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धनदेव का अयोध्या अभिलेख

भूमिका अयोध्या से पुष्यमित्र शुंग के राज्यपाल धनदेव का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है। इससे पुष्यमित्र द्वारा अश्वमेध यज्ञ किये जाने की जानकारी मिलती है। अयोध्या अभिलेख : संक्षिप्त विवरण नाम – धनदेव का अयोध्या प्रस्तर अभिलेख ( Ayodhya Stone Inscription of Dhandeva ) स्थान – अयोध्या जनपद उत्तर प्रदेश। भाषा – संस्कृत ( अशुद्ध प्राकृत प्रभावित )। लिपि – ब्राह्मी। समय – पुष्यमित्र शुंग का शासनकाल ( द्वितीय शताब्दी ई०पू० ) विषय – पिता फल्गुदेय की मृत्यु पर पुत्र धनदेव द्वारा स्मारक की स्थापना। जिससे पुष्यमित्र के अश्वमेध की जानकारी मिलती है। मूल पाठ १ – कोलाधिपेन द्विरश्वजिनः सेनापतेः१ पुष्यमित्रस्य पष्ठेन२ कोशिकीपुत्रेण धन [ देवेन ]३ २ – धर्मराज्ञा४ पितुः फल्गुदेवस्य केतन५ कारित [ ॥ ] पुष्यमित्र के अश्वमेध यज्ञ का विवरण पतंजलि कृति महाभाष्य और कालिदास कृति मालिविकाग्निमित्र में भी हुआ है परन्तु यहाँ पर भी इसकी उपाधि ‘सेनापति’ ही मिलती है। यह परम्परा हम मध्यकाल में पेशवाओं के सम्बन्ध में देखते है। सिंहासन प्राप्त कर लेने के बाद भी वे पेशवा की उपाधि धारण करते रहे।१ इसका अभिप्राय है मातृपक्ष से पुष्यमित्र से छठे पीढ़ी में न कि पुष्यमित्र का छठा भाई। संस्कृत में इसके लिए ‘पुष्यमित्रित्’ का प्रयोग होना चाहिए परन्तु यह प्रयोग ‘पुष्यमित्रस्य’ पालि प्रभाव के कारण है।२ इसका पाठ कर सकते हैं — धनदेवन, धनदेन, धनकेन, धननन्दिना, धनभूतिना, धनमित्रेण, धनदत्तेन, धनदासेन इत्यादि। पिता नाम फलादेश होने से किन्तु पाठ ठीक प्रतीत होता है। धनदेवेन अयोध्या का स्थानीय शासक लगता है।३ पाठ – धर्मराजेन४ एक भवन या स्तम्भ ध्वज-स्तम्भ में फल्गुदेव की स्मृति में उसकी समाधि भूमि पर बना हुआ।५ हिन्दी रूपान्तरण १ – कोशल के राजा दो अश्वमेध यज्ञ करने वाले सेनापति पुष्यमित्र के छठे कोशिकी के पुत्र धनदेव द्वारा २ – धर्मराज पिता फल्गुदेव का निकेतन बनवाया गया। ऐतिहासिक महत्त्व अयोध्या अभिलेख जनपद ( उ० प्र० ) के अयोध्या से फैजाबाद जाने वाली सड़क पर अयोध्या से लगभग एक मील दूर बने रानोपाली भवन में बाबा सन्तबख्श की समाधि के पूर्वी द्वार के चौखट ललाट ( सिरदल ) से मिला है। ऐसा प्रतीत होता है कि अयोध्या अभिलेख यहीं उत्कीर्ण कराया हुआ मिट्टी में दबा होगा जिसे शिलापट्ट का प्रयोग पीछे अनजाने में इस चौखट में किया गया होगा। इसका उद्धार किसी इतिहास की दृष्टि पड़ने पर हुआ होगा। परन्तु अयोध्या अभिलेख कोशल के राजा धन ( देव ? ) द्वारा खुदवाया गया है जो पुष्यमित्र की पीढ़ी का है। इसमें ‘धन’ के बाद का भाग टूटा है पर इसके पिता का नाम यहाँ है। अतः उसके पुत्र का नाम धनदेव ही रहा होगा। इस नामधारी राजा के सिक्के अयोध्या से प्राप्त हुए हैं और बनारस के राजपाट की खुदायी से इस नाम के राजा की मुहरे भी मिली है। अब यह कल्पना कि धनमित्र, धनदत्त, धनदास अयोध्या के शासक थे के स्थान पर धनदेव नाम ही प्रामाणिक प्रतीत होता है। शुंग वंश के इतिहास में अयोध्या अभिलेख का विशेष महत्व है क्योंकि यही एकमात्र ऐसा अभिलेख प्राप्त हुआ है जिसमें पुष्यमित्र की उपाधि सेनापति दी गयी है और उसके द्वारा किए जाने वाले दो अश्वमेध यज्ञों का उल्लेख मिलता है। साथ ही शुंग राजाओं की धार्मिक नीति तथा वंशपरम्परा पर भी इस प्रस्तर अभिलेख से प्रकाश पड़ता है। यह संस्कृत भाषा का दो पंक्तियों वाला लघु शिलालेख अत्यन्त उपयोगी है। कालिदास के माल्विकाग्निमित्र से ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र ने अश्वमेध यज्ञ किया था। इस सन्दर्भ में उसने अपने पुत्र अग्निमित्र को एक पत्र लिखा था जो यज्ञ के उद्देश्य को स्पष्ट करता है उसमें लिखा है – ‘स्वस्ति इस मण्डप से सेनापति पुष्यमित्र विदिशा में स्थित अपने पुत्र आयुष्मान अग्निमित्र को स्नेह से आलिंगन कर यह आदेश देता है — विदित हो राजसूय की दिशा के लिए मेरे द्वारा सैकड़ों राजपुत्रों से प्रवृत्त वसुमित्र की संरक्षता में एक वर्ष के भीतर लौट आने के विधान से यज्ञीय घोड़ा छोड़ा गया था। वह सिन्धु नद के दाहिने तट पर विचरता हुआ अश्वारोही सेना से युक्त यवन शासक द्वारा पकड़ा गया। इसके पश्चात् यवन सेना तथा वसुमित्र की सेना में घनघोर युद्ध हुआ। धनुर्धर वसुमित्र ने शत्रुओं को विजित कर बलपूर्वक मेरा अश्वमेध का घोड़ा छुड़ा लाया। जिस प्रकार अंशुमान द्वारा लाए हुए थोड़े से उनके पिता महासगर ने यज्ञ किया था उसी प्रकार मैं भी यज्ञ करूँगा। इस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए प्रसन्नचित होकर तुम्हें बहुओं के साथ यहाँ आना चाहिए।’ प्रस्तुत अभिलेख में भी पुष्यमित्र के लिए विशेषण प्रयुक्त है — ‘द्विरश्वमेधयाजिनः’ अर्थात् दो अश्वमेध यज्ञ करने वाला। इससे प्रमाणित होता है कि पुष्यमित्र ने दो अश्यमेधयज्ञ किया था जबकि माल्विकाग्निमित्र ( अंक – ५ ) से एक ही अश्वमेधयज्ञ का ज्ञान प्राप्त होता है जो यवनों को वहिष्कृत करने के लिए हुआ था पर यहाँ उल्लिखित दूसरे अश्वमेध यज्ञ का प्रयोजन स्पष्ट नहीं होता है। क्या हाथीगुम्फा अभिलेख का बहस्पतिमित्र और पुष्यमित्र शुंग एक ही थे? डॉ० काशीप्रसाद जायसवाल ने खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख में उल्लिखित बहस्पतिमित्रि की समता पुष्यमित्र से मानकर खारवेल को पुष्यमित्र शुंग का समकालीन बताया है। उनके विचार में चूँकि पुष्यमित्र खारवेल से पराजित हो गया था अतः उसको अपनी प्रतिष्ठा के रक्षार्थ दूसरा अश्वमेध यज्ञ करना पड़ा था। डॉ० राजबलि पाण्डेय के अनुसार जायसवाल की यह प्रतिस्थापना बड़ी ही संदिग्ध है। उनकी दृष्टि में लिपिविज्ञान के आधार पर खारवेल के हाथीगुफा अभिलेख की तिथि पुष्यमित्र के समकालीन नहीं ठहरायी जा सकती। अतः खारवेल को पुष्यमित्र के समकालीन नहीं रखा जा सकता। उसके द्वारा पुष्यमित्र के समय मगध पर आक्रमण का प्रश्न ही नहीं उठता। पुनः हम यह भी कह सकते हैं कि जिस प्रकार नक्षत्र और स्थानी की समता का प्रतिस्थापन कर डॉ जायसवाल ने पुष्यमित्र की समता हाथीगुम्फा अभिलेख में वर्णित वहस्पतिमित्र से स्थापित की है उससे लगता है कि यहाँ पूर्वाग्रहपूर्वक खींचा-तानी की जा रही हो या कोई ज्यामितिक हल निकाला जा रहा हो, जिसे सर्वथा मान्य नहीं ठहराया जा सकता। आगे हाथीगुम्फा अभिलेख के अध्ययन में यह देखेंगे कि वह अन्य प्रमाणों से भी पुष्यमित्र का समकालीन नहीं सिद्ध हो सकता। इसी से डॉ० पाण्डेय के मतानुसार यह “उसका दूसरा यज्ञ पूर्णार्थ ही था क्योंकि दूसरा अश्यमेधयज्ञ पूणार्थ होने का शास्त्रीय विधान है। अयोध्या अभिलेख : दो अश्वमेध यज्ञ डॉ० पुरुषोत्तम लाल भार्गव ने माना है कि पुष्यमित्र ने पहला

