रो १ सुवंन …. नि १०[+]२ दखिना दिना काहापना १०००० [+] ४००० गामो १ [ हठि ] ….. दखि]ना दि[ना] १२. गावो सकटं धंञगिरि-तस पयुतं १ [ । ] वायो यंञा १०[+]७ [ धेनु ?] …. वाय सतरस १३. …… १०[+]७ अच ….. न …… लय पसपको दि- [नो] …… [दखि] ना दिना सु ….. पीनि १० (+) ३ अ ( ? )सो रूपा [लं]कारो १ दखिना काहाप[ना] १०००० २ १४. गावो २०००० [।] [भगल]-दसरतो यंञो यि[ठो] [दखिना ] [दि]ना [गावो] १००००। गर्गतिरतो यञो यिठो [दखिना] पसपका पटा ३००। गवामयनं यंञो यिठो [दखिना दिना] १०००[+]१००। गावो १०००[+]१०० (?) पसपको काहापना पटा १०० [।] अतुयामो यंञो ….. १५. ……… [ग] वामयनं य[ञो] दखिना दिना गावो १००० [+]१००। अंगिरस [  ] मयनं यंञो यिठो [द]खिना गावो १०००[+]१००। त …… [दखिना दि]ना गावो १०००[+]१००। सतातिरतं यंञो ……… १००[।] [यं] ञो दखिना ग[ावो] १०००[+]१०० [।] अंगिरस[ति]रतो यंञो यिठो [दखि] ना गा[ वो ] …… [।]….. १६. …. [गा] वो १०००[+]२ [।] छन्दोमप[व]मा [नतिरत] दखिना गावो १०००। अं[गि]रसतिर] तो यं[ञो] [यि]ठो द[खिना] [।] रतो यिठो यंञो दखिना दिना [।] तो यंञो यिठो दखिना [।] यञो यिठो दखिना दिना गावो १०००। १७. …… न स सय …… [दखि]ना दिना गावो त ……. [।] [अं]  गि[रसा] मयनं छवस [दखि] ना दिना गाव १०००……….[।] ….. [दखिना] दिना गावो १०००। तेरस अ …….. [।] १८. …… [।] तेरसरतो स ….. छ ……. [आ]ग-दखिना दिना गावो …… [।] दसरतो म [दि]ना गावो १००००। उ …….. १००००| द …… १९. …… [ यं ] ञो दखिना दि[ना] …… २०. ……. [द]खिना दिना …… हिन्दी अनुवाद ॐ अथवा सिद्धम्। [प्रजापति को नमस्कार]; धर्म को [नमस्कार]; इन्द्र को नमस्कार: संकर्षण-वासुदेव, चन्द्र-सूर्य, महिम, चतुर्दिक् लोकपाल, यम, वरुण, कुबेर, आसव आदि को नमस्कार; कार्तिकेय को नमस्कार। राजा वेदिश्री [ के…… ] वीर, शूर, अप्रतिहतचक्र, दक्षिणापति …. [की बेटी], महारठी, अंगिय-कुल-वर्धन, सागर और गिरिवर (हिमालय) से घिरी पृथ्वी (भारतवर्ष)९ के प्रथम वीर श्री …… की भार्या, देव, पुत्रद, वरद, कामद, धनद वेदश्री की माता और श्रीमद् साति की भी माता; जो नागवरदायिन्य (?), मास भर उपवसवास करनेवाली (मासोपवासिनी), घर में तपस्वी की तरह रहनेवाली (गृह-तापस्या), ब्रह्मचारिणी का जीवन व्यतीत करनेवाली (चरितब्रह्मचर्या), दीर्घ व्रत, यज्ञ, शौण्ड करनेवाली है। [उन्होंने] धूप सुगन्ध से [युक्त] अनेक यज्ञ किये (?)। …….. रायस (?) जो यज्ञ किये उनकी सफलता के लिए [जो] वर्ण१० (दान-दक्षिणा) [दिया गया उसका यह विवरण है]- दिनेशचन्द्र सरकार की धारणा है कि यहाँ भूलोक-सम्बन्धी बौद्ध कल्पना प्रतिध्वनित है, जिसके अनुसार पृथ्वी, समुद्र और चक्रवाल पर्वतों से घिरी है। किन्तु यहाँ तात्पर्य भारतवर्ष से हैं, यह गिरिवर शब्द से स्पष्ट है जो हिमालय का पर्याय है।९ वर्ण शब्द को लोगों ने वर्णन अथवा विवरण के अर्थ में लिया है; किन्तु दान-दक्षिणा के लिए प्रयुक्त होनेवाला यह एक सामान्य शब्द है।१० अग्नेय यज्ञ दक्षिणा दिया १२ गाय और एक घोड़ा। अनालम्भणीय यज्ञ दक्षिणा …… [यज्ञ] दक्षिणा दिया ११०० गाय, १० हाथी ….. २८९ बाँस की लाठी (वास-लठी, वंश-यष्टि); चाँदी से भरा हुआ कलश १७; ….. । ……. रिक यज्ञ-दक्षिणा दिया गया १०००१; अश्व १०००; पसपक (प्रसर्पक)११ …….. १२; ग्रामवर १; दक्षिणा २४४०० कार्षापणोच प्रसर्पक ६००० कार्षापण। राजसूय यज्ञ …… अन्नकूट (धान्य- गिरि) से लगा शकट (गाड़ी) १; सपट (सत्पट्ट ?) १; अश्व १; अश्वरथ १; गाय १००। अश्वमेध

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नासिक गुहा अभिलेख : सातवाहन नरेश कृष्ण