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पभोसा गुहा अभिलेख

भूमिका पभोसा गुहा अभिलेख उत्तर प्रदेश के कौशाम्बी जनपद में पभोसा नामक स्थान स्थित एक गुहा की दीवार पर मिला है। यह लेख ब्राह्मी लिपि में प्राकृत से प्रभावित संस्कृत में अंकित है। इस गुहा अभिलेख का समय फुहरर ने ई० पू० दूसरी-पहली शताब्दी अनुमानित किया है। बुह्लर इस अभिलेख का समय १५० ई० पू० बताते हैं। दिनेशचन्द्र सरकार लिपि विशेषताओं के आधार पर इस गुहाभिलेख का समय ई० पू० प्रथम शताब्दी का अन्त मानते हैं। पभोसा गुहा अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- पभोसा गुहा अभिलेख ( Pabhosa Cave Inscription ) स्थान :- पभोसा, कौशाम्बी जनपद, उत्तर प्रदेश भाषा :- संस्कृत ( प्राकृत प्रभावित ) लिपि :- ब्राह्मी समय :- मौर्योत्तर काल विषय :- कौशाम्बी के क्षेत्रीय इतिहास की जानकारी पभोसा गुहा अभिलेख : मूलपाठ प्रथम : मूलपाठ १ — राज्ञो गोपाली-पुत्रस २ — बहसतिमित्रस ३ — मातुलेन गोपालिया- ४ — वैहीदरी-पुत्रेन ५ — आसाढ़सेनेन लेनं ६ — कारितं ऊदाक [ स ] दस- ७ — म-सवरे [ १० अ ] हि [ छि ] त्र अरहं- ८ — [ त ] …… [ ॥  ] हिन्दी अनुवाद राजा गोपालीपुत्र बृहस्पतिमित्र के मातुल [ मामा ] गोपालिका वैहिदरीपुत्र आषाढ़सेन का बनाया लयण। उदाक१ के दसवें संवत्सर में [ अहिच्छत्रा ]२ के अर्हतों ( जैन अथवा बौद्ध ) [ के लिए ]। द्वितीय : मूलपाठ १ — अधिछत्राया राज्ञो शोनकायनी-पुत्रस्य वंगपालस्य २ —पुत्रस्य राज्ञो तेवणीपुत्रस्य भागवतस्य पुत्रेण ३ — वैहिदरी पुत्रेण आषाढ़सेन कारितं [ ॥ ] हिन्दी अनुवाद अहिच्छत्रा के राजा शौनकायनी पुत्र वंगपाल३ के पुत्र तेवणी-पुत्र भागवत४ के पुत्र वैहिदरीपुत्र आषाढ़सेन द्वारा बनाया गया। उदाक को लोग शुंगवंशी वसुमित्र का उत्तराधिकारी अनुमान करते हैं किन्तु लिपि के आधार पर यह अभिलेख कदापि ई० पू० दूसरी शती में नहीं रखा जा सकता। अतः यह उससे सर्वथा भित्र शासक है। उसे कौशाम्बी का शासक कहा जाता है। यदि वह कौशाम्बी- नरेश था तो निश्चय ही बृहस्पतिमित्र का उत्तरवर्ती होगा और यदि उसी वंश का है तो उसका पुत्र अथवा पौत्र होगा। वैसी अवस्था में समसामयिक राजा आषाढसेन के साथ अपना सम्बन्ध न बताना कुछ असाधारण लगता है। अतः विद्वानों की धारणा है कि आषाढसेन का समसामयिक कौशाम्बी- नरेश उदाक नहीं, वृहस्पतिमित्र है और उदाक अहिच्छत्रा का शासक होगा तथा वह आषाढ़सेन का भ्राता होगा। आषाढ़सेन स्वयं अहिच्छत्रा का शासक नहीं है यह दूसरे अभिलेख में उसके नाम के साथ ‘राजा’ शब्द के अभाव से स्पष्ट है। उदाक जहाँ का भी शासक हो अभी तक उसके नाम के सिक्के कहीं से प्राप्त नहीं हुए हैं।१ यह अनुमानित पाठ है।२ बंगपाल के सिक्के अहिच्छत्रा से प्राप्त हुए हैं। उसके सिके की खप दामगुप्त के सिके पर पुनर्मुद्रित है। इससे ज्ञात होता है कि वह दामगुप्त के पश्चात् शासक हुआ था, इसी कारण अभिलेख में उसके पिता का नाम नहीं है।३ अहिच्छत्रा के सिक्कों में अभी तक भागवत नामक किसी शासक का कोई सिक्का प्राप्त नहीं हुआ है।४ पभोसा गुहा अभिलेख : विश्लेषण अहिच्छत्रा और कौशाम्बी के तत्कालीन प्रादेशिक इतिहास की दृष्टि से ही पभोसा गुहा अभिलेख का महत्त्व है। ये अभिलेख एक ही व्यक्ति से सम्बद्ध हैं। पहले से ज्ञात होता है कि लेख लिखानेवाले राजा आषाढ़सेन का सम्बन्ध अहिच्छत्रा के राजवंश से था। दूसरे लेख से पता चलता होता है कि वह बृहस्पतिमित्र नामक राजा का मातुल ( मामा ) था। कौशाम्बी से बृहस्पतिमित्र नामक शासक के सिक्के बड़ी मात्र में प्राप्त हुए हैं। सम्भव है, इस अभिलेख में उल्लिखित बृहस्पतिमित्र कौशाम्बी नरेश ही हो। इस प्रकार इन अभिलेखों से कौशाम्बी और अहिच्छत्रा के राजवंशों के पारिवारिक सम्बन्ध का परिचय मिलता है। इनकी सहायता से दोनों प्रदेशों के राजवंशों के शासकों की समसामयिकता का विचार किया जा सकता है। इन दोनों अभिलेखों से निम्नलिखित वंशवृक्ष प्राप्त होता है-

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बेसनगर गरुड़ध्वज अभिलेख

भूमिका बेसनगर गरुड़ध्वज अभिलेख मध्य प्रदेश में विदिशा से कुछ दूर स्थित बेसनगर में एक शिला-स्तम्भ पर अंकित है। यह संस्कृत से प्रभावित प्राकृत भाषा में ब्राह्मी लिपि में लिखा गया है। इसकी लिपि को सामान्यतः ईसा पूर्व दूसरी शती अनुमान किया जाता है किन्तु दिनेशचन्द्र सरकार इसे ई० पू० दूसरी शती के अन्त में रखते हैं। बेसनगर गरुड़ध्वज अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- बेसनगर गरुड़ध्वज अभिलेख ( Base Nagar Garuada Pillar Inscription ) या हेलियोडोरस गरुड़ स्तम्भ लेख ( Heliodorus Garuda Pillar Inscription ) स्थान :- बेसनगर, विदिशा जनपद, मध्यप्रदेश भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- शुंगवंशी शासक भागभद्र के शासनकाल का १४वाँ वर्ष ( लगभग द्वितीय शताब्दी ई०पू० ) विषय :- यवन राजदूत हेलियोडोरस द्वारा विदिशा में आकर गरुड़ध्वज की स्थापना। बेसनगर गरुड़ध्वज अभिलेख : मूलपाठ पाठ – १ १ — [ दे ] वदेवस वा [ सुदेव ] स गरुड़ध्वजे अयं २ — कारिते इ [ अ ] हेलिओदोरेण भाग- ३ — वतेन दियस पुत्रेण तखसिलाकेन ४ — योन दूतेन [ आ ] गतेन महाराजस ५ — अन्तलिकितस उपन्ता सकासं रञो ६ — कासी पु [ त्र ] स१ [ भा ] गभद्रस त्रातारस ७. वसेन च [ तु ] दसेन राजेन बधमानस [ । ] भण्डारकर, ब्लाख आदि के अनुसार कोसीपुतस (कौत्सीपुत्र) पाठ है। किन्तु कौत्सीपुत्र का प्राकृत रूप कोछीपुतस होगा।१ पाठ – २ १ — त्रिनि अमुत-पदानि [ इअ ] [ सु ] -अनुठितानि २ — नेयन्ति ( स्वगं ) दम-चाग अप्रमाद [ । ] संस्कृत अनुवाद पाठ – १ देवदेवस्य वासुदेवस्य गरुडध्वजः अयं कारित इह हेलियोदोरेण भगवतेन दियस्य पुत्रेण तक्षशिलाकेन यवन दूतेन आगतेन महाराज अंतलिकितस्य उपान्तात् सकाश राज्ञः काशीपुत्रस्य भागभद्रस्य त्रातु: वर्षेण चतुद्र्दशेन राज्येन वद्धमानस्य। पाठ – २ त्रीणि अमृत पदानि इह सुअनुष्ठितानि नयन्ति स्वर्ग — दमः त्यागः अप्रमादः। हिन्दी अनुवाद पाठ – १ १ — देवताओं में श्रेष्ठ वासुदेव का यह गरूड-ध्वज २ — स्थापित किया गया हेल्योडोरस द्वारा ३ — दिवस या दिय के पुत्र भागवत धर्मानुयायी तक्षशिला के ४ —यवन दूत ने आकर महाराज ५ — अंतलिकितस के समीप से राजा ६ — काशीपुत्र के भागभद्र के ७ — चौदहवें वर्धमान राज्य काल में [ अर्थात् इस देवदेव वासुदेव के गरुड़ध्वज को मैंने बनवाया। मैं तक्षशिला निवासी भागवत दिय का पुत्र हूँ जो महाराज अन्तलिकिद की ओर से यवनदूत हो यहाँ आया। त्राता राजा काशीपुत्र भागभद्र के १४वें वर्तमान राजवर्ष में। ] पाठ – २ १ — तीन अमृत पद ये सुअनुष्ठान के द्वारा २ — स्वर्ग में ले जाते हैं दम, त्याग और अप्रमाद॥ [ अर्थात् अपने अनुष्ठान से किये गये तीन अमृत पद- दम, त्याग और अप्रमाद से स्वर्ग झुक जाता है॥ ] बेसनगर गरुड़ध्वज अभिलेख : विश्लेषण राजनीतिक और धार्मिक इतिहास की दृष्टि से इस अभिलेख का महत्त्व है। राजनीतिक इतिहास की दृष्टि से बेसनगर गरुड़ध्वज अभिलेख से निम्नलिखित बातें प्रकाश में आती हैं :— (१) इससे यह प्रकट होता है कि उत्तर-पश्चिमी प्रदेश के विदेशी (यवन) शासक मध्य भारत के भारतीय राजाओं के साथ राजनीतिक मैत्री के इच्छुक थे और दोनों राज्यों के बीच राजदूतों का आदान-प्रदान होता था। इस अभिलेख को हेलिओडोरस नामक तक्षशिला निवासी यवन ने अंकित कराया है। हेलियोडोरस यवनराज एन्टियालकीड्स की ओर से राजदूत के रूप में शुंग शासक भागभद्र के विदिशा राजसभा में आया था। (२) जिस समय यह लेख लिखा गया यवन राज्य में एन्टियालकीड्स नामक राजा था। एन्टियालकीड्स के समय के सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। सामान्यतः उसका समय ई०पू० दूसरी शती का अन्तिम चरण समझा जाता है। यदि इसका समय निश्चित हो सकता तो इस भारतीय नरेश के सम्बन्ध में कुछ सहज रूप से अनुमान किया जा सकता था। (३) भारतीय नरेश का उल्लेख काशीपुत्र भागभद्र नाम से हुआ है। यह कौन था निश्चित रूप से कहना कठिन है। मालविकाग्निमित्र के उल्लेख को यदि प्रामाणिक माना जाय तो इस काल में विदिशा वाले क्षेत्र में शुंगवंशी राजा शासन कर रहे थे। अतः इसे कोई शुंगवंशी राजा ही होना चाहिए। किन्तु पुराणों में इस वंश के शासकों की जो नामावली उपलब्ध है, उसमें इस नाम का कोई शासक नहीं है। अतः विद्वानों ने इसके सम्बन्ध में विभिन्न मत प्रकट किये हैं। जान मार्शल ने भागभद्र को वसुमित्र के उत्तराधिकारी, पाँचवें शुंगनरेश के रूप में, जिसका उल्लेख ब्रह्माण्ड पुराण में भद्र और भागवत पुराण में भद्रक अथवा भड़क के रूप में हुआ है, पहचानने का यत्न किया है। किन्तु उसकी यह पहचान इस कारण ग्राह्य नहीं है कि उसका शासन-काल पुराणों में केवल २ अथवा ७ वर्ष बताया गया और भागभद्र का यह अभिलेख चौदहवें शासनवर्ष का है। इसके अतिरिक्त अन्य पुराणों में यह नाम सर्वथा भिन्न है। मत्स्यपुराण की विभिन्न प्रतियों में अन्धक, ध्रुक, वृक, अन्तक, वायुपुराण में अन्ध्रक और विष्णुपुराण में आर्द्रक और ओद्रुक नाम है। इसके आधार पर विद्वानों ने अन्ध्रक नाम शुद्ध होने की कल्पना की है। जायसवाल, भण्डारकर, रामप्रसाद चन्दा आदि विद्वान भागभद्र को नवाँ शुंग-शासक अनुमान करते हैं जिसका उल्लेख प्रायः सभी पुराणों ने भागवत नाम से किया है और उसका शासन काल ३२ वर्ष बताया है। किन्तु इस सम्बन्ध में यह द्रष्टव्य है कि बेसनगर से ही एक अन्य गरुड़स्तम्भ पर भागवत नामक शासक के १२वें राज्यवर्ष का लेख मिला है। यह आश्चर्य की बात होगी कि एक ही स्थान से मिले दो अभिलेखों में एक ही व्यक्ति का नाम भागवत और भागभद्र दो रूपों में लिखा जाय और वह भी केवल दो वर्षों के अन्तर से लिखे गये अभिलेखों में। अतः कुछ अन्य विद्वान भागभद्र को शुंगवंशी शासक नहीं मानते। उनकी धारणा है कि वह कोई स्थानीय शासक होगा। (४) भागभद्र शुंगवंशी अथवा किसी अन्य वंश का हो, इस लेख में उसे त्रातार कहा गया है जो यवन विरुद सोटर (Soter) का पर्याय अथवा समकक्ष है और इसका अर्थ रक्षक (Saviour) होता है। इस विरुद का किसी भारतीय नरेश के लिए प्रयोग असाधारण है। अतः इसका प्रयोग अभिलेख में हेलियोडोरस के आदेश से ही साभिप्राय किया गया होगा। इस विरुद का महत्त्व तब और भी बढ़ जाता है जब हम देखते हैं कि हेलियोडोरस ने अपने नरेश एन्टियालकीड्स के लिए किसी भी यवन विरुद का प्रयोग नहीं किया है। एन्टियालकीड्स तथा उसके तात्कालिक पूर्ववर्तियों में से किसी ने भी इस विरुद का प्रयोग नहीं किया था।