भूमिका कृष्ण का नासिक गुहा अभिलेख महाराष्ट्र के नासिक जनपद में स्थित एक लयण ( गुफा ) के दाहिनी ओर की खिड़की के ऊपर प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में अंकित है। नासिक में एक पहाड़ी है जिसमें लयणों ( गुफाओं ) की एक शृंखला है जिसको पाण्डुलेण कहा जाता है। संक्षिप्त परिचय नाम :- कृष्ण का नासिक गुफा अभिलेख या कृष्ण का नासिक लयण अभिलेख स्थान :- महाराष्ट्र प्रांत में गोदावरी नदी तट पर स्थित नासिक जनपद में भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- प्रथम शताब्दी ई०पू० का उत्तरार्ध, कन्ह या कृष्ण का शासनकाल विषय :- श्रमणों के लिए लयण बनवाने का विवरण कृष्ण का नासिक गुहा अभिलेख : मूलपाठ १. सादवाहन-कु [ ले ] कन्हे राजनि नासिककेन २. समणेन महामातेण लेणं कारितं [ । ] हिन्दी अनुवाद सातवाहन कुल के कृष्ण राजा [ के शासन काल में ] नासिक नगर स्थित श्रमणों के महामात्र [ का बनवाया हुआ ] लयण। कृष्ण का नासिक लयण अभिलेख : विश्लेषण इस अभिलेख में सातवाहन कुल के राजा कृष्ण ( कन्ह ) का उल्लेख है। नाणेघाट से प्राप्त अभिलेख (अभिलेख ३६) में सिमुक सातवाहन का उल्लेख हुआ है। पुराणों में सिमुक और कृष्ण दोनों नामों का उल्लेख आन्ध्र अथवा आन्ध्र भृत्य कहे जानेवाले शासकों के रूप में हुआ है। इससे प्रकट होता है कि अभिलेखों में जिसे सातवाहन कहा गया है, उसे ही पुराण ने आन्ध्र अथवा आन्ध्र नृत्य के नाम से पुकारा है। पुराणों के अनुसार कृष्ण सिमुक का भाई और उसका उत्तराधिकारी था और उसने १८ वर्ष तक शासन किया था। बुहर के मतानुसार यह अभिलेख ई०पू० दूसरी शती के आरम्भ काल ( अन्तिम मौर्य अथवा प्रारम्भिक शुंगकाल ) का है। पर उनका यह मत अनेक विद्वानों को ग्राह्य नहीं है। रामप्रसाद चन्दा ने नाणेघाट के अभिलेखों के अक्षरों का विवेचन करते हुए बताया है कि वे अभिलेख इस काल के बहुत बाद के हैं। उस अभिलेख में जिस सिमुक सातवाहन का उल्लेख है वह कृष्ण का भाई और पूर्ववर्ती था। अतः यह अभिलेख उससे पूर्व का नहीं हो सकता। दिनेशचन्द्र सरकार ने इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि स्वयं इस अभिलेख के कुछ अक्षर कोणात्मक ( angular ) है, जो इस बात की ओर संकेत करते हैं कि यह अभिलेख ई०पू० प्रथम शती के उत्तरार्ध से पूर्व का नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त यह भी द्रष्टव्य है कि जिस लयण पर यह अभिलेख अंकित है, उसके सम्बन्ध में कला-मर्मज्ञों का मत है कि वह ई०पू० प्रथम शती के उत्तरार्ध का होगा। इस प्रकार इस लेख के आधार पर सातवाहनों को ई०पू० दूसरी शती में नहीं रखा जा सकता। उनका समय ई० पू० प्रथम शती के उत्तरार्ध में ही रखना होगा। इतिहासकारों के अनुसार सातवाहन नरेश शिमुक या सुशर्मा का शासनकाल ६० ई०पू० से ३७ ई०पू० माना गया है। कान्ह ( कृष्ण ) शिमुक का अनुज था। कान्ह शिमुक के बाद शासक बना और उसका शासन १८ वर्ष रहा। इस तरह कृष्ण का शासनकाल ३७/३६ ई०पू० से लेकर १९/१८ ई०पू० तक माना गया है। अतः यह अभिलेख पहली शताब्दी ई०पू० के उत्तरार्ध का है।