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घोसुण्डी अभिलेख

भूमिका घोसुण्डी अभिलेख चित्तौड़गढ़ जनपद के पास नगरी और घोसुण्डी नामक स्थान प्राप्त हुए हैं। घोसुण्डी ( घोसुंडी ) अभिलेख को हाथीबाड़ा अभिलेख भी कहते हैं। यह भागवत् ( वैष्णव ) धर्म से सम्बंधित है। चित्तौड़गढ़ के निकट नगरी नामक ग्राम से डेढ़ किलोमीटर पूर्व हटकर एक बड़ा आहाता है, जिसके चारों ओर दीवार थी जो अब गिर गयी है। यह आहाता प्राचीन काल में एक नारायणवाटिका था। मुगल काल में, जब अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया था, उसकी सेना ने यहाँ पड़ाव डाला था और इस अहाते का उपयोग हाथीखाने के रूप में किया था। तब से इसका नाम हाथीबाड़ा पड़ गया। आज भी यह इसी नाम से प्रसिद्ध है। इस हाथीबाड़ा की उत्तरी दीवार के दाहिने कोने में भीतर की ओर लगा एक शिला-फलक १९३४-३५ ई० में प्राप्त हुआ जिसकी दो पंक्तियों का ब्राह्मी लिपि में एक लेख है। उसके आरम्भ का कुछ अंश अनुपलब्ध है। इसी अभिलेख की एक दूसरी प्रति इससे पूर्व उस स्थान से कुछ दूर घोसुण्डी नामक स्थान में एक कुएँ में लगी प्राप्त हुई थी। इस प्रति में यह लेख तीन पंक्तियों में है। इस कारण इस अभिलेख को कुछ लोग घोसुण्डी अभिलेख के नाम से और कुछ लोग हाथीबाड़ा अभिलेख के नाम से पुकारते हैं। इसी लेख की एक तीसरी प्रति का एक खण्डित अंश १९१५-१६ ई० में और दूसरा खण्डित अंश १९२६-२७ ई० में प्राप्त हुआ था। इन तीनों प्रतियों की सहायता से लेख लगभग सर्वांश में प्राप्त किया जा चुका है। घोसुण्डी अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- घोसुण्डी अभिलेख या हाथीबाड़ा अभिलेख स्थान :- नगरी-घोसुण्डी, चित्तौड़गढ़ जनपद, राजस्थान लिपि :- ब्राह्मी भाषा :- संस्कृत समय :- प्रथम शताब्दी ई०पू० विषय :- भागवत् धर्म सम्बन्धी घोसुण्डी अभिलेख : मूलपाठ१ १ — [ कारितो अयं राज्ञा भाग ] वतेन२ राजायनेन पराशरीपुत्रेण स- २ — [ र्वतातेन अश्वमेध-या ]३ जिना४ भागव [ द् ] भ्यां संकर्षण-वासुदेवाभ्याँ ३ — [ अनिहताभ्याँ सर्वेश्वरा ]५ भ्यां पूजा-शिला-प्रकारो नारायण वाटिका मूलपाठ का संयोजन घोसुण्डी पाठ के अनुसार किया गया है।१ हाथीबाड़ा प्रति में ‘वतेन’ स्पष्ट है। उसके आधार पर इस अनुपलब्ध अंश की कल्पना की गयी है।२ यह अंश हाथीबाड़ा प्रति तथा तीसरी प्रति में उपलब्ध है।३ इस शब्द के पश्चात् हाथीबाह्य प्रति की दूसरी आरम्भ होती है।४ यह अंश हाथीबाड़ा की प्रति में उपलब्ध है।५ हिन्दी अनुवाद अश्वमेध याजिन ( अश्वमेध करनेवाले ) राजा भागवत ( भगवद्-भक्त ) गाजायन पाराशरीपुत्र सर्वतात ने इस पूजाशिला प्राकार को भगवान् संकर्षण-वासुदेव के लिए, जो अनिहत और सर्वेश्वर हैं, बनवाया। घोसुण्डी अभिलेख : विश्लेषण संस्कृत बनाम प्राकृत भाषा घोसुंडी अभिलेख ईसा पूर्व पहली शताब्दी के उत्तरार्ध का अनुमान किया जाता है। इसकी भाषा संस्कृत है।६ संस्कृत में लिखे गये अभिलेखों में कदाचित् यह प्राचीनतम है अथवा प्राचीन दो अभिलेखों में से एक है (दूसरा संस्कृत अभिलेख अयोध्या से प्राप्त हुआ है)। इन अभिलेखों के प्रकाश में आने से पूर्व शक क्षत्रप रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख (१५० ई०) संस्कृत का प्राचीनतम् अभिलेख समझा जाता था। ई० पू० ३०० और १०० ई० के बीच के जो भी अभिलेख प्राप्त हुए हैं, उनकी भाषा प्राकृत थी। इस कारण अनेक विद्वानों की, जिनमें फ्लीट और रीस डेविड्स मुख्य हैं, धारणा थी कि १०० ई० तक बोलचाल की भाषा पाली थी और उस समय तक जनता के बीच संस्कृत का प्रचार-प्रसार न था। उनकी इस धारणा के विरुद्ध यह कहा जाता रहा है कि पतञ्जलि का कहना है कि जिस भाषा का व्याकरण पाणिनि ने प्रस्तुत किया है वह शिष्टजन को भाषा है। उनके इस कथन से ऐसा मालूम होता है कि उनके समय (ई० पू० १५०) में संस्कृत आर्यावर्त के ब्राह्मणों की बोलचाल की भाषा थी। इस लेख के प्रकाश में आ जाने से इस कथन को बल मिलता है। संस्कृत का प्रसार ईसा पूर्व की शताब्दियों में बना हुआ था। पालि-प्राकृत के साथ-साथ देश में संस्कृत भी प्रचलित थी। दिनेशचन्द्र सरकार ने इसे प्राकृत से प्रभावित कहा है जबकि लूहर्स ने इसकी भाषा को मिश्रित बताया है। लूडर्स के कथन का आधार कविराज श्यामदास का पाठ रहा है जो सर्वथा अशुद्ध है। किन्तु सरकार की इस धारणा के लिए कोई आधार नहीं है।६ भागवत् धर्म का प्रमाण इस अभिलेख को भी लोग बेसनगर अभिलेख की तरह ही भागवत् (वैष्णव) – धर्म के ईसा पूर्व की शताब्दी में प्रचलित होने का प्रमाण मानते हैं। किन्तु इससे इतना ही ज्ञात होता है कि वासुदेव तथा संकर्षण की उपासना लोगों में प्रचलित थी। वासुदेव की उपासना विष्णु की उपासना से भिन्न थी। संकर्षण, वासुदेव की भाँति ही वसुदेव के पुत्र कहे जाते हैं। उनका जन्म रोहिणी के गर्भ से हुआ था। वे महाभारत तथा पुराणों में वासुदेव के बड़े भाई कहे गये हैं। किन्तु महाभारत में उनकी चर्चा नगण्य है और यदि कहीं कुछ हुई भी है तो वह उनके छोटे भाई वासुदेव श्रीकृष्ण के आगे फीकी है। किन्तु वीर के रूप में वृष्णियों के बीच संकर्षण अत्यन्त पूज्य थे। उन्हें यह देवत्व किस प्रकार प्राप्त हुआ, कहा नहीं जा सकता। संकर्षण का शाब्दिक अर्थ ‘हल जोतना’ है। इससे जान पड़ता है कि वे कृषि से सम्बद्ध देवता रहे होंगे। इसकी पुष्टि मूर्ति-विधान से भी होती है। वे कृषि के आयुध हल और मूसल लिये व्यक्त किये जाते हैं। पुराणों की एक अनुश्रुति के अनुसार उन्होंने अपने हल से यमुना का मार्ग बदल दिया था और मूसल से हस्तिनापुर को गंगा के निकट पहुँचा दिया था। उनसे सम्बद्ध एक अन्य अनुश्रुति है कि उन्होंने फसल नष्ट करनेवाले द्विविध नामक राक्षस को मार डाला था। ये सब भी उनके कृषि-देवता होने का संकेत करते हैं। किन्तु संकर्षण का विकास नागपूजा से भी सम्बद्ध जान पड़ता है। इसका प्रचार वृष्णियों के प्रदेश मथुरा के आसपास काफी था। संकर्षण को शेषनाग का अवतार कहा जाता है। संकर्षण के मूर्तियों में नाग छत्र इसकी ओर संकेत करता है। संकर्षण की पूजा का उल्लेख अर्थशास्त्र में हुआ है। लगता है, वासुदेव और संकर्षण आरम्भ में अलग-अलग पूजित थे। बाद में वे दोनों एक-दूसरे के निकट आ गये और उनकी एक साथ पूजा होने लगी, जैसा एक लेख तथा अगथुक्लेय के सिक्कों से ज्ञात होता है। ‘पूजा-शिला-प्राकार’ का दो प्रकार से अर्थ किया जा सकता है — (१) पूजा-शिला के चारों ओर दीवार (पूजा-शिलाय: प्राकारः) (२) पूज्य वस्तु के