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आरा अभिलेख

भूमिका कनिष्क का आरा अभिलेख पाकिस्तान के कटक से कुछ दूरी पर आरा नामक नाला के पास से प्राप्त हुआ है। अटक से दक्षिण-पश्चिम में जहाँ पर सिंधु नदी पश्चिम की ओर मुड़ती है वहाँ बाघ-नीलाब ( Bagh-Nilab ) के पास आरा नामक नाला बहता है। यह प्राकृत भाषा और खरोष्ठी लिपि में अंकित है। वर्तमान में यह लाहौर संग्रहालय में ( सम्भवतः ) है। आरा अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- कनिष्क तृतीय का आरा अभिलेख ( Ara Inscription of Kanishka III ) स्थान :- अटक शहर ( पाकिस्तान ) से दक्षिण-पश्चिम स्थित चाहवाग निगलाव या बाघ नीलाब के समीप स्थित आरा के एक कुएँ से प्राप्त भाषा :- प्राकृत लिपि :- खरोष्ठी समय :- कनिष्क तृतीय का शासनकाल विषय :- कनिष्क ( तृतीय ) के शासनकाल में दषव्हर द्वारा अपने माता-पिता की पूजा हेतु कुँआ बनवाने का उल्लेख आरा अभिलेख : मूलपाठ १. महरजस रजतिरजस देवपु [ त्रस ] [ क ] इ [ स ] रस २. व [ झि ] ष्प-पुत्रस कनिष्कस संवत्सरए एकचप [ रि ]— ३. [ शए ] सं० २० [ + ] २० [ + ] १ जेठस मसस दिव [ से ] १ [ । ] इ [ शे ] दिवस क्षुणम् ख [ दे ] ४. [ कुपे ] दषव्हरेन पोषपुरिअ-पुत्रण मतर पितरण पुय [ ए ] ५. [ हि ] रंणस सभर्य [ स ] [ स ] पुत्रस अनुग्रहर्थए सर्व [ सप ] ण ६. जति [ षु ] छतए१ [ ॥ ] इमो च लिखितो म [ धु ] ..[ ॥ ] स्टेन कोनो इसको हितए पढ़ते हैं। हिन्दी अनुवाद महाराज रजतिराज देवपुत्र कैसर वझेष्क ( वाशिष्क ) पुत्र कनिष्क के संवत्सर ४१ के ज्येष्ठ मास का दिन १। इस दिन ( क्षण ) को पोषपुरिय-पुत्र दशव्हर ने यह कुँआ खुदवाया अपने माता-पिता, हिरण्यनाम्नी भार्या और पुत्रसहित अपने अनुग्रह और सर्व सत्वों ( जीवों ) के जन्म-जन्म में रक्षा ( हित ) के लिए। इसे मधु …… ने लिखा । आरा अभिलेख : विश्लेषण यह कुएँ के खुदवाये जाने की एक सामान्य प्रज्ञप्ति है। कुआँ खुदवाने वाले को पोषपुरिय-पुत्र कहा गया है। इसके दो अर्थ हो सकते हैं :- प्रथम, पोषपुरिय व्यक्तिवाचक नाम हो सकता है अथवा द्वितीय, पोषपुर का तात्पर्य पुरुषपुर ( पेशावर ) से है और पुत्र का अभिप्राय ‘मूल निवासी’ से। इन दोनों अर्थों में से कौन सा अर्थ ग्राह्य है निश्चित नहीं कहा जा सकता; पर इस दूसरे अर्थ से ही प्रयोग किये जाने की सम्भावना अधिक है। लोग इसी अर्थ में ग्रहण करते हैं।२ निवासी की अभिव्यक्ति के लिए मध्यकालीन अनेक लेखों में ‘अन्वय’ शब्द का प्रयोग मिलता है, जो पुत्र का पर्याय-सा ही है। यथा-अग्रोतक निवासी के लिए अग्रोतकान्वय का प्रयोग अनेक लेखों में हुआ है।२ इस लेख का ऐतिहासिक महत्त्व वझेष्क-पुत्र कनिष्क के उल्लेख के कारण है। इसमें उल्लिखित वर्ष से स्पष्ट है कि यह कनिष्क उस कनिष्क से सर्वथा भिन्न है जिसके अभिलेख संवत् १ से २३ तक प्राप्त होते हैं। अतः इतिहासकारों ने इस कनिष्क को कनिष्क द्वितीय की संज्ञा दी थी। परन्तु अधिकतर विद्वान इसे कनिष्क तृतीय के रूप में पहचानते हैं जो उचित भी लगता है। महाराज रजतिराज देवपुत्र कैसर विरुद का प्रयोग इस अभिलेख में कनिष्क के लिए किया गया है। अतः इस प्रसंग में लोगों का ध्यान उस चीनी अनुश्रुति की ओर गया है जिसमें चीन, भारत, रोम और यू-ची के सम्राट् चार देवपुत्र कहे गये हैं। इस अनुश्रुति के सम्बन्ध में कुछ लोगों का अनुमान है कि उसका आरम्भ भारत से हुआ है। इस प्रकार उनका यह भी अनुमान है कि उनके उल्लेखों का क्रम भारत, ईरान, चीन और रोम रहा होगा। उसी क्रम से इस अभिलेख में चारों देशों के सम्राटों की उपाधि का प्रयोग किया गया है। इसमें महाराज भारतीय, रजतिराज ईरानी, देवपुत्र चीनी और कैसर रोमन उपाधि है। इस प्रकार कुछ लोगों ने इन उपाधियों में उक्त अनुश्रुति की व्याख्या देखने का प्रयत्न किया है। महाराज रजतिराज और देवपुत्र विरुदों का प्रयोग अभिलेखों में पूर्ववर्ती कुषाण-नरेशों के लिए होता रहा है। अतः उनका प्रयोग इस लेख में स्वाभाविक ही है। इस लेख में केवल नयी बात यह है कि इसमें इन उपाधियों के साथ कैसर उपाधि का भी प्रयोग है जो रोम सम्राटों की उपाधि रही है। उसका प्रयोग रोम के व्यापारिक सम्पर्कों का ही परिणाम प्रतीत होता है। इस प्रयोग को रोम सम्राटों के वैभव की अनुगूँज से प्रेरित कनिष्क को उनके समक्ष मानने का प्रयास अनुमान किया जा सकता है। किन्तु हमारी दृष्टि में इसका प्रयोग अभिलेखों में प्रयुक्त षाहि विरुद के पर्याय के रूप में ही किया गया है।