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भरहुत तोरण अभिलेख

भूमिका भरहुत तोरण अभिलेख मध्यप्रदेश के सतना जनपद में भरहुत नामक स्थान पर मिला है। इसकी खोज अलेक्ज़ेंडर कनिंगहम ने की। इनको यह एक विशाल स्तूप के ध्वंसावशेष मिले थे। उसके अधिकांश स्तम्भ, बाड़ आदि आजकल इण्डियन म्यूजियम कलकत्ता में प्रदर्शित हैं। वहाँ जो अभिलेख प्राप्त हुए हैं उनमें जो सबसे महत्त्व का माना जाता है वह एक तोरण पर अंकित है। यह लेख प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में है। इसका समय कुछ विद्वान् ईसा पूर्व दूसरी शती मानते हैं। किन्तु दिनेशचन्द्र सरकार के मत में यह ईसा पूर्व प्रथम शती के उत्तरार्द्ध का है। इस लेख का महत्त्व इस बात में है कि इसमें उस प्रदेश के, जिसमें यह लेख प्राप्त हुआ है, कतिपय शासकों के नाम हैं। इस कारण मौर्योत्तर काल के प्रादेशिक इतिहास के निर्माण के लिए यह उपयोगी है। कुछ विद्वान इसे शुङ्ग वंश से सम्बद्ध मानते हैं। भरहुत तोरण अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- भरहुत तोरण अभिलेख स्थान :- भरहुत, सतना जिला, मध्यप्रदेश लिपि :- ब्राह्मी भाषा :- प्राकृत विषय :- शुगकालीन निर्माण सम्बन्धी खोजकर्ता :- अलेक्ज़ेंडर कनिंघम भरहुत तोरण अभिलेख : मूलपाठ १. सुगनं१ रजे रञो गागी-पुतस विसदेवस २. पौतेण गोति-पुतस अगराजुस पूतेण ३. वाछि-पुतेन धनभूतिन कारितं तोरनां ४. सिला-कंमंतो च उपंण [ ॥ ] दिनेशचन्द्र सरकार ने इस उल्लेख से यह भाव ग्रहण किया है कि विश्वदेव विदिशा के उत्तरवर्ती शुङ्गों के अधीन शासक था। दूसरी ओर कनिंघम और राजेन्द्रलाल मित्र ने इसका तात्पर्य श्रुध्न राज्य ग्रहण किया था। अर्थात् दिनेशचन्द्र सरकार ‘सुगनं’ को शुङ्ग जबकि कनिंघम व राजेन्द्रलाल मित्र इसको श्रुध्न अनूदित करते हैं।१ अनुवाद [ शुङ्ग ] के राज्य में राजा गार्गीपुत्र विश्वदेव के पौत्र गोप्तीपुत्र२ अग्रराज३ के पुत्र वात्सीपुत्र-धनभूति द्वारा बनाया तोरण, शिला-कर्मान्त ( सम्भवतः ) बाड़ के स्तम्भ और उष्णीष४। कनिंगहम इसे कौत्सीपुत्र के रूप में ग्रहण करते हैं।२ दिनेशचन्द्र सरकार ने अगराजुस पढ़कर अङ्गारद्युत के रूप में उसका संस्कृतकरण किया है। उनका पाठ संदिग्ध लगता है। अग्रराज नाम अधिक संगत है। कनिंघम और राजेन्द्रलाल मित्र ने भी यही नाम ग्रहण किया है। इस नाम के राजा के अनेक सिक्के कौशाम्बी से प्राप्त हुए हैं और वे जर्नल आफ न्यूमिस्मेटिक सोसाइटी के अंकों में छपे हैं।३ दिनेशचन्द्र सरकार ने ‘उपंण’ का तात्पर्य ‘उत्पन्न’ ग्रहण किया है किन्तु यहाँ उसकी कोई संगति नहीं बैठती है।४ क्या पुष्यमित्र शुंग बौद्ध-द्रोही थे? ऐतिहासिक दृष्टि से इस लेख में शासक के रूप में कुछ व्यक्तियों की जानकारी प्रदान करने के अतिरिक्त कोई विशेष महत्त्व की बात नहीं जान पड़ती। किन्तु इसका महत्त्व तब हो जाता है जब कुछ विद्वान् प्रथम पंक्ति के आरम्भ के दो शब्दों का पाठ ‘सुगनं रजे’ स्वीकार कर उसमें शुङ्गों का उल्लेख देखते हैं। यदि वस्तुतः यहाँ तात्पर्य शुङ्ग राजाओं से है तो यह बात ध्यान देने की हो जाती है कि भारत के भरहुत स्तूप के इस तोरण को शुङ्गवंशी शासकों ने बनवाया था और इसके साथ शुङ्ग-वंश के संस्थापक पुष्यमित्र से सम्बद्ध धारणाओं को लेकर प्रश्न उभरता है। पुष्यमित्र द्वारा किये गये अश्वमेघों ( धनदेव का अयोध्या अभिलेख ) के आधार पर विद्वानों ने यह मत प्रकट किया है कि उसके समय में ब्राह्मण-धर्म का पुनरुद्धार हुआ। वह ब्राह्मण-धर्म का प्रबल समर्थक था। इसके साथ ही कहा जाता है कि वह बौद्ध-धर्म द्वेषी था। इसके समर्थन के लिए विद्वानों ने दिव्यावदान, मंजुश्री-मूलकल्प और तारानाथ के इतिहास का सहारा लिया है। दिव्यावदान में कहा गया है कि पुष्यमित्र ने बौद्ध धर्म का विनाश करने का निश्चय किया; कुक्कुटाराम विहार को ध्वस्त करने की चेष्टा की और शाकल में प्रत्येक श्रमण का सिर काटकर लाने के लिए १०० दीनार के इनाम की घोषणा की। मंजुश्री-मूलकल्प में गोमिमुख नामक राजा द्वारा स्तूप और विहारों को ध्वस्त करने और भिक्षुओं की हत्या करने का उल्लेख है। जायसवाल ने इस गोमिमुख को पुष्यमित्र के रूप में पहचानने की चेष्टा की है। तारानाथ के इतिहास से भी इसी तरह की बात पुष्यमित्र के लिए उद्धृत की जाती है। यदि ये कथन प्रामाणिक है५ तो ऐसे बौद्ध-धर्म-द्वेषी पुष्यमित्र के वंशजों द्वारा भारत में बौद्ध स्तूप का तोरण बनवाया जाना निःसन्देह एक असाधारण बात कही जायगी। अतः इस अभिलेख के प्रमाण से हेमचंद्र रायचौधरी६ सदृश विद्वान् शुंगों को उग्र ब्राह्मणवाद का नेता स्वीकार नहीं करते। वे यह मानते हैं कि पुष्यमित्र के वंशज रूढ़िवादी हिन्दू-धर्म के कट्टर माननेवाले भले ही रहे हों, परन्तु वे ऐसे असहिष्णु नहीं थे जैसा कुछ लेखकों ने चित्रित किया है। The Political and Socio-Religious Condition of Bihar – Dr. Hari Kishore Prasad५ Political History of Ancient India६ जो विद्वान्, पुष्यमित्र के बौद्ध-धर्म के प्रति कठोर दृष्टिकोण होने की बात में विश्वास करते हैं, उन्होंने बौद्ध-धर्म के प्रति सहृदयता के प्रतीक इस लेख को इस बात का द्योतक माना है कि पुष्यमित्र के उत्तराधिकारियों के समय यह भावनाएँ सम्भवतः कम हो गयी थीं और उन्होंने उदारता की नीति अपनायी थी। कुछ विद्वान् इस लेख में ऐसा कुछ भी नहीं देखते जिससे ज्ञात हो कि उसका सम्बन्ध किसी प्रकार शुंगवंश के राजाओं से था। वे ‘सुगनं रजे’ का तात्पर्य मात्र शुंगों का राज्यकाल ग्रहण करते हैं और कहते हैं कि तोरण के निर्माता शुंगवंश के नहीं थे। अतः इस लेख से शुंगवंश के धार्मिक विचारों के सम्बन्ध में किसी प्रकार के भाव की अभिव्यक्ति नहीं होती।