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हुविष्क का मथुरा अभिलेख

भूमिका हुविष्क का मथुरा अभिलेख संस्कृत प्रभावित प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में है। यह लेख मथुरा जनपद में मथुरी गोवर्धन जानेवाले मार्ग पर स्थित चौरासी जैन-मन्दिर के पास एक कुएँ एक स्तम्भ मिला था। अब यह मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित है। इसी स्तम्भ पर यह अभिलेख अंकित है। संक्षिप्त परिचय नाम :- हुविष्क का मथुरा अभिलेख ( Mathura Inscription of Huvishka ) या हुविष्क का मथुरा प्रस्तर-अभिलेख ( Mathura Stone Inscription of Huvishka ) स्थान :- मथुरा जनपद, उत्तर प्रदेश भाषा :- प्राकृत ( संस्कृत प्रभावित ) लिपि :- ब्राह्मी समय :- हुविष्क का शासनकाल विषय : धार्मिक पुण्य के अर्जनार्थ अक्षयनीवि का दान। हुविष्क का मथुरा अभिलेख : मूलपाठ १. सिद्धम् [ ॥ ] संवत्सरे २० [ + ] ८ गुर्प्पिये दिवसे १ [ । ] अयं पुण्य— २. शाला प्राचिनीकन सरुकमान-पुत्रेण खरासले— ३. र-पतिन वकन पतिना अक्षय-नीवि दिन्ना [ । ] ततो वृ [ द्धि ] ४. तो मासानुमासं शुद्धस्य चतुदिशि पुण्य-शा [ ला ]— ५. यं ब्राह्मण-शतं परिविदितव्यं [ । ] दिवसे दिव [ से ] ६. च पुण्य-शालाये द्वार-मुले धारिये साद्यं-सक्तनां आ— ७. ढका ३ लवण प्रस्थो १ शक्त प्रस्थो १ हरित-कलापक ८. घटक [ । ] ३ मल्लक [ ा ] ५ [ । ] एतं अनाधानां कृतेन दा [ तव्य ] ९. वभुक्षितन पिबसितनं [ । ] च चत्र पुण्य तं देवपुत्रस्य १०. षाहिस्य पुविष्कस्य [ । ] येषा च देवपुत्रो प्रियः तेषामणि पुण्य ११. भवतु [ । ] सर्वायि च पृथिवीये पुण्य भवतु [ । ] अक्षय-निवि दिन्ना १२. ……… [ रा ] क-क्षेणीये पुराण-शत् ५०० [ + ] ५० समितकर श्रेणी— १३. [ ये च ] पुराण-शत ५०० [ + ] ५० [ ॥ ] हिन्दी अनुवाद संवत् २८ के गुर्प्पिय१ [ मास ] का दिवस १। इस पुण्यशाला को खरासलेरपति, बकनपति सरुकमान के पुत्र प्राचिनीकन ने अक्षयनीवि२ दिया। उसकी वृद्धि ( सूद ) से प्रत्येक मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को पुण्यशाला में सौ ब्राह्मणों को भोजन कराया जाय। [ और ] प्रतिदिन पुण्यशाला के सामने ( द्वार-मूल ) तीन आढ़क ताजा सत्तू, एक प्रस्थ नमक, एक प्रस्थ शुक्त, ताजा कलापक ( मूली? ), तीन घटक ( घड़े ) और पाँच मल्लक ( थाली ) रखे जायँ। इन्हें अनाथों तथा भूखे-प्यासों को दिया जाय। इससे जो पुण्य हो वह देवपुत्र षाहि पुविष्क का है। इसका पुण्य उसे हो जो देवपुत्र के प्रिय हैं। इसका पुण्य सारी पृथ्वी के लोगों को हो। [ इस ] अक्षय-नीवि [ के रूप में ]— राक श्रेणी को ५५० पुराण और समितकर श्रेणी को ५५० पुराण [ दिया गया ]॥ यह यूनानी ( मकदूनी, मेसिडोनियन ) मास का नाम है जो मोटे रूप में भारतीय भाद्रपद-आश्विन में पड़ता था।१ अक्षयनीवि ऐसी दान व्यवस्था को कहते हैं जिसमें मूल-धन में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता; केवल उसके सूद का ही उपयोग हो सकता है।२ हुविष्क का मथुरा अभिलेख : विश्लेषण अब तक इस अभिलेख के पंक्ति १० में हुविष्क पढ़ा गया था और उसका महत्त्व इस दृष्टि से माना जाता रहा है कि वहाँ हुविष्क का अद्यतन लेख है। किन्तु इस लेख में जो नाम है उसका उल्लेख मात्र देवपुत्र षाहि के रूप में हुआ है। हुविष्क के लिए महाराज सरीखे उपाधि का प्रयोग कई वर्ष पश्चात् ही उपलब्ध होता है। इस कारण अनेक विद्वानों ने अनुमान किया था कि इस अभिलेख के समय तक हुविष्क सत्तारूढ़ नहीं हुआ था। किन्तु अभी हाल ही में सरोजिनी कुलश्रेष्ठ ने इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि उत्कीर्ण लेख में नाम स्पष्ट अक्षरों में पुविष्क है हुविष्क नहीं। इस अभिलेखों को प्रकाशित करते समय स्टेन कोनो ने भी पुविष्क ही पढ़ा था और इस बात को स्पष्ट रूप से पाद-टिप्पणी में स्वीकार भी किया है। किन्तु पुविष्क अथवा विष्क नामान्त किसी अन्य नाम की जानकारी के अभाव में ही उन्होंने हुविष्क पाठ ग्रहण किया था। उसी को दिनेशचन्द्र सरकार ने भी ग्रहण किया है किन्तु वे लेख में पुविष्क होने की बात पर मौन बने रहे। इसके कारण ही इसके हुविष्क का लेख होने का भ्रम उत्पन्न गया है। इसके साथ ही कुलश्रेष्ठ ने अभिलेख में पुविष्क के लिए प्रयुक्त विरुद षाहि की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए इस तथ्य को भी उजागर किया है कि वर्ष ८४ से पूर्व कनिष्क, हुविष्क और वासुदेव के जितने भी अभिलेख हैं, उन सब में समान रूप हो मात्र ‘महाराज राजतिराज देवपुत्र’ विरुद का प्रयोग किया गया है। वर्ष ८४ के बाद के वासुदेव के जो अभिलेख हैं उसमें तथा उन मूर्तियों के आलेखों में, जिन्हें लोहिजाँ और रोजेनफील्ड ने कला-शैली के आधार पर वासुदेवोत्तर काल के होने की बात कही है और कहा है कि उन पर तिथियाँ शतसंख्या के विलोपन के साथ अंकित की गयी हैं। एक और अतिरिक्त विरुद ‘षाहि’ का प्रयोग किया गया है। अतः इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में यह लेख पर भी तिथि शत-संख्या विलुप्त [ १ ] २८ है। और उसे वासुदेव-पूर्व के काल में कदापि नहीं रखा जा सकता। यह स्वीकार करने के साथ कि यह लेख वासुदेव के काल के बाद का है, यह भी उल्लेखनीय है कि साँची से वाशिष्क का वर्ष [ १ ] २८ का जो लेख प्राप्त है उससे और सिक्कों से उसका शासक होगा सिद्ध है। ऐसी अवस्था में यह मानना कि पुविष्क अथवा हुविष्क वर्ष [ १ ] २८ में शासक रहा होगा। दुरुह कल्पना है। वास्तव में अभिलेख में पुविष्क ( हुविष्क ) का उल्लेख इस अभिलेख में इस रूप में नहीं है। उसमें उसे केवल देवपुत्र षाहि कहा गया है। यदि वह शासक होता तो उसका उल्लेख संवत्सर के प्रसंग में उसके सम्पूर्ण उपाधि सहित महाराज राजतिराज देवपुत्र षाहि पु [ हु ] विष्क के रूप में किया जाता। यही नहीं, इस अभिलेख के माध्यम से अक्षयनीवि प्रतिष्ठापित करने वाला एक शासनाधिकारी था। उसने उसका पुण्य लाभ भी पुविष्क ( हुविष्क ) को भेंट किया है; उसका उल्लेख वह मात्र देवपुत्र षाहि से करने का अविनयन कभी न करता। अतः यह अनुमान करना अनुचित न होगा कि यह पुविष्क ( हुविष्क ) मात्र कोई राज-कुलीन, सम्भवतः राजकुमार एवं वाशिष्क का भाई अथवा पुत्र रहा होगा। स्टेन कोनो की धारणा है कि अक्षयनीवि के साथ पुण्यशाला का भी दान दिया

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वाशिष्क का साँची अभिलेख

भूमिका वाशिष्क का साँची अभिलेख १८६३ ई० में फ्युहरर को साँची के ध्वंसावशेषों की साफ-सफाई कराते समय बुद्ध की एक ऐसी मूर्ति प्राप्त हुई। मूर्ति के आसन पर यह लेख ब्राह्मी लिपि में संस्कृत से प्रभावित प्राकृत भाषा में अंकित है। संक्षिप्त परिचय नाम :- वाशिष्क का साँची अभिलेख ( Sanchi Inscription of Vashishka ) स्थान :- साँची, रायसेन जनपद, मध्य प्रदेश भाषा :- प्राकृत ( संस्कृत प्रभावित ) लिपि :- ब्राह्मी समय :- वाशिष्क के शासनकाल का, कनिष्क संम्वत् २८ ( = १०६ ई० ) विषय :- बौद्धधर्म से सम्बन्धित वाशिष्क का साँची अभिलेख : मूलपाठ १. [ महाराज ] स्य रा [ जातिराजस्य [ देव ] पुत्रस्य षाहि वासिष्कस्य सं २० [ + ] ८ हे १ [ दि ५ ] [ । ] [ ए ] तस्यां पूर्वा [ यां ] भगव- २. [ तो ] ………. स्य जम्बुछाया-शैलाग्रस्य ( गृहस्य ) धर्मदेव-बिहारे प्रति [ ष्ठा ] पिता खरस्य धितर मधुरिक— ३. ……. —णं देयधर्म-परि [ त्यागेन ] …….. हिन्दी अनुवाद महाराजा रजतिराज देवपुत्र षाहि वाशिष्क के संवत् २८ के प्रथम हेमन्त१ का दिन ५। इस पूर्वकथित दिन को भगवान् [ शाक्यमुनि की प्रतिमा ] को धर्मदेव विहार में जामुन की छाया में स्थित शैलगृह ( जम्बुच्छाया शैलगृह ) में खर की दुहिता मधुरिका ने प्रतिष्ठापित किया।……… देवधर्म के परित्याग…… पूर्णिमांत मार्गशीर्ष१ विश्लेषण इस अभिलेख का महत्त्व केवल इस दृष्टि से समझा जाता रहा है कि इसमें महाराज देवपुत्र षाहि वाशिष्क का उल्लेख है और उसमें जो वर्ष २८ है वह कनिष्क ( कुषाण ) संवत् है। विद्वानों ने कनिष्क सम्वत् को शक सम्वत् ( ७८ ई०  ) माना है। अतः वाशिष्क साँची अभिलेख का समय १०६ ई० ठहरता है। मथुरा के निकट ईसापुर से एक यूपस्तम्भ प्राप्त हुआ है उस पर भी वाशिष्क के २४वें वर्ष का अभिलेख है, जिससे यह प्रकट होता है कि इससे पूर्व वह किसी समय शासक हुआ होगा। मथुरा से ही कनिष्क का २३वें वर्ष और हुविष्क का २८वें वर्ष का अभिलेख प्राप्त है। इस तरह कनिष्क प्रथम का उत्तराधिकारी वाशिष्क हुआ और उसके बाद हुविष्क शासक बना। इन्होंने क्रमशः २३ वर्ष ( ७८ – १०१ ई० ), ४ वर्ष ( १०२ – १०६ ई० ) और ३४ वर्ष ( १०६ – १४० ई० ) शासन किया। इस तरह यह अभिलेख भगवान बुद्ध की मूर्ति की स्थापना का विवरण देता है। इसको धर्मदेव नामक विहार में खर की दुहिता मधुरिका ने प्रतिष्ठापित करवाया था। कामरा अभिलेख