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दशरथ के गुहा अभिलेख

भूमिका दशरथ के गुहा अभिलेख बिहार के जहानाबाद जनपद में नागार्जुनी पहाड़ी की गुफाओं में अंकित हैं। बराबर और नागार्जुनी नामक जुड़वा पहाड़ियों को काटकर मौर्यकाल में गुफाएँ बनवाकर आजीवक सम्प्रदाय को दान में दी गयी थी। इन गुफाओं का निर्माण सम्राट अशोक और उनके पौत्र दशरथ ने करवाया था। इसमें इन दोनों सम्राटों के अभिलेख भी मिलते हैं। बराबर की पहाड़ी में चार गुफाओं का निर्माण कराया गया जबकि नागार्जुनी की पहाड़ी को काटकर तीन गुहाओं का निर्माण कराया गया। बराबर पहाड़ी की गुफाएँ — सुदामा गुफा, कर्ण-चौपड़ गुफा, विश्व-झोपड़ी गुफा और लोमश ऋषि की गुफा। नागार्जुनी पहाड़ी की गुफाएँ — गोपिका गुफा, वहियक गुफा और वडथिका गुफा। दशरथ के गुहा अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- दशरथ के नागार्जुनी गुहालेख ( Dashratha’s Nagarjuni Cave Inscriptions ) या दशरथ के गुहा अभिलेख ( Dashratha’s Cave Inscrioptins ) स्थान :- नागार्जुनी पहाड़ी, जनपद जहानाबाद, बिहार भाषा :- प्राकृत लिपि :- प्राकृत समय :- मौर्यकाल विषय :- आजीवक सम्प्रदाय को गुहादान दशरथ के गुहा अभिलेख का मूलपाठ इन अभिलेखों की संख्या तीन है जो निम्नवत हैं – पहला गुहालेख : मूलपाठ १ — वहियक [ । ] कुभा दषलथेन देवानांपियेना २ — आनन्तलियं अभिषितेना [ आजीवकेहि ]१ ३ — भदन्तेहि२ वाष-निषिदियाये निषिठे ४ — आ-चन्दम-षूलियं [ । ] आजीवकेहि :- यह शब्द प्रायः सभी गुहा अभिलेखों में मिटे पाये जाते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि मौखरि शासक अनन्तवर्मा के समय में, जब इन गुफाओं में कृष्ण और शिव की मूर्तियों की स्थापना की गयी, तब इस शब्द को मिटाया गया होगा।१ भदन्तेहि :- कुछ विद्वानों ने भदन्त को ‘भवद्भय’ के रूप में ग्रहण किया है।२ हिन्दी अनुवाद वहियक गुफा देवताओं के प्रिय दशरथ ने अभिषिक्त होने के तत्काल बाद ( आनन्तर्य, बिना अन्तर ) आजीवक ( भिक्षुओं ) के निषिद्धवास ( वर्षाकाल में जब भिक्षु बाहर नहीं जा सकते थे ) के लिए बनवाया। जब तक सूर्य-चन्द्र रहें। दूसरा गुहालेख : मूलपाठ १ — गोपिका कुभा दषलथेना देवानंपि- २ — येना आनन्तलियं अभिषितेना आजी- ३ — विके [ हि ] भदन्तेहि वात-निषिदियाये ४ — निसिठा आ-चन्दम-षूलियं [ । ] अनुवाद गोपिका गुहा देवताओं के प्रिय दशरथ ने अभिषेक होने के बाद ही आजीवक भदन्तों ( भिक्षुओं ) के निषिद्ध-वास के लिए बनवाया। जब तक चन्द्र-सूर्य रहें। तीसरा अभिलेख : मूलपाठ १ — वडथिका कुभा दषलथेना देवानं- २ — पियेना आनन्तलियं अभिषेतना [ आ ]- ३ — [ जी ] विकेहि भदन्तेहि वा [ ष-निषि ] दियाये ४ — निषिठा आ चन्दम-षूलियं [ ॥ ] अनुवाद वडथिका गुहा देवताओं के प्रिय दशरथ ने अभिषेक होने के बाद ही आजीवक भिक्षुओं के निषिद्धवास के लिए बनवाया। जब तक चन्द्र-सूर्य रहें। टिप्पणी इन गुहा अभिलेखों में अशोक के गुहा अभिलेखों की भाँति ही आजीविकों का उल्लेख है। इस अभिलेख में मात्र आजीविकों का उल्लेख न होकर आजीविकेहि भदन्तेहि है। इसका अर्थ हमने आजीवक भिक्षु किया है; किन्तु इस बात की भी सम्भावना प्रकट की जा सकती है। कि भदन्त का तात्पर्य यहाँ बौद्ध भिक्षुओं से है और उक्त पद का तात्पर्य आजीविक और बौद्ध दोनों से है। लयण दोनों सम्प्रदायों के भिक्षुओं के वर्षावास के लिए बनवाया गया था। अशोक का बराबर गुहालेख