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कामरा अभिलेख

भूमिका वाशिष्क का कामरा अभिलेख कैम्पबेलपुर ( पाकिस्तान-पंजाब ) से ६ मील ( लगभग ९.६ किमी० ) की दूरी पर स्थित कामरा नामक ग्राम-स्थित एक बड़े टीले के तल से दस मीटर नीचे एक शिला-फलक मिला था जिस पर यह अभिलेख उत्तर-पश्चिमी प्राकृत भाषा और खरोष्ठी लिपि में अंकित है। इसकी पहली पंक्ति के आरम्भ का कुछ भाग टूटा है और पंक्ति ४ के आगे अभिलेख खण्डित है। इस अभिलेख का पाठ कई विद्वानों ने प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत पाठ वाल्टन डाबिन्स और व्रतीन्द्रनाथ मुखर्जी के पाठ पर आधारित है। कामरा अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- वाशिष्क का कामरा अभिलेख ( Kamra Inscription of Vashishka ) स्थान :- कामरा ग्राम, कैम्पबेलपुर ( वर्तमान अटक ), पंजाब; पाकिस्तान भाषा :- प्राकृत लिपि :- खरोष्ठी समय :- कुषाणवंशी शासक वाशिष्क का शासनकाल विषय :- कुषाण नरेश वाशिष्क द्वारा कनिष्क के जन्म पर कुआँ खुदवाने का उल्लेख कामरा अभिलेख : मूलपाठ १. स २० विंशतिय१ जेठ मसस तिवसे त्रातशे १० [ +३ ] [ । ] महरजस रजतिरजस म [ हतस ] २. त्रतरस जयदस दोम्रदस२ स्वशखयस३ महरजस करस कबिस [ स च ध्र- ] ३. मथितस देवपुत्र वझेष्कस गुषनस देवमानुषस४ पड़ि…..५ ४. जति कनिष्कस इशे सनमि कुये खनापिदे६ पंक्ति १ के आरम्भ के अंश की पूर्ति वाल्टन डाबिन्स ने ‘[… १+२०+२०+] (२०+२०) पतिय’ के रूप में करने का प्रयास किया है। परन्तु सर हेराल्ड बेली आरम्भ में ‘स’ का टूट अंश देखते हैं। उसके बाद केवल १ या २ चिह्न देखते हैं। उनके अनुसार पाठ स[व १०]+१०+१० कतियस मासस है।१ डबिन्स ने इसे ‘द्रम्म ब्रदस’ पढ़ा है।२ डबिन्स ने इसे ‘स्वश खलस’ पढ़ा है।३ डबिन्स ने उसे दुरमानुष पढ़ा है।४ यह ‘पढि थपन’ शब्द का अंश हो सकता है।५ डाबिन्स ने खदभि [ दनभि …] की कल्पना की है।६ हिन्दी अनुवाद वर्ष २० के ज्येष्ठ मास के १३वें दिन ! महाराज रजतिराज, महान्, त्राता, दोमात ( ? ), महाराज कारा कवि की शाखा [ में उत्पन्न ] सद्धार्मिक, देवपुत्र वझेष्क कुशाण ( खुषण ) देवमानुष ने.. …. कनिष्क के जन्म के इस क्षण कुआँ खुदवाया। कामरा अभिलेख : समीक्षा सामान्य रूप से यह अभिलेख कुषाण कालीन है और यह कूप खुदवाये जाने की विज्ञप्ति है। किन्तु इतिहास की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण है और इसमें कई बातें विचारणीय हैं। विरुद समीक्षा सर्वप्रथम पंक्ति १ और २ में उल्लिखित विरुद-समूह :- महरजस रजतिरजस महतस, त्रतरस, जयतस, दोम्रअतस (?), स्वशखस, महरजस करस कबिस सचभ्रमथितमस है। कुषाण वंशीय कुजूल कडफिसेस ने अपने सिक्कों पर अपने को ध्रमथितस अथवा सचध्रमिथितस कहा है। अनेक सिक्कों पर उसका नाम कुजूल ( कुचुल ) कारा कपस के रूप में भी मिलता है। अतः इस अभिलेख के ‘करस कबिस’ को सहजभाव से ‘कारा कपस’ के रूप में पहचाना जा सकता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि इस अभिलेख में कुजुल कारा कदफिस का उल्लेख है। महरजस रजतिरजस महतस त्रतरस जयतस दोमुअतस (?) विरुद-समूह। महरजस-रजतिरजस का सर्वप्रथम प्रयोग शक-पह्लव शासकों के सिक्कों पर हुआ है। इस विरुद को कुषाण शासकों में कुजूल कडफिसेस और विम कडफिसेस दोनों ने अपनाया था। परन्तु उनके बाद के शासकों ने इसे त्यागकर ईरानी विरुद शाहानुशाहि ( Shao nano shao ) का प्रयोग आरम्भ किया। इसी तरह महतस, त्रतरस, जयतस विरुदों का प्रयोग सर्वप्रथम भारतीय यवन शासकों ने किया था। वे इनमें से प्रायः किसी एक विरुद का ही प्रयोग अपने सिक्कों पर करते रहे; अवस्था-विशेष में हो किसी-किसी शासक ने दो विरुदों को अपनाया था। शक-पह्लव शासकों ने भी इन विरुदों को अपनाया था और वे भी इसी परम्परा का वहन करते रहे। कुषाण-शासकों ने इन विरुदों में से केवल एक त्रतरस को ग्रहण किया था। वह भी केवल विम कदफिस ने। इन सभी विरुदों का एक साथ प्रयोग अभी तक केवल एक ही अभिलेख में हुआ है; उसमें शासक का नाम अनुपलब्ध है। यह अभिलेख उत्तर प्रदेश से प्राप्त हुआ है और ये विरुद कनिष्क और उसके परवर्ती शासकों के लिए अनजाने हैं। इसलिए डॉ० परमेश्वरीलाला गुपत ने उसे विम कडफिसेस-कालीन अभिलेख अनुमानित किया है। इन विरुद-समूहों के साथ एक विरुद और भी है – दोम्रअतस इसे व्रतीन्द्रनाथ मुखर्जी ने दोमुअतस पढ़ा है। उन्होंने इसके मूल में किस संस्कृत शब्द की कल्पना की है, यह उन्होंने स्पष्ट नहीं किया है; केवल उसका अनुवाद The law of living world किया है। अहमद हसन दानी ने इस शब्द का पाठ दे (वे) म्म [क] से ग्रहण किया है और वे उसका तात्पर्य विम कडफिसेस मानते हैं। डाबिन्स ने इसे द्रम्म ब्रदस के रूप में ग्रहण किया है और उसे धर्म व्रतस्य के रूप में ग्रहण किया है। यह विरुद अब तक सर्वथा अस्पष्ट है। उपर्युक्त विश्लेषण के परिप्रेक्ष्य में स्वाभाविक अनुमान यही होगा कि समूचे विरुद-समूह का प्रयोग कारा कपिस (कुजूल कारा कदफिस) के लिए ही किया गया है। किन्तु इस अनुमान को स्वीकार्यता में कठिनाई यह है कि कर कबिस के पूर्व महरजस और पश्चात् ध्रमथितस विरुद का प्रयोग हुआ है। महरजस रजतिरजस विरुद के आरम्भिक प्रयोग के बाद फिर महरजस का प्रयोग असंगत है और पुनरुक्ति दोष है। इसी प्रकार यदि डाबिन्स का पाठ भ्रम्मब्रदस (धर्मव्रतस्य) ठीक है तो वह भी भ्रमथितस (धर्मस्थित) के भाव की ही अभिव्यक्ति है। इस प्रकार यह भी पुनरुक्ति ही है। ऐसा जान पड़ता है कि समूचे विरुद-समूह का प्रयोग यहाँ कारा-कपिस के लिए नहीं हुआ है, वरन् उसका प्रयोग पंक्ति ३ में उल्लिखित देवपुत्र वझेष्क गुषण के लिए हुआ है। और स्वशखयस महरजस करस कबिस स च प्रमथितस समग्र रूप से देवपुत्र वझेष्क गुषण के लिए विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है। स्वशखस का तात्पर्य सभी विद्वानों ने अपनी शाखा में (अपने वंश में) ग्रहण किया है। इस प्रकार अनुमान किया जाता है कि देवपुत्र वझेष्क गुषण ने अपने को कुजूल कदफिस का वंशधर घोषित किया है। गुषण शब्द का उल्लेख पंजतर और मणिक्याला अभिलेखों में हुआ है। उनके प्रसंग में स्पष्ट किया गया है कि इसका तात्पर्य कुषाण है। वझेष्क कुशाणवंशी था। यही बात उसके देवपुत्र विरुद से भी ध्वनित होता है। यह कुषाण-शासकों का विरुद था, यह उनके मथुरा से मिले अनेक अभिलेखों से ज्ञात होता है। गुषण के बाद एक विरुद का प्रयोग हुआ है जिसे डाबिन्स ने द्ररमानुष (धर्ममानुष) पढ़ा है और उससे Preserver of mankind का अर्थ लिया है और कहा