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अशोक का बराबर गुहालेख

भूमिका बराबर गुहालेख ( Barabar Cave Inscriptions ) अशोक के साम्प्रदायिक सौहार्दपूर्ण कृत्यों का साक्ष्य प्रस्तुत करता है। अशोक स्वयं बौद्ध धर्मानुयायी थे, फिरभी बराबर पहाड़ी में उन्होंने आजीवकों के लिए गुफाएँ बनवाकर दान की। बराबर की पहाड़ी को इन गुहालेखों में खलतिक नाम से पुकारा गया है। इसके साथ ही बराबर गुहालेख गुफाओं के नाम ( नयग्रोथ, सुप्रिया ) भी मिलते हैं। बराबर में अशोक के कुल तीन गुहालेख मिलते हैं। बराबर गुहालेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- अशोक का बराबर गुहालेख ( Ashoka’s Barabar Cave Inscriptions ) स्थान :- बराबर पहाड़ी, जिला जहानाबाद ( बिहार ) भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी काल :- मौर्यकाल विषय :- आजीवक सम्प्रदाय को गुहादान पहला बराबर गुहालेख : मूलपाठ १ – लाजिना पियदसिना दुवाइस बसा [ भिसितेना ] २ – [ इयं निगोह ] [ कुमा दिना ] [ आजीविकेहि ] ( । ) हिन्दी अनुवाद १ – बारह वर्षों से अभिषिक्त राजा प्रियदर्शी द्वारा २ – यह नयग्रोथ गुफा आजीवकों को दी गयी। दूसरा बराबर गुहालेख : मूलपाठ १ – लाजिना पियदसिना दुवा- २ – डस-वसाभिसितेना इयं ३ – कुभा खलतिक पवतसि ४ – दिना आजीवि केहि ( । ) हिन्दी अनुवाद १ – राजा प्रियदर्शी द्वारा २ – बारह वर्ष अभिषिक्त होने पर यह ३ – गुफा खलतिक पर्वत में ४ – आजीविका को दी गयी तीसरा बराबर गुहालेख : मूलपाठ १ – लाजा पियदसी एकुनवी- २ – सति वसाभिसिते ज [ लघो ] ३ – [ सागमें ] थातवे इयं कुभा ४ – सुपिये ख [ लतिक पवतसि दि ] ५ – [ ना। ] हिन्दी रूपान्तरण १ – राजा प्रियदर्शी ने उन्नीस २ – वर्ष अभिषिक्त होने पर वर्षा काल ३ – के उपयोग के लिए यह [ सुप्रिया ] गुफा ४ – सुन्दर खलतिक पर्वत पर [ आजीविकों को ] दिया टिप्पणी अशोक के इन गुहा अभिलेखों में आजीविकों को निवास के लिए गुफा दान दिये जाने के उल्लेख है । अशोक ने अपने सातवें स्तम्भलेख में आजीविक सम्प्रदाय का उल्लेख निर्ग्रन्थों और ब्राह्मणों के साथ किया और उनके लिए धर्म-महामात्र नियुक्त करने की बात कही है। परन्तु इससे किसी धर्म के प्रति किसी प्रकार का कोई पक्षपात प्रकट नहीं होता। यद्यपि अशोक के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उसकी निष्ठा बौद्ध-धर्म के प्रति थी। यह उसके धर्म-शासनों से भी प्रकट होता है; फिर भी उसने बौद्ध भिक्षुओं के लिए किसी गुफा का निर्माण नहीं करवाया। अशोक और उसके पौत्र दशरथ ने आजीविकों के प्रति ही यह उदारता क्यों दिखायी? यह प्रश्न विचारणीय अवश्य है। आजीवक-सम्प्रदाय के संस्थापक मक्खलि ( मंखलि ) गोशालि माने जाते हैं। इस सम्प्रदाय का विकास भगवान् बुद्ध के समय या उससे कुछ पहले हुआ था। परन्तु इसका उल्लेख मौर्यकाल में ही मिलता है और उसके सम्बन्ध की जानकारी बौद्ध-ग्रंथों से होती है। उन ग्रन्थों में इसकी चर्चा प्रसंगवश ही हुई है। पतंजलि के महाभाष्य से प्रकट होता है कि आजीवक लोग भाग्यवादी थे और उनका किसी प्रकार के कारण एवं परिणाम में विश्वास नहीं था। इनके सम्बन्ध में जो कुछ भी जानकारी अब तक उपलब्ध है, उसे ए० एल० बैशम ने अपनी पुस्तक ‘आजीविकाज’१ में संकलित किया है। १History and Doctrines Of The Ajivikas : A Vanished Indian Religion — A. L. Basham. अशोक का सातवाँ स्तम्भलेख

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निग्लीवा स्तम्भलेख

भूमिका निग्लीवा स्तम्भलेख नेपाल की तराई में कपिलवस्तु के उत्तर-पूर्व में स्थित है। निगाली सागर स्तम्भलेख को लघु स्तम्भलेख की श्रेणी में रखा गया है। यहाँ की यात्रा स्वयं सम्राट अशोक ने की थी। इसमें पूर्व बुद्ध ‘कनकमुनि’ का विवरण मिलता है। संक्षिप्त परिचय नाम – निग्लीवा स्तम्भलेख; निगालीसागर लघु स्तम्भलेख ( Nigali Sagar Minor Rock Edict ) स्थान – निगाली सागर, नेपाल की तराई। भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी विषय – कनक मुनि का उल्लेख, पूर्व-निर्मित स्तूप का संवर्धन और स्वयं अशोक द्वारा यहाँ आकर इस स्थान के वंदन का विवरण सुरक्षित है। निग्लीवा स्तम्भलेख  : मूलपाठ १ – देवानंपियेन पियदसिन लाज़िम चोदस-वसाभिसितेन २ – बुधस कोनासमुनस थुबे दुतियं वढिते [ । ] ३ – [ वीसति व ]१ साभिसितेन च अतन आगाच महीयते ४ – [ सिलो थमे च उस ] पापिते [ । ]२ १ब्यूह्लर के द्वारा मिटे हुए इस रिक्त की पूर्ति। २रुम्मिनदेई स्तम्भलेख के आधार पर सम्भावित पूर्ति। हिन्दी रूपान्तरण १ – चौदह वर्षों से अभिषिक्त देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने २ -बुद्ध कनकमुनि का स्तूप दूना बढ़ाया ( सम्वर्धन कराकर दूना करा दिया )। ३ – [ और बीस वर्षों से ] अभिषिक्त ( राजा ने ) स्वयं आकर ( इस स्थान की ) पूजा की ४ – ( और शिला-स्तम्भ ) स्थापित करवाया। टिप्पणी निगालीसागर स्तम्भलेख भी रुम्मिनदेई स्तम्भलेख के समान ऐतिहासिक घटना का संकेत देता है। इससे ज्ञात होता है कि अशोक से पहले ही यहाँ पर कनकमुनि का एकस्तूप विद्यमान था। इस स्तूप का संवर्धन कराकर अशोक ने दूना करा दिया था। कनकमुनि के सम्बन्ध में यह बताया जाता है कि ऐसे बुद्ध जो निर्वाण के लिए ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं परन्तु उन्होंने एकान्तवास ही चुना और जनता में प्रचार-प्रसार नहीं किया। यदि यह मान लिया जाय तब यह सिद्ध होता है कि अशोक के समय तक पूर्व-बुद्धो की संकल्पना साकार हो चुकी थी। अशोक ने अपने अभिषेक के १४वें वर्ष इस स्तूप का विस्तार कराया था और २०वें वर्ष यहाँ आकर एक स्तम्भ लगवाया और पूजा की। यह सम्भव है कि जब सम्राट अशोक रुम्मिनदेई गये हों उसी समय यहाँ भी गये हों। रुम्मिनदेई स्तम्भलेख

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सारनाथ स्तम्भलेख

भूमिका सारनाथ स्तम्भलेख इस दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि एक तो महात्मा बुद्ध ने आपना पहला उपदेश ( धर्मचक्रप्रवर्तन ) यहीं पर दिया था। दूसरे; इसमें सम्राट अशोक ने संघभेद को रोकने के लिए आदेश दिया है। सारनाथ को प्रचीनकाल में मृगदाव और ऋषिपत्तन भी कहते थे। सारनाथ स्तम्भलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- सारनाथ स्तम्भलेख, सारनाथ लघु स्तम्भलेख ( Sarnath Minor Rock Edict ) स्थान :- सारनाथ, वाराणसी, उत्तर प्रदेश भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी विषय :- भिक्षु और भिक्षुणियों को आदेश, संघ की रक्षा। सारनाथ स्तम्भलेख : मूल-पाठ १ – देवा [ नंपिये ] २ – ए ळ ३ – पाट [ लि पु त ] [ न स कि ] ये केन पि संघे भेतवे ( । ) ए चुं खो ४ – भिखू वा भिखुनि वा संघं भाखति से ओदातानि दुसानि सनंधापयि या आनावाससि ५ – आवासयिये ( । ) हेवं इयं सासने भिखु-संघसि च भिखुनि-संघसि च विनपयितविये ( । ) ६ – हेवं देवानंपिये आहा ( । ) हेदिसा च इका लिपी तुफाकंतिकं हुवा ति संल्लनसि निखिता ( । ) ७ – इकं च लिपि हेदिसमेव उपासकानंतिकं निखिपाथ ( । ) ते पि च उपासका अनु-पोसथं यावु ८ – एतमेव सासनं विस्वंसयितवे ( । ) अनु-पोसथं च धुवाये इकिके महामाते पोसथाये ९ – याति एतमेव सासनं विस्वंसयितवे आजानितवे च ( । ) आवते च तुफाकं आहाले १० – सवत विवासयाथ तुफे एतेन वियंजनेन ( । ) हेमेव सवेसु कोट-विषवेतु एतेन ११ – वियंजनेन विवासापायाथा ( ॥ )१ १ यह ज्ञापन पाटलिपुत्र के महामात्र को मुख्य रुप से सम्बोधित है परन्तु इसका उपदेश भिक्षु व भिक्षुणी; उपासक व उपासिकाओं; अधिकारियों व जनता को भी दिया गया है। यदि यह कौशाम्बी के महामात्र को आदेशित होता तो पाटलिपुत्र की संगीति का उल्लेख इसमें अवश्य हुआ होता। संस्कृत रूपान्तरण देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा आज्ञापयति ( पाटलिपुत्रे महामात्राः ते मया संघः समग्रः कृतः ) पाटलिपुत्रे तथाऽन्यत्र वा न येन केनापि संघो भक्तव्यः। यः तु खलु भिक्षुः वा भिक्षुणी वा संघं भनक्ति सः अवदाताणि दूष्याणि संनिधाप्याऽनावासमावासयितव्यः। एवं इदं शासनं भिक्षु संघे च भिक्षुणी संघे च विज्ञापयितव्यम्। एवं देवानां प्रिय आह। ईदशी चैका लिपिः युष्मदन्तिके भवत्विति संसरणे निक्षिप्ता एका च लिपि इदशीमेव उपासकान्तिके निक्षिप्तः। तेऽपि च। उपासका अनुपोषधं यान्तु एतदेव शासनं विश्वासयितुम अनुपोष्धं च ध्रुवायामेको महामात्रः पोषधाय याति एतदेव शासनं विश्वासयितुम आज्ञापयितुं च। यावच्च युष्माकं आहारः सर्वत्र विवासयत यूयं एतेन व्यञ्जनेन एवमेव सर्वेषु कोष्ठविषयेष्वेतेन व्यञ्जनेन विवासयत। हिन्दी अर्थान्तर १ – देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा आज्ञा देते हैं। २ – जो पाटलिपुत्र के महामात्र हैं उनके द्वारा संघ को संगठित किया गया है। ३ – पाटलिपुत्र तथा अन्य नगरों में ऐसा करना चाहिए जिससे किसी के द्वारा संघ भेद न हो सके। जो भी कोई ४ – भिक्षु या भिक्षुणी संघ में भेद उत्पन्न करेगा उसे श्वेत वस्त्र धारण कराकर एकान्त स्थान में ५ – रखा जाएगा। यह आज्ञा भिक्षु संघ तथा भिक्षुणी संघ को बता देना चाहिए। ६ – इस प्रकार देवताओं के प्रिय ने कहा। इस प्रकार का एक लेख आप लोगों के समीप इकट्ठा होने के स्थान पर होना चाहिए। ७ – और इसी प्रकार का एक लेख उपासकों ( गृहस्थों ) के पास रखें। वे उपासक भी प्रत्येक उपवास के दिन आवें । ८ – इस शासन में विश्वास करें। उपवास के दिन निश्चय ही प्रत्येक महामात्र उपवास के लिए ९- आयेगा। इस आज्ञापन में विश्वास करने एवं इसे अच्छी तरह जानने के लिए और जितना आप लोगों का आहार कार्यक्षेत्र है। १० – सर्वत्र राजपुरुषों को भेजिए इस शासन का अक्षरानुसार पालन करने के लिए। इसी प्रकार सभी कोटों तथा विषयों में इस शासन के ११ – अक्षरानुसार अधिकारियों को भेजिये। टिप्पणी सारनाथ स्तम्भलेख पाटलिपुत्र के महामात्र को निर्देशित या आदेशित करता है कि संघभेद न होने दिया जाय। साथ ही जो कोई भिक्षु या भिक्षुणी संघभेद का कारण बने उसे दण्ड दिया जाय। यह दण्ड होगा कि उसे श्वेत वस्त्र पहनाकर एकांतवास दिया जाय। इस प्रकार अशोक द्वारा बौद्ध संघ में उठ रहे विवादों और विघनात्मक शक्तियों को नियंत्रित करने का प्रयास का साक्ष्य यह अभिलेख है। रुम्मिनदेई स्तम्भलेख

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रुम्मिनदेई स्तम्भलेख

भूमिका रुम्मिनदेई स्तम्भलेख अशोक द्वारा स्थापित स्तम्भलेखों में से ‘लघु स्तम्भलेख’ ( minor pillar-edict ) श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है। यह हिमालय के तराई क्षेत्र में पाया गया है अतः इसके साथ-साथ निगालीसागर लघु स्तम्भलेख को कभी-कभी ‘तराई स्तम्भलेख’ भी कह दिया जाता है। इस अभिलेख से कई बातों की सूचना मिलती है; यथा – यह स्थल गौतमबुद्ध की जन्मस्थली है, स्वयं सम्राट अशोक यहाँ पर आये थे इत्यादि। रुम्मिनदेई स्तम्भलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- रुम्मिनदेई स्तम्भलेख या रुम्मिनदेई लघु स्तम्भलेख ( Rummindei Minor Pillar-Edict )।  इसको लुम्बिनी स्तम्भलेख और पडेरिया स्तम्भलेख भी कहा जाता है। स्थान :- पडेरिया या परेरिया के निकट रुम्मिनदेई मन्दिर, नेपाल तराई  ( उत्तर प्रदेश के नौतनवा रेलवे स्टेशन से कुछ दूरी पर उत्तर में स्थित है। )। भाषा :- प्राकृत। लिपि :- ब्राह्मी। समय :- अशोक के राज्याभिषेक का २०वाँ वर्ष लगभग २४९ ई०पू० विषय :- अशोक द्वारा बुद्ध के जन्मस्थान की यात्रा के स्मारक में स्तम्भ स्थापना और वहाँ के आठवाँ भाग मुक्त करना। रुम्मिनदेई स्तम्भलेख : मूलपाठ १ – देवानंपियेन पियदसिन लाजिन वीसति-वसाभिसितेन २ – अतन आगाच महीयिते हिद बुधे जाते सक्य-मुनी ति [ । ] ३ – सिला-विगड-भीचा१ कालापित सिला-थमे ( -थभे ) च उसपापिते [ । ] ४ – हिंद भगवं२ जाते ति लुंमिनि-गामे उबलिके कटे ५ – अठ-भागिये च [ ॥ ] १कारपेण्टर तथा हुल्श का पाठ : सिला विगडभी चा = ‘एक अश्व धारण करने वाला प्रस्तर।’ परन्तु यह पाठ उचित नहीं लगता। २भगवं = भगवान; जिसमें ईश्वरीय गुण, धर्म, यश, श्री आदि हों। संस्कृत छाया देवानां प्रियेण प्रियदर्शिना राज्ञा विशतिवर्षाभिषिक्तेन आत्मनागत्य महीयितमिह बुद्धो जातः शाक्यमुनिरिति। शिला विकृतभित्तिश्च कारिता शिला स्तम्भश्चोत्थापित इह भगवज्जात इति लुम्बिनी ग्रामः उद्वलिकः कृतोऽष्टभागी ची। हिन्दी अनुवाद १ – राज्याभिषेक के बीस वर्ष बाद देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा २ – यहाँ स्वयं आकर पूजा की गयी क्योंकि यहीं बुद्ध शाक्यमुनि जन्म लिये थे। ३ – यहाँ पत्थर की दृढ़ दीवार बनवायी गयी एवं शिला-स्तम्भ खड़ा किया गया ४ – क्योंकि यहाँ भगवान बुद्ध उत्पन्न हुए थे। अतएव लुम्बिनी ग्राम को करमुक्त किया गया ५ – और अष्टभागो ( अष्टभागिक ) बनाया गया। टिप्पणी यह लघु स्तम्भलेख अन्य सभी लेखों से सर्वथा भिन्न है। इसमें सम्राट अशोक ने किसी भी रूप में धर्म का प्रतिपादन न कर एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य का उल्लेख किया है इससे ज्ञात होता है कि जिस क्षेत्र में यह स्तम्भ स्थापित है, वह क्षेत्र लुम्बिनी है। यहाँ पर गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था। यहाँ पर सम्राट अशोक ने अपने राज्याभिषेक के बीसवें वर्ष में आकर पूजा की थी और वहाँ भगवान् बुद्ध की जन्मस्थली को पत्थर की विशाल दीवार से घिरवाया था। अशोक ने यहाँ पर एक स्तम्भ स्थापित किया था। यह एकमात्र आर्थिक अभिलेख है। क्योंकि अशोक ने लुम्बिनी ग्राम को करमुक्त ( उद्दबलिक ) कर दिया था और शस्य-कर घटाकर अष्टमांश ( १/८ ) कर दिया।

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