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मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख

भूमिका कुषाणवंशी शासक कनिष्क द्वितीय के शासनकाल का मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख प्राप्त हुआ है। यह प्राकृत मिश्रित संस्कृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में है। मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख स्थान :- मथुरा, उत्तर प्रदेश भाषा :- प्राकृत ( संस्कृत प्रभावित ) लिपि :- ब्राह्मी  समय :- कनिष्क द्वितीय ( १४० – १४५ ई० ) विषय :- बौद्ध मूर्ति स्थापना।   मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख : मूलपाठ १. महाराज-देवपुत्रस्य कणिष्कस्य संवत्सरे १० [ + ] ४ पौष दिवसे १० [ । ] अस्मिं दिवसे प्रवरिक ह [ स्थिस्य ] २. भर्य्य संघिला भागवतो पितहमास्य सम्यसंबुद्धस्य स्वमतस्य देवस्य पूजार्त्थ प्रतिमं प्रतिष्ठा- ३. पयित सर्व्व-दुक्ख-प्रहानार्त्थ॥ हिन्दी अनुवाद महाराज देवपुत्र कनिष्क के संवत्सर १४ के पौष मास का १०वाँ दिन। इस दिन प्रावारिक ( बौद्ध भिक्षुओं का चीवर बनानेवाला दर्जी या बेचने वाला बजाज ) हस्तिन की भार्या ( पत्नी ) संघिला भगवत पितामह सम्यक्-बुद्ध ‘स्वमत’ वाले देव की मूर्ति-पूजा के निमित्त स्थापित करती है जिससे सारे दुःखों का निवारण हो। मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख : विश्लेषण मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख सामान्य रूप से प्रतिमा प्रतिष्ठापन की घोषणा मात्र है। इस अभिलेख में अंकित वर्ष १४ और शासक के रूप में कनिष्क का नाम देख कर इसे अब तक कनिष्क प्रथम के काल का अभिलेख समझा जाता रहा है। परन्तु मूर्ति की कला और अभिलेख की लिपि के सूक्ष्म परीक्षण से यह लेख कनिष्क प्रथम के समय का नहीं ठहरता है। कनिष्क नामधारी तीन कुषाणवंशी शासक हुए :- कनिष्क प्रथम – ७८ से १०१ ई० कनिष्क द्वितीय – १४० से १४५ ई० कनिष्क तृतीय – १८० से २१० ई० इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि वर्ष २ और ९८ के बीच ( जिसे कनिष्क या कुषाण संवत् समझा जाता है ) के काल के मथुरा में काफी बड़ी संख्या में मूर्तियों का निर्माण हुआ था। इनमें से अनेक मूर्तियाँ अभिलेखयुक्त हैं। उन पर अंकित तिथि के अनुसार जोहाना लोहिजाँ द लियु ने मथुरा-कला के इतिहास को क्रमबद्ध करने की चेष्टा की है। इस प्रयास में उन्हें अनेक मूर्तियों की शैली तिथि-क्रम से मेल खाती हुई नहीं लगी; वे उनसे सर्वथा भिन्न प्रतीत हुई। उनमें उन्हें ऐसे तत्त्व दिखायी दिये जो उनसे अंकित तिथियों के बहुत बाद की मूर्तियों में पाये जाते हैं। तब उनका ध्यान दो जिन मूर्तियों की ओर विशेष रूप से गया। उन पर अंकित अभिलेखों में एक पर कनिष्क का नाम और वर्ष १५ और दूसरे पर वासुदेव का नाम और वर्ष ८६ का उल्लेख है। इन दोनों ही मूर्तियों में जो अभिलेख हैं उनमें एक ही प्रकार की शब्दावली में कहा गया है कि उन्हें संघमित्रा नाम्नी जैन भिक्षुणी की शिष्या वसुला ने प्रतिष्ठापित कराया था। तिथियों के अनुसार भिक्षुणी का ७१ वर्षों तक अस्तित्व बना रहना असाधारण लगा। इन दोनों मूर्तियों की कला-शैली का अध्ययन करने पर यह बात सामने आयी कि कनिष्क के नाम और वर्ष १५ वाली मूर्ति वासुदेव के नाम और वर्ष ८६ की मूर्ति के बाद के काल की है; उसमें जो कला-तत्त्व हैं वे बाद के हैं, पूर्ववर्ती नहीं। परवर्ती कला के लक्षण अन्य अनेक मूर्तियों के देखने से प्रकट हुए; यही बात प्रस्तुत अभिलेख की मूर्ति में भी देखने में आयी। इस प्रकार शैली की दृष्टि से परवर्तीकालीन लगनेवाली मूर्तियों पर अंकित तिथियों पर विचार कर यह बात स्पष्ट कि इन परवर्तीकालीन शैलीवाली मूर्तियों पर अंकित तिथियों की गणना १०० के बाद शत संख्या की उपेक्षा कर नये सिरे से गणना १ से आरम्भ की गयी थी। इस प्रकार कनिष्क नामांकित अनेक मूर्तियाँ प्रख्यात कनिष्क से भिन्न कनिष्क की और वासुदेव के उपरान्त काल की हैं। मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेख के लिपि-स्वरूप की ओर लिपि-विशेषज्ञों का ध्यान बहुत पहले गया था। उनकी दृष्टि में यह बात आयी थी कि इस अभिलेख के अक्षर ल, स और ह पूर्वी गुप्त-शैली के तथा प और स पश्चिमी गुप्त-शैली के हैं। इस कारण उन्होंने इसे परवर्तीकालीन होने का सन्देह प्रकट किया था और अनेक विद्वानों ने इस अभिलेख को कनिष्क तृतीय के होने की बात भी कही थी। परन्तु किसी अन्य साक्ष्य के अभाव में वर्ष संख्या के कारण अनेक लोग इसे स्वीकार करने में संकोच करते और येन-केन प्रकारेण समाधान करने की चेष्टा करते रहे हैं। कला-सम्बन्धी अन्तर के विवेचन से इस बात में अब सन्देह नहीं रहा कि यह अभिलेख वासुदेव के काल के बाद का है और इसकी तिथि में शत की संख्या का लोप है। वास्तव में यह कनिष्क सम्वत् [ १ ] १४ का अभिलेख है। अब तक कनिष्क द्वितीय की कल्पना अनुमान के सहारे कनिष्क और हुविष्क के काल में उपराजा या सहशासक के रूप में की जाती रही है। परन्तु जिस आधार पर इस प्रकार की कल्पना की जाती थी, वह आधार नयी शोधों से निर्मूल प्रमाणित हुई है। अतः मथुरा बुद्ध-मूर्ति अभिलेखकनिष्क द्वितीय का है। धार्मिक दृष्टि से इस अभिलेख में प्रयुक्त पितामह और स्वमत शब्द उल्लेखनीय हैं :— पितामह : अनेक लेखों में बुद्ध के लिए पितामह शब्द का प्रयोग हुआ है। यहाँ भी यह प्रयोग उसी प्रकार का है। स्वमत : इस शब्द के सम्बन्ध में दिनेशचन्द्र सरकार की धारणा है कि इसे वास्तव में स्वमत-विरुद्ध होना चाहिए। इसका प्रयोग कुमारगुप्त प्रथम के मानकुंवर अभिलेख१ में भी हुआ है। वहाँ बुद्ध की प्रतिमा के लिए भगवतो सम्यक् सम्बुद्धस्य स्वमताविरुद्धस्य प्रयुक्त हुआ है। वहाँ उसे स्वमत-अविरुद्ध के रूप में देखा जाता और उसका अर्थ है – वह जो अपने उपदेश के प्रति आस्थावान् हो ( One who lived according to his own teachings ) लिया जाता है। यही भाव स्वमतस्य में भी ध्वनित होता है वह अपने-आपमें पूर्ण है उसे स्वमताविरुद्ध के रूप में देखने की कल्पना करने की आवश्यकता नहीं है। [ स्वास्ति ] नमो बुद्धानं ( । ) भगवतो सम्यक्सम्बुधस्य स्व-मताविरुद्धस्य इयं प्रतिमा प्रतिष्ठापिता भिक्षु बुद्धमित्रेण।१

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मथुरा जिन-मूर्ति अभिलेख

भूमिका मथुरा जिन-मूर्ति अभिलेख कंकाली टीला ( मथुरा जनपद ) उत्तर प्रदेश से मिली है। यह लेख संस्कृत प्रभावित प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में अंकित है। वर्तमान में यह अभिलेख लखनऊ संग्रहालय में सुरक्षित है। मथुरा जिन-मूर्ति अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- मथुरा जिन-मूर्ति अभिलेख या मथुरा जैन-मूर्ति अभिलेख ( Mathura Jin-Idol Inscription ) स्थान :- कंकाली टीला, मथुरा जनपद, उत्तर प्रदेश भाषा :- प्राकृत ( संस्कृत प्रभावित ) लिपि :- ब्राह्मी समय :- कुषाणवंशी शासक वासुदेव के शासनकाल काल का। कनिष्क सम्वत् ८० ( शक सम्वत् ) अर्थात् १५८ ई०। विषय :- अधूरा लेख, जैन धर्म सम्बन्धी। मथुरा जिन-मूर्ति अभिलेख : मूलपाठ १. सिधं [ ॥ ] महरजस्य व [ ] सुदेवस्य सं ८० हमव ( हैमंत ) १ दि १० [ + ] २ [ । ] एतस पुर्वा [  ] यां सनक [ ददस ? ] २. घि [ त्र ] संघतिधिस वधुये बलस्य …….. [ ॥ ] हिन्दी अनुवाद सिद्धम्। महाराज वासुदेव के सं ८० [ के ] हेमन्त का प्रथम मास, दिन १२। इस पूर्व [ कथित दिवस को ] सनकदास की दुहिता ( पुत्री ), संघतिथि की वधू ( पत्नी ), बल की [ माता ….. ] मथुरा जैन-मूर्ति अभिलेख : विश्लेषण यह लेख अपूर्ण है। जैन प्रतिमा पर अंकित होने के कारण यह सहज ही अनुमानित किया जा सकता है कि इस अभिलेख में जैन मूर्ति के प्रतिष्ठित करने और दान की बात कही गयी होगी। ऐतिहासिक दृष्टि से इसका महत्त्व है कि इसमें तिथि का और शासक का उल्लेख है। परन्तु साथ ही यहाँ पर कुषाणवंशी शासकों के लिए प्रयुक्त विरुदों ( जैसे – महाराज रजतराज, देवपुत्र ) का प्रयोग नहीं मिलता है। यहाँ पर वासुदेव के लिए मात्र मात्र माहाराज विरुद प्रयुक्त हुआ है। धार्मिक दृष्टि से मथुरा ब्राह्मण व बौद्ध धर्म के साथ-साथ जैन धर्म का भी केंद्र था। यहीं के कंकाली टीले से ही मथुरा आयागपट्ट अभिलेख भी जैन धर्म की उन्नति दशा का द्योतक है।

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